गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी का मूल्यांकन कैसे हो?
उत्तराखंड के यशस्वी गायक नरेंद्र सिंह नेगी के 75 साल पूरे होने और गायकी के 50 साल पूरे होने पर भव्य आयोजन की अपेक्षा थी । वह पूरी हुई। नेगी जी जैसे गायक और जनचेतना जगाने वाले गायक के लिए जो जनभावना बरसी, उसका औचित्य है। नेगी जी के गीत लोगों के मन में बसे हैं।
पर ऐसे समय में अति उत्साह और भावुकता में कुछ ऐसी बातें कह दी जाती हैं जिनसे बचना चाहिए। आपकी अति भावुकता तथ्यों को बिगाड़ देती है और नई पीढी को सही जानकारी नहीं मिलती। इस बात को डॉक्टर अजय ढोंडियाल ने भी रेखांकित किया है।
1- यह कहना ठीक नहीं कि उत्तराखंड में नरेंद्र सिंह नेगी से गीतों की शुरुआत हुई। नेगी जी के गीतों के सामने आने से पहले भी उत्तराखंड में बहुत अद्धभुत गीत बनते रहे हैं। बेडू पाको बार मासा बोल बोराणी, कन बजी मूरूली प्यारी घूघूती जैली, रात घनाघोर मांजी, कन होली मेरी प्यारी वीरा, स्वर्ग तारा जुनैली राता , फ्यूलाड़ी त्वे देखिकी हाय तेरी रुमाला , सतपुली का सैणा कई गीत हैं जिन्हें हमने तब सुना जब केवल रेडियो ही था या सांस्स्कृतिक मंच। नेगी जी के गीत अस्सी के दशक में आए। उससे पहले कई अनमोल गीत हमारी धरोहर है। हां नेगी जी ने आकर गीतों की ऐसी बरसात की कि हम धन्य हो गए।
2- यह कहना कि नेगी जी के गीत के कारण पंडित नारायण दत्त तिवारी की सत्ता गई, हास्यास्पद है। सच्चाई यह है कि पंडित नारायण दत्त तिवारी ने उत्तर प्रदेश की तरह उत्तराखण्ड में भी इस बात का इंतजाम कर दिया था कि कांग्रेस दोबारा सत्ता में न आए क्योंकि उन्हें हाइकमान के मिजाज का पता हो गया था। मैने उस दौर में तिवारी की एक चुनावी सभा सुनी थी। तिवारी जी ने 35 मिनट के भाषण में 15 मिनट फ्रांस के कवियों की कविताएं सुनाई थी । चुनावी भाषण में कांग्रेसी प्रत्याशी को जिताने के लिए कोई अपील नहीं थी। लाल बत्तियां इस तरह बंटी थी कि लोग कांग्रेस को हराने का मन बना बैठे थे। बेशक गीत चर्चित था पर सत्ता उस गीत से नहीं डगमगाई। न हीं डॉक्टर निशंक पर लिखे गीत से उनका कुछ बिगडा। बल्कि आगे डॉक्टर निशंक की फिल्म में नेगी जी ने गीत गाए।
3 – अगर आप यह कहते हैं कि नौ छमी नारायण परिवर्तनकारी चेतना जगाने वाला गीत था तो आप किसी और के साथ नहीं, नेगी जी के साथ अन्याय करते हैं। यह एक टारगेट गीत था। बिल्कुल उसी तरह जैसे ड़ॉक्टर निशंक के ऊपर लिखा गया गीत। वास्तव में नेगी जी के सामाजिक चेतना जगाते अगर कोई गीत है तो उत्तराखंड आंदोलन के गीत हैं और ना काटा त्यौ डाल्यों जैसे पर्यावरण के लिए चेतना जगाते गीत हैं। टिहरी डुबण लग्यू च के गीत में संदेश भी था , माटी से जुड़ी भावना भी।
4 – यह कहना ठीक नहीं है कि नेगी जी पहले गायक है जो विश्व स्तर पर उत्तराखंड के गीतों को ले गए हैं। 1951 में बाबू गोपाल गोस्वामी, मोहन उप्रेती और बजमोहन शाह ने जिस बेडो पाको बार मासा गीत को संवारा सजाया और गाया वह ब्रिटिश की लंदन लाइब्रेरी में है। इस गीत को अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकारा गया। मशकबीन पर यह गीत दुनिया में छा गया। पहले गीत संगीत के प्रचार प्रसार की सुविधा नहीं थी। तब भी पुराने लोगों ने सीमित संसाधनों में अद्भुत ढंग से उत्तराखंड के गीतों को देश दुनिया में पहुंचाया। आज तो हर कोई न्यूजीलैंड ,लंदन , पेरिस चला जाता है। उत्तराखंड के लोक संगीत की थाह पर कई फिल्मी गीत बने। जब पंडित रामलाल ने गीत गाया पत्थरों ने के लिए राग दुर्गा में टाइटल गीत बनाया तब तो विवाद भी हो गया था कि क्या यह गीत बेडू पाको से लिया गया है। आजा रे परदेशी की धुन सलिल दा को इन पहाडों में भी मिली थी।
5- उत्तराखंड की सैन्य परंपरा के लिए मन में आदर है। इसी सैन्य परंपरा के लिए विश्व युद्ध का बोल बोराणी , सात समोंदर पार च जाण ब्वे , हम कुशल छांवा मांजी दगड्यों दगड़ी, बिमुली प्यारी तेरी मुखड़ी दिल मां बसी च बांग्लादेश काला डांडा लडे लगी चा , कन बजी मूरूली जैसे गीत हमारी विरासत हैं। विश्व युद्ध चीन युद्ध पाक युद्ध बांग्लादेश में मुक्ति सेना का संघर्ष सैन्य परंपरा के गीत बनते रहे हैं। ये गीत नहीं आसमान से उतरे तारे हैं। ये सब वो गीत है जो उस दौर के हैं जब नेगीजी छात्र जीवन में रहे होंगे। इसलिए जब हम कहते हैं कि सब कुछ नेगीजी से शुरू हुआ । तो हम अपने इन गीतकारों गायको का अपमान करते हैं। इन्हें याद न करें लेकिन ऐसा न कहें कि हम अपने विगत परंपरा और यश गौरव को भूल जाए।
6- बहुत अनुचित है ये कहना कि नेगीजी से गढवाली शुरू हुई और उन पर ही खत्म हो जाएगी। कई बार तो मुझे लगता है कि उत्तराखंड में गीत संगीत से भी ज्यादा अगर लोकभाषा के लिए काम हुआ तो वह पहाड़ी रंगमंचों और लोक साहित्य में हुआ। दो सौ साल पहले से गढवाली कुमाऊनी रंगमंचो से एक बड़ी समद्ध परंपरा रही है।लेकिन हमने केवल गाने वालों को ही नायक माना। मैं मराठी और बंगाली पत्रकारों से अक्सर कहा करता था कि हमारे यहां भी जो नाटक लिखे गए हैं वो बहुत श्रेष्ठ हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस पर प्रकाश नहीं पड़ा। हमारे यहां कैसे अद्भुत लोग रहे हैं। किस किस के नाम गिनाए। डर रहता है कि कोई श्रदेय नाम छूट ना जाए। परंपरा वाचस्पति थपलियाल गुणानंद पथिक अबोध बंधु बहुगुणा कन्हैया लाल डंडरियाल राजेंद्र धस्माना और उससे आगे चली आती है।
7 – नरेंद्र सिंह नेगीजी एक मामले में बहुत भाग्यवान रहे। उनका दौर ऐसे समय का था जब उत्तराखंड में गीत संगीत का ढर्रा बिग़डने लगा था। ऐसे समय में उनके गीत आए तो सब मंत्रमुग्ध हो गए। एचएमवी के बजाय सस्ते कैसेट का जमाना आया तो लोगों ने हाथों हाथ कैसेट लेनी शुरु कर दी। यह सब गोपाल बाबू गोस्वामी, केशव अनुरागी जीत सिंह नेगी के समय नहीं था। राहीजी अपने मस्तमोला होने के कारण प्रचार प्रसार पर इतना नहीं गए। वरना अपनी विलक्षण प्रतिभा पर आधी दुनिया घूम गए होते। राहीजी जितने प्रतिभावान थे उतना प्रबंधन में कुशल नहीं थे। हां प्रीतम भर्तवाणजी ने अपनी प्रतिभा लगन और साधना के बदौलत उत्तराखंड के लोग संगीत को देश दुनिया में पहुंचाया। उन्होंने भी कला प्रबंधन नेगीजी की तरह कुशलता से किया। इसकी जरूरत भी है।
नेगीजी ने अपने कार्यक्रम भी बहुत व्यवस्थित किए। मंचो में गीत संगीत का चयन भी उनका लंबे समय तक स्तरीय रहा। नेगीजी के समय ही यूट्यूब भी आ गया। सोचिए अगर यूट्यूब कबोतरी देवी वचनी देवी बाबू गोपाल गोस्वामी और केशव अनुरागी के समय होता तो उत्तराखंड की लोक कला किस स्तर पर विश्व भर में पहुंची होती।
8 नेगीजी इस मामले में भी भाग्यशाली रहे कि कला संस्कृति पर लिखने कहने वालों ने उन्हें भरपूर प्रमुखता दी। अकेले नेगीजी पर कई किताबें आई है। नेगीजी की प्रशंसा उपलब्धियों पर जितना कहा जा सकता था कहा गया है। उनके जन्मदिन या अलग अलग अवसरों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहे हैं। नेगीजी पर पत्र पत्रकाओं में यथोचित सम्मान के साथ लेखन हुआ। लेकिन आपने गौर किया मोहन उप्रेती बाबू गोपाल गोस्वामी कबोतरी देवी चंद्र सिंह राही या केशव अनुरागी पर स्तरीय छोडिए सामान्य किताब भी नजर नहीं आती। उत्तराखंड के बौद्धिक समाज के इस चलन ने बहुत विलक्षण प्रतिभाओं को नजरअंदाज किया। उन्हें लगा कि नेगीजी पर लिखकर ही उन्हें प्रचार मिलेगा। दूसरी विलक्षण प्रतिभाओं को भरपूर नजरअंदाज किया गया। नेगीजी इस मायने में भी भाग्यशाली रहे कि सूचना विभाग में अफसर रहे। उनके लिए जीवन यापन की वो कठिनाइयां नहीं आईं जो दूसरे कई कलाकारों को झेलनी पड़ी ।
9 – कला अपनी अपनी तरह से निखरती है। हर किसी की अलग अलग शैली होती है। कला के इन पुजारियों के साथ खेमे नहीं बनने चाहिए। ये कलाकार सबके हैं। इन सबकी कला में हमारे हिमालय की प्रतिध्वनि है। सबका अपना अपना महत्व है। और जरूरी नहीं कि गीत संगीत के इन बड़े कलाकारों के हर निर्णय पर समाज की सहमति हो। प्रीतम भर्तवाणजी जब चुनाव लड़ना चाहते थे तो उन्हें पर्याप्त वोट नहीं मिले। उसी जनता ने वोट नहीं दिया जो रातों उनके गीत जागर सुनती है। उनपर प्यार बरसाती है। नरेंद्र सिंह नेगी ने जब हरीश रावतजी के शासन की खुली प्रशंसा की या बाद में आप पार्टी की ओर हल्का झुकाव दिखाया तो नेगीदा कहने वाले कई पहाडी बंधुओं को यह ठीक नहीं लगा।
नेगीजी ने जब एनडी तिवारी या निशंक पर ही गीत लिखा तो इसे कई लोगो ने व्यवहारिक नहीं माना। क्योंकि उनकी गीतों की यह श्रखंला दो पर ही अटक गई। इसलिए जरूरी नहीं कि कला संस्कृति के ऊंचे शिखर पर बैठे किसी कलाकार के हर निर्णय पर सहमति हो। और ऐसे में असहमति का अर्थ यह नहीं कि उस कलाकार का अपमान है। कलाकार अगर सियासत में थोड़ा भी रुझान दिखा रहा हो तो उसे ऐसी कई चीजे झेलनी ही पड़ती है।
10 – नेगीजी की हीरक जयंती पर देहरादून में शानदार आयोजन हुआ। पूरे शहर से लोग आए। मंच पर वो लोग थे जो पात्रता रखते थे। मुख्यमंत्री भी आए मुख्य सचिव राधा रतूड़ी दून विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर सुरेखा डंगवाल भी। नेगी जी पर सुंदर किताब लिखने वाले रयाल जी भी। लेकिन कुछ अधूरा लगा। इस आयोजन में मंच पर एक कुर्सी उत्तराखंड की लोक गायिका रेखा धस्माना उनियाल के लिए भी होनी चाहिए थी। कैसे भूूले उन गीतों को जो नेगी जी और रेखा धस्माना ने दशकों तक साथ साथ गाए। एक दूसरे के बिना दोनों के गीत अधूरे हैं।
याद है आपको – नयू नयू ब्यो च मिठी मिठी छुई लगोला, जिदेरी घसेरी बोल्यू मान, सर रर ऐगे बरखा ऋतु एगे, मुलमुल कैकू हसणी छे तू, मेरु बाजो रंग रंग दे , स्याली है रंगीली स्याली ,तन की गोरी मन की काली ।