छठ पूजा में जातिवादी वामपंथी दुष्प्रचार से बचिये
छठ के बारे में दुष्प्रचार से बचें !
छठ के संबंध में कुछ बातों का ध्यान रखिये ताकि कोई आपके बरगला नहीं सके। विशेषकर मुँह पर पाउडर पोत के बकबक करने वाले टीवी एंकर आपको भ्रम में न डाल सकें।
1. हिन्दुओं का प्रत्येक पर्व लोक आस्था का पर्व है, केवल छठ ही नहीं। होली, दीपावली, दशहरा जैसे लोक आस्था के महापर्वों के सामने छठ की व्यापकता बहुत ही कम है।
2. वैदिक ऋषियों की ही देन है छठ। यदि कोई आपको कहे कि यह ब्राह्मणों की देन नहीं, बल्कि लोक -मानस की उपज है तो आप जोर से खिलखिला कर हँस दीजिये।
स्कंद की षण्मातृकाओं में से एक हैं षष्ठी (छठी) मैया। स्कंद का एक नाम कार्त्तिकेय है और यह कार्त्तिक मास उन्हीं के नाम पर है। षण्मातृकाओं में से छठी माता हैं। इनका नाम देवसेना है। संतान जन्म होने के बाद छठे दिन छठियार में भी इन्हीं की पूजा होती है। षष्ठी देवी संतान के लिए अत्यंत कल्याणकारी हैं और कुष्ठ जैसे दुःसाध्य रोगों का निवारण करती हैं। ये सूर्य की शक्ति की एक अंश हैं जो कार्त्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि के दिन सूर्यास्त के समय और सप्तमी के सूर्योदय के समय तक विशेष रूप से प्रस्फुटित रहती हैं। यह सब ज्ञान और विधान ब्राह्मण ऋषियों की देन है। शाकद्वीपीय अर्थात् सकलदीपी ब्राह्मणों से पहली बार यह विधि श्रीकृष्ण-पुत्र साम्ब ने सीखी थी। श्रीकृष्ण ने अपनी संतान साम्ब के जीवन की रक्षा के लिए उन्हें निमंत्रित कर के उसे यह सिखवाया था।
हमारे ब्राह्मणों के विरुद्ध विषवमन करने वाले वामपंथी लोगों ने हमारी संस्कृति और सभ्यता को तोड़ने के लिए यह दुष्प्रचार शुरू किया कि यह ब्राह्मणों द्वारा नहीं दिया गया है।
3. छठ व्रत में बिचौलिए ही नहीं, कईचौलियो की जरूरत पड़ती है यानि अकेले कर पाना अत्यंत दुष्कर है। इसका कर्मकांड बहुत ही विस्तार लिए चार दिनों तक फैला हुआ है। बहुत सारे लोग रहें तभी कोई व्रती इसे सही ढंग और सहूलियत से कर सकता है। यह कोई आसान पूजा नहीं है जिसे बस एक पुरोहित बुलाकर झट से निपटा दिया।
4. डूबते सूर्य को अर्घ्य देना तो हिन्दुओं का अनिवार्य दैनिक कर्म है। दैनिक गायत्री संध्या-आह्निक में प्रतिदिन डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। त्रिसंध्या जो नहीं करता वह व्रात्य है यानि धर्म से पतित। और त्रिसंध्या में उदय होते, अस्त होते सूर्य के अतिरिक्त मध्याह्म में भी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
5. किसी भी कर्मकाण्ड और पूजा विधान में पुजारी की आवश्यकता नहीं है, यदि आप उसे स्वयं ही कर पा रहे हैं। यज्ञ एवं अनन्त प्रकार के जो विधान ब्राह्मण ऋषियों ने दिए हैं उन सबमें से लगभग सभी को व्यक्ति द्वारा स्वयं ही करने का विधान है। जो स्वयं कर पाने में असक्षम है उन्हें ही मदद के लिए पुरोहितों की व्यवस्था है। पर यह स्पष्ट बताया गया है कि स्वयं करने से ही अधिकतम लाभ है।
6. का दो छठ में जटिल मंत्रों की आवश्यकता नहीं!!– केवल जटिल भोजपुरी गीतों की आवश्यकता है जिनका अर्थ अधिकांश लोग समझते ही नहीं !! आज तक शायद ही किसी ने छठ में ‘बहँगी’ का उपयोग देखा हो पर ‘कॉंच ही बाँस के बहँगिया…’ गाए बिना छठ सम्पन्न हो ही नहीं सकता !!…….. ये मंत्र भोजपुरी में हैं।
मैं यह सब इसलिये लिख रहा हूँ कि छठ में भाव – विभोर होते हुए हमें कोई बरगला कर हानिकारक एवं अंट- शंट बातें न सिखा दे !!
✍🏻यशेन्द्र प्रसाद
छठ में पंडे-पुरोहित की जरुरत नहीं होती है। बहुत सही बात है। अब ये बताइये कि कुछ ही दिन पहले जो भाई दूज (भातृ-द्वितीय या भरदुतिया) किया था, या करते आ रहे हैं, उसमें कौन से पुरोहित बुलाये जाते हैं? मंदिरों के आयोजन छोड़ दें तो नवरात्री पर घरों में कौन से पंडित बुलाये जाते हैं? मंदिरों या सार्वजनिक स्थलों पर किसी का एकाधिकार नहीं होता इसलिए वहाँ यजमान के साथ एक पुरोहित बैठता है। ऐसे ही दीपावली पर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को छोड़ दें, तो कितने घरों में पंडित पूजा के लिए बुलाये जाते हैं? कोई अनुष्ठान करने के लिए पंडित रक्षाबंधन पर नहीं बुलाये जाते, होलिका दहन या होली पर भी नहीं बुलाये जाते। हिन्दुओं के अधिकांश आयोजन तो पंडितों के बिना ही होते हैं।
विवाह जैसे आयोजनों में भी देखेंगे तो पाएंगे कि मंत्रपाठ का जिम्मा भले पंडित का हो लेकिन सारे विधि-विधानों का जिम्मा तो किसी नाई और किसी घर की ही महिला के हाथ में होते हैं। वट-सावित्री अभी-अभी बीती है, करवाचौथ को भी अधिक समय नहीं हुआ। किसी में पंडित को बुलाकर पूजा करवाना याद आता है क्या? हिन्दुओं के तमाम आयोजन पंडितों के बिना ही होते हैं। विधियों को शास्त्रोक्त और शुद्ध रखने के लिए कभी-कभार पंडितों को बुला लिया जाए ऐसा हो सकता है। आयोजन अधिक वृहत हो, तो घर के लोग आने वाले अतिथियों-आगंतुकों को अधिक समय दे सकें इसके लिए पंडितों को बुलाया जाता है।
ये बिलकुल वैसा ही है जैसे आपके विवाह के आयोजनों में होने लगा है। थोड़े समय पहले तक गाँव में कोई टेंट हाउस तो होता नहीं था। पूरी बरात के लिए खाना पकाना हो तो अड़ोस-पड़ोस के घरों से बर्तन जुटते थे। शहर पलायन करके आ गए लोगों की इतनी जानपहचान ही नहीं होती कि बर्तन जुटाए जा सकें, इसलिए किराये पर बर्तन आने लगे। पहले लोग मानते थे की लड़की के विवाह की सूचना ही आमंत्रण है। बिना बुलाये ही लोग कुर्सियां सजाने से लेकर जूठी पत्तलें उठाने तक आ जुटते थे। आज संयुक्त परिवार तक तो है नहीं, चार लोगों के घर में उतने लोग इकठ्ठा ही नहीं होंगे इसलिए किसी कैटरर को बुलाया जाता है। वो खाना परोसने-खिलाने में जुटा होता है तो घर के लोग मेहमानों का स्वागत कर पाते हैं।
अब आप कहेंगे, नहीं-नहीं जी, हमारा तो मतलब था कि आडम्बर नहीं होता जी! बड़ी सीधी प्रक्रिया है जी! कोई भी कर सकता है जी! तो भइये ऐसा है कि इतना झूठ तो ना कहें! जैसे बिना नहाये हर कोई दूसरी किसी तथाकथित विधि-विधान वाली पूजा का सामान नहीं छू सकता, उससे थोड़ी बढ़ी-चढ़ी पाबन्दी तो छठ के लिए आये सामान पर लागू होती है। घर के जिस हिस्से में रखा होता है, वहाँ जाना बच्चों के लिए भी प्रतिबंधित होता है। जैसे कठिन उपवास छठ के लिए होते हैं, वैसा ही कठिन उपवास तो जिउतिया, वट-सावित्री जैसी बिना पंडित वाले व्रतों में भी होता है न?
पंडित जी वाली पूजा में जैसे दूब चाहिए, शंख चाहिए, वैसे ही यहाँ गुड़ के बदले चीनी डालकर काम तो चलाते नहीं। लौकी-कद्दू के बदले आलू-गोभी बनाने लगे हैं क्या? सूप और दौरी-छिट्टा, डगरा जैसे बांस के बने के बदले प्लास्टिक वाला प्रयोग में लाने लगे हैं? मुहूर्त अगर पंडित जी वाली पूजा में होता है तो छठ में भी सूर्योदय से पहले घाट पर जाने के बदले आठ बजे सोकर उठने के बाद दस बजे ऊँघते हुए घाट पर नहीं जाते हैं। सूर्यास्त के पहले पहुँचने के बदले आठ बजे ऑफिस का काम निपटाकर या दुकान बढ़ाने के बाद नहीं पहुँचते। मुहूर्त का ध्यान भी रखते हैं।
ज़ात-पांत नहीं पूछी जाती का बेकार का राग भी मत अलापिये। होली में आपपर कौन रंग डालेगा, कौन नहीं, ये अगर आप ज़ात पूछकर तय करते थे तो आप घनघोर असामाजिक तत्व हैं। बल्कि ऐसा करते आपको छोड़ देने के कारण सिर्फ आप नहीं आपका पूरा खानदान असामाजिक है। पंडाल लगाकर पूजा करना बहुत बाद में आई व्यवस्था है। इसलिए अगर सरस्वती पूजा, या दुर्गा पूजा जैसे अवसरों पर आपने ज़ात पूछकर किसी को पंडाल में आने से रोका होता तो आप ऐसे ही एससी/एसटी एक्ट में जेल में चक्की पीसिंग एंड पीसिंग कर रहे होते। तो वहाँ भी ज़ात-पांत तो होती नहीं।
छठ के बारे में बताना ही है तो ये बताइये कि जैसे हिन्दुओं के सभी त्यौहार सामाजिक रूप से मनाये जाते हैं, ये भी वैसा ही है। जैसे रावण दहन या होलिका दहन के लिए समाज इकठ्ठा होता है, रामलीला के आयोजनों में सभी आते हैं, वैसे ही यहाँ भी सभी सम्मिलित होते हैं। जैसे हिन्दुओं का कोई भी त्यौहार, कोई भी मंदिर, समाज के सभी वर्गों के लिए आय सुनिश्चित करने का साधन है, चाहे वो हलवाई की हो, फूल बेचने वाले की हो, बिलकुल वैसे ही यहाँ भी सूप बनाने वाले से लेकर कृषक तक सभी वर्गों के पास त्यौहार पर खर्च करने को कोई अतिरिक्त आय हो, इसका ध्यान रखा जाता है।
बाकी जैसे दूसरे पर्व त्योहारों में आप ब्राह्मणों को कोसते हैं, उसे दक्षिणा क्यों नहीं मिलनी चाहिए, इसके कारण बताते हैं, बिलकुल वैसे ही छठ के बहाने भी ब्राह्मण को आय न हो, उसे कोसा जा सके, इसके बहाने निकाले जाते हैं। इसमें भी आधुनिक काल के हिन्दुओं के त्योहारों से समानता है, वो भी देख लीजिये।
✍🏻आनन्द कुमार