जयंती: शिक्षाशास्त्री,पत्रकार,सनातन शीर्ष महामना मदनमोहन मालवीय की नैतिकता थी हिमालय जैसी
25 दिसम्बर, महामना के पुण्य स्मरण का दिवस….
महामना मदन मोहन मालवीय जी का जन्मदिवस. जिन्होंने देश, सनातन, हिंदुत्व हेतु अविस्मरणीय कार्य किये. गंगा जी स्वच्छता अभियान की शुरूआत उनके ही हाथों से हुई थी.
चौरी-चौरा कांड में अंग्रेजों का थाना जलाने वाले भारतीयों का मुकदमा मालवीय जी ने ही लड़ा था. जिसमें उन्होंने करीब 150 निर्दोष भारतीयों को जेल, कालापानी, फांसी जैसी बड़ी सजा से बचाया. लेकिन इतिहास में उनके योगदान को भुला दिया गया.
BHU के संस्थापक महामना मालवीय जी को शत शत नमन…
25 दिसम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दुत्व के आराधक महामना मदनमोहन मालवीय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का नाम आते ही हिन्दुत्व के आराधक पंडित मदनमोहन मालवीय जी की तेजस्वी मूर्ति आँखों के सम्मुख आ जाती है। 25 दिसम्बर, 1861 को इनका जन्म हुआ था। इनके पिता पंडित ब्रजनाथ कथा, प्रवचन और पूजाकर्म से ही अपने परिवार का पालन करते थे।
प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर मालवीय जी ने संस्कृत तथा अंग्रेजी पढ़ी। निर्धनता के कारण इनकी माताजी ने अपने कंगन गिरवी रखकर इन्हें पढ़ाया। इन्हें यह बात बहुत कष्ट देती थी कि मुसलमान और ईसाई विद्यार्थी तो अपने धर्म के बारे में खूब जानते हैं; पर हिन्दू इस दिशा में कोरे रहते हैं।
मालवीय जी संस्कृत में एम.ए. करना चाहते थे; पर आर्थिक विपन्नता के कारण उन्हें अध्यापन करना पड़ा। उ.प्र. में कालाकांकर रियासत के नरेश इनसे बहुत प्रभावित थे। वे ‘हिन्दुस्थान’ नामक समाचार पत्र निकालते थे। उन्होंने मालवीय जी को बुलाकर इसका सम्पादक बना दिया। मालवीय जी इस शर्त पर तैयार हुए कि राजा साहब कभी शराब पीकर उनसे बात नहीं करेंगे। मालवीय जी के सम्पादन में पत्र की सारे भारत में ख्याति हो गयी।
पर एक दिन राजासाहब ने अपनी शर्त तोड़ दी। अतः सिद्धान्तनिष्ठ मालवीय जी ने त्यागपत्र दे दिया। राजासाहब ने उनसे क्षमा माँगी; पर मालवीय जी अडिग रहे। विदा के समय राजासाहब ने यह आग्रह किया कि वे कानून की पढ़ाई करें और इसका खर्च वे उठायेंगे। मालवीय जी ने यह मान लिया।
दैनिक हिन्दुस्थान छोड़ने के बाद भी उनकी पत्रकारिता में रुचि बनी रही। वे स्वतन्त्र रूप से कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। इंडियन यूनियन, भारत, अभ्युदय, सनातन धर्म, लीडर, हिन्दुस्तान टाइम्स….आदि हिन्दी व अंग्रेजी के कई समाचार पत्रों का सम्पादन भी उन्होंने किया।
उन्होंने कई समाचार पत्रों की स्थापना भी की। कानून की पढ़ाई पूरी कर वे वकालत करने लगे। इससे उन्होंने प्रचुर धन अर्जित किया। वे झूठे मुकदमे नहीं लेते थे तथा निर्धनों के मुकदमे निःशुल्क लड़ते थे। इससे थोड़े ही समय में ही उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गयी। वे कांग्रेस में भी बहुत सक्रिय थे।
हिन्दू धर्म पर जब भी कोई संकट आता, मालवीय जी तुरन्त वहाँ पहुँचते थे। हरिद्वार में जब अंग्रेजों ने हर की पौड़ी पर मुख्य धारा के बदले बाँध का जल छोड़ने का षड्यन्त्र रचा, तो मालवीय जी ने भारी आन्दोलन कर अंग्रेजों को झुका दिया। हर हिन्दू के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होंने हजारों हरिजन बन्धुओं को ॐ नमः शिवाय और गायत्री मन्त्र की दीक्षा दी। हिन्दी की सेवा और गोरक्षा में उनके प्राण बसते थे। उन्होंने लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द के साथ मिलकर ‘अखिल भारतीय हिन्दू महासभा’ की स्थापना भी की।
मालवीय जी के मन में लम्बे समय से एक हिन्दू विश्वविद्यालय बनाने की इच्छा थी। काशी नरेश से भूमि मिलते ही वे पूरे देश में घूमकर धन संग्रह करने लगे। उन्होंने हैदराबाद और रामपुर जैसी मुस्लिम रियासतों के नवाबों को भी नहीं छोड़ा। इसी से लोग उन्हें विश्व का अनुपम भिखारी कहते थेे।
अगस्त 1946 में जब मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही के नाम पर पूर्वोत्तर भारत में कत्लेआम किया, तो मालवीय जी रोग शय्या पर पड़े थे। वहाँ हिन्दू नारियों पर हुए अत्याचारों की बात सुनकर वे रो उठे। इसी अवस्था में 12 नवम्बर, 1946 को उनका देहान्त हुआ। शरीर छोड़ने से पूर्व उन्होंने अन्तिम संदेश के रूप में हिन्दुओं के नाम बहुत मार्मिक वक्तव्य दिया था।
1906 की बात है।
त्रिवेणी संगम पर कुंभ मेला लगा था। पंडित मालवीय पर धुन सवार थी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। मेले में मालवीय घूम-घूमकर लोगों को यही एक ही बात बता रहे थे। कैसे बीएचयू की स्थापना का उन्होंने पुनीत संकल्प लिया है। लोग उनकी बात सुनते जरूर मगर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। कुछ लोग अनसुनी कर चले जाते। मगर मालवीय की बातों का एक वृद्ध माता पर जादुई असर हुआ। माताजी नजदीक आईं और पोटली खोलकर एक पैसा मालवीय जी के हाथ में रख दिया। बोलीं-बेटा खर्च में से यही बचा है, ये लेकर रख लो। उस एक पैसे को हाथ में लेकर मालवीय बड़ी देर तक निहारते रहे, फिर उस एक पैसे के चंदे से उन्हें प्रेरणा मिली। यह प्रेरणा थी कि क्यों न चंदा जुटाकर वे विश्वविद्यालय की संकल्पना को धरातल पर उतारें। इसी विचार के दम पर 1300 एकड़ में एक ऐसे संस्थान की स्थापना की, जिसकी कीर्ति पताका आज भी फहरा रही है।
फिर मालवीय जी ने देशभर में चंदे के लिए तूफानी दौरा शुरू किया। पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक अथक दौड़-भाग कर महामना ने उस जमाने में एक करोड़ 64 लाख रुपये का चंदा जुटाया।
धनराशि की व्यवस्था हो गई। अब चिंता थी जमीन की। सोचा कि काशी नरेश से मदद लेते हैं। पहुंच गए घाट पर। गंगा स्नान का वक्त था। काशी नरेश डुबकियां लगाकर बाहर आए तो मालवीय ने जमीन मांग ली। हंसते हुए काशी नरेश बोले-जमीन तो दूंगा, मगर शर्त के साथ। शर्त है कि सूरज अस्त होने तक जितनी जमीन पैदल चलकर नाप लोगो, उतनी मिलेगी। मालवीय जी जिद्दी तो थे ही। मालवीय ने जमीन नापनी शुरू कर दी। तब जाकर पंडित मालवीय चार फरवरी 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखने में सफल हुए।
एक और दिलचस्प बात है कि जब मालवीय बीएचयू का सपना आंखों में लिए थे, उन दिनों एनी बेसेंट भी एक विश्विद्यालय की योजना पर काम कर रहीं थीं, उधर दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह भी काशी में शारदा विद्यापीठ की स्थापना में जुटे थे। इन तीन विश्वविद्यालयों की योजना परस्पर विरोधी थी। आखिरकार मालवीय ने दोनों लोगों से बातचीत कर बीएचयू की स्थापना में सहयोग के लिए राजी कर लिया।
नतीजतन बीएचयू सोसाइटी की 15 दिसम्बर 1911 को स्थापना हुई, जिसके महाराज दरभंगा अध्यक्ष, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रमुख बैरिस्टर सुंदरलाल सचिव, महाराज प्रभुनारायण सिंह, मालवीय और ऐनी बेसेंट सम्मानित सदस्य रहीं। तत्कालीन शिक्षामंत्री सर हारकोर्ट बटलर की पहल पर 1915 में केंद्रीय विधानसभा से हिंदू यूनिवर्सिटी ऐक्ट पारित हुआ, जिसे तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंज ने फौरन मंजूरी दी।
वसंत पंचमी के मौके पर 14 जनवरी 1916 को गंगातट के पश्चिम, रामनगर के समानांतर काशी नरेश से मिली जमीन पर बीएचयू का शिलान्यास हुआ। देश भर के आमो-खास और राजे-रजवाडों की मौजूदगी में हुए उस समारोह में गांधी जी भी विशेष आमंत्रण पर पधारे थे।
आज यह एशिया का सबसे बड़ा रिहायशी विश्वविद्यालय है। इसके दो परिसर हैं। काशी नरेश की दान की हुई 1300 एकड़ जमीन में मुख्य परिसर है। वहीं दूसरा परिसर मिर्जापुर जिले के बरकछा में है। पूरे 2700 एकड़ में फैला हुआ। 75 से अधिक छात्रावासों में 35 हजार से अधिक विद्यार्थी ज्ञानार्जन करते हैं। तीन दर्जन से अधिक देशों के छात्र भी यहां पढ़ते हैं।
पंडित मदन मोहन मालवीय जी की जयंती पर उनको शत शत नमन……
✍🏻शरद सिंह काशी वाले
आज कुछ कचोट के साथ मैं उस प्रसिद्ध व्यक्ति की स्मृति दिलाना चाहूंगा, जिनका लोगों की स्मृतियों में वह मुकाम नहीं है, जिसके वह हकदार थे। मैं पंडित मदनमोहन मालवीय की बात कर रहा हूं। उनकी कल जयंती है। एक अच्छे निबंधकार के लिए जरूरी है कि वह अपने लेखन को ऐतिहासिक घटनाओं की डायरी बनने से बचाए, पर मालवीय जी के मामले में यह जरूरी है। इसके बिना उनके इंद्रधनुषी व्यक्तित्व का अंकन असम्भव है।
गुलाम भारत में इतने विशाल नजरिये के नेता अंगुलियों के पोरों से भी कम हुए। मालवीय जी राजनेता थे, शिक्षाविद् थे, बैरिस्टर थे, पर ये उनके बहुरंगी व्यक्तित्व के अलग-अलग रंग हैं। इन सारे रंगों को मिला दें, तो एक ऐसा इंद्रधनुष बनता है, जिसने अपने जीवनकाल में जो आलोक बिखेरा, वह आज भी भारतीयों को आलोकित कर रहा है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय इसकी जीती-जागती मिसाल है।
19वीं शताब्दी के गुलाम भारत में जन्मे महामना ने इस तथ्य को महसूस कर लिया था कि राजनीतिक आजादी तभी अर्थवान बनेगी, जब हम प्रगतिकामी और संस्कारशील नौजवानों को गढ़ने में कामयाब होंगे। इसके लिए विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय जरूरी था, पर वह बने कैसे? वह करोड़पति परिवार में नहीं जन्मे थे कि अपनी संपत्ति का एक हिस्सा दान कर दानवीर कहलाने का गौरव अर्जित करते। यह बेहद मुश्किल काम था। अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी राज की शुरुआत के साथ ही हमारी पारंपरिक शिक्षा की भी कमर तोड़ दी थी। ऐसे में, विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार भर उनको चौकन्ना करने के लिए काफी था। जिन दानवीरों से दान लेना था, उन्हें भी यकीनन यह संकोच रहा होगा कि कहीं अंग्रेज साहब बहादुर की नजर टेढ़ी न हो जाए। वह राजाओं, महाराजाओं और नगर सेठों का समय था। वे तीर्थों के अलावा किसी और मामले में भारत को समग्र दृष्टि से देखने के अभ्यस्त नहीं थे। कहीं दूर वाराणसी में विश्वविद्यालय के लिए दान देने हेतु उन्हें मनाना इस वजह से भी आसान न था।
उन्होंने इसके लिए कैसे-कैसे पापड़ बेले, इसका अंदाज सिर्फ इस किस्से से हो जाएगा। हैदराबाद के निजाम बेहद कंजूस थे। वह अपने परिजनों तक को जरूरी खर्च नहीं देते थे, ऐसे में उनसे दान ले लेने की सोचना तक दुस्साहस था। दृढ़ निश्चय के धनी मालवीय जी उन तक से इतनी बड़ी धनराशि ले आए कि विश्वविद्यालय में आज भी ‘निजाम हैदराबाद कॉलोनी’ है, जहां दर्जनों शिक्षक सपरिवार रहते हैं। मेरी नजर में उस जगह का रुतबा दिल्ली के हैदराबाद हाउस से कम नहीं।
ऐसे ही मनाते, झगड़ते, जूझते, उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नींव रखी। इसके लिए जरूरी था कि शीर्षस्थ विषय-विशेषज्ञों को वहां तैनात किया जाए। उस समय शिक्षा का इतना प्रसार नहीं था। गिने-चुने भारतीय विद्वान थे और वे भी अपनी सरजमीं छोड़ने को तैयार नहीं थे। मालवीय जी ने देश-विदेश के विद्वानों को दानदाताओं की तरह काफी मशक्कत से मनाया। उन्होंने प्राच्य विद्याओं से लेकर खनन जैसे विभागों की स्थापना की और सभी तरह के संकाय बनाए। यह ऐसा अनूठा विश्वविद्यालय था, जहां टाई पहनकर विदेशी प्रोफेसर इंजीनिर्यंरग अथवा साइंस पढ़ाते, तो प्राच्य विद्या संस्थान में भारतीय वेशभूषा के प्राचार्य सुशोभित होते। हिंदू विश्वविद्यालय सच्चे अर्थों में ‘सर्वविद्या की राजधानी’ बना।
बहुत कम लोग जानते हैं कि 4 फरवरी, 1922 को हुए चौरी-चौरा कांड में 172 लोगों को फांसी की सजा हुई थी। मालवीय जी समाजसेवा और राजनीति के कारण वकालत छोड़ चुके थे, पर उन्हें लगा कि इन गरीब-गुरबों पर उनके रहते अंग्रेजों का अंधा इंसाफ मौत बनकर झपट पडे़गा, यह उचित नहीं। इन मजलूमों के पक्ष में वह बहैसियत वकील लड़े और 153 लोगों को मुक्त करा लाए। भगत सिंह की फांसी रुकवाने के लिए भी उन्होंने वायसराय से अपील की थी। अगर उनकी बात मान ली गई होती, तो शायद प्रचलित राजनीति की धारा बदल गई होती।
प्रसंगवश यह भी बता दूं कि दिल्ली से हिन्दुस्तान टाइम्स, इलाहाबाद से लीडर के साथ अभ्युदय के प्रकाशन से भी वह जुड़े थे। आप अगर कुछ पल ठहरकर उनके बारे में सोचें, तो पाएंगे कि जन-जागृति के लिए जरूरी शिक्षा, लैंगिक समानता, भेद-भाव रहित समाज, मीडिया और इंसाफ यानी हर क्षेत्र पर उनकी नजर थी, हरेक में उनका योगदान था। रवींद्रनाथ ठाकुर ने उन्हें यूं ही उन्हें ‘महामना’ नहीं कहा…
✍🏻साभार