ज्ञान:अभिनव शंकर को आद्य शंकराचार्य मान कालनिर्धारण से गड़बड़ाया पूरा भारतीय इतिहास
आचार्य शंकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आचार्य उदयवीर शास्त्री (1894-1991), टी.एस. नारायण शास्त्री (1869-1918), ए. नटराज अय्यर, एस. लक्ष्मीनरसिंह शास्त्री, स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वती, पं. कोटावेंटचलम् (1885-1959), स्वामी प्रकाशानन्द सरस्वती, आचार्य बलदेव उपाध्याय (1899-1999), पं. इन्द्रनारायण द्विवेदी, पी.एन. ओक (1917-2007), देवदत्त, आदि विद्वानों ने पर्याप्त शोध किया है। अधिवक्ता परमेश्वरनाथ मिश्र ने आचार्य शंकर के काल पर स्वामी काशिकानन्द गिरि (1924-2014) द्वारा लिखित शोध-निबन्ध का खण्डन करने के लिए ‘अमिट काल रेखा’ नामक एक ग्रंथ की रचना की है। इन सभी इतिहासकारों ने अपने शोध-कार्य में उल्लेख किया है कि काञ्ची कामकोटि मठ के 38वें शंकराचार्य अभिनव शंकर (788-840 ई.) को यूरोपीय और वामपंथी इतिहासकारों ने आद्य शंकराचार्य के रूप में प्रचारित किया। अभिनव शंकर 788 ई. में कांची कामकोटि पीठ पर शंकराचार्य के रूप में विराजमान हुए थे। उनके और आद्य शंकराचार्य का जीवनचरित इतना मेल खाता है कि अभिनव शंकर को ही आद्य शंकराचार्य कहकर प्रचारित किया गया। अभिनव शंकर का जन्म चिदम्बरम् में हुआ था। आद्य शंकर का जन्म कालड़ी में हुआ था, लेकिन एक परम्परा उनका जन्मस्थान चिदम्बरम् मानती है। अभिनव शंकर और आद्य शंकर ने भारत की अत्यधिक यात्राएँ कीं, दोनों हिमालय गए, दत्तात्रेय-गुफा में प्रविष्ट हुए, फिर उनका कुछ पता न चला। इसी आधार पर 8वीं शती में हुए अभिनव शंकर को आद्य शंकराचार्य कहकर प्रचारित किया गया। इस दृष्टि से प्रचलित इतिहास में लगभग 1,300 वर्ष की त्रुटि दृष्टिगत होती है। इस भूल से भारतीय ऐतिहासिक कालानुक्रम (क्रोनोलॉजी) में एक बहुत बड़ा व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है। आचार्य शंकर के काल को 1,300 वर्ष पीछे ले जाने से यह सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध, अश्वघोष, नागार्जुन आदि की प्रचलित— पाश्चात्य लेखकों द्वारा सुझाई तथाकथित तिथियाँ— भी अशुद्ध हैं।
आद्य शंकर की तिथि का निर्धारण किए बिना भारतीय इतिहास त्रुटिपूर्ण कालक्रम से मुक्त नहीं हो सकता है। वस्तुतः भारतीय ऐतिहासिक कालानुक्रम में महर्षि वेदव्यास, बुद्ध, चाणक्य और शंकर की तिथियाँ वे महत्त्वपूर्ण पड़ाव हैं, जहाँ से हम इतिहास की अन्य बहुत-सी तिथियाँ सुनिश्चित कर सकते हैं और महाभारत, उससे पूर्व वाल्मीकीयरामायण तथा उससे भी पूर्व वेद का सही-सही काल-निर्धारण कर सकते हैं। विगत दशकों में भारतीय इतिहास में कालानुक्रम-विषयक अनेक नयी खोजें हुई हैं। ये खोजें आचार्य शंकर की तिथि को संशोधित किए जाने की मांग कर रही हैं। आद्य शंकर के सही-सही कालनिर्णय से ये परिणाम होंगे :
1. आद्य शंकर की तिथि-विषयक इस शोध से न केवल उनका सही-सही काल सुनिश्चित होगा, अपितु भारतीय इतिहास की अन्य तिथियाँ भी शुद्ध हो जाएगीं। इसी प्रकार भगवान् बुद्ध, चाणक्य और वेदव्यास की तिथियाँ भी शुद्ध हो जायेंगी।
2. वेदों का रचनाकाल स्वयमेव बहुत पीछे खिसक जायेगा। वेद भारतीय ज्ञान-परम्परा के प्रस्थान-बिन्दु तथा वैदिक वाङ्मय ज्ञान के अक्षय स्रोत हैं। वेदों का काल 1500 अथवा 1200 ई.पू. मानने पर हम उस परम्परा से कभी न्याय नहीं कर सकते।
3. वेदों का रचनाकाल पीछे ले जाने से ‘आर्य-आक्रमण’ का जर्जर हो चुका सिद्धान्त चूर-चूर होगा। आर्यों को विदेशी ठहराकर यूरोपीय प्राच्यविदों ने हिंदुओं को भी विकासवाद का यात्री मान लिया है और भारतीय इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। यह सिद्धान्त चूर-चूर होने से भारत में उत्तर-दक्षिण विभेद की राजनीति ख़त्म होगी।
4. भारतीय इतिहासकारों को पश्चिम द्वारा स्थापित जड़ मान्यताओं को उखाड़ फेंककर स्वतंत्र दृष्टि से शोध-कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।
पाश्चात्य और कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने इतनी गड़बड़ की है कि विवेकवान लोग भी भ्रमित हो जाएं
जगद्गुरु भगवान आद्यशंकराचार्य के जन्म पर भी यही भ्रम हैं
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जबकि शांकरपीठ की चारों पीठ की अविछिन्न परंपरा इतिहास दस्तावेज साफ बताते हैं कि उनको 2500 वर्ष हो चुके हैं जबकि यह लोग 1200 साल में अटाना चाहते हैं।
जो ग़लत है
Jitendra Kumar Singh का विश्लेषण
#भगवान्_श्रीशंकराचार्य_का_काल_निर्धारण
भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा 788 ई. की वैशाख शुक्ल पंचमी को भगवान् श्रीशंकराचार्य का जन्म तथा 820 ई. में मोक्ष या निर्वाण स्वीकार किया जाता है। भारतीय इतिहास और संस्कृति की अविच्छिन्न परम्परा से अपरिचित होने के कारण पाश्चात्य इतिहासकारों ने मनमाने ढंग से काल-निर्णय किया है। भारत के शास्त्रों और ऐतिह्यग्रन्थों में स्पष्टतः यधिष्ठिर संवत् (हिन्दू), कलि संवत् और युधिष्ठिर संवत् (जैन) का उल्लेख हुआ है। युधि. सं. (हिन्दू) का प्रवर्तन 3139 ई. पू. में, कलि संवत् का प्रवर्तन 3102 ई. पू. में और युधि. सं. (जैन) का प्रवर्तन 464 कलि संवत् अर्थात् 2638 ई. पू. में हुआ। युधि. सं. (हिन्दू) और युधि. सं. (जैन) में 501 वर्ष का अन्तर है। युधि. सं. (हिन्दू) और कलि संवत् में 37 वर्ष का अन्तर है। इसी तरह युधि. सं. (जैन) और कलि संवत् में 464 वर्ष का अन्तर है। इसी काल-गणना के अनुसार भारतीय इतिहास की तिथियों का निर्धारण करना उपयुक्त होगा।
भगवान् श्रीशंकराचार्य के समकालीन महाराज सुधन्वा के ताम्रपत्राभिलेख में भगवान् श्रीशंकराचार्य का जन्म युधि. सं. (हिन्दू) 2630 (509 ई. पू.) तथा शिवलोकगमन युधि. सं. (हिन्दू) 2662 (477 ई. पू.) में वर्णित है। भगवान् श्रीशंकराचार्य विषयक यही तिथि प्रामाणिक है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में उपलब्ध हैं। आद्य शंकराचार्य ने उत्तर दिशा में अवस्थित बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ की स्थापना युधि. सं. (हिन्दू) में 2641-2645 (498-494 ई. पू.) के मध्य की। इसी तरह युधि. सं. (हिन्दू) 2648 (491 ई. पू.) में पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ, युधि. सं. (हिन्दू) 2648 (491 ई. पू.) में दक्षिण में श्रृङ्गेरीपीठ एवं युधि. सं. (हिन्दू) 2655 (484 ई. पू.) में पूर्व दिशा में जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ की स्थापना किये। भगवान् श्रीशंकराचार्य युधि. सं. (हिन्दू) 2658 (481 ई. पू.) में कांची कामकोटिपीठ में निवास कर रहे थे।
शारदापीठ में उपलब्ध ऐतिहासिक अभिलेख में वर्णित है- ‘युधिष्ठिर शके 2630 वैशाखशुक्लापञ्चम्यां श्रीमच्ठछङ्करावतार:।…..तदनु 2662 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां….श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा……निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति।’
अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2630 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधिष्ठिर संवत् 2662 की पूर्णिमा को देहत्याग हुआ।
राजर्षि सुधन्वा का ताम्रपत्राभिलेख द्वारिकापीठ ने ‘विमर्श’ नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है। उस ताम्रपत्राभिलेख में भगवान् श्रीशंकराचार्य के शिवलोकगमन की तिथि अंकित है- ‘निखिलयोगिचक्रवर्त्तीश्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्रमरायमाणसुधन्वनोममसोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्यपरिप्राप्तभारतवर्षस्याञ्जलिबद्धपूर्वकेयंराजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2662 आश्विन शुक्ल 15।’
एक अन्य ताम्रपत्र ‘संस्कृतचन्द्रिका’ (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित है, जो गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा के द्वारा प्रवर्तित है। उस ताम्रपत्र में द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मण्डनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्रीनृसिंहाश्रम तक के समस्त आचार्यों का विवरण उपलब्ध है। इसमें प्रथम आचार्य का समय युधि. सं. (हिन्दू) 2649 (490 ई. पू.) दिया है।
सर्वज्ञसदाशिवकृत ‘पुण्यश्लोकमञ्जरी’, आत्मबोध द्वारारचित ‘गुरुरत्नमालिका’ तथा उसकी ‘सुषमा’ टीका में कतिपय श्लोक हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-
तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे,
ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि।
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमङ्गलग्ने
त्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति।।
अर्थात् अनल = 3 , शेवधि = निधि = 9, बाण = 5, नेत्र = 2 , अर्थात् 3952। ‘अंकानां वामतोगति:’ सूत्रानुसार अंक को विपरीत क्रम में रखने पर 2593 कलि संवत् बना। कलि संवत् 3102 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ। इसलिए 3102 – 2593 = 509 ई. पू. में भगवान् श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ।
भगवान् श्रीशंकराचार्य के समकालीन आचार्य कुमारिल ने जैन ग्रन्थ ‘जिनविजय’ में लिखा है –
ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात् ।
एकीकृत्य लभेताङ्क: क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर: ।।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन: ।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।।
उपर्युक्त श्लोक में विवृत संवत् संख्या ऋषि =7, वार =7, पूर्ण= 0, मर्त्याक्षौ = 2 को ‘अंकानां वामतोगति:’ सूत्रानुसार उल्टा करने पर 2077 युधि. सं. (जैन) की निष्पत्ति होती है। कहने का आशय यह है कि 557 ई. पू. में कुमारिलभट्ट का जन्म हुआ था। कुमारिलभट्ट भगवान् श्रीशंकराचार्य से 48 वर्ष बड़े थे। इसलिए जैन-परम्परा के अनुसार भी निर्विवाद रूप से 509 ई. पू. ही भगवान् श्रीशंकराचार्य का जन्मवर्ष सिद्ध होता है। ‘जिनविजय’ में भगवान् श्रीशंकराचार्य के शिवसायुज्य के विषय में लिखा है-
ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात् ।
एकत्वेन लभेताङ्कस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ॥
युधि.सं. (जैन) 2157 ? (475 ई. पू.?) में भगवान् श्रीशंकराचार्य ब्रह्मलीन हुए।
भगवान् श्रीशंकराचार्य के सहाध्यायी चित्सुखाचार्य ने ‘बृहत्शङ्करविजय’ में लिखा है-
षड्विंशकेशतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एवं त्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे ।।
…………………………………………………।
प्रासूत तन्वं साध्वी गिरिजेव षडाननम्।।
यहाँ युधि. सं. (हिन्दू) 2630 (509 ई. पू.) में भगवान् श्रीशंकराचार्य का जन्म संवत् बताया गया है।
वर्तमान इतिहासज्ञ जिन शंकराचार्य को 788 – 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठ के 38वें आचार्य श्रीअभिनवशंकर थे। वे ई.सन् 787 से 840 तक विद्यमान थे। वे चिदम्बरम् वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। वे कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किये और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे।
✍🏻जितेंद्र कुमार सिंह संजय