मत:वामपंथी अपूर्वानंद झा को क्यों कहा जा रहा दोगला?

पूर्वानंद झा के दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति को  पत्र का क्रिटिकल एनालिसिस

प्रतिक्रिया १

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की विभागाध्यक्ष बनाई गई डॉक्टर सुधा सिंह पिछड़े वर्ग से आती हैं । यह ठीक है कि अपूर्वानन्द झा, सुधा सिंह से वरिष्ठ है मगर वे खुद एक अनुसूचित जाति की सीट के nfs होने के बाद पद पर आए । अगर न्याय प्रिय होते तो उसी समय आवाज उठाते कि sc st obc की सीट इतनी भारी मात्रा में nfs क्यों की जाती है ? हाल ही मे जब वे फणि सिंह छात्रवृति की संयोजक थे , छात्रवृत्ति देने मे पारदर्शिता नहीं बरती । तब न्याय की बात उन्हे याद नहीं आई ? हिन्दी मे शोध की जांच निवेदिता मेनन जैसे तमाम वामपंथी कर रहे थे, जिन्हे हिन्दी नहीं आती । जब खुद पर बन आई तो न्याय – न्याय बता रहे । वह भी ऐसी मदारी भाषा मेॅ कि मुझे पद लोभ नहीं है लेकिन गलत परंपरा न डल जाए इसलिए पत्र लिख रहा । सरल व्यक्ति होते तो सीधे लिखते कि मेरे साथ अन्याय हुआ है । संविधान में बराबरी का प्रावधान है मगर साथ में यह भी लिखा है कि महिला या पिछड़े वर्ग को न्याय देने में इस बराबरी के सिद्धांत को आड़े नहीं आने दिया जाएगा । इसी में अलीगढ़ में महिला वी सी नियुक्त हुई । पिछड़े वर्ग की महिला को अध्यक्ष बनाए जाने का स्वागत होना चाहिए । एक तो महिला फिर पिछड़े वर्ग से । यही तो सामाजिक न्याय है । एकल पद बोल के अध्यक्ष पद पर कोई आरक्षण नहीं । इस अन्याय के खिलाफ कौन बोलेगा ? मेरिट के नाम पर डाक्टर श्योराज सिंह बेचैन को छोड़ दें तो किसी दलित पिछड़े  व्यक्ति को अध्यक्ष नहीं बनने दिया गया । यह पहली बार नहीं हुआ है कि वरिष्ठता को इग्नोर किया गया है । और ऐसा कोई नियम भी नहीं है । बस वरिष्ठ को बनाने की परिपाटी है बस । यह कुछ-कुछ कॉलेजियम सिस्टम जैसा है जिसके कारण कोर्ट में खानदानी राज चल रहा है ।

~ सरकारी अधिकारी फ़कीर जय

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प्रतिक्रिया २

सोचिए कि अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग का अध्यक्ष न हो पाने की तकलीफ भी अंग्रेजी में पत्र लिख कर बताते हैं। जाहिर है वह यह पत्र वाइस चांसलर के बहाने अपने वामपंथी आकाओं को पढ़वाना चाहते हैं जो हिंदी नहीं जानते। हिंदी का ऐसा दोगला अध्यापक , जिसे हिंदी का स्वाभिमान नहीं है , अच्छा हुआ कि विभागाध्यक्ष नहीं बनाया गया।

यह शुद्ध वामपंथी अकादमिक राजनीति है , जो विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में दशकों से चली आ रही है। चलती रहेगी। क्यों कि हिंदी विभागों में वामपंथी राजनीति का खूंटा गहरे गड़ा है , किसी समरसेबिल की तरह। कुछ और नहीं। फिर अपूर्वानंद की नियुक्ति भी इसी कारण हुई थी कि वह वामपंथी हैं। कोई अकादमिक योग्यता आधार न तब थी , न अब है। अपूर्वानंद अब वैसे भी अराजक होने के कारण परिचित हैं। अकादमिक होने के कारण नहीं। दिल्ली दंगों में उन की संलिप्तता मिली थी। अमित शाह की कृपा पर पुलिस ने पकड़ कर भी छोड़ दिया। फिर अपूर्वानंद का अकादमिक काम कोई हो , आप की जानकारी में तो परिचित करवाइए। बहुतेरी बातें हैं , जिस में बहुत समय व्यर्थ होगा , सो जाने दीजिए

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सुधा सिंह को अध्यक्ष बनाने और अपूर्वानंद को काट कर कटखन्ना बनाने वाले पैनल में कौन-कौन लोग थे ? किसी को जानकारी हो तो कृपया बताए भी l

और जो मामला रोटेशन का है और वाइस चांसलर ने तय किया है तो मानना पड़ेगा कि वाइस चांसलर विवेकवान व्यक्ति है l

~ प्रख्यात लेखक एवं पत्रकार दयानंद पाण्डेय

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प्रतिक्रिया ३

अपूर्वानंद विमर्शों की दुनिया में लिबरल जत्था की नुमाइंदगी उसी तरह करते हैं जैसे गौतम नवलखा। जैसे रवीश अपनी खीझ, रंजिश को लिंग्विस्टिक मेटाफोरिक फार्म देते हैं। कभी रिपोर्ट के नाम पर तो कभी भाषण में। यदि ऐसा नहीं होता तो डीयू में एक महिला के विभागाध्यक्ष बनने पर अभूतपूर्व चुप्पी क्यूं लाद ली अपूर्वानंद ने। नौकरी छूटने का डर न सताता तो वह भी प्रो रतनलाल की तरह दो-दो हाथ करते। बामसेफ वालों ने दाल नहीं गलने दी तो प्रो रतनलाल ने बाबासाहेब का तीर नवबौद्धों के तरकश में रख लिया। अपूर्वानंद ऐसा कुछ नहीं कर सकते। वह क्षत्राणी (नाम से, संबंध से द्विज) है तो भोथर स्त्री विमर्श भी काम नहीं आएगा और स्त्री है इसलिए सावित्री बाई से जूझ नहीं सकते। वाम काम आने से रहा क्योंकि विभागाध्यक्ष का वाम से दिन-रात का संबंध है। राजनीतिक मोर्चे पर कांग्रेस को हराने वाले आप के प्रशांत भूषण को मोर्चा पर लगा नहीं सकते। बस वीसी को नाराजगी जताता एक खत भर दे दिया।
भाई, ऐसा कैसे होगा कि गाली भी आप ही दें और माला भी आप ही झटक लें। इसके लिए तो आपको गोद छोड़नी पड़ेगी। ऐसा कैसे होगा कि चित भी मेरी और पट भी मेरी। बाबासाहेब ने भी कीमत चुकाई थी फिरंगी हुकूमत का अनुग्रह पाने को। बाद में यही रीति राजनीतिक अनुकंपा में पर्यवसित हो गयी। तभी तो साइमल्टनियस इक्वेशन की तरह वह एक साथ एक तरफ योगेन्द्र नाथ मंडल तो दूसरी तरफ पेरियार को साध लेते हैं। इसीलिए तो उनके वैचारिक दोजख से आये लोग गांधी-आंबेडकर के भारत की बात करते हैं। इन कुपठ कुजातों को पता नहीं कि बाबासाहेब की नजर में गांधी-जिन्ना एक ही तराजू के दो पलड़े थे। तो अपूर्वानंद सर, आप नाराज नहीं हैं, तब तो ठीक। अन्यथा मोदी सरकार को पानी पी-पीकर गरियाते हैं ही, अब भगतसिंह बन जाइए। का रखा है दो टकिया की नौकरी में। ,,, और वैसे भी आपको याद ही होगा अपने उसूलों के कारण ही प्रो अजय तिवारी सर को डीयू की नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्हें तो नामी-गिरामी वामियों से दो-दो हाथ करने पड़े थे। वैसे जामिया भी पीछे नहीं रहा है। जेएनयू को तो खाक में मिलाने पर तुली है सियासी लड़ाई। अन्यथा वैचारिक समर तो समृद्ध ही करता है प्रतिष्ठानों को, बशर्ते सियासी दखल न हो ,,, सियासी दखल से तभी तक बचाया जा सकता है जब तक कि तुष्टीकरण से दूर रहें ,,,, और आप जैसे विद्वानों के सारे शोध व विमर्श तुष्टीकरण के दोजख से पैदा हुए

~ उमानाथ लाल दास

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यह पत्र अपूर्वानंद ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के वीसी को लिखा है जो वायर नामक कांग्रेसी प्रोपेगेंडा वेबसाइट ने छापा है और अपूर्वानंद इस प्लेटफॉर्म के फेवरेट कंट्रीब्यूटर हैं।

प्रिय प्रोफेसर योगेश सिंहजी,

उम्मीद है कि आप स्वस्थ हैं.

इस पत्र को लिखने की मेरी क़तई इच्छा नहीं थी. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पत्र के विषय से ऐसा लग सकता है कि यह मेरे ख़ुद के बारे में है. फिर भी कर्तव्य मुझे बाध्य करता है कि दुविधा को छोड़कर अपनी निराशा व्यक्त करूं और हिंदी विभागाध्यक्ष की नियुक्ति का विरोध करते हुए आपको लिखूं, क्योंकि विभागाध्यक्ष की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धांत की पूरी तरह अवहेलना की गई है. वरिष्ठता का सिद्धांत विश्वविद्यालयों में एक स्थापित परिपाटी है, और पिछले वर्षों में उसे सुचारु तरीक़े से चलाने के लिए ठीक साबित हुआ है, क्योंकि यह सिद्धांत मनमानी को रोकता है. यह विश्वविद्यालय में सहकारिता की भावना भी पैदा करता है, क्योंकि अध्यापकों को परस्पर प्रतियोगियों की तरह नहीं देखा जाता है. साथ ही यह प्रशासन को पक्षपात और वफादारों को फ़ायदा पहुंचाने के आरोपों से बचाता है. लेकिन, इस बार हिंदी विभागाध्यक्ष की नियुक्ति इस सिद्धांत से विचलन है.

10 मार्च को शाम 6 बजे, हमें खबर मिली कि हमारे नए विभागाध्यक्ष ने कार्यभार संभाल लिया है. यह समय कुछ अजीब था. अमूमन यह सब कुछ दिन शुरू होने पर होता है. अध्यक्ष का पद तीन दिनों से ख़ाली था, क्योंकि हमारी पिछली अध्यक्ष महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त होकर चली गईं थीं. विश्वविद्यालय तर्क दे सकता है कि अचानक रिक्त हुए पद पर नियुक्ति के लिए वह तैयार नहीं था, इसलिए विलंब हुआ. पर, विश्वविद्यालय को यह अच्छी तरह ज्ञात था कि पिछली अध्यक्ष को इस महीने के अंत में सेवानिवृत्त होना है. इसलिए, यह उम्मीद करना ग़लत न था कि विश्वविद्यालय उनके बाद बनने वाले विभागाध्यक्ष के नाम साथ तैयार होगा.

यह निर्णय बहुत कठिन नहीं है. यह लगभग एक यांत्रिक प्रक्रिया है. हमेशा की तरह, वरिष्ठतम अध्यापक को विभाग के प्रमुख की ज़िम्मेदारी दी जाती है. विश्वविद्यालय के नियम स्पष्ट हैं:

1. जहां तक संभव हो, विभागाध्यक्ष की नियुक्ति कुलपति द्वारा, रोटेशन के सिद्धांत का पालन करके की जाएगी. ऐसी नियुक्तियों की सूचना कार्य परिषद को दी जाएगी.

2. नियम 1 में दिए गए प्रावधान के अलावा, यदि किसी भी कारण से किसी ऐसे व्यक्ति को विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त करना संभव नहीं हो पाया है जो उस व्यक्ति (या व्यक्तियों) से वरिष्ठ है जो पहले ही विभागाध्यक्ष के रूप में रह चुके हैं या हैं, तब जब भी अगली बार पद रिक्त हो और यदि उसे नियुक्त किया जा सकता हो तो कुलपति उस व्यक्ति को विभागाध्यक्ष नियुक्त करने के लिए स्वतंत्र होगा.

इन नियमों के होने के बावजूद, इस विभाग के मामले में अजीब बात यह थी कि पिछले एक साल से मेरे सहकर्मी यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे कि किसे विश्वविद्यालय द्वारा अध्यक्ष चुना जाएगा.कई नाम घूम रहे थे, और मेरे सहकर्मी यह क़यास करने की कोशिश कर रहे थे कि अधिकारियों की मेहरबानी किस पर होगी. यह दिलचस्प था कि वे लगभग निश्चित थे कि इस बार सबसे वरिष्ठ व्यक्ति को दरकिनार कर दिया जाएगा.

मेरे सहकर्मियों का अनुमान ठीक था. इस बार सबसे वरिष्ठ व्यक्ति, यानी मुझे, दरकिनार कर दिया गया था. वरिष्ठता में मेरे बाद आने वाली अध्यापिका को विभागाध्यक्ष बनाया गया. कम से कम यह राहत की बात थी कि तीन दिन बाद ही सही, अनिश्चितता तो ख़त्म हुई . इससे कम से कम यह फूहड़ अफ़वाहबाजी तो बंद हुई कि अधिकारियों की कृपा किस पर होगी.

मुझे यह स्पष्ट करना चाहिए कि नवनियुक्त विभागाध्यक्ष से मेरा कोई विरोध नहीं है. हम पिछले 20 वर्ष से सहकर्मी हैं. यह पत्र व्यक्तिगत तौर पर उनको लेकर नहीं है. वास्तव में जब उनकी नियुक्ति के बारे में जानने के बाद मैंने उन्हें फ़ोन किया तो उन्होंने विनम्रता से यह स्वीकार किया कि उनकी नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धांत का पालन नहीं हुआ है. इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं है. फिर भी, निश्चित रूप से ऐसे मामलों के लिए यह कोई अच्छी मिसाल नहीं है.

यह मनमाना फैसला निश्चित ही चिंताजनक है. मेरे कुछ सहकर्मियों ने अपनी बेचैनी ज़ाहिर करते हुए मुझे फ़ोन किया. वे चाहते थे कि मैं अदालत में इस फ़ैसले को चुनौती दूं . पिछले 25 वर्षों में, कम से कम एक बार तो ऐसा हुआ ही है जब इस सिद्धांत का उल्लंघन किया गया था, और प्रभावित व्यक्ति के पक्ष में अदालत द्वारा निर्णय को उलट दिया गया था.

मैं ख़ुद विश्वविद्यालय के मामलों को अदालत में ले जाने के विचार से बहुत इत्तिफ़ाक़ नहीं रखता. खासकर तब जब यह मसला व्यक्तिगत शिकायत की तरह लगता हो. यह कोई अच्छा नज़ारा नहीं होता जब अदालतें विश्वविद्यालयों को फटकारती हैं और उनके फैसलों को रद्द कर देती हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े ऐसे कई मामले रहे हैं और कुछ ऐसे भी जिनमें दिल्ली विश्वविद्यालय प्रतिवादी रहा है. जेएनयू में, वरिष्ठता के सिद्धांत और नियमावली का उल्लंघन लगभग एक नियम बन गया है. संकाय के वरिष्ठ अध्यापकों को दरकिनार कर केंद्रों के अध्यक्ष और डीन नियुक्त किए गए हैं . प्रशासन शिक्षकों को अकादमिक और दूसरे अवकाश नहीं देता है. इंसाफ़ के लिए उन्हें अदालत में जाने को मजबूर होना पड़ता है. प्रताड़ित होने पर छात्रों को भी अदालत में अपील करनी पड़ती है. ज़्यादातर मामलों में, विश्वविद्यालयों को फटकार लगाई जाती है. अदालतें विश्वविद्यालयों से नियमों का पालन करने तथा मनमाने ढंग और पक्षपातपूर्ण तरीक़े से काम न करने के लिए कहती हैं.

अदालतों का ढंग भी यांत्रिक ही है, क्योंकि वे चाहती हैं कि प्रभावित पक्ष ख़ुद ही उनके पास आए, उसकी तरफ़ से कोई और नहीं . मैंने अपने सहकर्मियों से कहा कि मुझे नहीं लगता कि इस फ़ैसले से प्रभावित मैं एकमात्र ‘पक्ष’ हूं, इस फ़ैसले से. उन्हें और मेरे दूसरे विभागों के सहकर्मियों को भी उतना ही चिंतित होना चाहिए जितना मैं हूं. चूँकि यह विश्वविद्यालय के एक ऐसे परखे हुए सिद्धांत के उल्लंघन का मामला है, जिसने अपनी उपयोगिता साबित की है, इसलिए यह केवल मेरे विरोध करने का मामला नहीं है.

ऐसी वाक़ये हमें दुखद एहसास कराते हैं कि विश्वविद्यालय के अधिकारी यह भूल गए हैं कि उनका काम समाज में निष्पक्षता और शिष्टता का अभ्यास पैदा करने के साथ ही उत्कृष्टता की खोज और योग्यता का सम्मान भी है . दुर्भाग्य से, पिछले दस वर्षों में अध्यापकों का चयन और दूसरे फैसले छात्रों और अभ्यर्थियों को बताते हैं कि उनके ज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्टता का कोई मूल्य नहीं है.

निष्पक्षता, उत्कृष्टता और योग्यता के मूल्यों के अलावा, विश्वविद्यालय सहकारिता की संस्कृति के वाहक भी हैं, समाज जिसका अभ्यस्त नहीं है. इसका मतलब यह है कि विश्वविद्यालय एक सी विचारधारा वाले लोगों का समुदाय नहीं है. यह भिन्न-भिन्न विचारों की दुनिया में रहने और सभ्य तरीक़े से इस भिन्नता से संवाद की क्षमता को पैदा करने की जगह भी है. यह समाज को यह भी बताता है कि संस्थानों को इस तरह से प्रशासित किया जा सकता है जिसमें अधिकारी केवल ‘अपने लोगों’ या वफादारों के साथ काम नहीं करते हैं, बल्कि उन आवाजों को महत्त्व देते हैं जो कुछ मामलों में उनसे अलग हो सकती हैं और उससे लाभ उठाते हैं. यही बात विश्वविद्यालय के अधिकारियों को दूसरे ‘अफ़सरों’ से बहुत अलग बनाती है.

विश्वविद्यालय ऐसी जगह नहीं हैं जहां आधिकारिक विचारधारा का प्रचार किया जाता है. विश्वविद्यालय के अधिकारी राज्य की आधिकारिक विचारधारा के वाहक और प्रचारक नहीं हैं. वे केवल संविधान से बंधे हुए हैं. विश्वविद्यालय वफादारों का बैंड-बाजा नहीं तैयार करते हैं. विश्वविद्यालय हमें हर प्रकार की सत्ता को चुनौती देना सिखाते हैं. जब विश्वविद्यालय इन मानदंडों से विचलित होते हैं, तो वे अपने अस्तित्व के उद्देश्य को व्यर्थ कर देते हैं.

जब विश्वविद्यालय के अधिकारी मानदंडों का उल्लंघन करते हैं, तो अध्यापक समुदाय पर इसका भयानक असर होता है. नौजवान अध्यापकों को विशेष रूप से यह डर रहने लगेगा कि उन्हें उनकी स्वतंत्र राय के लिए दंडित किया जा सकता है. वे कक्षाओं में भी ख़ुद को अनुशासित और सेंसर करने लगेंगे. यह विश्वविद्यालयों की धीमी मौत होगी, क्योंकि यदि वे ऐसी जगह नहीं हैं जहां मन स्वतंत्र, और बिना भय का हो, फिर वे क्या हैं ?

इस विश्वविद्यालय में मेरे अध्यापकीय जीवन के लगभग अंत में, मुझे उम्मीद है विश्वविद्यालय के हित की मेरी चिंता को आप समझेंगे.

कृपया होली के लिए मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें .

आपका

अपूर्वानंद

हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय

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