मत: यूसीसी पर प्रादेशिक चुनावों की परवाह नहीं मोदी को?
Assembly ElectionsMadhya PradeshNewsMp Politics Assembly Elections Of Five States Why The Discussion On Ucc What Is The Intention Of Pm Modi
Opinion: आखिर पीएम मोदी का इरादा क्या है? UCC के लिए नहीं कर रहे विधानसभा चुनावों की परवाह
MP Election 2023: मध्यप्रदेश में इसी साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। 27 जून को एमपी दौरे पर आए पीएम मोदी ने समान नागरिक संहिता पर जोर दिया। पीएम मोदी के बयान के बाद देश में यूसीसी को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं। कई राज्यों में यूसीसी के लिए डॉफ्ट तैयार किए जा रहे हैं।
हाइलाइट्स
यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर सियासत तेज
पीएम मोदी ने भोपाल में दिया था बयान
आदिवासी संगठन कर सकते हैं विरोधा
चुनावी राज्यों में आदिवासी वोटर्स की संख्या अधिक
भोपाल01 जुलाई: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 जून को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में चुनाव अभियान की अघोषित शुरुआत करते हुए देश में समान नागरिक संहिता लागू करने अपनी इच्छा को पूरी ताकत के साथ प्रकट किया। हालांकि वे पिछले 9 साल से इस पर काम कर रहे हैं। साथ ही अपनी पार्टी और उसके घोषित पितृ संगठन को भी इस काम में लगा रखा है। राष्ट्रीय विधि आयोग को भी काम सौंपा गया है। बीजेपी शासित कुछ राज्य भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। भोपाल में मोदी ने जिस ताकत के साथ समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की वकालत की उसने राजनीतिक दलों के साथ-साथ देश के सबसे बड़े गैर मुस्लिम समाज, आदिवासियों को भी चौंका दिया है।
साथ ही यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या नरेंद्र मोदी दिल्ली पर काबिज बने रहने के लिए मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के साथ साथ पूर्वोत्तर राज्यों की कुछ सरकारों को दांव पर लगाने के लिए भी तैयार हैं? क्योंकि यूसीसी का असर सिर्फ 20 करोड़ मुसलमानों पर ही नहीं पड़ेगा, बल्कि देश के विभिन्न इलाकों में बसे करीब 11 करोड़ आदिवासी भी इससे प्रभावित होंगे।
क्या है प्रधानमंत्री मोदी का इरादा
आदिवासियों की आबादी 8 प्रतिशत
मुसलमान तो घोषित रूप से भाजपा के साथ नही हैं। जो हैं उन्हें सिर्फ शोभा की वस्तु बना कर रखा गया है, लेकिन देश के ज्यादातर हिस्सों में आदिवासी भाजपा के साथ खड़े दिखते रहे हैं। लोकसभा और विधानसभाओं में वे खुल कर भाजपा का समर्थन करते रहे हैं, लेकिन जब उनकी सामाजिक आजादी पर कानूनी प्रहार होगा तब भी क्या वे भाजपा का ही साथ देंगे? इस पर आगे बात करने से पहले आदिवासियों से जुड़े आंकड़े देख लेते हैं। देश में करीब 700 से भी ज्यादा आदिवासी जातियां और समूह हैं। इनकी आबादी करीब 11 करोड़ है। मतलब कुल नागरिकों का करीब 8 प्रतिशत आदिवासी हैं।
47 लोकसभा सीटें आरक्षित
लोकसभा में आदिवासियों के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। जिन राज्यों- मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना में 4 महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें भी आदिवासी अच्छी खासी तादाद में हैं। एमपी और छत्तीसगढ़ तो आदिवासी बहुल राज्य हैं ही। देश में सबसे ज्यादा आदिवासी एमपी में ही रहते हैं। एमपी से 6, छत्तीसगढ़ से 4 और राजस्थान से 3 आदिवासी सांसद चुने जाते हैं।
एमपी में आदिवासियों के लिए 47 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। जबकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में यह संख्या 34 और 25 है। मिजोरम और तेलंगाना में बीजेपी का ज्यादा कुछ दांव पर नहीं है, लेकिन बाकी तीन राज्य उसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। विधानसभा चुनाव की दृष्टि से देखें तो एमपी में आदिवासी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण स्थिति में हैं। राज्य में आदिवासियों की आबादी डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा है। 230 में से 70 सीटों पर आदिवासी मतदाता असर डालते हैं। राज्य सरकार ने 89 ब्लॉक में आदिवासियों के लिए पेसा कानून लागू किया है।
सनातनियों से अलग हैं आदिवासी रीति-रिवाज
आदिवासियों के सामाजिक रीति रिवाज और लोक व्यवहार सामान्य हिंदुओं से अलग हैं। वे प्रकृति की पूजा करते हैं। उनका समाज काफी खुला है। बहु पत्नी प्रथा आम है। आदिवासी महिलाओं को भी इसी तरह की आजादी है। ज्यादातर वन प्रांतों में रहने वाले आदिवासियों के देवताओं में जानवर भी शामिल हैं। समाज में आए बदलाव का असर आदिवासियों पर भी पड़ा है। सेवा, शिक्षा और इलाज के नाम पर उनके बीच पहुंचे चर्च ने उन्हें बहुत प्रभावित किया है। बड़ी संख्या में आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया है। कुछ जगहों पर आदिवासी मुसलमान भी बने हैं। उन्हें हिंदू धर्म से जोड़ने की कोशिश काफी लंबे समय से की जा रही है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदिवासियों के बीच काफी समय से काम कर रहा है। संघ प्रमुख खुद लगातार आदिवासियों के बीच जा रहे हैं। एमपी और छत्तीसगढ़ में तो संघ बड़े बड़े आयोजन आदिवासियों के बीच कर चुका है। आजकल वह धर्म बदल चुके आदिवासियों से आरक्षण वा अन्य सुविधाएं वापस लिए जाने की मुहिम भी चला रहा है। उधर आदिवासी शुरू से ही यूसीसी के पक्ष में नहीं हैं। देश भर में आदिवासी संगठन यूसीसी का विरोध करते रहे हैं। उन्हें लगता है कि यूसीसी आने के बाद उनकी परंपरागत प्रथाएं प्रभावित होंगी। उनका सामाजिक ढांचा प्रभावित होगा। संविधान की छठी अनुसूची में जो हक उन्हें दिए गए हैं, वे प्रभावित होंगे।
विरोध में आदिवासी संगठन
यही वजह है कि राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद ने 2016 में ही यूसीसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। परिषद चाहती है कि किसी भी बदलाव से पहले सरकार आदिवासियों के रीति रिवाज और धार्मिक प्रथाओं की सुरक्षा की गारंटी दे। जमीनी स्तर पर भी आदिवासी संगठन विरोध कर रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा यूसीसी की वकालत ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या वे मुसलमानों के साथ आदिवासियों का विरोध झेलने को तैयार हैं? क्योंकि वे भले ही 80…20 का खेल देख रहे हों लेकिन वातविकता में यह 70 …30 का खेल बनता जा रहा है।
भले ही भाजपा आदिवासियों को घेरने की हर संभव कोशिश कर रही हो पर क्या यह संभव होगा कि वे अपनी मूल परम्पराओं को छोड़ यूसीसी की छतरी के नीचे आ जाएं? अपनी इसी कोशिश के तहत उसने एक आम आदिवासी महिला को देश का राष्ट्रपति बनाया है। आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा के सम्मान में भी केंद्र और मध्यप्रदेश सरकार ने बहुत कुछ किया है। आदिवासी क्रांतिकारी टंट्या भील का भव्य स्मारक भी बनाया गया है। कोल आदिवासियों को भाजपा से जोड़ने के लिए शबरी माता का जन्मदिन भी एमपी सरकार ने मनाया। कोल समाज से जुड़े स्थलों का जीर्णोद्धार भी सरकार करा रही है। उनके लिए पेसा कानून भी लागू किया गया है। लेकिन क्या आदिवासी इन प्रलोभनों में आकर अपनी मूल परंपराओं से समझौता करेंगे? यह कड़वा सच है कि देश में स्वतंत्र आदिवासी नेतृत्व आज तक नहीं पनप पाया है। इसके अनेक कारण रहे हैं। आज भी यही स्थिति है।
क्या 2024 की मुहिम शुरू हो गई है
सवाल यह है कि क्या मोदी ने यह मुहिम 2024 को लक्ष्य करके शुरू की है? क्या उन्हें 2023 के अंत में में 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की परवाह नहीं है? यह सच है कि 2018 में इन सभी राज्यों में भाजपा की करारी हार के बाद भी मोदी लोकसभा चुनाव और ज्यादा बहुमत से जीते थे। यह अलग बात है कि कांग्रेस में सिंधिया के विद्रोह के बाद एमपी में भाजपा की सरकार फिर बन गई, लेकिन वे क्या अब भी सिर्फ अपने बारे में सोच रहे हैं?
मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में आदिवासी मतदाता बड़ी भूमिका में हैं। इन तीनों ही राज्यों में 2018 के चुनाव में उन्होंने भाजपा का साथ नही दिया था, लेकिन लोकसभा में वे भाजपा के साथ दिखाई दिए थे। तो क्या अब भी मोदी इसी तरह की योजना पर काम कर रहे हैं? क्या अब भी वे कट्टर हिंदू और ओबीसी वोटरों के सहारे ही दिल्ली पर काबिज बने रहना चाहते हैं? हिंदूवादी विचारक और लंबे समय तक भाजपा से जुड़े रहे अनिल चावला मानते हैं कि सिर्फ मुसलमानों को लक्ष्य करके कोई कदम उठाना व्यावहारिक नहीं है। हमारा देश विविधता से भरा है। आदिवासी इसका अहम हिस्सा हैं। कुछ छोटे राज्यों को छोड़ सभी में आदिवासी अच्छी संख्या में हैं।
क्या-हिन्दु मुस्लिम का विषय है UCC
साधारणतः यह माना जाता है कि समान नागरिक संहिता सिर्फ हिंदू मुस्लिम विषय है। अधिकतर लोग नहीं जानते कि हिंदुओं में अनुसूचित जनजातियों के अपने अलग पारंपरिक व्यक्तिगत कानून हैं। बिना सोचे समझे जल्दबाजी में लायी गयी समान नागरिक संहिता से अनुसूचित जनजातियों में असंतोष पनपेगा जिसके दूरगामी घातक परिणाम होंगे। वैसे यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि हिंदुओं के वर्तमान व्यक्तिगत कानून पश्चिमी या ईसाई मानसिकता पर आधारित हैं और हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं। संघ परिवार पिछले सात दशकों से समान नागरिक संहिता को लेकर हल्ला मचाता रहा है पर संघ, जनसंघ या भाजपा ने कभी समान नागरिक संहिता का कोई प्रारूप प्रस्तुत नहीं किया है।
विरोधी दल आदिवासियों को कर सकते हैं प्रेरित
आज वरिष्ठतम स्तर से आवाज़ उठाई जा रही है पर प्रारूप आज भी नहीं है। जब पचास के दशक में हिंदू कोड बिल संसद में पेश किया गया था तब संघ परिवार ने उसका विरोध किया था। कैसी विडम्बना है कि आज उसी बिल के परिवर्तित स्वरूप को समान नागरिक संहिता के रूप में पेश करने को संघ परिवार लालायित है। यह घातक साबित होगा। इस बीच जिस तरह की जागरूकता आदिवासी समाज में आई है, उसे देखते हुए ऐसा लग रहा है कि मुसलमानों की तरह वे भी यूसीसी का विरोध करेंगे। विरोधी दल भी उन्हें इस काम के लिए प्रेरित कर रहे हैं। ऐसे में यह तय है की एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों पर इसका असर पड़ेगा। लेकिन आत्मकेंद्रित राजनीति का प्रतीक बन चुके नरेंद्र मोदी को शायद इसकी परवाह नहीं है। दुर्भाग्य यह है कि भाजपा के भीतर उनसे यह सवाल पूछने की हिम्मत भी कोई नही कर पा रहा है।
(अरुण दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार, ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के हैं।)