विदेशियों ने क्यों और कैसे नष्ट किया भारत का इतिहास?
अच्छा प्रश्न है जिसमें अनेक गाँठें हैं। इस छोटे से उत्तर में सुलझाने का प्रयास करते हैं, मानने या न मानने को आप स्वतंत्र हैं।
मैं यहाँ लिखता रहा हूँ कि युधिष्ठिर, जनमेजय, बुद्ध, मौर्य चंद्रगुप्त, आदि शंकर एवं विक्रमादित्य – भारतीय इतिहास के छ: ऐसे जन हैं जिनका काल निर्धारण किया जाना चाहिये। दुर्भाग्य से हम आज तक नहीं कर पाये, जो भी प्रचलित है, वह या तो पौराणिक उहापोह है या रोमिल हबीबी गिरोह ने इस मान्यता पर निर्धारित किया गया है कि अलक्षेंद्र आक्रमण के समय का सेंट्रोकोटस मौर्य चंद्रगुप्त है जब कि उसके पिता का जो नाम यवनों ने दिया है, उसकी गुप्त काल से संगति बैठती है। इसी अभिज्ञान से आगे बढ़ते हुये देवानांप्रिय अशोक को अशोक मौर्य माना गया तथा ब्राह्मण श्रमण संघर्ष का कथ्य स्थापित किया गया। अस्तु।
इतिहास में राजा विविध सम्प्रदायों को संरक्षण देते रहे हैं, किसी एक पर अधिक बल देने या प्राथमिकता देने का अर्थ यह नहीं होता कि अन्य को राजसत्ता ने नष्ट कर दिया। अशोक जो भी रहा हो, उसने बौद्ध धर्म को विशेष संरक्षण दिया जिसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय बौद्ध धर्म ही जनसामान्य में सबसे प्रचलित था। इतिहास को सावधान हो कर न पढ़ने से ऐसे सरलीकरण किये जाते हैं। यह कथ्य इसी आधार पर स्थापित किया गया कि अशोक के पश्चात ब्राह्मणों एवं उनके अनुयायी राजन्यों ने बौद्धों का संहार कर दिया जब कि वास्तविकता यह है कि बौद्ध धर्म ग्यारहवीं शताब्दी तक यहाँ फलता फूलता रहा तथा बौद्ध धर्म के उन्मूलन में मुसलमान आक्रांताओं की भूमिका रही। मुख्य भूमि पर अनुयायी संख्या घटती रही थी तो उसका कारण बौद्ध विहारों में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं पाषण्ड की प्रचुरता थी। आ गया आप का शब्द पाषण्ड (पाखण्ड)! किंतु ठहरें।
कोई भी राजा इस कारण महान नहीं हो जाता कि किसी मत विशेष का संरक्षक रहा तथा कोई भी मत विशेष इस कारण महान नहीं हो जाता कि कोई राजा विशेष उसका संरक्षक रहा। ऐसी बातें प्रचण्ड मूर्खतायें हैं।
यदि आप भारतीय वाङ्मय का सावधान निरीक्षण करेंगे तो पायेंगे कि कितने ही मत मतांतर सहज स्वाभाविक ही काल की गति में तिरोहित हो गये, नये आ गये। कभी इस धरा पर विष्णु वराह प्रमुख देवता थे, आज कहीं नहीं हैं। कभी गुप्तों के प्रिय रहे देवसेनापति स्कंद आज उत्तर भारत में पूजित होते नहीं दिखेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। संसार में ऐसा कोई भी साम्प्रदायिक साहित्य नहीं है जिसमें इतर सम्प्रदाय हेतु बुरी बातें न लिखी हों। शैव, वैष्णव, पाशुपत, जैन, बौद्ध आदि ग्रंथों में जाने कितने उदाहरण मिलेंगे। पश्चिमी मतों में भी हैं। अन्तर इससे आता है कि समेकित जन का मूल आचरण कैसा रहा? आप के यहाँ जन सामान्य में वह कठोरता नहीं रही जिसके कि अब्राहमी अभ्यस्त हैं। एक ही परिवार में भिन्न भिन्न मतावलम्बी रहते थे। इसी प्रकार किसी राजा की महानता के निकष येन केन प्रकारेण भूमि चौर्य एवं लूट विजय मात्र यहाँ नहीं थे। पश्चिम में यही निकष थे।
भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष, ब्राह्मण परम्परा द्वारा बौद्धों का नाश तथा अशोक ‘महान’ आदि स्थापनायें अब्राहमी सोच की देन हैं। उन्हें सिकंदर महान के समांतर एक महान मिल गया जिसकी महिमा इस पर निर्धारित की गयी कि उसने रक्तपात त्याग दिया। इतिहास में भ्रातृघाती चण्ड अशोक मिलता है। देवानांप्रिय अशोक ने बौद्ध होने के पश्चात कलिंग का नरसंहार किया न कि उस संहार से दुखित हो बौद्ध हुआ। बौद्ध होने के पश्चात भी उसके आहार के लिये पाकशाला में पशु काटे जाते रहे जो कि बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध था। संक्षेप में यह समझें कि जिस आधार पर अशोक महान गढ़ा गया है, वह भारतीय आदर्श नहीं है।
इस भूमिका के साथ पाषण्ड पर आते हैं जिसे पाखण्ड भी लिखा जाता है। इसकी दो व्युत्पत्तियाँ बताई गयी हैं। एक सरल है – पा+खण्ड। पा का अर्थ वैदिक अनुशासन हैं, विधि विधान हैं, मान्यतायें हैं; उनका जो खण्डन करे वह पाखण्डी है। आप के यहाँ आस्तिक एवं नास्तिक की परिभाषा ईश्वर आधारित नहीं रही है, वेद आधारित रही है। जो वेदों की सर्वोच्चता या अपौरुषेयता स्वीकार करे, वह आस्तिक मत है, जो न करे वह नास्तिक मत। ब्राह्मण एवं श्रमण का भेद जाति आधारित नहीं है। वेदों का नवनीत ब्रह्म है, उसकी सत्ता मानने वाला ब्राह्मण है। उसके विपरीत श्रम (इसे मात्र दैहिक श्रम न समझें) मार्गी श्रमण है। ब्राह्मण को ब्राह्मण जाति बना कर, जातीय अत्याचार का झूठा कथ्य स्थापित कर ब्रिटिशों ने अनेक लक्ष्य प्राप्त कर लिये, भारत आज तक उनसे जूझ रहा है, जूझता रहेगा। अथातो ब्रह्मजिज्ञासा हो, प्रस्थानत्रयी हो, आदि शंकर का अद्वैत हो; सबके मूल में वही ब्रह्म है। उसी से श्रमण परम्परा का मार्ग भिन्न है।
किसी के कुछ भी मानने या न मानने से कोई मत या सम्प्रदाय या विचारधारा महान या निकृष्ट नहीं हो जाती, त्याज्य या वरेण्य नहीं हो जाती। ऐसा होता तो षड्दर्शन नहीं होता। ब्रिटिश मानसिकता पोषित नवबौद्ध वैचारिकी ऐसी भ्रामक स्थापनाओं पर राजनीति करती चलती है जिसकी क्षुद्र आक्रामकता ही उसके खोखले आधार को दर्शाती है तथा आतंकी इस्लाम से उसकी निकटता के पीछे भी वही है।
पाषण्ड की जो दूसरी व्याख्या है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण है। पा धातु का एक अर्थ संरक्षण से भी जुड़ता है। भारतीय मनीषा ने इस विराट संसार में एक नियामक सर्वोच्च ‘ऋत’ को समझा तथा उसके अनुकरण में स्वयं के चिंतन एवं आदर्श प्रसारित किये। ऋतं गोपाय के आधार पर समस्त विधि विधान विकसित हुये। चक्रवर्ती राजा को धर्मगोप्ता होना ही था। गोपा शब्द के दो अक्षरों में गो बहुअर्थी है तथा बहुत व्यापक है। इंद्रिय रक्षण, प्रजा रक्षण, गो ब्राह्मण रक्षण, श्रुति रक्षण, स्त्री रक्षण … पा के जाने कितने आयाम हैं, गो के जाने कितने अर्थ।
षण्ड लिंग है अर्थात अभिज्ञान, चिह्न। पाषण्डी वह है जो मात्र इसके चिह्न दर्शाता हो कि वह उदात्त मानवीयता का रक्षक है, वास्तव में न हो। इससे आगे बढ़ कर देखें तो पायेंगे कि वह अपनी मिथ्या सोच को, अंधकार को ही प्रकाश मानता है। मोर को घनपाषण्ड कहा गया है अर्थात ऐसा पक्षी जो प्रकाश को ढकने वाले बादलों की उपस्थिति से प्रसन्न होता हो। ब्राह्मण परम्परा ने श्रमण परम्परा को पाषण्डी इस कारण कहा कि उसकी दृष्टि में वे भ्रमित थे एवं भ्रम का प्रसार करते थे। इसी प्रकार श्रमण बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में ब्राह्मण मत हेतु आप को जाने कितनी संज्ञायें एवं ‘विशेषण’ मिलेंगे। दोनों पक्षों में हैं, इनकी उपस्थिति से न तो कोई मत महान हो जाता है, न निकृष्ट। साम्प्रदायिक मतों में ये सामान्य हैं। साम्प्रदायिक शब्द को communal वाले आज के अर्थ में न देखें, सम्प्रदाय सम्बंधित अर्थ में लें।
तो बौद्धों को पाषण्डी कहा जाना तथा एक काल विशेष में एक ‘महान’ राजा विशेष द्वारा बौद्धों के संरक्षण के ‘कारण’ कथित पाषण्ड मत को महान बताया जाना सोच एवं तर्क विकृति का ही परिणाम है। उससे आगे बढ़ कर यह स्थापना तो विशिष्ट ब्रिटिश-नवबौद्ध प्रवृत्ति ही है कि ‘पाषण्ड’ नाम का एक बहुत ही प्रतिष्ठित मत अशोक महान द्वारा संरक्षित एवं पूजित था। पाषण्ड नाम से कोई मत विशेष प्रचलित नहीं था, वह विरोधी मत को अपनी दार्शनिक निष्पत्तियों अनुसार दिया गया एक नाम मात्र था। नवबौद्ध वैचारिकी उनकी सबसे बड़ी बौद्धिक शत्रु है जिनके संरक्षण का वह दम भरती है। जब तक यह है, छोटी मोटी सफलतायें भले मिलती रहें, उनकी स्थिति में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होना है। वह मौलिक रूप में बहुत संकीर्ण है तथा जिस इस्लाम से उसकी गलबहियाँ हैं, उसकी भाँति उसके यहाँ मौलिक हिंस्र आक्रांता स्थापनायें नहीं हैं। यह ‘मित्रता पाषण्ड’ आगे चल कर बहुत घातक होगा। चौबे से छब्बे बनने के प्रयास में दूबे भी न रह जाने का इससे उपयुक्त उदाहरण हो ही नहीं सकता।
✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव जी
भारतीय इतिहास का कालक्रम
तथाकथित स्वीकृत कालक्रम का वैज्ञानिक या साहित्यिक आधार नहीं है। यह केवल अंग्रेजों की जालसाजी है, जो उन्होंने जानबूझ कर की थी। पर बिना कोई भारतीय साहित्य पढ़े उनकी नकल करने वाले भारतीयों को यह पता भी नहीं है कि उनके द्वारा लिखित कालक्रम कहां से आया। किसी भी सामान्य साक्षर बच्चे के लिये यह जालसाजी स्पष्ट है जिसने एक भी भारतीय पुस्तक पढ़ी हो। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं-
(१) मैं ६ वर्ष की आयु में भारतीय पञ्चाङ्ग देखना जानता था। पर अभी तक किसी भी भारतीय इतिहासकार ने विक्रम संवत् या शालिवाहन शक का नाम नहीं सुना है। कालक्रम को नष्ट करना था अतः जितने लोगों ने अंग्रेजों की इच्छा के विरुद्ध शक या संवत् आरम्भ किया उनको काल्पनिक कह दिया।
(२) भगवान् राम और कृष्ण के बाद सबसे अधिक साहित्य संवत् प्रवर्त्तक विक्रमादित्य (५७ ईसा पूर्व) के विषय में है। वे उज्जैन के परमार वंशीय राजा थे जिनके राज्य में १८० जनपद थे। उनके पौत्र शालिवाहन ने अपना शक आरम्भ किया। उसके पूर्व विक्रमादित्य के समय ६१२ ईसा पूर्व का चाहमान शक चल रहा था जिसका प्रयोग वराहमिहिर (बृहत् संहिता, १३/३) तथा उनके समकालीन जिष्णुगुप्त के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने किया है। किन्तु ७८ ईस्वी के शालिवाहन शक को १२९२ ईसा पूर्व के कश्मीर के गोनन्द वंशीय राजा कनिष्क (राजतरङ्गिणी, तरङ्ग, १) का बना दिया तथा उसको भारतीय राजा के बदले शक राजा घोषित कर दिया। अल बरूनि ने प्राचीन देशों के कैलेण्डर नामक पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि किसी भी शक राजा ने अपना कोई कैलेण्डर नहीं चलाया था, वे ईरान या सुमेरिया का कैलेण्डर व्यवहार करते थे। यदि मध्य एशिया के शकों ने कुछ समय पश्चिमोत्तर भारत में अपना शक चलाया होता तो उसका उसी क्षेत्र में १०० या २०० वर्षों के लिये प्रयोग होता। पर उनका प्रयोग कम्बोडिया तथा फिलीपीन के लुगुना लेख में भी है तथा सभी ज्योतिष पुस्तकों में गणना के लिए उसी शक का प्रयोग होता है। शक तथा संवत् के विषय में अज्ञान के कारण वर्तमान भारतीय शासन का चलाया गया तथाकथित राष्ट्रीय शक संवत् अभी तक नहीं चल पाया है किन्तु जिन राजाओं को काल्पनिक कहते हैं, उनका शक तथा संवत् अभी तक चल रहा है और उसी के अनुसार भारत में सभी पर्व होते हैं।
(३) एक और प्रचार है कि भारतीय लोग तिथि नहीं देते थे। अल बरूनि ने इसके विषय में भी लिखा है कि भारत के अतिरिक्त अन्य कहीं भी क्रमागत तिथि का कैलेण्डर नहीं था। सुमेरिया, मिस्र, ईरान, यूनान में केवल राजाओं के वर्ष की गणना करते थे जिसमें १०० वर्ष में ३-४ वर्ष तक की भूल होती थी। जहां वर्ष-मास-दिन की क्रमागत गणना थी ही नहीं, वहां के लोग तिथि कैसे दे सकते थे? ग्रीस के मेगास्थनीज, एरियन, सोलिनस, प्लिनी आदि ने लिखा है कि भारत की गणना के अनुसार सिकन्दर के आक्रमण से भारतीय राजाओं की १५४ पीढ़ी पूर्व या ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व बाक्कस का आक्रमण हुआ था। इतना पुराना कैलेण्डर भारत के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं था अतः उस समय उपलब्ध भारतीय साहित्य के अनुसार यह कालक्रम दिया गया। उसके अतिरिक्त यह भी लिखा था कि भारत सभी चीजों में स्वावलम्बी था, अतः पिछले १५,००० वर्ष से भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण नहीं किया।
यह समय भी महाभारत, उद्योग पर्व (२०३/८-१०) में दिया है कि कार्त्तिकेय ने नया कैलेण्डर तब आरम्भ किया जब उत्तरी ध्रुव अभिजित से दूर हट रहा था तथा धनिष्ठा से वर्षा आरम्भ होती थी (१५८०० ई.पू.)। कार्त्तिकेय ने ही क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण किया था जो सिकन्दर आक्रमण से १५,४०० वर्ष पूर्व है। इसे ग्रीक लेखकों ने १५,००० वर्ष लिखा है। इसमें से एक शून्य हटा कर मैक्समूलर ने १५०० ईसा पूर्व में वैदिक सभ्यता का आरम्भ कर दिया और ऋग्वेद से सामवेद तक हर वेद को २-२०० वर्ष का कोटा दे दिया। उसके बाद मैकक्रिण्डल ने १९२७ में मेगास्थनीज की इण्डिका का नया संस्करण लिखा जिसमें १५००० वर्ष पूर्व उल्लेख को हटाया गया। उसके अनुसार ८२४ ईसा पूर्व में असीरिया के राजा नबोनासर के आक्रमण के बाद ७५६ ईसा में रानी सेमीरामी ने उत्तर अफ्रीका तथा मध्य एशिया के सभी राजाओं की ३५ लाख की संयुक्तसेना के साथ आक्रमण किया, जिसे रोकने को मालव गण बना था तथा इनमें एक भी जीवित नहीं लौट पाया था। पर लिखा गया कि इसके १५० वर्ष बाद भारत में १६ महाजनपद हुए। बिना राजा या राज्य के ३५ लाख की सेना को किसने मारा ?
१७७६ में विलियम जोन्स तथा पार्जिटर ने विक्रम संवत् तथा अन्य संवतों की गणना की थी तथा राबर्ट सीवेल ने भारतीय कालक्रम पर विशाल पुस्तक भी शंकर बालकृष्ण दीक्षित की सहायता से लिखी। पर भारत का वैदिक इतिहास १५०० पूर्व के बाद का करने के लिये ३२६ ईसा पूर्व में गुप्त काल का आरम्भ होने के बदले मौर्य काल को १३०० वर्ष पीछे हटा कर उसे सिकन्दर के आक्रमण के समय कर दिया। इसके लिये मालव गण का पूरा इतिहास ही उड़ा दिया जिसके राजाओं ने विक्रमादित्य से पृथ्वीराज चौहान तथा परमार भोज तक शासन किया था। मालव गण का स्पष्ट उल्लेख मेगास्थनीज आदि ने किया है कि बाक्कस तथा सिकन्दर के बीच में दो बार भारत में गणराज्य थे-पहले १२० वर्ष का, बाद में ३०० वर्ष का। १२० वर्ष का गणराज्य परशुराम के समय के २१ गणतन्त्र थे जो ६१७७ ई.पू. में उनकी मृत्यु तक थे। उस समय से अब तक केरल में कलम्ब (कोल्लम) संवत् चल रहा है। दूसरा मालव गण था जो शूद्रक शक (७५६ ई.पू.) से श्रीहर्ष शक (४५६ ई.पू.) तक था। मूढ़ता की पराकाष्ठा यह है कि भारतीय विद्वत् परिषद् के अध्यक्षों में एक एन पी जोशी ने पुणे के भण्डारकर प्राच्य संस्थान से शूद्रक पर पीएचडी किया तथा कनाडा-अमेरिका में ३५ वर्ष तक शूद्रक का मृच्छकटिकम् पढ़ाते रहे, पर उनको भारतीय साहित्य में शूद्रक का उल्लेख नहीं मिला। रमेश चन्द्र मजूमदार ने भी भारतीय इतिहास की जो प्रथम पुस्तक लिखी थी उसमें प्लिनी के अनुसार आन्ध्रवंशी राजाओं की सेना का वर्णन किया था, जो मेगास्थनीज पर आधारित था। इससे स्पष्ट है कि आन्ध्र वंश के अन्त में सिकन्दर आया था जब गुप्त वंश का आरम्भ हुआ था। गुप्त वंश के प्रथम राजा चन्द्रगुप्त के पिता घटोत्कच गुप्त आन्ध्र राजाओं के सेनापति थे जिनको ग्रीक लेखकों ने नाई लिखा है। घटोत्कच का शाब्दिक अर्थ है जिसके घट या सिर पर बाल नहीं हो, इसका अर्थ लगाया कि वह बाल काटने वाला था। उसके बाद के भी ३ राजाओं का नाम भी लिखा है-घटोत्कच (नाई-barber), Agramasa (Xandramasa) = चन्द्रबीज (चन्द्रश्री, आन्ध्रवंश का ३१ वां राजा, जिसका घटोत्कच सेनापति था। बाद के २ बच्चों को नाम के लिये राजा बनाया था।, Sandrocottus = चन्द्रगुप्त-१, Sandrocryptus = समुद्रगुप्त, Amitrochades = अमित्रोच्छेदस (चन्द्रगुप्त द्वितीय ने दिग्विजय किया था, अतः उसे अमित्रों का उच्छेद करने वाला कहते थे)| मजूमदार को मेगास्थनीज के अनुसार आन्ध्रवंश का वर्णन करने के लिये डांट पड़ी (प्राचीन भारत का इतिहास, पृष्ठ, १३५), तो उनकी सहायता के लिए कालीकिंकर दत्त तथा हेमचन्द्र रायचौधरी ने उनके साथ एक नयी पुस्तक लिखी जिसमें आन्ध्र वंश का मेगास्थनीज द्वारा उल्लेख हटाया गया। तब इस किताब को सिलेबस में लगाया गया। इसी प्रकार भण्डारकर प्राच्य संस्था की पत्रिका के सम्पादक देवसहाय त्रिवेद ने पत्रिका में भारतीय इतिहास का सही कालक्रम पुराणों के अनुसार लिखा तो उनको नौकरी से निकाल दिया गया। उन्होंने अपने ही मत के खण्डन के लिये एक पुस्तक लिखी प्राङ्मौर्य बिहार जिसे भण्डारकर संस्था ने नहीं छापा, अतः बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से छपी। किन्तु उनकी सहायता के लिए कालीकिंकर दत्त या रायचौधरी जैसे अंग्रेज भक्त नहीं मिले, अतः पुनः उनको नौकरी नहीं मिल पायी। उस्मानिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक ने इतिहास के लिये लिखा कि सिकन्दर आक्रमण के समय मौर्य वंश था, पर वही लेखक आन्ध्र गौरव के वर्णन के लिए मेगास्थनीज द्वारा आन्ध्र राजाओं का वर्णन लिखे थे। तिरुपति में मेरे व्याख्यान में उन्होंने भारतीय कालक्रम का विरोध किया तो नेट पर खोजने पर उन्हीं के २ प्रकार के विरोधी वर्णन मिले। पर नौकरी बचाने के लिए झूठा लिखना बहुत जरूरी है।
(४) पुराणों ही भारतीय कालक्रम का एकमात्र आधार है। जो लोग समझते हैं कि केवल शिलालेख से राजाओं का काल पता चला तो वे अपनी मृत्यु तथा अपने वंशजों की मृत्यु का कालक्रम लिख कर दिखा दें। मौर्य अशोक के २४ शिलालेख हैं, किन्तु वह कैसे लिख सकता था कि मैं ३६ वर्ष राज्य करने के बाद मर गया तथा उसके बाद १० वंशजों ने इतने वर्ष राज्य किया?
(५) पुराणों में मुख्य राजाओं का ही वर्णन है, जिनका संस्करण उज्जैन में विक्रमादित्य के काल में हुआ, अतः उनके समय तक के ही राजाओं का वर्णन है। उसके आधार पर कलियुग राजवृत्तान्त नामक पुस्तक में सभी राजाओं का विस्तार से वर्णन हुआ। इसे भविष्योत्तर पुराण भी कहते हैं।
(६) भारतीय कालक्रम के अनुसार पण्डित भगवद्दत्त ने १९४५ में लाहौर से भारत वर्ष का बृहत् इतिहास २ खण्ड में लिखा तथा भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास १ खण्ड में लिखा। विभाजन के समय शान्तिदूतों (इसे कट्टर मुस्लिम पढ़ें) ने उनका पूरा-पूरा संग्रह जला दिया जैसा आरम्भ से नालन्दा विश्वविद्यालय आदि जला कर जिहाद करते रहे हैं। बाद में उनके वंशजों ने दिल्ली के पंजाबी बाग के प्रणव प्रकाशन से उनको पुनः प्रकाशित किया।
उसके बाद विजयवाड़ा के पण्डित कोटा वेंकटाचलम ने कई पुस्तकें लिखी-Chronology of Ancient Hindu History (2 volumes), The Plot in Indian Chronology, Chronology of Nepal, Chronology of Kashmir-Reconstructed, Age of Mahabharata War, Age of Buddha, Milinda, Antiyok-Yugapurana, Historicity of Vikramaditya and Shalivahana|
उसके बाद १९८५-९३ तक पुणे के श्रीपाद कुलकर्णी ने थाणे के पंचपखाड़ी के अपने घर में Shri Bhagavan Vedavyasa Itihasa Samsodhana Mandira (Bhishma) संस्था स्थापित कर १८ खण्डों में भारतीय इतिहास का सम्पादन किया जिसमें उनके कई सहायक भी थे-आन्ध्र प्रदेश के पूर्व आईएएस (स्वर्गीय) ई. वेदव्यास (हैदराबाद में वेदव्यास भारती के संस्थापक), इंजीनियर आर. पी. कुलकर्णी। भारत वर्णन के घोर अपराध के कारण इसे भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में नहीँ रखा गया है, किन्तु Google Books से खरीदने के लिये उपलब्ध हैं। मैंने कुलकर्णी जी को शंकराचार्य काल के विषय में मन्तव्य के लिये पत्र लिखा था जो उनके देहान्त के २ दिन बाद मिला। उनके पौत्र ने श्राद्ध के बाद सभी १८ खण्ड मुझे भेज दिये तथा कहा कि यदि मेरी इच्छा हो तो उनको ६५०० रुपये लागत खर्च दे दूं, जो मैंने बाद में भेजा। भारत के अन्य इतिहास संशोधन करने वाले भी इन पुस्तकों का नाम लेना नहीं चाहते। इन्होंने बिना कोई भारतीय इतिहास पढ़े केवल अंग्रेज जालसाजी की नकल की है। सेवानिवृत्ति के बाद शासन का रूख देख कर अचानक राष्ट्रवादी बन गये हैं तथा केवल अपने नाम से शोध करना चाहते हैं, भगवद्दत्त या कुलकर्णी का कोई नाम भी इनके सामने नहीं ले सकता।
२०१० में कृपालु जी महाराज के शिष्य स्वामी प्रकाशानन्द (भौतिक विज्ञान के छात्र) ने True-History-and-Religion-of-India नामक पुस्तक लिखी जो मैकमिलन से प्रकाशित हुयी। यह वेबसाइट पर भी उपलब्ध है। इस अपराध के लिये ८४ वर्ष की आयु में उनके विरुद्ध बहुत से बलात्कार के केस हुए, पुस्तक लिखने तक वे सच्चरित्र थे। सौभाग्य से कुछ समय बाद उनकी स्वाभाविक मृत्यु हो गयी नहीं तो सभी मानवाधिकार नेता तथा न्यायालय उनको जेल में ही रखते।
✍🏻अरुण उपाध्याय