संख्या बल में हारने के बाद क्या हैं शरद पवार के सामने विकल्प?
Ncp Election Symbol Sharad Pawar Claims Will Not Let It Go But How Know Rules
NCP का चुनाव चिह्न जाने नहीं दूंगा… संख्याबल साथ नहीं है तो फिर क्या करेंगे शरद पवार?
‘पवार बनाम पवार’ की जंग तीखी होती जा रही है। अजित पवार गुट ने पार्टी और चुनाव चिन्ह पर दावा किया है। इस बाबत उसने निर्वाचन आयोग का दरवाजा भी खटखटा दिया है। इसके उलट शरद पवार ने कहा है कि वह किसी भी सूरत में पार्टी का चुनाव चिन्ह छिनने नहीं देंगे। हालांकि, यह काफी मुश्किल दिख रहा है।
हाइलाइट्स
शरद पवार का दावा- चुनाव चिन्ह जाने नहीं दूंगा
अजित गुट ने पार्टी चुनाव चिन्ह पर किया है दावा
निर्वाचन आयोग को फिर लेना है बड़ा फैसला
नई दिल्ली 06 जुलाई: राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के प्रमुख शरद पवार को भतीजे अजित पवार की ‘गुगली’ भारी पड़ रही है। अजित पवार ने उन्हें चारों खाने चित कर दिया है। पार्टी के ज्यादातर विधायकों को तोड़ने के साथ अजित एनसीपी के चुनाव चिन्ह को भी कब्जे में लेने की दिशा में भी बढ़ गए हैं। शरद पवार ने कहा है कि वह किसी को भी पार्टी का चुनाव चिन्ह छीनने नहीं देंगे। लेकिन, शरद पवार के साथ न तो संख्याबल है। न पिछले उदाहरणों से उनके लिए शुभ संकेत मिलते हैं। अजित पवार गुट ने एनसीपी के चुनाव चिन्ह पर दावा किया है। इसके लिए उसने निर्वाचन आयोग का रुख किया है। अब इस पर कोई फैसला निर्वाचन आयोग ही करेगा। मौजूदा कानूनी ढांचे के अनुसार इस पर निर्णय लिया जाएगा।
चुनाव आयोग को अजित पवार से एनसीपी पार्टी और उसके चिन्ह पर दावा करने वाली याचिका मिल चुकी है। इसके उलट शरद पवार गुट से उसे कैविएट मिला है। इसमें कहा गया है कि उन्होंने 9 विधायकों के खिलाफ अयोग्यता प्रक्रिया शुरू कर दी है। निर्वाचन आयोग दोनों गुटों में से चुनाव चिन्ह और पार्टी किसे देगा यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। लेकिन, इस घमासान शिवसेना प्रकरण की याद दिला दी है। सब कुछ ठीक वैसे ही हो रहा है। ऐसे में अगर शिवसेना प्रकरण को ही उदाहरण माने लें तो पलड़ा भतीजे का भारी है। यानी अजित जल्दी ही चाचा शरद पवार को पैदल कर सकते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण संख्याबल है। शक्ति प्रदर्शन के मकसद से अजित पवार गुट ने बैठक बुलाई थी। इसमें एनसीपी के 53 विधायकों में से 32 ने बैठक में हिस्सा लिया। यह शरद पवार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है।
शिवसेना मामले से सीधा कनेक्शन
अब सीधे इसको शिवसेना प्रकरण से कनेक्ट करते हैं। पिछले साल अक्टूबर में चुनाव आयोग ने शिवसेना नाम और पार्टी के चिन्ह के इस्तेमाल पर रोक लगाई थी। इसकी वजह दो धड़ों के बीच आपसी लड़ाई थी। पार्टी में यह दोफाड़ उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के बीच हुई थी। शिंदे ने ठाकरे के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया था। संख्याबल में भारी पड़ने के बाद उद्धव को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा था। शिंदे गुट ने बीजेपी संग मिलकर सरकार बना ली थी। इसके बाद शिंदे और उद्धव गुट ने निर्वाचन आयोग का दरवाजा खटखटाया था।
शिंदे ने चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 का हवाला दिया था। उसने मांग की थी कि शिवसेना का नाम और चिन्ह उसे दिया जाए। इसके उलट उद्धव गुट ने इसका तीखा विरोध किया था। यहां तक उद्धव ने आयोग की कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का भी रुख किया था। यह और बात है कि शीर्ष न्यायालय ने उद्धव की याचिका खारिज कर दी थी। साथ ही यह भी कहा था कि निर्वाचन आयोग इस बाबत फैसला लेने के लिए बिल्कुल आजाद है। बाद में एकनाथ शिंदे गुट को शिवसेना का नाम और पार्टी सिंबल धनुष बाण मिल गया था।
‘पवार बनाम पवार’ की लड़ाई ‘शिंदे बनाम उद्धव’ से बिल्कुल मिलती-जुलती है। यही कारण है कि शरद पवार कितने भी दावे क्यों न कर रहे हों। अभी इस लड़ाई में अजित भी भारी दिख रहे हैं।
निर्वाचन आयोग कैसे तय करता है कि सिंबल किसे मिले?
इस सवाल पर फैसले के लिए चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 है। यह निर्वाचन आयोग को क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को चुनाव चिह्न आवंटित करने का अधिकार देता है। शिवसेना मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी का हवाला दिया था। इस ऑर्डर में बताया गया है कि पार्टी टूटने की सूरत में नाम और सिंबल किसे दिया जाए। इसे लेकर कुछ शर्तें हैं। इन पर संतुष्ट होने के बाद ही चुनाव आयोग कोई फैसला लेता है। शर्त यह है कि आयोग संतुष्ट हो कि एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल में प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह हैं। इसके बाद आयोग मामले के सभी उपलब्ध तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रतिनिधियों को सुनता है। फिर वह इस निष्कर्ष पर पहुंच जा सकता है कि ऐसा एक प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल नहीं है। आयोग का फैसला ऐसे सभी प्रतिद्वंद्वी वर्गों या समूहों पर बाध्यकारी होता है।
शरद पवार के हाथ में क्या है?
अभी की सूरत में शरद पवार के सामने वेट एंड वॉच के अलावा कोई विकल्प नहीं है। डैमेज कंट्रोल के लिए उन्हें बागी विधायकों के साथ बातचीत में जुट जाना चाहिए। निर्वाचन आयोग का कोई भी फैसला संख्याबल पर होगा। इस मोर्चे पर शरद पवार मात खाए तो बाजी उनके हाथों से निकल जाएगी।