अक्षय वट जिसे अकबर-जहांगीर भी नष्ट नहीं कर पाए,
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Mahakumbh 2025: अकबर ने किले में घेरा, जहांगीर ने कटवाया, कई बार जलवाया फिर भी राख से पनप गया अक्षय वट
जहांगीर ने अक्षयवट को कटवा दिया था. उसने उस जगह को लोहे की मोटी चादर से ढंकवा दिया था. ताकि दोबारा वृक्ष बाहर नहीं निकले, लेकिन फिर भी इसकी कोंपलें पनप गईं. जहांगीर तो इसके मूल में गरम तवा रखवाकर और जड़ों में आग लगवाकर भी इसे नष्ट कर देना चाहता था, लेकिन यह वटवृक्ष अपनी राख से भी निकल आया.
प्रयागराज मे संगमतट पर पातालपुरी मंदिर में मौजूद अक्षयवट, इस अक्षयवट के तने को लाल कपड़े से घेरा गया है. इसे प्रत्यक्ष देव माना जाता है.
प्रयागराज मे संगमतट पर पातालपुरी मंदिर में मौजूद अक्षयवट, इस अक्षयवट के तने को लाल कपड़े से घेरा गया है. इसे प्रत्यक्ष देव माना जाता है.
विकास पोरवाल
नई दिल्ली,17 जनवरी 2025,प्रयागराज में जहां संगमतट पर महाकुंभ-2025 का जमघट है, इसी पुण्य भूमि पर एक और प्राचीन तीर्थ भी पौराणिक काल से मौजूद है, जो इस स्थान के महत्व को और भी अधिक सार्थक कर देता है. संगम तट पर यमुना नदी कि किनारे एक ऐतिहासिक किला मौजूद है, इसी किले की भीतरी दीवार में मौजूद है अक्षय वट. इस अक्षयवट का लिखित इतिहास ही तकरीबन 400 साल पुराना है, लेकिन मान्यता है कि यह वटवृक्ष अविनाशी है. वर्तमान में यह अक्षयवट पातालपुरी मंदिर के भीतर अपनी फैली हुई जड़ों के साथ विराजमान है. इस वृक्ष का ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ पौराणिक महत्व भी है.
श्रीराम ने की थी महादेव की स्थापना
इतिहास कहता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों से लेकर मुगल सम्राट जहांगीर तक ने इस वृक्ष को नष्ट करने का प्रयास किया, लेकिन हर बार यह वृक्ष अपनी राख से पुनः उत्पन्न हो गया. भगवान श्रीराम, सीता माता और लक्ष्मण जी ने भी अपने वनवास के दौरान इस वृक्ष के नीचे विश्राम किया था. श्रीराम ने यहां शूल टंकेश्वर महादेव का जलाभिषेक किया था, जिनके जल की धारा अक्षयवट की जड़ों तक पहुंचती है और संगम में विलीन हो जाती है. मान्यता है कि अदृश्य सरस्वती नदी भी अक्षयवट के नीचे से बहती है और त्रिवेणी संगम में मिलती है.
महाप्रलय का भी साक्षी है अक्षयवट
पुराण कथाएं दावा करती हैं कि यह वट वृक्ष सृष्टि के आरंभ के साथ ही उत्पन्न हुआ और यह हर बार होने वाली महाप्रलय के साक्षी भी है. इसकी चर्चा पद्म पुराण में भी की गई है. प्रयाग में पाताल पुरी मंदिर वर्तमान किले के भीतर ही है और इसी में अक्षयवट भी मौजूद है. यह मंदिर ‘असिमाधव’ के नाम से भी जाना जाता है. वटवृक्ष के पास होने के कारण यह स्थान भगवान् विष्णु और शिव का भी वास माना जाता है. पद्मपुराण में वर्णित प्रयाग माहात्म्य शताध्यायी के अंतर्गत यह उल्लेख मिलता है कि पाताल लोक के नाग और नागिनियां शेषनाग के साथ भगवान् हरि और हर दोनों का एक साथ दर्शन करने के लिए इसी स्थान पर आए तथा यहीं उनके सचिव बनकर निवास करने लगे.
ज्ञान का प्रतीक माना जाता है वट वृक्ष
अखंड भारत की अनेक अद्भुत धरोहरों में अक्षयवट और प्राचीन पातालपुरी मंदिर को बेहद महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. अक्षयवट का अर्थ है ‘अविनाशी वट वृक्ष’. यह नाम संस्कृत के शब्दों ‘अक्षय’ (अविनाशी) और ‘वट’ (बरगद) से बना है. पद्म पुराणों के अनुसार, महाप्रलय के समय जब सृष्टि जलमग्न हो जाती है और जीवन का कोई चिह्न नहीं होता, तब भी एक वट वृक्ष बच जाता है, जो जीवन को फिर से शुरू करने में सहायक होता है. मार्कंडेय ऋषि को भगवान कृष्ण ने बाल मुकुंद के रूप में वट वृक्ष के पत्ते पर ही दर्शन दिए थे. वट वृक्ष सृष्टि की आधारशिला और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है.
माता सीता ने दिया अविनाशी होने का वरदान
अक्षयवट से जुड़ी एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, राजा दशरथ के निधन के बाद श्रीराम पिंडदान के लिए सामग्री लेने गए थे. उस दौरान राजा दशरथ अक्षयवट पर प्रकट हुए और सीता माता से भोजन मांगा. माता सीता ने अक्षयवट के नीचे से रेत उठाकर पिंड बनाकर राजा दशरथ को अर्पित किया. उधर, जब श्रीराम आए और पिंडदान करने लगे तब सीताजी ने कहा कि आपकी अनुपस्थिति में मैंने पिंडदान कर दिया है. श्रीराम ने यह बात वटवृक्ष से पूछी तो उसने भी अपनी पत्तों की सरसराहट के जरिए हामी भरी की राजा दशरथ का पिंडदान हो चुका है. तब सीता माता ने इस व़ट वृक्ष को हमेशा ही जीवित रहने का वरदान दिया. उनके स्पर्श और आशीर्वाद ने अक्षयवट को प्रयागराज का सबसे पवित्र स्थल बना दिया. संगम में स्नान कर अक्षयवट के दर्शन करने से वंशवृद्धि और मानसिक व शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।
प्राचीनता का गौरव है पातालपुरी मंदिर और अक्षय वट
पातालपुरी मंदिर एक भूमिगत मंदिर है. यह मंदिर वैदिक काल से अस्तित्व में है और इसे अखंड भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है. मंदिर का निर्माण एक प्राचीन कला का परिचय देता है, यह 84 फीट लंबा और 49 फीट चौड़ा है. मंदिर में लगभग 100 स्तंभ हैं, जो 6 फीट ऊंचे हैं. मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में है. मंदिर में धर्मराज, गणेश जी, काली माता, भगवान विष्णु, शिवलिंग, हनुमान जी, लक्ष्मण जी, सीता माता सहित अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं.
अक्षयवट को कई बार नष्ट करने की हुई कोशिश
पातालपुरी मंदिर के भीतर मौजूद ये अक्षयवट आक्रांताओं के हमलों का भी शिकार हुआ. सन् 1575 में जब मुगल बादशाह अकबर प्रयाग पहुंचा तो उसे यहां की दोआबा (गंगा-यमुना से सिंचित जमीन) बहुत रास आई. अकबर ने यहां आकर आत्मिक खुशी महसूस की और फिर उसने इस स्थान पर एक किला बनाने का विचार किया. यमुना नदी के किनारे किला बनाते हुए उसने प्राचीन पातालपुरी मंदिर को भी किले के भीतर ही समेट लिया और इस तरह यह अक्षय वट भी इसके भीतरी हद में आ गया. इस तरह अकबर ने भी किला निर्माण करते हुए इस वट वृक्ष के बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचाया. ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि अकबर ने 1583-84 में इस किले को बनवाया था और तब ही इस वट वृक्ष की फैले विस्तृत स्थल पर किले का कब्जा हो गया. वरना इसके पहले इस वट वृक्ष के चारों तरफ इसकी छाया में 1000 लोग आराम से बैठ सकते थे.
जहांगीर ने जलवाया, कई बार कटवाया
अकबर के बाद यह किला जहांगीर के अधीन हो गया था. जहांगीर ने भी इस किले को और विस्तार देने के लिए पातालपुरी मंदिर वाले स्थान पर निर्माण कराना चाहा, जहां इस वट वृक्ष की मौजूदगी भी थी. यह बरगद का पेड़ इतना प्राचीन था कि इसकी जड़-जटा अंदर ही अंदर बहुत दूर तक फैली हुई थीं और एक तरीके से पातालपुरी मंदिर को भी अपने में जकड़े हुए है. जहांगीर को एक और बात पता चली थी, जिससे वह बेहद अचरज में था. उसे पता चला था कि लोग इस पेड़ से कूदकर गंगा में अपने प्राण त्याग करते हैं.
असल में उस समय के भारत में ‘करवत कासी’ नाम की एक प्रथा भी प्रचलित थी. इस प्रथा के मुताबिक काशी, या गंगा में प्राण त्यागे जाएं तो मरने के बाद स्वर्ग और मोक्ष मिलता है. प्रयाग में पातालपुरी मंदिर के पास त्रिवेणी होने के कारण यहां भी यही मान्यता थी. संत कबीर ने अपनी ‘साखी’ में इस प्रथा की खूब आलोचना की है, बल्कि इसीलिए वह अपने अंत समय में मगहर चले आए थे.
अलबरूनी ने अक्षयवट पर क्या लिखा?
फारसी विद्वान अलबरूनी जब 1017 ईस्वी में भारत आया था, तब उसने भी इस प्रथा को देखकर चौंकने वाला रिएक्शन दिया था. अलबरूनी अपने दस्तावेजों में दर्ज करता है कि ‘यहां संगम के पास एक बड़ा सा वृक्ष है, जिसकी लंबी-लंबी शाखाएं हैं. यह एक वट वृक्ष है, जिसे अक्षयवट कहा जाता है. इस वृक्ष पर चढ़कर ब्राह्मण और क्षत्रिय गंगा में कूदते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं. इसके दोनों तरफ मानव कंकाल और हड्डियों के अवशेष दिखते हैं. कई लोग तो खुद को गंगा में डुबोने के लिए एक व्यक्ति भी साथ लेकर जाते हैं. वो व्यक्ति तब तक उन्हें गंगा में डुबोए रखता है जब तक प्राण न निकल जाए.’ उसका ये दस्तावेज किताब की शक्ल में ‘तारीख-अल-हिंद’ नाम से जाना जाता है.
ह्वेनसांग ने भी किया है चौंकाने वाला वर्णन
अक्षयवट को लेकर ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा विवरण में ऐसा ही जिक्र किया है. वह लिखता है कि ‘प्रयाग में संगम तट पर स्थित मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष (अक्षयवट) है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां बहुत दूर तक फैली हुई हैं. इसकी सघन छाया में दाहिने और बाएं अस्थियों के ढेर लगे हुए हैं. ये उन यात्रियों की हड्डियां हैं, जिन्होंने स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दिए हैं.’
राख से भी पनप आया अक्षयवट
हकीम शम्स उल्ला कादरी की किताब तारीख-ए-हिंद के मुताबिक जहांगीर ने अक्षयवट को कटवा दिया था. उसने उस जगह को लोहे की मोटी चादर से ढंकवा दिया था. ताकि दोबारा वृक्ष बाहर नहीं निकले, लेकिन फिर भी इसकी कोंपलें पनप गईं. जहांगीर तो इसके मूल में गरम तवा रखवाकर और जड़ों में आग लगवाकर भी इसे नष्ट कर देना चाहता था, लेकिन यह वटवृक्ष अपनी राख से भी निकल आया. कई बार कटवाने के बावजूद इसमें कोंपले पनप गईं थीं. जहांगीर ने उन रास्तों को भी बंद करवा दिया था, जहां से होकर लोग पातालपुरी मंदिर और वटवृक्ष तक पहुंचते थे.
औरंगजेब ने भी लगाई दर्शन-पूजन पर रोक
औरंगजेब के समय में भी यह वटवृक्ष श्रद्धालुओं की पहुंच से दूर रहा था. बल्कि उसने भी इस वटवृक्ष को किले में ही कैद रखा. मुगल बादशाह बहादुर शाह रंगीला के समय बाजीराव पेशवा ने बादशाह के साथ समझौता किया और तब लोग इस वटवृक्ष सहित पातालपुरी के दर्शन कर सके. बाजीराव पेशवा की माता सन् 1735 ईस्वी में प्रयाग तीर्थ आई थीं और इस मंदिर के दर्शन के लिए पहुंची थीं. उन्होंने इस मंदिर को फिर से स्थापित किए जाने की पहल की थी. हालांकि बाद के सालों में अंग्रेजों ने एक बार फिर मंदिर में दर्शन और अक्षय वट दर्शन पर रोक लगा दी जो कि आजादी के भी कई सालों तक जारी रही.
2019 में आम जनता के लिए खोला गया अक्षय वट
पातालपुरी मंदिर और अक्षयवट लंबे समय तक भारतीय सेना के अधीन रहने के कारण जनता के लिए बंद रहा था. 2018 में दिवंगत सीडीएस जनरल बिपिन रावत और तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने यहां का निरीक्षण किया. इसके बाद मंदिर का पुनरुद्धार कार्य तेजी से किया गया. पेयजल, प्रकाश व्यवस्था और परिक्रमा मार्ग को सुधारने के कार्य पूरे किए गए. इसके बाद 10 जनवरी 2019 को अक्षयवट को जनता के दर्शन के लिए खोल दिया गया.
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