क्या रणनीति है आरिफ मौहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बनाने की
विचार एवं विश्लेषण
आरिफ मोहम्मद ख़ान को केरल से बिहार लाने के पीछे की क्या है रणनीति ? |
आरिफ मोहम्मद खान को बिहार लाने की रणनीति यूं ही नहीं बनाई गई है. कुछ लोग समझते होंगे कि बिहार में वो बीजेपी के लिए मुसलमानों को साथ लाने का काम करेंगे. पर आरिफ मोहम्मद खान की जरूरत उससे कहीं ज्यादा है बीजेपी के लिए. आइये बताते हैं कैसे ?
आरिफ मोहम्मद खान. (फाइल फोटो)
नई दिल्ली,25 दिसंबर 2024,
केंद्र सरकार ने मंगलवार को अचानक केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बना दिया . वहीं बिहार के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर को केरल भेज दिया है. हालांकि इसके साथ ही पूर्व केंद्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला को मणिपुर, जनरल वीके सिंह को मिजोरम, हरि बाबू को ओडिशा का राज्यपाल बनाया गया है. इन सब फैसलों में सबसे अधिक चर्चा आरिफ मोहम्मद खान को बिहार लाने को लेकर ही है. एक तरीके से यह आरिफ मोहम्मद खान के लिए प्रोमोशन है.क्योंकि राज्यपाल के रूप में उन्हें एक और कार्यकाल मिल गया है. आरिफ मोहम्मद खान देश के गिनी चुनी ऐसी मुस्लिम शख्सियतों में से एक हैं जिन्हें वर्तमान बीजेपी सरकार में महत्व मिल रहा है. सवाल यह नहीं उठता है कि आरिफ मोहम्मद खान को बीजेपी क्यों इतना पसंद करती है, ज्यादा मौंजू यह है कि उन्हें बिहार क्यों लाया गया है. क्योंकि मोदी-शाह युग में पार्टी बिना मतलब के एक पत्ता भी नहीं हिलाती है.
1- क्या बिहार विधानसभा चुनावों में मुस्लिम विरोधी छवि को खत्म करने की कोशिश है?
आरिफ मुहम्मद खान को बिहार लाने के पीछे सबसे पहला कारण लोग यह बता रहे हैं कि बीजेपी खान को राज्यपाल बनाकर प्रदेश के करीब 17 प्रतिशत मुसलमानों पर डोरे डाल रही है. पर यह तर्क बहुत ही सतही है. क्योंकि देश के मुसलमान आरिफ मोहम्मद खान को प्रगतिशील मुस्लिम मानते हैं जो बीजेपी का समर्थक है. ऐसी दशा में कौन मुस्लिम आरिफ मोहम्मद खान के चलते बीजेपी को वोट देगा. बीजेपी किसी कट्टरपंथी मुस्लिम को राज्यपाल बनाती तो शायद यह संभव था कि कुछ परसेंट मुस्लिम बीजेपी में अपना भविष्य देखते. आरिफ मोहम्मद खान की इसी प्रगतिशीलता के चलते उनकी राजनीति खत्म हो गई थी. शाहबानों प्रकरण में कोर्ट के फैसले के खिलाफ कानून बनाने के चलते उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ा और विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ हो लिए. पर विश्वनाथ प्रताप सिंह भी जल्दी ही वोट बैंक के चलते मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने लगे थे. इसलिए आरिफ मोहम्मद खान उनके लिए भी अछूत बन गए. इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि उनके आने से बिहार में बीजेपी से कुछ मुसलमान खुश हो जाएंगे.
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2- क्या नीतीश कुमार को संदेश देना है?
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ बीजेपी का भविष्य में सीटों को लेकर संघर्ष होना है. नीतीश कुमार चाहेंगे सभी मुस्लिम बहुल एरिया में उनकी पार्टी जेडीयू को टिकट मिले. पर उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनावों में कुंदरकी की जीत इसके पहले लोकसभा चुनावों मे आजमगढ़ और रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल एरिया वाली सीटें बीजेपी एक बार जीत चुकी है. इसके चलते बीजेपी चाहेगी कि बिहार में भी उसके प्रत्याशी मुस्लिम बहुल एरिया में भी अपना जलवा दिखाएं. बीजेपी आरिफ मोहम्मद खान के बहाने यह भी कहेगी कि वो मुसलमानों की दुश्मन नहीं है. ये भी हो सकता है कि केवल नीतीश कुमार पर दबाव बनाने के लिए बीजेपी कहे कि वो मुस्लिम सीटों पर भी अपने कैंडिडेट उतारनी चाहती है, ताकि दूसरी अन्य सीटों पर बीजेपी अपनी संख्या बढ़ा सके.
3- क्या नीतीश नहीं कर पा रहे आरजेडी पर नियंत्रण
केंद्र की बीजेपी सरकार की यह भी मंशा हो सकती है कि प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी आरजेडी की मनमानी को रोकने के लिए कोई खुर्राट आदमी चाहिए. ये काम नीतीश कुमार नहीं कर पा रहे हैं. एक तो वो शिथिल पड़ चुके हैं और दूसरे लालू परिवार से उनकी निकटता इतनी रही है कि वो हार्ड फैसले इस परिवार के खिलाफ नहीं ले पाते. इस काम में आरिफ मोहम्मद खान पारंगत हैं. केरल में रहते हुए पीआर विजयन की नाक में कई बार उन्होंने दम कर रखा था. बीजेपी अब उन्हें बिहार में इस्तेमाल करना चाहेगी.
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4-2025 के विधानसभा चुनावों के बाद की स्थिति
2025 के विधानसभा चुनावों को लेकर बीजेपी बहुत ज्यादा आश्वस्त तो नहीं ही होगी. वैसे भी बिहार में पिछला चुनाव बीजेपी और नीतीश कुमार करीब करीब हार चुके थे. दूसरी बात यह भी है कि बिहार में चुनाव बाद गठबंधन के दल इधर उधर हो सकते हैं. इन सबके बीच राज्यपाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. इसके लिए एक ऐसे विशेषज्ञ राज्यपाल की जरूरत थी जिसे संविधान और बिहार की राजनीति की समझ हो . इन सब मामलों में आर्लेकर के मुकाबले आरिफ मोहम्मद खान कहीं बेहतर हैं. आरिफ मोहम्मद खान बुजुर्ग हैं पर इतने एक्टिव हैं जितना युवा लोग नहीं हैं. उन्हें संविधान को अपने अनुसार व्याख्या करने की भी योग्यता है, जो मुश्किल समय में बीजेपी के काम आ सकती है.
#संयम श्रीवास्तव आजतक में
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मंगलवार की रात जब राष्ट्रपति भवन से केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के पटना राजभवन तबादले की खबर आई तो सियासी महकमे में सभी चौंक गए। क्योंकि, बिहार के मौजूदा राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर के मुकाबले वह राजनीति में ज्यादा जाने-माने चेहरे रहे हैं और एक ऐसा नाम हैं जो तिरुवनंतपुरम राजभवन में रहते हुए भी राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में बने रहते हैं।
आरिफ मोहम्मद खान इस्लाम धर्म में सुधार और मुसलमानों की परंपराओं पर अपने प्रगतिशील विचारों के लिए मशहूर हैं। 73 वर्षीय खान खासकर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बहुत बड़े पैरोकार माने जाते हैं। तीन तलाक से लेकर बहू-विवाह प्रथा तक के वह कट्टर विरोधी रहे हैं। वह सितंबर 2019 से केरल के राज्यपाल के रूप में कार्यरत रहे हैं।
1) एनडीए के खिलाफ मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकने के लिए!
हमने आरिफ मोहम्मद खान को बिहार तबादला किए जाने को लेकर पटना के एक वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ झा से बात की है। उनका कहना है कि ‘पहली नजर में तो मुझे इसके पीछे यही वजह लगती है कि आने वाले चुनावों में मुसलमान एनडीए के खिलाफ आक्रामक वोटिंग न करें, यही हो सकता है।’
वहीं एक स्थानीय भाजपा नेता ने कहा कि ‘लगता है कि यह मुस्लिम ध्रुवीकरण रोकने के लिए किया गया है। नीतीश कुमार भी मुसलमान चेहरा के माध्यम से मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी करना चाहते होंगे।’
2) आरिफ मोहम्मद खान का ‘लिबरल मुस्लिम’ वाला चेहरा
आरिफ मोहम्मद खान का राज्यपाल के संवैधानिक पद पर पहुंचने से पहले सक्रिय राजनीति में बहुत लंबा करियर रहा है। उन्होंने छात्र राजनीति से शुरुआत की। फिर भारतीय क्रांति दल से राजनीति में आए और कांग्रेस की सरकार में केंद्र में मंत्री भी बने। कांग्रेस के साथ-साथ बसपा के टिकट पर भी जीतकर संसद पहुंचे।
2004 में भाजपा के साथ जुड़े, लेकिन पूरे करियर में मुस्लिम सुधारों के लिए आवाज उठाते रहे और मुस्लिम महिलाओं के लिए प्रगतिशील विचारों की पैरवी करते रहे। शाहबानो केस को लेकर उन्हें राजीव गांधी की सरकार इसीलिए छोड़नी पड़ी, क्योंकि वह एक बुजुर्ग पीड़ित मुस्लिम महिला के लिए आवाज उठाना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस में रहते यह मुमकिन नहीं था।
राजभवन में एक मुस्लिम चेहरा होने की वजह से एनडीए को विपक्ष के तर्कों के खिलाफ भी एक हथियार भी मिल सकता है कि बीजेपी मुसलमानों की उपेक्षा करती है। उसके पास यह दलील होगी कि वह कट्टरपंथी मुसलमानों की नहीं, मुस्लिम समुदाय की प्रगति के विचारों की हिमायती है।
3) बिहार के साथ ही यूपी भी साधने की कोशिश!
आरिफ मोहम्मद खान उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं और उनका पूरा राजनीतिक करियर प्रदेश की राजनीति से सजा और संवरा है। वह यूपी विधानसभा के भी सदस्य रह चुके हैं और कानपुर और बहराइच का कांग्रेस सांसद के रूप में और बहराइच का एक बार बसपा के एमपी के रूप में लोकसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। हालांकि, 2004 में कैसरगंज से बीजेपी के टिकट पर उन्हें सफलता नहीं मिली थी।
पड़ोसी राज्य में राज्यपाल बनाकर भाजपा उत्तर प्रदेश के प्रगतिशील और सुधारवादी मुसलमानों को भी एक संदेश देना चाहती है। साथ ही साथ-साथ वक्फ बोर्ड विधेयक के मुद्दे पर विपक्ष की ओर से बनाए गए माहौल के खिलाफ इसकी एक काट भी हो सकती है।
4) आरिफ मोहम्मद खान की खुद की भी इच्छा हो सकती है!
केरल के गवर्नर के तौर पर आरिफ मोहम्मद खान का कार्यकाल बहुत ही विवादों से भरा रहा है। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की अगुवाई वाली लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (LDF) की सरकार के साथ उनके अनेकों मुद्दों पर टकराव हो चुके हैं। कई मामले अदालत तक में पहुंचे हैं। वरिष्ठ पत्रकार झा ने संभावना जताई है कि ‘हो सकता हो कि इस तबादले में खान की खुद की भी इच्छा रही हो’। क्योंकि,हो सकता है कि बचा हुआ कार्यकाल वह शांतिपूर्ण तरीके से पूरा करना चाहते हों।
5) राजभवन में स्थानीय नेताओं की आसानी से एंट्री मुश्किल!
आरिफ मोहम्मद खान का व्यक्तित्व अलग है। नेताओं के लिए उन्हें आसानी से प्रभावित कर पाना मुश्किल है। निश्चित रूप से उनके तबादले में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भी सहमति रही है।
बीजेपी के उसी नेता ने बताया कि ‘नीतीश नहीं चाहते कि राजभवन में उनके अलावा बाकी नेताओं की एंट्री आसान रहे और जो जब चाहे कोई भी राज्यपाल से समय लेकर मिल आए। इसलिए उन्हें एक ऐसा राज्यपाल चाहिए जिन तक केंद्र के अलावा उनके लिए ही पहुंच सुलभ रहे और हर कोई वहां तक आसानी से नहीं पहुंच पाए।’
वन इंडिया में अंजन कुमार चौधरी
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