कब है नव-वर्ष? चैत्र प्रतिपदा जब दिन-रात बराबर होंगें

प्रकृति की नब्ज बताती भारतीय कालगणना

लेखकडॉ राम अचल
(लेखक आयुर्वेद चिकित्सक तथा विश्व आयुर्वेद काँग्रेस के सदस्य हैं)

नववर्ष कालगणना का वार्षिक शुभारम्भ होता है, पूरी दुनिया में 96 तरह की कालगणना प्रचलित है, केवल भारत में ही 36 प्रकार की कालगणना रही है, जिसमें 24 पद्धतियाँ अब विलुप्त हो चुकी है परन्तु 12 कालगणना विधियाँ आज भी प्रचलित है। इस तरह दुनियाँ में 96 दिन नववर्ष होता है तथा भारत में 12 दिन नववर्ष मनाया जाता है। भारतीय कालगणना में स्वयंभुव मनु संवत्सर, सप्तर्षि संवत्, गुप्त संवत्, युधिष्ठिर संवत्, कृष्ण संवत्, ध्रुव संवत्, क्रोंच संवत्, कश्यप संवत्, कार्तिकेय संवत्, वैवस्वत मनु संवत्, वैवस्वत यम संवत्, इक्ष्वाकु संवत्, परशुराम संवत्, जयाभ्युदय संवत्, लौकिक ध्रुव संवत्, भटाब्द संवत् (आर्यभट), जैन शक संवत्, शिशुनाग संवत्, नंद शक्, क्षुद्रक संवत्, चाहमान शक, श्रीहर्ष शक, शालिवाहन शक, कल्चुरी या चेदी शक, वल्भिभंग संवत, फसली संवत्, सरहुल संवत् के अनुसार नववर्ष मनाया जाते हंै। उत्तर भारत में विक्रम और शक संवत् विशेष प्रचलित है जो चैत्र मास से आरम्भ होता है।

कालगणना का मौलिक उद्देश्य प्रकृति के अनुसार जीवनशैली और काम-काज को व्यवस्थित करना होता है। प्रकृति के बदलावों, मौसम, ऋतुओं, ठंडी, गर्मी, बरसात से मानव जीवनशैली और काम-काज प्रभावित होता है। इसलिए मानव जीवन को समायोजित और प्रबंधित करने के लिए कालगणना की शुरुआत हुई। आज दुनिया में ईस्वी कलैण्डर सर्वाधिक प्रचलित और मान्य है, जिससे राजकीय और दैनिक काम-काज किए जाते है। प्रकृति के परिवर्तनों को जानने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ और तकनीक की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु भारतीय मनीषीयों ने कालगणना की ऐसी पद्धति का विकास किया, जिससे दैनिक कामकाज के अलावा प्रकृति में होने वाले समस्त परिवर्तनों को सूक्ष्मता पहचान करना संभव रहा है। इसे कृत-विक्रम और शक संवत् के नाम से जाता है। इसकी चर्चा करने से पहले भारत में प्रचलित कालगणना का कुछ पाश्चात्य विधियों का संक्षिप्त परिचय जानना आवश्यक लगता है। कालगणना की सभी विधियाँ सूर्य-पृथ्वी-चन्द्र की गति पर आधारित होती हैं।

ग्रेगोरियन कलैण्डर
इसे सामान्यत: ईस्वी सन् के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह वैश्विक कलैण्डर के रूप में मान्य है। इसका आधार चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा और सूर्य पर केन्द्रित है। इसके पहले यह जूलियन कलैण्डर के नाम से जाना जाता था। इसकी त्रुटियों को पोप ग्रेगोरी अष्टम ने सुधार कर व्यावहारिक बनाया, इसलिए इसे ग्रेगोरियन कलैंडर कहा जाता है। इसकी गणना ईसा मसीह के जन्म को मध्य बिन्दु मानकर की जाती है। जन्म के पहले के समय को ईसा पूर्व तथा बाद के समय को ईस्वी सन् कहते हैं। हिजरी कलैण्डर इस्लामिक कालगणना है। इस कलैण्डर में पृथ्वी की सूर्य परिक्रमा पथ की गणना न किये जाने के कारण हिजरी वर्ष, विक्रम और ईस्वी वर्ष से 11 दिन कम होता है। इसके महीने प्रत्येक वर्ष 10-11 दिन पीछे खिसक जाते है, इसलिए हिजरी के महीने मौसम के अनुसार स्थिर नहीं होते है।

भारतीय गणराज्य के गठन के पश्चात भारतीय पर्व-त्यौहारों के निर्धारण में ईस्वी सन् से समस्या होने लगी, इसलिए भारतीय कलैण्डर की आवश्यकता महसूस हुई। भारत में प्रचलित अनेक कलैण्डरों में ईस्वी के समानान्तर शक संवत् को माना गया जिसे अधिक स्पष्ट और प्रायोगिक बनाने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा की अध्यक्षता में ज्योतिर्विदों-वैज्ञानिकों की एक समिति गठित की गई। इसके द्वारा संशोधित शक संवत् पंचांग तैयार किया गया, जिसे सरकार द्वारा 21 मार्च 1957 को राष्ट्रीय शक संवत्-पंचांग घोषित किया गया। इनके महीनों का नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण आदि विक्रम संवत् के ही अनुसार रखा गया है।

शक और विक्रम संवत् का नववर्ष
शक संवत् के बाद और विक्रम संवत् की चर्चा के पहले दोनों संवतों के आरम्भ होने के दिन के संबंध में चर्चा करनी आवश्यक है, क्योकि इसके विषय में आम लोगों के साथ ही विद्वानों में भी भ्रम है। जैसा कि शक संवत् के प्रसंग में विवरण दिया गया है कि शक संवत् की शुरुआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होती है, जबकि शक संवत् से 135 वर्ष पहले शुरू होने वाले कृत या विक्रम संवत् की गणना चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से ही की जाती है। लोक परम्परा भी यही रही है। इस दिन को होली, फगुआ, मदनोत्सव, फाग आदि के रूप में मनाने का प्राचीन परम्परा रही है। शक और विक्रम संवत् के प्रचलन से पहले प्राचीन शैवागम ग्रंथ वर्षक्रिया कौमुदी में मदनोत्सव से नये वर्ष की शुरुआत करने का संकेत मिलता है। इस प्रकार लोक मानस और शास्त्र-ज्योतिष गणना के अनुसार कृत या विक्रम संवत् का नववर्ष होली का पर्व ही है। इसकी परम्परा आज भी जारी है पर विविध पौराणिक कथाओं के प्रसारित होने के कारण उसके अर्थ बदल गये है। इधर कुछ वर्षो में जनसंचार माध्यमो का प्रसार के कारण यह वैज्ञानिक तथ्य बिल्कुल ही खो चुका है, जबकि भोजपुरी क्षेत्र के गाँवो में आज भी नये वर्ष के रूप में कमोबेस यह परम्परा जारी है। लोग अब भी यह कहते मिल जाते कि फागुन बीत गया, साल का पहला दिन फगुआ भी खुशी के साथ बीत जाये तो बहुत बड़ी बात है।
उपरोक्त वर्णित सभी कलैंडर राज-काज के लिए सुविधाजनक है, परन्तु विक्रम कलैण्डर प्रकृति के क्षण-क्षण बदलते स्वभाव का मापन करने में सक्षम है। इसकी रचना इस तरह की गयी है कि यह वैद्य की तरह प्रकृति की नब्ज की पहचान करता है। इसकी विशेषता यह है कि पर्वो के अतिरिक्त खेती-किसानी, वर्षा, ठंडी, गर्मी, आँधी-तूफान, सूखा, बाढ़, मौसम, ऋतुओं, जलवायु आदि सभी का संकेत भी इससे मिलता है, जिन्हें जानने के लिए आज भारी-भरकम यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। ज्योर्तिग्रंथो के अनुसार विक्रम संवत् को उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य ने 57 ई.पू. में आरम्भ किया था। आधुनिक इतिहासकार विक्रम संवत में सौर वर्ष के साथ ही चन्द्र वर्ष की गणना को भी शामिल किया जाता है, यही इसे ईस्वी कलैंडर से अलग करता है।

भूमण्डलीय प्रकृति के मापन के लिए विक्रम संवत् सर्वाधिक उपयुक्त है। विक्रम संवत् की कालगणना प्राकृतिक घटनाओं के व्यवहार का मापक पैमाना है, जिसकी गणना विधि सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, राशि(तारामण्डल) के गति पर आधारित है। इसमे सौर वर्ष तथा चन्द्र वर्ष के रूप में एक साथ दो वर्षों की गणना की जाती है, जिन्हे समायोजित-विश्लेषित करके शीत-ताप-जलवायु के परिवर्तनों की अनुमान किया जाता है। इससे वर्ष, मौसम, ऋतु, माह, पक्ष, सप्ताह, दिन, घटी, पल, सूर्योदय, सूर्यास्त की गणना और वर्ष, शीत, ताप, वर्षा, ग्रहण, आँधी, तूफान, बाढ़, सूखा आदि का ठीक-ठीक अनुमान लगाना संभव होता है। प्रकृति में होने वाले बदलावों की सूक्ष्मता से पहचान करने के लिए सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी की गति को तारों, तारासमूहों (राशियों) के माध्यम से चिह्नित किया गया है। नक्षत्रों का संबंध चन्द्रमा की गति से है, राशियों का सूर्य से है। पृथ्वी का पर्यावरण और शीत-ताप-वर्षा के समय का निर्धारण पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा की गति और स्थिति पर ही निर्भर करती है। इसलिए सौर वर्ष के साथ-साथ चांद्र वर्षों की गणना आवश्यक है। वस्तुत: कैलेंडर बनाने का मूल उद्देश्य भी यही रहा है। इसलिए विश्व में लगभग सभी सभ्यताओं के इतिहास में चांद्र वर्षों की गणना मिलती है।

वेदांग ज्योतिष विधि से एक चान्द्र मास शुक्ल पक्ष के पहले दिन यानी प्रतिपदा से शुरू होकर अमावस्या को पूरा होता है। इसके विपरीत सूर्य सिद्धांत ज्योतिष पद्धति से एक चान्द्र मास की गणना कृष्ण पक्ष के पहले दिन से शुरू होकर पूर्णिमा को पूरी होती है। शक संवत् में वेदांग ज्योतिष के अनुसार मास और वर्ष शुरू होता है, इसलिए नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। कृत या विक्रम संवत् में सूर्य सिद्धान्त माना जाता है, इसलिए इसका नववर्ष चैत्र कृष्ण पक्ष से शुरू होता है। पृथ्वी की परिक्रमा करने में चन्द्रमा को 29.53 दिन का समय लगता है। सूर्य की परिक्रमा में 354.37 दिन का समय लगता है। सूर्य के परिपथ को पृथ्वी से विभाजित करने पर 12 चान्द्र मास होते हैं। इस तरह 12 चान्द्र मासों का एक चान्द्र वर्ष होता है। चान्द्र वर्ष की अवधि लगभग 29.53 x 12 = 354.37 दिन होती है। चान्द्र वर्ष की गणना हिजरी कलैण्डर, स्कॉटलैण्ड और चीन में भी की जाती है।
क्यों जरूरी है चान्द्र वर्ष
सौर और चांद्र वर्षों का समायोजन विज्ञान की दृष्टि से भी आवश्यक है। ताप यानी अग्नि का कारक सूर्य तथा शीत यानी जल का कारक चन्द्रमा है। ताप और शीत के संयोग से वायु की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी पर जीवन का कारण अग्नि-जल-वायु का योग है। यही तत्व मानव शरीर के कारक भी है। इसीलिए कहा गया है ‘यत्पिण्डे तद्ब्रह्माण्डे’ अर्थात जो शरीर यानी पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। चन्द्रमा के पृथ्वी, पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के कारण पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न कोणों से भिन्न-भिन्न प्रभाव वाली सूर्य-चन्द्र की किरणें पड़ती है। सूर्य का ताप और चन्द्र का शीत विविध अनुपात में पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में विविध अनुपात में पड़ता पड़ता है। इसी कारण पृथ्वी के विभिन्न हिस्सो में विविध रूप-रंग, अकार-प्रकार के जीव-जन्तु, वनस्पतियाँ और मानव की उत्पत्ति हुई है। इसी के आधार पर मानव की जीवनशैली विकसित होती है जिसे विविध संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए कह सकते है कि प्रकृति के सीमांकन और नामांकन को संस्कृति कहते है। यही कारण है कि विक्रम कलैण्डर की गणना से महीनों और ऋतुओं के मौसम का अध्ययन-अनुमान संभव है। प्रत्येक माह, दिन और पल-क्षण के तापक्रम और नमी को समझने के लिए चन्द्रमा के नक्षत्रों से गुजरने की स्थिति का अध्ययन किया जाता है।

पृथ्वी पर मौसम परिवर्तन, ऋतुएं, पक्ष, सप्ताह, दिन-रात, शीत-ताप का निर्धारण चन्द्रमा की गति एवं स्थिति की गणना से किया जाता है, क्योंकि पृथ्वी के वातावरणीय परिवर्तनों का कारक उसका उपग्रह चन्द्रमा है, इसलिए चन्द्रमा की गति को केन्द्रित कर चान्द्र वर्ष निर्धारण किया गया है। विक्रम संवत् की गणना से वर्षा-सूखा, बाढ़ आदि का अनुमान भी लगाया जाता है। इसका संकेत नक्षत्रो से प्राप्त किया जाता है। इसको निश्चित करने के लिए एक लम्बा समय लगा होगा। उदाहरण के लिए, वर्षा का अनुमान दिया जा रहा है। आद्र्रा से 10 नक्षत्र स्त्रीलिंग मानी जाती है, विशाखा से तीन नक्षत्र नपुंसक माने जाते है। मूल से 14 नक्षत्र पुलिंग माने जाते है। यदि स्त्री-पुरुष नक्षत्र में पृथ्वी, सूर्य-चन्द्र की गति हो तो अधिक वर्षा, स्त्री-नपुंसक में हो तो कम वर्षा, स्त्री-स्त्री में हो तो केवल बादल, पुरुष-पुरुष नक्षत्र में हो तो सूखा का संकेत मिलता है। ऐसा वास्तव में होता हुआ देखा जाता है।

पृथ्वी और चन्द्रमा के परिक्रमण मार्ग में तारासमूह मील के पत्थर की तरह होते हैं, जिन्हे नक्षत्र कहा गया है। आकाश मण्डल में ज्ञात 88 नक्षत्र हैं, परन्तु चन्द्रमा केवल 27 नक्षत्रों से ही गुजरता है। नक्षत्रों को चन्द्रमा की पत्नियाँ कहा गया है, जिन्हें कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष, आद्र्रा, पुनर्वसू, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्तचित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित, श्रवण, घनिष्ठा, शतिषा, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तरा भाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरिणी नाम दिया गया है। पृथ्वी, चन्द्र या कोई अन्य ग्रह किस समय कहाँ है यह नक्षत्रों के माध्यम से ही जाना जाता है। चन्द्रमा को सूर्य परिक्रमण मार्ग पर 27 नक्षत्रों से गुजरने में 27.3 से 28 दिन का समय लगता है। पृथ्वी को अपने अक्ष पर घूमने में भी 27.3 से 28 दिन का ही समय लगता है। परन्तु अब आधुनिक खगोलीय अध्ययन में यह पाया गया है कि सूर्य-चन्द्र के ज्यामितीय योग के कारण पृथ्वी की परिक्रमा करने में चन्द्रमा को 29.5 दिन यानी 709 घंटे लगते हैं। इसलिए अभिजित नाम से एक आभासी नक्षत्र जोड़कर इस गणना त्रुटि का सुधार किया गया है।
चन्द्रमा द्वारा सूर्य परिक्रमण पथ पर एक नक्षत्र से गुजरने का समय ही एक दिन (तिथि) कहलाता है। चन्द्रमा की अस्थिर गति के कारण यह समय प्रत्येक नक्षत्र में हमेशा एक समान नहीं होता है। एक नक्षत्र से गुजरने में 19 से 24 घंटे का समय लगता है। इसलिए एक दिन का मान 19 से 24 घंटे तक हो सकता है। कभी-कभी एक नक्षत्र पार करने में 2 दिन का भी समय लग जाता है या एक ही दिन में दो नक्षत्रों को पार कर जाता है। इसलिए गणना में दिनो (तिथियाँ) की क्षय-वृद्धि होती रहतीहै इसके बावजूद 27 से 30 दिन में सूर्य की एक परिक्रमा अर्थात महीना पूरा हो जाता है। महीने की वास्तविक गणना को नक्षत्र मास भी कहते है। सौरवर्ष और चन्द्रवर्ष में 11 दिन 3 घंटे 48 मिनट का अन्तर होता है। यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते तीसरे साल ऐसा होता है कि दो अमावस्या के बाद पूर्णिमा तो होती है पर संक्रान्ति नहीं होती है अर्थात् सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी किसी राशि में प्रवेश नहीं करती है, इस एक चान्द्रमास को चान्द्रवर्ष के 12 महीनों की गणना से बाहर कर दिया जाता है। इसे अधिमास या मलमास यानी गणनात्मक अशुद्धि मास कहा जाता है।

शक और विक्रम संवतों के संदर्भ में एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि यह एक दिन या किसी एक शासक के काल में नहीं बनाया गया। कालगणना की प्रक्रिया अनादिकाल से चली आ रही है। आम लोग प्रचीन काल में वनस्पतियों के प्राकृतिक रूप से उगने, फूलने, फलने के आधार पर समय की पहचान किया करते थे। आज भी झारखण्ड, मध्य भारत के जनजातीय समुदाय में मार्च माह में ही सरहुल के पेड़ में फूल आने पर सरहुल नामक नववर्ष पर्व मनाया जाता है। कालान्तर में प्रकृति के चिह्नो को पहचान कर प्रबुद्ध विद्वानो में गणना करने का प्रयास किया, जो विभिन्न कालखण्डो में प्रचलित रहे, जिसमे क्रमिक सुधार कर नये कलैण्डरो, संवतो की रचना संभव हुई। पूर्व प्रचलित सप्तर्षि, कलि आदि पंचांगो के आधार पर विक्रम संवत् की रचना की गयी है। इसके पूर्व सौर तथा चन्द्र कलैण्डर की अलग-अलग गणना की जाती थी। इसीलिए आज भी बहुत सारे क्षेत्रो में नववर्ष का पर्व सौर संवत् के अनुसार वैशाखी को ही मनाया जाता है। विक्रम काल में सौर और चन्द्र वर्ष को एक साथ समायोजित कर कृतसंवत की रचना की गयी जो आगे चल कर विक्रम संवत् के रूप में जाना गया। वर्तमान में विक्रम संवत्, शक संवत्, सप्तर्षि संवत्, कलि संवत् आदि सभी विक्रम संवत् में समाहित हो चुके है।

इस प्रकार विक्रम कलैण्डर मात्र दैनिक काम काज ही नहीं प्राकृतिक आपदाओं, कृषिकार्य, व्यापार, यात्रा, मौसम-ऋतुओं के अनुसार आहार-व्यवहार, जीवनशैली आदि के संचालन के लिए लम्बे समय के अनुभवों को संजोते हुए निर्मित किया गया है। इसलिए यह पृथ्वी की नब्ज समझने में सक्षम तथा पृथ्वी के संरक्षण में सहायक है, जो सदियों से भारतीय जन-जीवन में रचा-बसा और अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए है।
✍🏻साभार भारतीय धरोहर
नववर्ष बबुवा धीरे धीरे आई! 15 जनवरी के संक्रांति मनाई, फिर वसंत पंचमी, उसके बाद शिवराति, तब होलियान संवत्सर सर र र र र आ आ आ … युगादि नया संवत्सर बिहान। महाविषुव नया साल – संतुलन, दिन रात बराबर। नवरातन भर व्रत, पर्व, उत्साह, नवमी के नौ रोटी खा के समापन।

दुनिया का सबसे शुद्ध कलेंडर(पञ्चाङ्ग) विक्रम सम्वत है जिसका नववर्ष 2078 वर्ष पूर्व भी चैत्र प्रतिपदा था और आज भी वही है.

दुनियाभर में 1 जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष कभी 25 मार्च को मनाया जाता रहा तो कभी 25 दिसंबर को मनाया जाता रहा.

दुनिया को ज्ञान सिखाने का दांवा करने वाले पश्चिम कलेण्डर की शुरुआत 10 माह वाले कलेण्डर से हुई थी जिसमें साल में कुल 310 दिन और सप्ताह में 8 दिन थे. जिसे जूलियन ने सुधारकर 12 माह किया लेकिन लीप ईयर चूक गए. सन 1582 ई में पोप ग्रेगरी ने इसे सुधारकर सही किया और तब से दुनियाभर में 1 जनवरी से नया वर्ष मनाने की शुरुआत हुई जिसका ना तो कोई प्रकृति से लेना देना है ना ग्रहों की गणना या पंचाग से. ये एक प्रकार का शोकेस न्यू ईयर है.

लोगो के मन मे अक्सर ये डर देखा जाता है कि हम 1 जनवरी को जो भी करेंगे वो सालभर करना पड़ेगा, इसलिए वे दिनभर कुछ अच्छा करने का प्रयास करते है, नई शुरुआत की बातें करते है, नए नए संकल्प लेते है जबकि 1 जनवरी भी एक सामान्य दिन है ठीक प्लास्टिक ट्री की तरह, जो ना ऑक्सीजन देता है ना औषधि लेकिन जिस नववर्ष का सीधा सम्बंध प्रकृति, ग्रहों की चाल औऱ मानव जीवन से जुड़ा है उस नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को हम नही मनाते.

मज़ेदार तथ्य है कि जिस 1 जनवरी के दिन हम ये मानकर मंदिर जाते है कि हे प्रभु ! वर्षभर सब अच्छा रहे उस नववर्ष का मंदिर से कोई लेना देना नही लेकिन जिस चैत्र प्रतिपदा नववर्ष से मंदिर, प्रकृति का लेना देना है उसे हम मनाते ही नही.

बहरहाल आप 1 जनवरी न्यू ईयर मनाना चाहते है तो मनाए इस बहाने मंदिर तो जाएंगे लेकिन चैत्र प्रतिपदा भी अवश्य मनाए क्योंकि इसका सीधा सम्बंध विज्ञान, प्रकृति से जुड़ा है. जीवन मे बदलाव प्लास्टिक क्रिसमस ट्री पूजने से नही होता अपितु ऑक्सीजन युक्त पीपल, औषधि युक्त तुलसी पूजने से होता है.
प्रकृति का नववर्ष चैत्र प्रतिपदा..
✍🏻राकेश गुहा

ज्येष्ठा नक्षत्र को पुर एवं पुरन्‍दर भी कहा जाता है। कभी वर्ष का आरम्भ वर्षा ऋतु से होता था, वर्ष नाम ही पड़ा वर्षा से।
पुर रूपी मेघों को सौदामिनी रूपी वज्र से ध्वस्त कर उनमें बंदी जल को वृत्र से मुक्त करने वाले पुरंदर इंद्र वर्षारम्भ में जब ज्येष्ठा नक्षत्र में पधारते थे तो कौन सा काल रहा होगा?
कहने का अर्थ यह कि ज्येष्ठा नक्षत्र में वर्षा ऋतु कब होती होगी?

नहीं। अभी मृगशिरा में आरम्भ होती है न वर्षा? मिरगा तवे, मेहा नवे! दोनों में 13 नक्षत्र की दूरी। अथर्व एवं महाभारत के 28 नक्षत्रों की प्राचीन परम्परा मानें तो एक नक्षत्र हुआ लगभग 920 वर्ष। 13 नक्षत्र अर्थात लगभग 12000 वर्ष। 10000 ई.पू.!
10000 ई.पू. के बारे में नेट पर ढूँढ़ें तो! 🙂

#मत्स्यपुराण चतुर्युगी की माप दो प्रकार से बताता है;
– एक में जहाँ काल मापन की न्यूनतम इकाई से आरम्भ किया गया है, वहाँ दिव्य वर्षों की बात है। एक दिव्य वर्ष = 360 मानव वर्ष
– किंतु एक दूसरे स्थान पर जहाँ सीधे युगों की बात है, वहाँ दिव्य वर्ष न हो कर मात्र वर्ष है :

कृत – 4800 वर्ष
त्रेता – 3600 वर्ष
द्वापर – 2400 वर्ष
कलि – 1200 वर्ष
कुल – 12000 वर्ष

विद्याद्द्वादशसाहस्रीं युगाख्यां पूर्वनिर्मिताम् ।
एवं सहस्रपर्यन्तं तदहर्ब्राह्ममुच्यते ॥

ऐसे 1000 बारहहजारी ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होते हैं। ब्रह्मा का वर्ष हुआ – 12000*1000*360 = 4320000000 मानव वर्ष। यदि अर्ह प्रयोग के कारण इसे मात्र दिन मानें, रात अतिरिक्त तो ब्रह्मा जी का एक वर्ष 8640000000 मानव वर्षों के बराबर होता है।

आधुनिक समय में पृथ्वी की आयु कितनी आँकी गयी है?

भाई मेरे! जहाँ से ये वाला आया है, वहाँ भी पहले नहीं होता था तो जाड़े में किटकिटाता काँपता नववर्ष छ: ऋतुओं वाले देश का तो हो ही नहीं सकता!
मेरा नववर्ष तो पर्व उत्सव के सोपान चढ़ता आता है, वसंत में, तब जब की समूची सृष्टि नयेपन के आह्लाद में झूम रही होती है…
… नववर्ष बबुवा धीरे धीरे आई! 15 जनवरी के संक्रांति मनाई, फिर वसंत पंचमी, उसके बाद शिवराति, तब होलियान संवत्सर सर र र र र आ आ आ … युगादि नया संवत्सर बिहान। महाविषुव नया साल – संतुलन, दिन रात बराबर। नवरातन भर व्रत, पर्व, उत्साह, नवमी के नौ रोटी खा के समापन।

भोजपुरी सौर नववर्ष भी है 🙂 – सतुवानि।
यह नये अन्न का पर्व है। नये अन्न के सत्तू का भोग आज की विशेषता है। नवरात्र में अष्टमी की रात की ‘नवमी पूजा’ में भी नये अन्न की पूड़ी हलुवा का भोग प्रसाद घर, गाँव और कुलादि की देवियों को चढ़ता है।
सतुवानि शब्द की उपपत्ति क्या हो सकती है?
अन्न के सत्त्व वाले सत्तू से? या सत्त्वर भोजन से?

फाल्गुन का होलिका दहन भोजपुरी क्षेत्र में ‘सम्हति’ कहलाता है। यह सम्हति संवत का ही बिगड़ा रूप है। यह दहन प्रतीकात्मक रूप से जाते संवत का दहन होता है जिसमें मन और देह के सारे मैल जला दिये जाते हैं। अगला दिन रंगपर्व नये रंग से अस्तित्त्व रँगने का प्रकृति से जुड़ा विधान है। चन्द्रमा के एक पक्ष यानि चौदह दिनों के अंतराल के पश्चात शुक्ल पक्ष के प्रारम्भ में होने वाला नवरात्र आयोजन आगामी वर्ष के लिये स्वयं को तैयार करने का तप आयोजन है। रबी की फसल का अन्न घर में आ जाता है तो नये अन्न के स्वागत में रामरसोई सजती है रामनवमी के दिन जब कि नये आटे से बने व्यंजन पहली बार खाये जाते हैं। वैदिक युग के नये सत्र आयोजन भी ऐसे ही पुरोहित, कृषक और व्यापारी वर्ग द्वारा संयुक्त रूप से किये जाते थे। स्त्री शक्ति की कल्पना संवत्सर प्रार्थना में भी है।

पूर्णत: सौर गति आधारित पंचांगों में दो उल्लेखनीय हैं। पंजाब में वैशाखी के दिन नववर्ष मनाया जाता है और उड़ीसा में भी। विधियों के अंतर से यह तिथि प्रति वर्ष 13/14/15 अप्रैल को पड़ती है जब सूर्य कथित रूप से मेष राशि में प्रवेश करता है। उड़ीसा में इसे महाविषुव संक्रांति के नाम से मनाया जाता है हालाँकि दोनों में अयन खिसकन के कारण अब पर्याप्त अंतर हैं। इस समय वास्तव में सूर्य मीन राशि में होता है।
बेबीलोन से आयातित 12 राशियों वाला तंत्र वहाँ लगभग 500 ई.पू. में विकसित हुआ था तब महाविषुव मेष राशि में पड़ता था। उन्हें अयन गति का पता नहीं था। पश्चिमी ज्योतिष द्वारा इसके अनुकरण के कारण ही आज वास्तविक राशि और ज्योतिष राशि में अंतर हैं। उदाहरण के लिये यदि आप का जन्म 22 मई से 21 जून के बीच हुआ है तो जोतिखी काका कहेंगे कि तुम्हारी राशि मिथुन है लेकिन वास्तव में सूर्य देवता उस समय वृषभ राशि में होंगे!
इसके उलट भारतीय गणना पद्धति अपेक्षाकृत ‘स्थिर’ नक्षत्रों को आधार बना कर चलती है इसलिये महाविषुव की खिसकन का समायोजन हो जाता है।

हाँ, तो दुहरा लें।
हजारो वर्षों से मनुष्य वसंत विषुव (महाविषुव आज का 20 मार्च, जब दिन रात बराबर होते हैं) से नववर्ष का प्रारम्भ मनाता आया है। भारत में भी बैसाखी, उगाडि, बीहू आदि इसी के आसपास पड़ते हैं। प्राचीन भारत में यह समय पवित्र यव (जौ) और रबी की उपज का समय था और संवत्सर से जुड़े वैदिक श्रौत सत्र भी फसल की कटान से जुड़े थे। इस दिन से छ: महीने का समय (जब आज के सितम्बर में दूसरी बार दिन रात बराबर होते) देवयान कहलाता था जिसके अंत के साथ ही दूसरे पितृयानी सत्र प्रारम्भ होते थे जिनके पहले पितरों को श्रद्धांजलि दी जाती थी।
पितृयान पवित्र वृहि या शालि या धान की फसल के घर में आने का होता था यानि कि उत्सव ही उत्सव! तो यह जो दीपावली है न, उसी का विस्तार है। थोड़ा ध्यान दीजिये तो दीपावली में प्रसाद में नये धान के लावे, चिउड़ा और खांड या चीनी के गट्टे होते हैं या नहीं? यह समय इक्षु यानि ईख का भी होता था। वही ईख जिसे सोम तक कहा गया। पहला रस, पहला गुड़, नई मिठास यानि फसली समृद्धि के साथ सुख भी। अब ऐसे में श्री यानि लक्ष्मी की पूजा न हो तो किसकी हो?
कालांतर में जब वैष्णवों का जोर बढ़ा तो नये गुड़ के आस्वादन को देवोत्थान एकादशी तक बढ़ा दिया गया। अब आप पूछेंगे कि पितृयान में देवोत्थान? बड़ा कंफ्यूजन है! नहीं, ऐसा नहीं है। असल में ये जो विष्णु हैं न, वे सूर्य/आदित्य से इन्द्र के छोटे भाई हुये और उसके बाद स्वतंत्र हो त्रिदेवों में सम्मिलित हो गये। जिस समय वैदिक मार्ग से इतर उनकी प्रतिष्ठा हुई उस समय आकाश में महासर्प, ध्रुव, सप्तर्षि आदि का जो संयोग बनता था वह देव की जागृति की संकल्पना के अनुकूल था। बस्स! सद्विप्रों ने बहुधा वदंति कर दिया। देव और पितर का विभाजन समाप्त हो गया। पितरों की श्रद्धांजलि विसर्जन हो गयी। श्राद्ध आ जुड़ा।
______________
अब एक प्रश्न:
भैया दूज के दिन का अमर प्रसाद कच्चे रूप में पाँच अन्नों जौ, चना, मटर, बाजरा और गेहूँ का मिला जुला क्यों बनता है?

पुरा वैदिक काल में जब कि वर्ष भर चलने वाले यज्ञ सत्रों का चलन था, वर्ष को देवयान और पितृयान दो भागों में बाँटा गया था। इस दिन से देवताओं की ऋतुयें प्रारम्भ होती थीं वसंत, ग्रीष्म और वर्षा और यही दिन नववर्ष का प्रारम्भ होता जब कि नये सत्र प्रारम्भ होते। चन्द्रगति की दृष्टि से वर्ष में मात्र 353/4 दिन होते जब कि सौर गति से 365/6। लगभग बारह दिनों के इस अन्तर को वर्षांत में नये सत्र के प्रारम्भ होने के पहले की तैयारियों के लिये रखा जाता और यह काल कहलाता था – द्वादशाह। बीच का जल विषुव यानि आज का 22 सितम्बर जब कि पुन: दिन और रात बराबर होते, सूर्य ठीक पूर्व में उगता और ठीक पश्चिम में अस्त होता, वर्षा ऋतु के अंत का सन्देश ले आता। वर्षा के अंत के बाद से शरद, शिशिर और हेमंत ये तीन ऋतुयें पितरों की मानी जाती थीं। यह समय पितरों का होता। देवयान का स्वामी जैसे इन्द्र था वैसे ही पितृयान का स्वामी यम।
✍🏻सनातन कालयात्री गिरिजेश राव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *