फैक्ट चैक: कश्मीरी पंडितों के दोषी कांग्रेस और फारूख अब्दुल्ला कैसे?

Kashmir Files Fact Check: कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के समय केंद्र में कौन, जगमोहन कब बने राज्यपाल? जानिए फैक्ट्स
जब जम्‍मू-कश्‍मीर से कश्‍मीरी पंड‍ितों को भगाया जा रहा था, तब केंद्र में किसकी सरकार थी? जगमोहन का जिक्र बार-बार क्‍यों हो रहा? कश्‍मीर फाइल्‍स आई तो इस पर लगातार बात हुई, तरह-तरह के तर्क दिए गए हैं। लेकिन फैक्‍ट क्‍या है, क्‍या सही, क्‍या गलत।  हम इन्‍हीं सवालों के जवाब जानने की कोश‍िश करेंगे।

जब कश्मीर में मस्जिदों से ऐलान हुए, ‘पंडित घाटी से चले जाएं और अपनी औरतों को यहीं छोड़ दें’

1-कश्‍मीरी पंडि‍तों के साथ जगमोहन का नाम क्यों आ रहा?
2-1987 में विधानसभा चुनाव आख‍िर हुआ क्‍या था?
3-केंद्र की कांग्रेस सरकार पर लगे थे धांधली के आरोप

द कश्‍मीर फाइल्‍स (The Kashmir Files) से फिर कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandit) को लेकर सोशल मीडिया से लेकर समाचार चैनलों तक तरह-तरह के तर्क दिए गये। कोई कांग्रेस को दोषी बता रहा तो कोई कह रहा क‍ि जब घाटी में पंडितों के साथ अन्‍याय हो रहा था, केंद्र में भाजपा समर्थित सरकार थी। तब उन्‍होंने इस पर क्‍यों नहीं बोला। पूरे मामले में एक नाम बार-बार आ रहा, वह है जगमोहन मल्‍होत्रा (Jagmohan Malhotra)। उनका जिक्र क्योंं हो रहा और तब केंद्र और राज्‍य में किसकी सरकार थी?
पलायन शुरू कब हुआ?
जम्‍मू-कश्‍मीर में जब कश्‍मीरी पंडितों को मारा जा रहा था, या जब उन्‍हें वहां से चले जाने के लिए कहा जा रहा था, तब राज्‍य और केंद्र में किसकी सरकार थी? तब हुआ क्‍या था, इसे सिलसिलेवार समझना होगा। ये किसी एक दिन या साल की बात नहीं है। पहले यह समझना होगा इस सबकी शुरुआत कब हुई।

Rajiv Gandhi-Dr Farooq Abdullah

कश्‍मीरी पंड‍ितों का विस्‍थापन शुरू होता है वर्ष 1987 से। राज्‍य विधानसभा चुनाव में धांधली के आरोप लगते हैं और यहां से ह‍िंसा की नींव पड़ती है। चुनाव में श्रीनगर के आमिर कदल से मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के यूस़़ूफ शाह भी चुनाव लड़ रहे थे। रुझानों में युसूफ शाह आगे थे। लेकिन वे चुनाव हार गए। इसके विरोध में युवा सड़कों पर आ गए। बाद में युसूफ शाह गिरफ्तार कर लिया गया, कई महीने जेल में रहा। तब नेशनल कांन्‍फ्रेंस सरकार थी। फारूक अब्‍दुला मुख्यमंत्री, राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। आरोप हैं क‍ि चुनाव में केंद्र सरकार ने इसलिए धांधली होने दी क्‍योंक‍ि कांग्रेस और नेशनल कॉन्‍फ्रेंस मिलकर लड़ रहे थे।

पाक‍िस्‍तान समर्थक कई राजनीत‍ि दलों ने भी चुनाव लड़ा। सैयद सलाहुद्दीन इत्तिहाद उल मुस्लिमीन के टिकट पर श्रीनगर की अमीरा कदल से लड़ा। आरोप हैं क‍ि उन्‍हें जबरन हराया गया। सैयद सलाहुद्दीन आगे चलकर आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का सबसे बड़ा आतंकी बना।

चुनाव में धांधली बनी वजह?

1986 के विधानसभा चुनाव में हुई धांधली का जिक्र कई किताबों में भी हैं। इतिहास के जानकार इसे बड़ी घटना मानते हैं। अशोक पांडेय ने अपनी किताब कश्मीर और कश्मीरी पंडित में इसके बारे में विस्‍तृत बताया है। उन्‍होंने इस इन चुनावों में पर्यवेक्षक रहे जीएन गौहर के बयान को हूबहू लिखा। गौहर कहते हैं, ‘अगर इन दोनों क्षेत्रों आमिर कदल और हब्बा कदल में साफ-सुथरे चुनाव करवाए गए होते तो शायद हथियारबंद आंदोलन कुछ वर्षों तक टाला जा सकता था।’
1987 election

किताब में अशोक पांडेय  लिखते हैं क‍ि कश्मीरी पंडितों के ख‍िलाफ किसी प्रत्यक्ष हिंसा का कोई जिक्र 1986 से पहले तक नहीं है। 1989 में जेकेएलएफ ने कश्मीर छोड़ो का नारा दिया। लेकिन उसके पहले वो कश्मीर में बंदकू ला चुके थे। हत्याओं का सिलसिला उस दौर में शुरू हुआ, भारत और कश्मीर के अपरिपक्व राजनीतिक नेतृत्व के चलते वो एक ऐसे हिंसक चक्रव्यूह में फंसता चला गया, जिसे बाहर निकलना आज तक मुमकिन नहीं हुआ, और इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ी- बंदूक उठाए लोगों को, बेगुनाह पंडितों और बेगुनाह मुसलमानों को भी । अशोक पांडेय यह भी बताते हैं क‍ि भारत समर्थक मुस्लिम नेताओं को भी मारा गया। पहली ही हत्या हुई मोहम्मद यूसुफ हलवाई की।

14 सितंबर 1989 से बुरे दिन की शुरुआत
फारूक अब्‍दुला मुमुख्यमंत्री थे।1989 आते-आते कश्‍मीरी पंड‍ितों की हत्‍या शुरू हो गई। कश्मीरी पंडितों के बुरे दिनों की शुरुआत 14 सितंबर 1989 से हुई। भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य और वकील कश्मीरी पंडित, तिलक लाल तप्लू की जेकेएलएफ ने हत्या कर दी। इसके बाद जस्टिस नील कांत गंजू की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई। उस दौर के अधिकतर हिंदू नेताओं की हत्या कर दी गई। उसके बाद 300 से अधिक हिंदू-महिलाओं और पुरुषों की आतंकियों ने हत्या की।

ये चंद नाम हैं। इसके बाद लिस्‍ट बनाकर कश्‍मीरी पंड‍ितों की हत्‍या होने लगी। अखबारों में इश्‍तिहार छपने लगे। पंडितों को कश्‍मीर छोड़ने को कहा जाने लगा। कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया, जिसमें लिखा था ‘या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो। जमात-ए-इस्लामी ने बड़ी भूमिका निभाई। तब यानी 1989 केंद्र में विश्‍वनाथ प्रताप सिंह (जनता दल) सरकार चला रहे थे जिसे 80 सांसदों वाली भारतीय जनता पार्टी का समर्थन मिला हुआ था। जम्मू कश्मीर के गवर्नर थे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल कोटिकलपुदी वेंकट कृष्णराव।

प्रधानमंत्री बनने के बाद फारुख अब्दुल्ला के साथ वीपी सिंह

जगमोहन की दोबारा इंट्री और फारूख का इस्‍तीफा?
सरकार बर्खास्‍त कर केंद्र सरकार ने जगमोहन को जम्‍मू कश्‍मीर का दोबारा गर्वनर बनाया। इससे पहले कांग्रेस प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 1984 में जम्मू-कश्मीर का गवर्नर नियुक्त था। 18 जनवरी 1990 को उनके राज्यपाल चुने जाने की घोषणा हुई और 19 जनवरी को उन्होंने कार्यभार ग्रहण किया। घाटी से कश्‍मीरी पंडितों को पलायन बड़े पैमाने पर शुरू हो चुका था। राज्य के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया। इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।

jagmohan kashmir

जगमोहन आए। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। अशोक पांडेय लिखते हैं क‍ि इसी दिन अंर्धसैनिक बलों ने घर-घर तलाशी लेनी शुरू कर दी। सीआरपीएफ महानिदेशक जोगिंदर सिंह ने उसी रात में श्रीनगर के डाउनटाउन से 300 युवा गिरफ़्तार कर लिये। 20 जनवरी रात को बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए और ये वही दौर था जब पड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों का भी पलायन कश्मीर से हुआ, जो अगले कुछ सालों तक भी चलता रहा।

21 जनवरी को सीआरपीएफ की टुकड़ी की फायरिंग में 50 से ज्‍यादा कश्मीरी मुस्लिमों की जानें गई, जिसे गौकदल नरसंहार कहा जाता है। कश्‍मीरी पंड‍ित पर‍िवार में जन्‍मे ऑवर मून हैज ब्लड क्लॉट्स के लेखक राहुल पंड‍िता जो खुद पलायन का दुख भोग चुके हैं, कहते हैं क‍ि 7 मार्च को राज्‍यपाल जगमोहन ने कश्‍मीरी पंडितों से अपील करते हैं और घाटी न छोड़ने को कहते हैं। बावजूद इसके मार्च और अप्रैल 1990 में बड़ी संख्‍या में कश्‍मीरी पंड‍ितों ने घाटी छोड़ी।

जगमोहन ने क्‍या किया ?
अपनी किताब My Frozen Turbulence in Kashmir में जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों से आए फोन कॉल के बारे बताया है। लिखा क‍ि फोन करने वाले कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि वे बस अपने टेलीफोन पर बने रहेंगे ताकि मैं मस्जिदों पर लगे सैकड़ों लाउडस्पीकरों से निकल रहे भयानक नारे और उग्र संदेश सुन सकूं। जगमोहन ने जनवरी 2011 में इंड‍ियन एक्‍सप्रेस में लिखे लेख लिखा क‍ि कार्यभार संभाल मैंने इस पलायन को रोकने की बहुत कोशिश की। 7 मार्च 1990 को जारी प्रेस नोट से यह बात स्पष्ट हो जाती है, उस समय इस नोट को काफी प्रचार मिला था।

कांग्रेस के सीनियर नेता सैफुद्दीन सोज ने अपनी किताब, Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle में जगमोहन की बातों का खंडन करते हुए लिखा क‍ि पलायन की वजह जगमोहन रहे, जिन्हें 19 जनवरी 1990 को दूसरी बार राज्यपाल बनाया गया। पलायन बेहतर मानने के पीछे उनके तर्क थे। पहला क‍ि इससे कश्मीरी पंडित खुद को सुरक्षित महसूस कर पाएंगे और इससे उनकी हत्यायें रोकी जा सकेंगीं.
Then There Was Neither Congress At Centre Nor Farooq Abdullah Government In State Then How Was It To Blame Questions Are Being Raised On Killing Of Hindus
तब न तो केंद्र में कांग्रेस थी न राज्‍य में फारूक सरकार, फिर कैसे ये कसूरवार? जानिए

कुछ लोगों का कहना है कि जब कश्‍मीरी पंडितों का कत्‍लेआम हुआ तब केंद्र में न तो कांग्रेस सरकार थी न राज्‍य में फारूक अब्‍दुल्‍ला मुख्यमंत्री। फिर इन पर अंगुली उठाने का क्‍या तुक बनता है। तब की स्थितियों के लिए इन्‍हें क्‍यों कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।

लोग कश्‍मीर में हिंदुओं के नरसंहार (Hindu Massacre in Kashmir) से सहमत हैं, लेकिन ये सवाल उनके मन में कौंध रहे हैं। क्‍या ये बातें सही हैं? अगर हां, तो इस पूरे मामले में कांग्रेस बैकफुट पर क्‍यों है, फारूक अब्‍दुल्‍ला के बेटे और राज्‍य के पूर्व मुख्य मंमंत्री अब्‍दुल्‍ला यह दावा क्‍यों कर रहे हैं कि फिल्म झूठ का पुलिंदा है? इन सवालों का जवाब जानने आपको ‘फ्लैश बैक’ में ले चलते हैं।

19 जनवरी 1990… वो दिन था जब कश्‍मीरी पंडितों पर जुल्‍म की इंतिहा कर दी गई थी। श्रीनगर में पूरी मुस्लिम आबादी भारत और कश्‍मीरी पंडितों के खिलाफ खड़ी हो गई थी। उन पर कश्‍मीर से कश्‍मीरी पंडितों को निकालने का जुनून सवार हो गया था। कश्‍मीरी पंडितों का कत्लेआम हुआ था। सवाल उठना लाजिमी है कि तब सरकारें क्‍या कर रही थीं? कौन था दिल्‍ली की सरकार में?

यह बिल्‍कुल सही है कि कांग्रेस तब सत्‍ता में नहीं थी। 1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी हार गए थे। इसने वीपी सिंह के लिए प्रधानमंत्री पद का रास्‍ता तैयार किया । उनकी गठबंधन सरकार को बाहर से भाजपा और वाम दलों का समर्थन प्राप्‍त था।

19 जनवरी 1990 को नेशनल कॉन्‍फ्रेंस भी राज्‍य की सत्‍ता में नहीं थी। फारूक अब्‍दुल्‍ला ने अचानक 18 जनवरी 1990 को इस्‍तीफा दे दिया और राज्‍य को उसकी हालत पर छोड़कर लंदन निकल लिए ।

ऐसे देखें तो ये दोनों बातें सही लगती हैं। लेकिन, इससे कोई निष्‍कर्ष मत निकालिए। इसके लिए थोड़ा पीछे और थोड़ा आगे की ओर चलते हैं।

26 जनवरी 1990...वो दिन जब आतंकियों ने कश्‍मीर कब्‍जे में ले लिया था। श्रीनगर में तमाम दीवारें और चौक-चौराहे बड़े-बड़े अक्षरों से ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ कश्मीर’ से रंग दिये गये थे। भारत और हिंदू विरोधी नारों से घाटी गूंज रही थी। जमात-ए-इस्‍लामी के फायरब्रांड नेता लाउडस्‍पीकरों से हिंदुओं के खिलाफ जहर उगल रहे थे।

स्थितियां काबू में लाने को तब वीपी सिंह ने जगमोहन मल्‍होत्रा को दोबारा गवर्नर नियुक्‍त किया। वह 21 जनवरी 1990 को कश्‍मीर पहुंचे। लेकिन, तब तक पूरी तस्‍वीर बदल चुकी थी। हालात काबू से बाहर थे। हालांकि, तब की वीपी सिंह सरकार को दोष देना सही नहीं होगा। केंद्र की सत्‍ता में वे आये ही थे। 2 दिसंबर 1989 में इस सरकार ने काम शुरू किया था। ऐसा नहीं है कि इस सरकार ने गलतियां नहीं कीं। गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्‍मद सईद की बेटी की जान बचाने को पांच खूंखार आतंकी छोड़ना उनमें शामिल है। सईद की बेटी को जम्‍मू-कश्‍मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) ने किडनैप किया था।

दरअसल, यह सब कुछ एक दिन में नहीं शुरू हुआ था। वादी में मासूम हिंदू दिसंबर 1988 से ही निशाना बनने लगे थे। 1989 में बम ब्‍लास्‍ट और टारगेटेड किलिंग मामले पूरे राज्‍य में सामने आने लगे थे। टिक्‍का लाल टपलू की सितंबर 1989 में हत्‍या की गई । इसी के आसपास जस्टिस गंजू सहित दर्जनों कश्‍मीरी पंडितों का कत्‍लेआम हुआ था। यह राजीव गांधी और फारूक अब्‍दुल्‍ला सरकार का समय था।

यह और बात है कि इन्‍होंने कुछ नहीं किया। अलबत्‍ता, जुलाई से दिसंबर 1989 के बीच 70 कट्टर आतंकियों को रिहा कर दिया गया था। इनमें मोहम्‍मद अफजल शेख, रफीक अहमद, मोहम्‍मद अयूब नजर, फारूक अहमद गनई, फारूक अहमद मलिक, नजीर अहमद शेख, गुलाम मोहिउद्दीन तेली, रियाज अहमद लोन, फारूक अहमद ठाकुर के नाम प्रमुख थे। इनकी रिहाई ने आतंकियों का मनोबल बढ़ाया। 1989 के आम चुनाव से पहले ही इन आतंकियों को रिहा किया गया था। फारूक के जेकेएलएफ के साथ रिश्‍ते हमेशा सुर्खियों में थे।

गवर्नर जगमोहन ने केंद्र को राज्‍य की स्थितियों के बारे में बताने की नाकाम कोशिश की। लेकिन, राजीव सरकार का रुख उदासीन रहा। वह फारूक अब्‍दुल्‍ला को नाराज नहीं करना चाहते थे।

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