खन्ना

Why Did Indira Gandhi Government Not Allow Justice Sanjiv Khanna Uncle Hans Raj Khanna To Become Chief Justice Of India In 1977
तब इंदिरा ने चाचा को नहीं बनने दिया था CJI, अब भतीजे जस्टिस संजीव खन्ना को मिला मौका
Chief Justice Sanjiv Khanna Oath Ceremony: जस्टिस संजीव खन्ना देश के नए चीफ जस्टिस बन गए हैं। दिलचस्प बात यह है कि 47 साल पहले उनके चाचा जस्टिस हंस राज खन्ना भी इस पद के प्रबल दावेदार थे। हालांकि, आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के साथ मतभेद के कारण उन्हें यह मौका नहीं मिल पाया था।
मुख्य बिंदु

संजीव खन्ना देश के नए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बन गए हैं
वह अपने परिवार में यह बड़ा कानूनी पद पाने वाले पहले व्यक्ति हैं
उनके चाचा हंस राज खन्ना 1977 में इस पद के मजबूत दावेदार थे
हंस राज खन्ना के मुख्य न्यायाधीश बनने के रास्ते में इंदिरा गांधी खड़ी हो गई थी

नई दिल्ली: देश के नए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) संजीव खन्ना अपने परिवार में देश का सबसे बड़ा कानूनी पद पाने वाले पहले शख्स हैं। हालांकि 47 साल पहले उनके चाचा जस्टिस हंस राज खन्ना के पास इस पद पर बैठने का मौका था, लेकिन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार सरकार ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया था। दरअसल जस्टिस हंस राज खन्ना 1977 में CJI पद के लिए एक मजबूत दावेदार थे। लेकिन इमरजेंसी के दौरान एक असहमतिपूर्ण फैसला सुनाने के बाद इंदिरा गांधी सरकार से उनके मतभेद हो गए थे और वह इस मौके से चूक गए।

कौन थे जस्टिस हंस राज खन्ना?
जस्टिस हंस राज खन्ना का जन्म 1912 में हुआ था। उन्होंने अमृतसर में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद एक वकील के रूप में अपना करियर शुरू किया। उसके बाद उन्हें 1952 में एक जिला और सत्र न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। बाद में उन्होंने दिल्ली और पंजाब के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। 1971 में वह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। 1977 में वह CJI पद के मजबूत दावेदार थे। लेकिन 1975 में इंदिरा गांधी सरकार की ओर से लगाए गए आपातकाल के दौरान एक अहम मोड़ आया जिसकी वजह से उन्हें यह पद नहीं मिल पाया।

इंदिरा गांधी सरकार से मतभेद की वजह क्या थी?
जस्टिस एचआर खन्ना ने इंदिरा गांधी सरकार के उस फैसले को गलत ठहराया था जिसमें उन्होंने आपातकाल के दौरान नागरिकों के अधिकारों को कुचला था। 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की और संविधान के अनुच्छेद 359(1) का इस्तेमाल करके नागरिक अधिकारों को छीन लिया। हजारों लोगों को आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन कानून (MISA) कानून के तहत जेलों में डाल दिया गया। इस कदम के खिलाफ लोगों ने अदालतों का दरवाजा खटखटाया और अलग-अलग अदालतों से अलग-अलग फैसले आने लगे। कई उच्च न्यायालयों ने MISA के तहत बंद कैदियों को रिहा करने के आदेश दिए।

ऐतिहासिक केस ने बदल दिया रुख
इस दौरान एक महत्वपूर्ण केस सामने आया। एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस, जिसे बंदी प्रत्यक्षीकरण केस 1976 (Habeas Corpus Case 1976) के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मामला था। इस केस में इंदिरा गांधी सरकार की ओर से लिए गए कुछ फैसलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। यह मामला इतना महत्वपूर्ण इसलिए था, क्योंकि इसने दो महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए- क्या सरकार मनमाने ढंग से फैसले ले सकती है? और क्या मौलिक अधिकारों को भी निलंबित किया जा सकता है?

इंदिरा सरकार के फैसले का विरोध
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए पांच जजों की एक संवैधानिक पीठ बनाई। इस पीठ में तत्कालीन चीफ जस्टिस एएन रे, जस्टिस एमएच बेग, जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़, जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस एचआर खन्ना शामिल थे। इंदिरा गांधी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 359(1) का हवाला देकर दावा किया कि आपातकाल में राज्य किसी भी मौलिक अधिकार को निलंबित कर सकता है, भले ही वह अनुच्छेद 21 में मिला गैरकानूनी हिरासत के खिलाफ अधिकार ही क्यों न हो। चार जजों ने मान लिया कि सरकार किसी भी मौलिक अधिकार को निलंबित कर सकती है। केवल एक जज ने विरोध जताया- वे जज थे जस्टिस एचार खन्ना, जस्टिस संजीव खन्ना के चाचा।

…और जस्टिस एचआर खन्ना ने दे दिया इस्तीफा
जस्टिस एचआर खन्ना 1977 में अगले मुख्य न्यायाधीश बनने वाले थे। लेकिन आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार के खिलाफ फैसला सुनाने के बाद खन्ना के जूनियर जज एमएच बेग को भारत का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। एमएच बेग ने न केवल हैबियस कॉर्पस मामले में सरकार का साथ दिया था, बल्कि उन्होंने यह कहकर भी हद पार कर दी कि ‘राज्य मां की तरह बंदियों की देखभाल कर रहा है।’ बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किए जाने के बाद जस्टिस एचआर खन्ना ने इस्तीफा दे दिया।

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