गुणवत्तापूर्ण रोजगार कम,आंकड़ों से पता नहीं चलती भारत में बेरोजगारी
तो नई नौकरियां नहीं मिल पाने की ये है बड़ी वजह
सरोज सिंज्ञ
केदाश्वर राव -कपड़ा बेचते हुए (बाएं), स्कूल टीचर (दाएं)
केदाश्वर राव आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में रहते हैं. 26 सालों तक उनके पास सरकारी नौकरी होते हुए भी सरकारी नौकरी नहीं थी.
1996 में उन्होंने टीचर की नौकरी के लिए DSC की परीक्षा दी. उन्होंने वो परीक्षा पास भी की. लेकिन 2022 तक वो नौकरी ज्वाइन नहीं कर पाए.
इस दौरान केदाश्वर राव साइकिल पर घूम-घूम कर पुराने कपड़ों को बेच कर अपनी जीविका चलाते रहे. बीएड की डिग्री होने के बावजूद.
सरकारी तंत्र की खामी कहें या न्याय व्यवस्था में इंसाफ़ मिलने में देरी – उनकी जवानी के महत्वपूर्ण 26 साल ज़ाया हो गए. ग़रीबी और भुखमरी के बीच जीवन गुज़ारते हुए उनकी शादी भी नहीं हो पाई और माँ का साथ भी छूट गया.
फिर एक दिन अचानक वो हुआ जिसकी आस वो बरसों पहले छोड़ चुके थे.
जून 2022 में मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने एक दस्तावेज पर साइन करके 1998 की DSC परीक्षा में पास हुए सभी परीक्षार्थियों को ज्वाइन करने का आदेश दिया.
केदाश्वर राव को भी सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी मिल गई. अब वो स्कूल में पढ़ाते हैं. उनकी ज़िंदगी पूरी तरह बदल चुकी है. पहनने के लिए अच्छा कपड़ा है और खाने के लिए पेट भर भोजन. अब बचत के बारे में भी वो सोच पा रहे हैं.
लेकिन केंद्र सरकार की फाइलों में केदाश्वर राव 1996 से 2002 तक भी बेरोज़गार नहीं थे. टीचर बनने के बाद अब तो बिल्कुल भी नहीं.
केदाश्वर राव
सरकारी परिभाषा के मुताबिक़, अगर सात दिनों में एक घंटा भी कोई नौकरी या दिहाड़ी मजदूरी करता है – तो माना जाता है कि वो बेरोज़गार नहीं है.
रोज़गार की ये परिभाषा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की है, जिसे दुनिया के बाक़ी देश भी मानते हैं ताकि बेरोज़गारी के आंकड़ों की तुलना की जा सके.
लेकिन भारत की एक संस्था ऐसी है, तो केदाश्वर राव जैसे लोगों को कभी बेरोज़गार और कभी रोज़गार वालों की श्रेणी में गिनती है.
ये संस्था है सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी CMIE जो अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़े जुटाती है.
भारत के बेरोज़गारी के आंकड़े CMIE राज्यवार हर महीने जारी करते हैं. उनके मुताबिक़, जिस दिन वो सर्वे करते हैं, अगर उस दिन अगर कोई व्यक्ति नौकरी ढूंढ रहा है तो वो बेरोज़गार है.
इस लिहाज से देखें तो केदाश्वर राव के साथ पिछले 26 सालों में ऐसा कई बार हुआ है.
केदाश्वर राव जैसे कई मिसालें आपको भारत के बेरोज़गारीन के आंकड़ों में मिल जाएगी जहां पढ़ाई-लिखाई और हुनर और काबिलियत होने के बाद भी क्वालिटी जॉब्स युवाओं को नहीं मिलते.केदाश्वर राव उदहारण हैं इस बात के कि सरकारी नौकरियों में वेकैंसी निकलने, परीक्षा होने, पास होने और जॉइन करने में इतना समय क्यों और कैसे लगता है.केदाश्वर राव भारत के उस बेरोज़गारी सिस्टम की पोल खोलते हैं, जहां आंकड़ों में तो वो रोजगार वाले युवा हैं, लेकिन असल जीवन में महीने में कभी 10 दिन तो कभी 15 दिन बिना भोजन के सोने को मजबूर थे.
नौकरी के आंकड़े
भारत में रोज़गार और बेरोज़गारी के आंकड़े
सीएमईआई के आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई महीने में भारत में बेरोज़गारी दर 6.9 फीसदी थी.
इस दौरान हरियाणा पहले नंबर पर, जम्मू कश्मीर दूसरे नंबर पर और राजस्थान तीसरे नंबर पर रहा.
पिछले महीने संसद में दिए लिखित बयान में मोदी सरकार ने बताया है कि पिछले 8 सालों में 22 करोड़ युवाओं ने केंद्रीय विभागों में नौकरी के लिए आवेदन दिया जिसमें से मात्र 7 लाख को रोजगार मिल सका है, जबकि भारत सरकार के पास 1 करोड़ स्वीकृत पद खाली हैं.
जबकि पिछले 8 सालों में भारत का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दोगुना बढ़ा है.
ऐसे में सवाल उठता है कि विदेशी निवेश लगातार बढ़ रहा है तो बेरोज़गारी दर कम होने के बजाए लगातार बढ़ क्यों रही है?
यही सवाल जब हमने सीएमआईई के मैनेजिंग डायरेक्टर महेश व्यास से पूछा.
उन्होंने जवाब में कहा, “भारत में जो निवेश विदेश से आ रहा है वो सारा इंवेस्टमेंट उस सेक्टर में है जहाँ लेबर कम लगता है. हम उन्हें कैपिटल इंटेंसिव इंडस्ट्री कहते हैं, जहां कैपिटल ज़्यादा लगता है और लेबर कम लगता है जैसे पेट्रो-केमिकल इंडस्ट्री, स्टील और पॉवर. ”
“कुल जीडीपी के मुकाबले अगर इन्वेस्टमेंट कम हो रहा है तो ज़रूरी है कि सरकारें इन्वेस्टमेंट को ज़्यादा प्रोत्साहन दें. अब ये कैसे करना है ये दूसरे इकोनॉमिस्ट और सरकार के सलाहकार बता सकते हैं, लेकिन मूल चीज़ ये है कि निवेश होना चाहिए और वो भी लेबर इन्टेंसिव इंडस्ट्री में.”
एफडीआई के आंकड़े
अपनी सरकार पर हमलावर वरुण गांधी
लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकारी नौकरियों में ही पद खाली हैं . प्राइवेट सेक्टर का हाल भी बुरा है. स्टार्ट अप और यूनिकॉर्न कंपनियों का भी हाल एक जैसा ही है.
बीजेपी के सांसद वरुण गांधी इन दिनों अपने ही सरकार पर भारत की बेरोज़गारी के आंकड़ों को लेकर काफी हमलावर है.
4 जुलाई को एक अखबार की कटिंग के साथ उन्होंने ट्वीट किया, ” 6 महीने में 11 हज़ार युवाओं ने नौकरियां खोई, साल ख़त्म होते होते ये आंकड़ा 60 हजार पहुँच सकता है. यूनिकॉर्न कंपनियों का मानना है कि अगले 2 साल चुनौतीपूर्ण हैं.”
मोदी सरकार का पक्ष
आंध्र प्रदेश के केदाश्वर राव की कहानी तो पात्रता होने के बावजूद नौकरी के इंतजार की कहानी थी.
लेकिन बेरोज़गारी की कई ऐसी कहानियां भी हैं जहां वैकेंसी के इंतजार में छात्र सालों से खड़े हैं. कहीं ज़मीन बेचकर पिता बेटे की नौकरी लगने के इंतजार में ख़ुद भूखे सो रहे हैं और बेटे को पैसा भेज रहे हैं.
तो कहीं मां अपनी बीमारी के इलाज का पैसा बेटी को दे कर, उसकी नौकरी लगने का इंतजार कर रही है. कई छात्र ऐसे हैं जो दो गिलास पानी पी कर सो रहे हैं और अपने बचे पैसे का इस्तेमाल किताब खरीदने के लिए कर रहे हैं.
ऐसे कई छात्र बीबीसी की टीम को रेलवे आरआरबी-एनटीपीसी भर्ती परीक्षा बवाल के बाद बिहार- उत्तर प्रदेश में मिले जब बीबीसी की टीम वहाँ पहुँची. युवाओं को लगने लगा है कि बेरोज़गारी सरकारों के लिए केवल चुनावी मुद्दा रह गया है.
इस परीक्षा के एक परीक्षार्थी ने बीबीसी को बताया, ” साल 2019 में वैकेंसी निकली और साल 2022 तक में परीक्षा का एलान हुआ रिजल्ट आते-आते साल 2024 हो जाएगा, जो चुनावी साल है. सरकार उस समय हमारी नौकरियां गिना कर केवल वोट बटोरेगी.”
हाल ही में सेना में भर्ती के लिए केंद्र सरकार ने अग्निवीर योजना का एलान किया. उस पर भी भारत के अलग-अलग राज्यों के बेरोज़गार युवाओं ने जमकर हंगामा किया।
जो छात्र लिखित, फिजिकल और मेडिकल टेस्ट के इम्तिहान पास कर चुके थे, एनरॉलमेंट का इंतजार कर रहे थे, सरकार के एक प्रेस कॉन्फ्रेंस ने उनके सारे अरमानों पर पानी फेर दिया.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा गया कि सेना में अग्निवीरों को नौकरी चार साल के लिए मिलेगी.
अग्निवीर योजना में समस्या कहां है, इस सवाल के जवाब में सीएमआईई के महेश व्यास कहते हैं, ” मेरी समझ में सरकार में किसी ने नहीं कहा कि अग्निवीर एक रोज़गार देने की योजना है. अग्निवीर को हमें रोज़गार के नज़रिए से नहीं देखना चाहिए. अग्निवीर आर्मड फोर्सेज की जरूरतों के हिसाब से बनी है. अग्निवीर को लेकर दिक़्क़त पब्लिक फाइनेंस की है. सरकार के पास उतना पैसा नहीं है जितना उनको लंबे समय के लिए नौकरी देने के लिए ज़रूरी है. आज की तनख्वाह तो सरकार दे पाएगी, लेकिन जो पेंशन उनके ऊपर बनते हैं या जो लायबिलिटी बनता है, वो सरकार के लिए भारी पड़ रहा है. इसलिए सरकार इस चीज़ से हट रही है, और कह रही है कि हम कॉन्ट्रैक्चुअल जॉब्स की तरफ बढ़ रहे हैं.”
कॉन्ट्रैक्चुअल जॉब्स या शॉर्ट टर्म एम्प्लॉयमेंट क्या रोजगार है?
वो कहते हैं, “शॉर्ट टर्म एम्प्लॉयमेंट ये इकोनॉमी के लिए, लेबर के लिए, हाउसहोल्ड के लिए सही नहीं है. ये जरूरी है कि लोगों को एम्प्लॉयमेंट अच्छी क्वालिटी की मिले जो कुछ समय के लिए कायम रहे. जहां पर किसी का एक कारोबार है और उन्हें हमेशा एक लेबर की ज़रूरत रहेगी, ऐसी स्थिति में अगर कारोबारी किसी को एक साल दो साल का कॉन्ट्रैक्चुअल जॉब देता है कि तो ये ग़लत बात है. ये फ्लेक्सिबिलिटी लाने का अलग तरीका है. जहां कॉन्ट्रैक्चुअल लेबर ज्यादा होते हैं, वहां एक इंटरमीडियरी आ जाता है, जो अपना पैसा ले जाता है. तो मेरे ख़्याल से जो कॉन्ट्रैक्चुअल लेबर का जो सिलसिला है उसे हमें कम कर देना चाहिए या बंद कर देना चाहिए.”
शॉर्ट टर्म एम्प्लॉयमेंट में वो अग्निवीर जैसी योजनाओं को नहीं बल्कि ओला, उबर, जोमैटो वाले डिलीवरी में जुटे लड़कों को भी गिनते हैं और केंद्र सरकार में अलग-अलग डिपार्टमेंट में काम करने वाले अस्थायी कर्मचारियों को भी. इन सबको वो ‘गिग इकोनॉमी’ का हिस्सा बताते हैं.
वो आगे कहते हैं, “अगर ऐसी नौकरियां नहीं होंगी तो स्थिति और बदतर हो जाएगी. इस वजह से इन नौकरियों को नहीं होना तो सही नहीं है. इनसे बेहतर नौकरी होना ज़्यादा जरूरी है. इन नौकरियों को हम कहते हैं, गिग इकोनॉमी या गिग वर्कर्स. गिग इकोनॉमी का मतलब होता है कि मैं अगर आज गाड़ी चलाने के लिए तैयार हूं तो गाड़ी निकालता हूं, ओला ड्राइवर का लाइसेंस मैंने ले रखा है, मैं गाड़ी निकालता हूं, काम करता हूं और कुछ पैसे कमा लूंगा. लेकिन कल मैं बीमार हो जाऊंगा और मुझे पैसों की ज़रूरत होगी तो मैं पैसे नहीं ला सकता. इससे एक अनिश्चितता पैदा होती है.”
महेश व्यास इन्हें ‘नॉट गुड क्वालिटी’ जॉब्स मानते हैं. वो कहते हैं कि इस वजह से ये ज़रूरी है कि सरकार, ज़्यादा गुड क्वालिटी जॉब्स जनता को दे, जो लंबे दौर के लिए हो जिसमें पीएफ कटे, जहाँ छुट्टियां मिले, जो पेड हों, जहां मैटरनिटी लीव मिले. एक स्थिर लेबर फोर्स बनाने के लिए ये सब बेहद ज़रूरी है. इससे अच्छा रोजगार मिलेगा, लोग बचत करेंगे और उस बचत से निवेश होगा.
पिछले कुछ महीने से बेरोज़गारी को लेकर विपक्ष, युवाओं और कुछ दूसरे सगंठनों के हंगामे के बाद सरकार ने एक बार और नया वादा किया है. नई डेडलाइन के मुताबिक़ अगले डेढ़ साल में मोदी सरकार मिशन मोड में 10 लाख नौकरियां देगी. ये ट्वीट प्रधानमंत्री कार्यालय से 14 जून को किया गया है.
महेश व्यास के मुताबिक बढ़ती बेरोज़गारी दर का सबसे बड़ा असर महिलाओं पर पड़ रहा है, जो लबोर फ़ोर्स में पीछे छूटती जा रहीं हैं. ज़रा सोचिए भारत की आधी आबादी अगर पुरुषों के मुकाबले उतना ही कमाएगी, तो हर घर कितना खुशहाल होगा.