गोपाष्टमी: क्यों और कैसे हो गौपालन और संरक्षण?
आज कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी को #गोपाष्टमी का आयोजन किया जाता है.. मुख्य रूप से यह #गोपूजन से जुड़ा पर्व है.. #योगेश्वर_महाराज_श्रीकृष्ण ने इस दिन से ही #गऊओं_को_चराना आरंभ किया था। इससे पहले वे केवल गाय के बछड़ों को ही चराया करते थे.. गाय के दूध, दही, घी, गौमूत्र, पंचगव्य उत्पादों और दवाओं का प्रयोग करके ही सही मायने में गाय की #पूजा और #सरंक्षण हो सकता है..🚩
गोपमास : गाय के आठ संकेत
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गोधन हमारी अर्थ व्यवस्था की स्थाई निधि है : निधि नाम गवा:। उसको रखना यानी धारण करना धर्म। जिसके पास गोधन हो, वह गोस्वामी और जो पालन करे, वह गोप और गोपाल।
• गायों के लिए बनाया या निकाला गया आहार गोग्रास।गोधूम किसे कहते हैं? गोजी जैसा क्वाथ, गोकर्ण जैसा तीर्थ, गोघाट जैसे सोपान के क्या कहने!
• जहां गोधन रहता है, वह गोशाला, गोवास, गोलोक या गोठा या गोष्ठा। जहां एकाधिक कुलों का गोधन हो, वह गोकुल। जहां व्यांत गो बछड़ों के साथ रखी जाती हैं, वो गो खिड़क।
• जहां साथ खड़ी कर पूजन – नैवज हो, वह गोली या गवली। गोशाला का द्वार गोपुर, प्रतोली के पार्श्व अवलोकन गोख, गोखड़ा और गवाक्ष।
• जहां प्राकृतिक जल धारा फूटे, वह गोमुख। वह धारा होकर बहे तो गोमती नदी। छोटा स्थान गोपद, बड़ी बैठकी गोचर्म सम। सज्जा गोमूत्रिका और निरापद समय गोधूली। गाय वालों का महीना गोपमास।
• गायों से ही हमारे गोत्र और गायों से ही गृह, उसमें भी गोमुखी, गावी…। सब कुछ गोमय! जहां गाय है, वहां शुभ संभाव्य है।
हमारे पर्व, मास, त्योहार यही सब याद दिलाने आते हैं। अलौकिक कहानियों से ज्यादा महत्व इन लौकिक शब्दों को समझने का है। गोपमास, गोपाष्टमी, गोवत्स द्वादशी, पोला आदि के मूल में यही भाव है… सभी को शुभ कामनाएं।
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सवत्सा गौ
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यात्रा में यदि बछड़े वाली गाय ( सवत्सा धेनु) मिल जाए तो यात्री को आनंद, प्रमोद, भूमि स्थान, सम्मान, प्रिय मिलन, पुत्र लाभ और विजय की प्राप्ति होती है। शकुन शास्त्र, वसंत राज शाकुन में कहा है :
आनन्दं च प्रमोदं च स्थानं मानं समागमम्।
पुत्रलाभं जयं चैव सवत्सा गौ विनिर्दिशेत।। 52।।
मित्रवर श्री ओमजी सोनी बिजोलिया मेवाड़ चित्र शैली के एक चित्र को शेयर करते हुए बताते हैं कि इसमें गाय का महत्व बताया गया है। मेवाड़ कलम के अनुभूत अनचिन्हे शकुनावली के ऐसे चित्र मिलते हैं। यह शुभ,अशुभ प्रभाव को बताने वाले श्लोकों के चित्र वाली पुस्तक है। मुहूर्त ग्रंथों में यह वर्णन मिलता है।
यह गौ पालन और समाज में गोधन के महत्व को बताता है। गाय को कामधेनु, नंदिनी, सुरभि, बहुला आदि अनेक नामों से कहा गया है। विभिन्न विषय हैं और उनकी चित्रमय प्रस्तुति है। मेवाड़ शैली की रंग विधा और मौलिकता से भरी शकुनावली में कंटीले बाड़ और वट वृक्ष की छाव में विराजित गौधन, गौ चर्म प्रमाण भूमि, गोष्ठ, आदि को बताया गया है।
चित्रांकन=17=18वी सदी।
मेवाड़ कलम, उदयपुर।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू
कामधेनु रत्न है
समुद्र से कामधेनु भी निकली
और लक्ष्मी भी
कामधेनु माने गाय !
जहाँ गाय रहेगी वहाँ उनसे मिलने लक्ष्मी जरूर आएँगी
🙂
भैस बुद्धि में यह बात समझ नहीं आएगी,
जाने दीजिये दीपावली की थकहरी उतारिये !
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अब कोई अपने करोड़ दो करोड़ 5 करोड़ के फ़्लैट में गाय तो बांधेगा नहीं ?
मतबल इस बात की संगति वे लगा लेंगे – जिन्होंने कृष्ण-कथा सुनी होगी.
वइसे भी स्विट्जरलैंड में गाय और दूध की बहुतायत है, और यह स्विस बैंक किधर है ?
#गोपाष्टमी के लिये
40-50 वर्ष भीतर की बात है,
एक सज्जन के यहाँ सन्तान नहीं थी,
डॉक्टर-डॉक्टरी से हार कर किसी सन्त के पास गये,
सन्त ने कहा – पूर्व कृत दोषों को गो-सेवा से दूर जाते सुना हूँ, यदि कोई बाधा होगी तो दूर हो जायेगी, कर सकता है तो गो-सेवा कर !
मरता क्या न करता, झक मार गो पालनी पड़ी – जीवन्ती खिलायी गयी, कुछेक वर्षों में सन्तान और सम्पत्ति दोनों बढ़ गये,
सन्त के पास गये,
कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये सब बताया !
सन्त ने पूछा – गायों को कहाँ रखते हो ?
बोले – पहले तो बाहर रखते थे, पर नया घर बनाया तो उसमें अंडर ग्राउण्ड बना कर रोशनदान लगा दिया है, उसी में रखते हैं !!
संत ने कहा – नहीं , उनके लिये सामने या दूसरी जगह कर लो, उनके ऊपर मत रहो, दोष लगेगा !
अपने से आदरणीय के ऊपर नहीं बैठा जाता !!
आज भी वह अंडरग्राउंड है – उसमें दूसरी घरेलू वस्तुएं डाल दी गयी हैं, पर गायों के लिये अलग प्रबन्ध किया गया है,
वह परिवार दुनियावी प्रपञ्च से बहुत दूर, शान्तिमय-आनन्दमय जीवन व्यतीत कर रहा …
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गोपाष्टमी स्मृति 💐
किसी भी बिल्डिंग निर्माण को अनुमोदन अप्रूवल देने से पहले अधिकारी देखते हैं कि इसमें पार्किंग की जगह छोड़ी गयी या नहीं ?
कवर्ड और ओपन एरिया पर सौदेबाजी होती रही है,
हर बिल्डिंग में निवासियों के आधार पर देशी गायों के लिये जगह छोड़ दी जाँय- दूध का दूध भी मिलेगा बच्चों को, प्रदूषण उड़ जायेगा .
क्यों ? प्रदूषण क्यों उड़ जायेगा ?
बोले – पराली जलानी नहीं पड़ेगी, चारा सारा पंजाब-हरियाणा से मंगवाएंगे.
क्यों ?
जब धुँआ आ सकता है तो चारा क्यों नहीं ?
वरना रहे साँसत में, अपने 3-3 करोड़ के फ्लैट में – प्रदूषित वायु के साथ …
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#गोपाष्टमी
तात्कालिक उपाय :
तुलसी के पौधे गमलों में बढ़ा दें,
जप करते हों तो जप की संख्या भी,
यदि जप न करते हों तो करें,
देशी गो घृत का दीपक प्रज्ज्वलित करें !
🙂
विकट स्थिति में जब लोग कब्र में सोते हैं,
तब भूमि पर हम खुशियों के बीज बोते हैं
✍🏻सोमदत्त
देवता और लोकदेवता
उनकी स्थापना के मूल में गाय एक बड़ा कारण रही है।
कामधेनु के कारण परशुराम,
(यही कथा बाद में प्रकारांतर से परमार वंश के उद्भव का आधार बनी जिसे रासोकार ने चौहानों आदि के साथ विकसित किया )
गुफा के चक्र से गौउद्धार की घटना से श्रीकृष्ण…
और, गोरक्षा से गोरख, गोगाजी, देवनारायण, पाबूजी, अणताजी, भूरियाजी, हड़बुजी, तेजाजी, वच्छराज… सभी प्रसंगों में गाय एक प्रमुख तत्त्व के रूप में है, ऐसा क्यों?
एक वैदिक काल का सच है जो हर काल में मान्य होकर आदमी को देव तुल्य करता है :
• ज्ञान ( बुद्धिमता) • गिरा (वचन पालन) • गाय ( प्रिय पशु और संपत्ति) • ग्राम्य भूमि ( अपनी भूमि, जन्मभूमि) • गुरुत्तर सम्बन्ध ( श्रेष्ठ रिश्ते, पारिवारिक या आत्मिक) और बाद में इसमें एक और तत्व जुड़ा : गुरु भक्ति।
✍🏻साभार
गोवर्द्धन और गोपाष्टमी के बाद गोचर-चर्चा
पिछले कुछ समय से गौशालाओं के साथ साथ कैप्टिव चरागाह भी विकसित किये जा रहे हैं और गोचर भूमियों पर कम्यूनिटी फाडर फार्म भी। हम एक बार फिर इतिहास और संस्कृति की रिकवरी इनके माध्यम से कर रहे हैं। १००० गौशालाओं के साथ कम से कम पाँच एकड़ पर चारागाह विकसित करने के बाद अब २१७८ नई गौशालाओं के साथ भी न्यूनतम पाँच एकड़ पर ये बन रहे हैं। इनके अतिरिक्त गाँव में बची रह गई अविवादास्पद गोचर भूमियों पर भी मनरेगा की मदद से कम्यूनिटी फाडर फार्म बनाए जा रहे हैं ।
गोचर भूमि एक राजस्व शब्द ही नहीं है, यह एक सांस्कृतिक-धार्मिक स्मृतियों से अनुरंजित अभिधान है। देश में व्यतीत में समस्त ग्राम-नगरों की सारी दिशाओं में थोड़ी दूर तक चरनोई भूमि रहती थी। अपनी व्यक्तिगत भूमि का गोचारण के लिए दान गोचर उत्सर्ग-कर्म कहलाता था इसके लिए पूजा के विधान बनाए गए थे। भविष्यपुराण में सूतजी बोलते हैं :
ब्राह्मणों। अब मैं गोचर-भूमि के विषय में बता रहा हूँ, आप सुनें। गोचर भूमि के उत्सर्ग-कर्म में सबसे पहले लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की यताविधि पूजा करनी चाहिए इसी प्रकार, ब्रह्मा, रूद्र, करालिका, बराह, सोम, सूर्य और महादेवजी की क्रमशः विविध उपचारों से पूजन करें। हवन कर्म में लक्ष्मीनारायण को तन तीन आहुतियाँ घी से दें। क्षेत्रपालों को मधुमिश्रित एक क लाजाहुति दे, गोचर भूमि का उत्सर्ग करके विधान के अनुसार यूप की स्थापना करें तथा उसकी अर्चना करें। वह यूप तीन हाथ का ऊँचा और नागफणों से युक्त होना चाहिए। उसे एक हाथ से भूमि के मध्य में गाड़ना चाहिए। अनन्तर ‘विश्वेषा’ (तद्व. 10/2/67 इस मंत्र का उच्चारण करें और नागाधिपतये नमः ‘अच्युताय नमः’ तथा ‘भौमाय नमः’ कहकर यूप के लिए लाना निवेदित करें।। मशिग-ह्रम्य. (यजु 13/1) इस मंत्र से रूद्रमूति-स्वरूप उस यूप की पंचोपचार पूजा करें। आचार्य को अन्न, वस्त्र और दक्षिणा दें तथा होता एवं अन्य ऋददत्विजों को भी अभीष्ट दक्षिणा दें। इसके बाद उस गोचर भूमि में रत्न छोड़कर इस मंत्र को पढ़ते हुए गोचर भूमि का उत्सर्ग कर दे-
शिवलोकस्तथा गावः सर्वदेसुपूजिताः।
गोभय एषा मया भूमिः सम्प्रदत्ता शुभार्थिना।।
(मध्यमपर्व 3/2/12-13)
शिवलोकस्वरूप यह गोचर भूमि, गोलोक तथा गौंए सभी देवताओं द्वारा पूजित हैं इसलिए कल्याण की कामना से मैंने यह भूमि गौओं के लिये प्रदान कर दी है।
मध्यमपर्व में यह भी कहा गया है
‘इस प्रकार जो समाहित-चित्त होकर गौओं के लिए गोचर भूमि समर्पित करता है वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में पूजित होता है, गोचर भूमि में जितनी संख्या में तृण, गुल्म उगते हैं, उतने हजारों सालों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।’
इसके साथ ही उसके सुनिश्चित सीमांकन का भी महत्व थाः
गोचर भूमि की सीमा भी निश्चित करनी चाहिए। उस भूमि की रक्षा के लिए पूर्व में वृक्षों का रोपण करे। दक्षिण में सेतु (मेड़) बनाये, पश्चिम में कटीले वृक्ष लगाये और उत्तर में कूप का निर्माण करे। ऐसा करने से कोई भी गोचर भूमि की सीमा का लंघन नहीं कर सकेगा। उस भूमि को जलधारा और घाटी से परिपूर्ण करें। नगर या ग्राम के दक्षिण दिशा में गोचर भूमि छोड़नी चाहिए। जो व्यक्ति किसी अन्य प्रयोजन से गोचर भूमि को जोतता, खोदता या नष्ट करता है, वह अपने कुत्तों को पातकी बनाता है और अनेक ब्रह्म हत्याओं से आक्रान्त हो जाता है। इसी के साथ सत्कर्म के लिए पुरस्कार भी था –
जो भली-भांति दक्षिणा के साथ गोचर भूमि का दान करता है, वह उस भूमि में जितने तृण है, उतने समय तक स्वर्ग और विष्णुलोक से च्युत नहीं होता।
गोचर्म भूमि एक श्लोक के अनुसार उस भूमि को कहते थे जिस गोचर भूमि में सौ गायें और एक बैल स्वतंत्र रूप से विचरण करते हों। ऐसी भूमि दान करने से सभी पापों का नाश होता हैं।
गवां शंत् वृषश्चैको यत्र तिष्ठत्ययन्त्रितः।
तद्गोचर्मेति विख्यातं दत्तं सर्वाधनाशनम्।।
अन्य बृहस्पति, वृद्धहारीत, शातातप, आदि स्मृतियों के अनुसार लगभग 3000 हाथ लंबी-चौड़ी भूमि की संज्ञा गो-चर्म है।
बहरहाल माना यह गयाः
‘वृषोत्सर्ग में जो भूमि दान करता है, वह प्रेतयोनि को प्राप्त नहीं होता। गोचर भूमि के उत्सर्ग के वक्त जो मण्डप निर्माण किया जाता है उसमें भगवान वासुदेव और सूर्य का पूजन तथा तिल, गुड की आठ-आठ आहुतियों से हवन करना चाहिए। देहि मे (यजु. 3/ 50) इस मंत्र से मंडप के उपर चार शुक्ल घट स्थापित करें। इसके बाद सौर-सूक्त और वैष्णव सूक्त का पाठ करें। आठ वट पत्रों पर आठ दिक्पाल देवताओं के चित्र या प्रतिमा बनाकर उन्हें पूर्वादि आठ दिशाओं में स्थापित करें और पूर्वादि दिशाओं के अधिपतियों – इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति आदि से गोचर भूमि की रक्षा के लिए प्रार्थना करें। प्रार्थना के बाद चारों वर्णों की मृग एवं पक्षियों की अवस्थिति के लिए विशेष रूप से भगवान वासुदेव की प्रसन्नता के लिए गोचर भूमि का उत्सर्जन करना चाहिए। गोचर भूमि के नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर घास के जीर्ण हो जाने पर तथा पुनः घास उगाने के लिए पूर्ववत प्रतिष्ठा करनी चाहिए जिससे गोचर भूमि अक्षय बनी रहे। प्रतिष्ठा कार्य के निमित्त भूमि के खोदने आदि में कोई जीव जन्तु मर जाए तो उहैं, दूसरी और यह भी कि भूमिहीनों को गोचर भूमि के पट्टे बांद देने और समय-समय पर अधिकार अभियान से इस अतिक्रमण के सामंतीपन को खत्म किया जाएगा।
अपनी सांस्कृतिकता को त्याग औपनिवेशिक जुए को ढोते रहने की नीति ने गोचर भूमियों की ये दुर्दशाकी। अंग्रेजों ने इस गोचर भूमि की सामूहिकता और पंचायतीपन को शनैः-शनैः नष्ट किया। उनको और उनकी अँग्रेजी शिक्षा में दीक्षित साहबों को उत्तर पर्व में भगवान श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर सेयह कहना तोबकवास ही लगेगा-
क्षीरोदतोय सम्भूत्ता याः पुरामृतमन्थने।
पंचगावः शुभाः पार्थ पंचलोकस्य मातर।।
नन्दा सुभद्रा सुरभि सुशीला बहुला इति।
एता लोकोपकाराय देवानां तर्पणायच।।
ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधाकृतम।
एकत्र मन्त्रातिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।।
पार्थ। समुद्र मन्थन के समय क्षीरसागर से पांच लोगों की मातृस्वरूप, कल्याणकारिणी जो गौएं उत्पन्न हुई थी, उनके नाम थे नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला। ये समस्त गौएं सभी लोकों के कल्याण और देवताओं को भविष्य के द्वारा परितृप्त करने के लिए आविर्भूत हुई थी। ब्राह्मण और गौ ये दो नहीं हैं, अपितु एक ही कुल के दो रूप या पहलू हैं ब्राह्मणमें तो मत्रों का निवास है और गौ मैं भविष्य स्थित है, इन दोनों के संयोग से ही विष्णु स्वरूप यज्ञ निष्पन्न होता है (यज्ञो वै विष्णुः)
लेकिन ये श्लोक मैंने उद्धृत एक आलंकारिक और सारगर्भित शब्द-चमत्कार की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए किया है। ‘पंचलोक’ शब्द का प्रयोग कर कृष्ण पंचायती व्यवस्था की ही ओर इशारा तो नहीं कर रहे थे। गोचर और पंचायतों में हमेशा से एक अन्योन्याश्रित रिश्ता रहा है। आखिरकार यह प्रसंग आया भी तो भविष्यपुराण के उत्तरपर्व में है। उस त्रिकालदर्शी ने भविष्य भी देख लिया हो क्या पता।
लेकिन कृष्ण पर इतना विश्वास अंग्रेजी सत्ता तो कर नहीं सकती थी। गोपाल और गौपूजक संस्कृति के सामूहिक अस्तित्व के तर्क कुकुर-पूजक संस्कृति के साहब नहीं समझ सकते थे। गौ और गोचर तो हमेशा ‘दूसरे’ को ‘देवता’ मानकर उनका सत्कार करने, अपना कुछ दान करने के प्रतीक थे। लेकिन कुकुर-पूजन तो दूसरे ‘जहर’ मानने वालों के लिए ही आवश्यक था। इसलिए ‘कामन्स’ के विरूद्ध एक के बाद एक निर्णय हुए।
सन् 1991 में जे. एम. आर्नल्ड एवं डब्ल्यू. सी. स्टीवार्ट ने कॉमन प्रापर्टी रिसोर्स मैंनेजमेंट ‘इन इंडिया’ शीर्षक से ‘आक्सफोर्ड, फारेस्ट्री इन्स्टीट्यूट में जो पेपर प्रस्तुत किया उसमें कॉमन प्रापर्टी-रिसोर्स के मैंनेजमेंट की ज्यादा चर्चा की। 17 अगस्त 96 को इकॉनामिक एंड पॉलिटिक्स वीकली में प्रकाशित एक लेख में प्रायवेटायजेशन ऑफ कॉमन्स फार द पुअर इमरजेंस ऑफ न्यू एग्रेरियन इरवूज में यह सुझाव दिया गया कि गोचर भूमि के निजीकृत प्लाटों को एग्रो फारेस्ट्री प्लाट के रूप में देखा जाए तो अधिशेष बायोमास उत्पादन इस तरह से करें कि समुदाय के शेष सदस्य भी उनसे लाभान्वित हों। गुजरात में खेड़ा जिले में भी एक प्रयोग हुआ है ‘कम्युनिटी फॉडर फार्म’ का। गोचर भूमि के उपयोग का यह एक उत्तम उदाहरण था। यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रदेश में गोवंश की संख्या में वृद्धि हो रही है, लेकिन उनके लिए उपलब्ध गोचर भूमि क्रमशः कम होती जा रही है। गोचर भूमियाँ कोई कांशस तरीके से फाडर फॉर्म के रूप में विकसित भूमियाँ नहीं हैं, वे काफी हद तक, छीजी हुई हैं, पड़त हैं, अपरिष्कृत हैं।
पंचायतों ने अपनी भूमि वन विभाग को वृक्षारोपण के लिए दे दी और निवृत्त हो गई, लेकिन स्थानीय समुदाय की सहभागिता के अभाव में यह वृक्षाकंन प्रयोग कई जगह बहुत सफल नहीं हुए। इन्हीं के बरक्स उड़ीसा में हुआ ‘ग्राम्य जंगल’ का प्रयोग है जिसमें ग्रामीणों के सांस्कृतिक विश्वासों व लोक परंपराओं का इस्तेमाल किया गया है। दरअसल गोचर भूमियाँ सीमांत किसानों की बायो-मास जरूरतों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं। राष्ट्रीय ट्री ग्रोअर्स को-ऑपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड ने राजस्थान, आंध्रप्रदेश, उ.प्र., कर्नाटक, गुजरात और उड़ीसा के कई गांवों में ‘कामन्स’ का इस्तेमाल इन जरूरतों को पूरा करने के लिए किया है। सामाजिक वानिकी के लिए वन विभाग और वन विकास निगम को दी गई प्रदेश भर में हजारों एकड़ भूमि को पुनः गोचर में परिवर्तित किया जाने का एक विचार किसी ने दिया है । उन क्षेत्रों के लिये जहाँ ये वृक्षाकंन बुरी तरह असफल हुए हैं।
हरियाणा पंचायत अधिनियम की धारा 2(16) ‘सामुदायिक भूमि’ को परिभाषित करती है किन्तु मध्यप्रदेश पंचायती राज अधिनियम के अंतर्गत ‘कॉमन्स’ का कहीं उल्लेख नहीं है।हरियाणा का पंचायती राज अधिनियम अपनी धारा 26 में आबादी देह के मानचित्र के प्रशासनाधिकार ग्राम पंचायत को दे देता है। मध्यप्रदेश में आबादी भूमि का प्रबंधन पंचायती राज अधिनियम के अंतर्गत लिया ही नहीं गया। उसे मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता के अंतर्गत रखा गया और ग्राम पंचायत की भूमिका आबादी भूमि के पट्टे बांटने तक ही सीमित कर दी गई। उनके द्वारा वंटन भी उसी ले-आउट के अनुरूप होना पड़ेगा जो अनुविभागीय अधिकारी के द्वारा स्वीकृत हो। इसके विपरीत हरियाणा में ग्राम पंचायत अपने सभा क्षेत्र में भवन, सार्वजनिक सड़कों और अन्य खुले सार्वजनिक स्थानों को प्रदर्शित करने वाला मानचित्र तैयार करती है। फिर उसे एक नोटिस के साथ प्रकाशित कराती है, ऐसे प्रकाशन के बाद तीस दिनों की अवधि में आपत्तियाँ आहूत करती है। फिर सुनवाई का समुचित अवसर देने के बाद आवश्यक होने पर मानचित्र में संशोधन कर उसे अंतिम मानचित्र की प्रतियाँ ग्राम पंचायत के प्रखंड विकास एवं पंचायत अधिकारी के, मुख्य कार्यपालक अधिकारी के कार्यालय में जनता के निरीक्षणार्थ रखी जाती हैं। पांच रूपए की राशि देकर कोई भी उसका निरीक्षण कर सकता है और यदि उसकी प्रति प्राप्त करना चाहे तो वह भी पृथक आवेदन और विहित शुल्क जमा कराकर प्राप्त कर सकता है।
गोचर भूमि की सामुदायिकता के तर्क को ही कुछ आगे और खींचकर चलें तो वाटरशेड के रूप में हमें एक भिन्न किस्म का विक्रेन्द्रीकरण देखने को मिलेगा। राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्राधिकार वाली औपचारिक पंचायतों की तुलना वाटरशेड एक प्राकृतिक और भौगोलिक विकेन्द्रीकरण है।
पूंजीवाद और समाजवाद के विकल्पों से जिस तरह हरित आंदोलन ने मानवीय चिन्तन को मुक्त किया है, उसी तरह से पंचायतों ने भी हमें इस रूढ़ द्वन्द्व से मुक्त किया है। थिंक ग्लोबली, एक्टलोकली (सोचो वैश्विक, करो स्थानीय) के जिस सिद्धांत को ग्रीन्स ने प्रयुक्त किया और गहन पर्यावरण शास्त्र (डीप इकॉलाजी) ने जिस तरह तृणमूल प्रजातंत्र को – स्थानीय स्वायत्तता को अपने चार दार्शनिक आधारस्तंभों में से एक माना, उससे लगता है कि भारत में विकेन्द्रीकरण तभी सार्थक हो सकेगा जब उसे सामुदायिक संपदाओं – जल, जंगल, जमीन आदि – के इर्द- गिर्द वैसे ही बुना जाएगा जैसे उसे शताब्दियों पूर्व से भारतीय समाज ने बुन रखा था।
✍🏻मनोज श्रीवास्तव