गौरक्षा आंदोलन जिससे इंदिरा ने प्रतिबंध लगाया संघ पर
Modi Lifted Ban On Government Employees Joining Rss Why Indira Gandhi Firing On Cow Protectors 1966
क्या संघ की नाराजगी दूर करने के लिए मोदी ने हटाया बैन, क्यों गौरक्षकों पर इंदिरा ने चलवाई थीं गोलियां
RSS नरेंद्र मोदी सरकार ने आरएसएस की शाखाओं और कार्यक्रमों में सरकारी कर्मचारियों के शामिल होने पर 58 साल से चली आ रही पाबंदी हटा दी है। इस मसले पर कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने हैं। 1966 में ऐसा क्या हुआ था कि जब इंदिरा गांधी सरकार को यह पाबंदी लगानी पड़ी। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे क्यों हटा दिया? क्या यह संघ को खुश करने के लिए मोदी सरकार ने ऐसा किया? जानिए-इसकी पूरी कहानी।
7 नवंबर, 1966 को हजारों की संख्या में नागा साधु और अघोरी संसद भवन के पास पहुंचे
देश में गौहत्या पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाए जाने की मांग को लेकर किया घेराव
पुलिस और साधुओं की झड़प हुई झड़प, गोलियां चली, इमारतों में जमकर हुई तोड़-फोड़
नई दिल्ली: 7 नवंबर, 1966 को दिल्ली अभी जगी भी नहीं थी कि बड़ी संख्या में साधु और संन्यासी संसद भवन के सामने जमा होने लगे थे। ज्यादातर लोगों को यह अंदाजा भी नहीं था कि आखिर क्या बात हो गई कि संसद के सामने हजारों की भीड़ जुट गई। शुरुआत में दिल्ली पुलिस भी नहीं समझ पाई कि आखिर ये माजरा क्या है? पुलिस ने भीड़ को हटाने के लिए आंसू गैस छोड़े, लाठियां भी भांजी, मगर भीड़ टस से मस नहीं हुई। संसद भवन गेट के सामने पुलिस और साधुओं का यह संघर्ष तब भड़क उठा, जब प्रदर्शनकारियों के फेंके पत्थरों से एक पुलिसवाले की मौत हो गई। दोपहर करीब 1:30 बजे तक माहौल पूरा गरमा गया और पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोलीबारी करनी शुरू कर दी। संसद के समक्ष जमा यह भीड़ गौ हत्या पर राष्ट्रीय कानून बनाने के लिए सरकार पर दबाव बना रही थी। इस प्रदर्शन को तब भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का समर्थन हासिल था। 1966 में इसी आरएसएस को लेकर तब इंदिरा गांधी सरकार ने एक पाबंदी लगा दी थी। उन्होंने सरकारी कर्मचारियों को इसकी शाखाओं और कार्यक्रमों में जाने पर रोक लगा दी थी। आज 58 साल बाद मोदी सरकार ने यह रोक हटा दी है। इसके बाद से भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं।
सैकड़ों लोग घायल, 100 करोड़ की संपत्ति को नुकसान
नवंबर 1966 को तपस्वियों , नागा साधुओं की अगुवाई में हुए प्रदर्शनों में आधिकारिक रूप से 8 लोगों की मौत की बात बताई गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। हालांकि, कई दूसरे गैर सरकारी आंकड़ों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने की बात कही गई। उस वक्त यह अनुमान लगाया गया कि प्रदर्शनों के दौरान वाहनों और दफ्तरों में तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाओं में कुल करीब 100 करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था। इन प्रदर्शनों के दौरान कांग्रेस के प्रमुख नेता के कामराज का घर और ऑल इंडिया रेडियो का दफ्तर भी निशाना बना था।
जेपी ने भी इंदिरा सरकार को पत्र लिखकर किया था आगाह
वरिष्ठ पत्रकार सुदीप ठाकुर की किताब ‘दस साल: जिनसे देश की सियासत बदल गई’ में भी गौरक्षा आंदोलन के बारे में बताया गया है। वह बताते हैं कि 24 जनवरी, 1966 को इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने के बाद जेपी यानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण से उनके रिश्ते कई वर्षों तक बहुत मधुर बने रहे यह उनके बीच हुए पत्र व्यवहारों से भी पता चलता है। उन पत्रों में उनके रिश्तों की प्रगाढ़ता तो पता चलती ही है, एक दूसरे पर विश्वास भी झलकता है और देश के मुद्दों को लेकर चिंता भी। जेपी उन्हें सलाह देने से गुरेज नहीं करते थे। मसलन, गोवध पर प्रतिबंध के मुद्दे पर दोनों के बीच हुए पत्र व्यवहार में इसकी झलक दिखती है। इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने बाद गोवध पर प्रतिबंध को लेकर चल रहे आंदोलन को लेकर जेपी ने उन्हें 21 सितंबर, 1966 को एक पत्र लिखा और आग्रह किया:
‘मैं आपका ध्यान एक अत्यंत गंभीर होती स्थिति की ओर दिलाने के लिए लिख रहा हूं। आप गोवध पर प्रतिबंध को लेकर लंबे समय से चल रहे आंदोलन के बारे में जानती हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा उठा था। मुझे पता चला है कि जगतगुरु शंकराचार्यों जैसे शीर्ष हिंदू नेताओं ने इस वर्ष 20 नवंबर से आमरण अनशन करने का फैसला किया है। मैं समझ सकता हूं कि इस हताशापूर्ण कदम पर पूरी गंभीरता से विचार किया गया है। आप कल्पना कर सकती हैं कि इसके क्या गंभीर परिणाम हो सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह एक सामान्य बात हो गई है कि सरकार तब तक कोई कार्रवाई नहीं करती, जब तक कि स्थिति गंभीर न हो जाए। ….नतीजतन अक्सर सरकार को दबाव में कुछ ऐसे अस्वस्थकर कदम उठाने पड़ते हैं, जिनसे लोगों की नजर में सरकार की छवि नीचे गिरती है।…मैं समझ नहीं पाता कि हिंदू बहुल भारत जैसे देश में जहां गोवध को लेकर सही हो या गलत तीव्र भावनाएं हैं, वहां कानूनी प्रतिबंध क्यों नहीं लग सकता।
सुदीप ठाकुर ने अपनी किताब ‘दस साल: जिनसे देश की सियासत बदल गई’ में गौरक्षा आंदोलन पर रोशनी डाली है
जेपी के पत्र का इंदिरा ने नहीं दिया संतोषजनक जवाब
सुदीप ठाकुर लिखते हैं कि जेपी के इस पत्र का इंदिरा ने 13 अक्टूबर, 1966 को जवाब दिया। छोटे से पत्र में इंदिरा ने देर से जवाब देने के लिए अफसोस जताया और लिखा, ‘सरकार इस समस्या के सारे पहलुओं पर विचार कर रही है।’ इंदिरा ने इस पत्र का समापन इस तरह किया, ‘मुझे यह जानकार दुख हुआ कि हाल ही में आप इफ्लुएंजा से पीड़ित थे। उम्मीद है आप पूरी तरह स्वस्थ होंगे।’
जब वाजपेयी ने करपात्री जी को आंदोलन खत्म करने की अपील की
दरअसल, 7 नवंबर की सुबह भारतीय जनसंघ, हिंदू महासभा और आर्य समाज के समर्थन प्राप्त राख से सने, त्रिशूलधारी अघोरी नगा साधु संसद भवन के सामने जमा हो गए। फ्रांसीसी पॉलिटिकल साइंटिस्ट क्रिस्टोफ जैफरलॉट ने इसे आजादी के बाद का सबसे लोकप्रिय जन आंदोलन बताया। द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार उस दिन माहौल ‘सामान्य और करीब-करीब उत्सव जैसा था, जिसमें गायों की अहमियत बताई जा रही थी। पहले वक्ता स्वामी करपात्री जी महाराज थे। हालांकि, जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने करपात्री जी को आंदोलन को वापस लेने की अपील की थी, मगर भीड़ स्वामी रामेश्वरानंद की जय कहते हुए उग्र हो उठी थी। ये भारतीय जनसंघ के करनाल से चुने गए सांसद थे, जिन्होंने भीड़ से संसद में जबरन घुसने और सबक सिखाने की अपील की थी। इसी के बाद पुलिस और भीड़ में संघर्ष शुरू हो गया। बाद में इस आंदोलन में 500 तपस्वियों समेत 1500 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। लेखक सुदीप ठाकुर इतिहासकार रामचंद्र गुहा के हवाले से बताते हैं कि जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वामी से अपील की कि वह आंदोलन वापस ले लें, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इंदिरा सरकार में गृहमंत्री रहे नंदा को देना पड़ा इस्तीफा
कुछ दिनों बाद बलराज मधोक, रामेश्वरानंद और आरएसएस और जनसंघ के अन्य प्रमुख पदाधिकारियों को दंगे भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। वाजपेयी ने दंगों की निंदा की और हिंसा के लिए अवांछनीय तत्वों को दोषी ठहराया। इंदिरा सरकार में गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा को प्रदर्शनकारियों के प्रति सहानुभूति रखने की वजह से इस्तीफा देना पड़ा। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अस्थायी रूप से पोर्टफोलियो अपने पास रख लिया। बाद में कांग्रेस (आर) ने 1971 के लोकसभा चुनावों के दौरान गाय और बछड़े को अपने चुनाव चिह्न के रूप में चुना। इसी आंदोलन से भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ के उभार को माना जाता है। बाद में भाजपा ने अपना ध्यान गौरक्षा से हटाकर राम जन्मभूमि आंदोलन पर केंद्रित कर दिया।
इंदिरा के करीबी भूपेश गुप्ता ने कहा-यह सीआईए की साजिश
दरअसल, ये आंदोलन महज एक दिन में तैयार नहीं हुआ था। इसकी शुरुआत 1965 से हुई थी, जब गायों की रक्षा के लिए कई धर्माचार्यों और संतों की बैठकों और धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला सालभर तक चला। जब सरकार ने इनकी मांग अनसुनी कर दी तो संसद तक योजनाबद्ध तरीके से मार्च हुआ। उस वक्त इंदिरा गांधी के करीबी रहे कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद भूपेश गुप्ता ने यह आंशका जताई थी कि इस मामले में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का हाथ था।
इंदिरा ने गठित की कमेटी, पर नहीं दी कोई रिपोर्ट
इस घटना के दो हफ्ते बाद ही देश के प्रभावशाली संतों ने अपनी भूख हड़ताल शुरू कर दी। आखिरकार इंदिरा गांधी ने संतों के आगे झुकते हुए गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की व्यवहार्यता के आकलन के लिए एक संसदीय समिति गठित कर दी। हालांकि, इस कमेटी को कभी कोई पावर नहीं दिया गया। इससे तंग आकर इसमें नामांकित कई सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। इस मामले में समिति ने कभी रिपोर्ट नहीं दी और तत्कालीन सत्तारूढ़ सरकार इस मुद्दे से जनता का ध्यान हटाने में कामयाब रही।
बादशाह अकबर ने पहली बार गायों की हत्या पर लगाई पाबंदी
गायों की सुरक्षा को लेकर इतिहास के पन्नों को खंगालते हैं, जब सबसे पहले यह बात उठी। मुगल शासन काल में भी यह मुद्दा काफी गरमाया। मुगल बादशाह अकबर ने हिंदू समुदाय को खुश करने के लिए पहली बार गायों की हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय कई हिंदू और सिख शासित राज्यों में गोहत्या जैसे अपराध के लिए मृत्युदंड तक दिए जाते थे।
पहली बार गौरक्षा का सामूहिक आंदोलन कूकाओं ने किया था
गौरक्षा को लेकर पहला संगठित गौरक्षा आंदोलन सिख धर्म के कूकाओं द्वारा शुरू किया गया था। यह एक सुधारवादी समूह था, जिन्होंने 1800 के दशक के आखिर में ब्रिटिश राज के दौरान गायों की सुरक्षा के विचार को फैलाया। आर्य समाज ने इस भावना को राष्ट्रीय आंदोलन में बदलने में जबरदस्त भूमिका निभाई। इस संस्था ने बड़े पैमाने पर गौहत्या को अपराध घोषित करने की पैरवी की। देश में पहली गौरक्षिणी सभा (गौरक्षा परिषद) की स्थापना 1882 में पंजाब प्रांत में की गई थी।
भागवत ने कहा था सच्चा सेवक अहंकार नहीं करता
4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए। इन नतीजों में भाजपा 400 के पार के नारे को पूरा नहीं कर पाई। उसे बहुमत से 32 कम यानी महज 240 सीटें ही मिलीं। इसके कुछ दिन बाद 10 जून को नागपुर में संघ के एक कार्यक्रम आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि जो मर्यादा का पालन करते हुए कार्य करता है, गर्व करता है, मगर लिप्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों मे सेवक कहलाने का अधिकारी है। भागवत ने मणिपुर के हालात का जिक्र करते हुए भी कहा था कि मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है। बीते 10 साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां गन कल्चर बढ़ गया। जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाया जाए। इसके बाद से यह अटकलें लग रही थीं कि भाजपा और उसके शीर्ष नेतृत्व की कार्यशैली से संघ काफी नाराज है।
संघ ने किया फैसले का स्वागत, कहा- बेवजह लगी थी पाबंदी
मोदी सरकार के इस फैसले का आरएसएस ने स्वागत किया है। आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बीते 99 वर्षों से सतत राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं समाज की सेवा में संलग्न है। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता-अखंडता एवं प्राकृतिक आपदा के समय में समाज को साथ लेकर संघ के योगदान के चलते समय-समय पर देश के विभिन्न प्रकार के नेतृत्व ने संघ की भूमिका की प्रशंसा भी की है। अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते तत्कालीन सरकार द्वारा शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए निराधार ही प्रतिबंधित किया गया था। शासन का वर्तमान निर्णय समुचित है और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है।
7 नवंबर 1966 के दिन इंदिरा गांधी ने गोवध-निषेध हेतु संसद भवन का घेराव करने वाले साधु-संतों पर गोलियां क्यों चलवाईं थीं?
1966 की इस घटना से जुड़े जितने भी पोस्ट सामने आ रहे हैं उन सब तस्वीरों से यही निष्कर्ष निकल रहा है कि साल 1966 में भारत के हिंदू संतों ने गौ-हत्या रोकने के लिए, कानून की मांग करते हुए अपनी जान की बाजी लगा दी थी, पर कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया। भारतीय इतिहास में 1984 का ज़िक्र किया जाता है, लेकिन 1966 की बात कोई नहीं करता।”
1966 के इस घटना में मारे गये लोगों के बारे में भी पोस्ट करने वालों ने दावा किया है। कुछ ने लिखा है कि इस दुर्घटना में कम से कम 250 साधु-संतों की मौत हुई थी। वहीं गूगल पर सर्च करने पर कुछ वेबसाइट पर मरने वालों की संख्या 1000 भी बताई गयी है। कुछ लोगों ने लिखा है कि कि “1966 में इंदिरा गांधी के आदेश पर पुलिस ने फ़ायरिंग की थी जिसमें हज़ारों संत मारे गए थे।”
क्या इंदिरा गांधी ने संसद के बाहर साधु संतों की गोलियों से हत्या करवाई थी ?
जी हाँ सत्ता पाने के लिए इंदिरा गांधी ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का वायदा किया था जो सत्ता में आते ही वो मुकर गई थी जा संतों ने इस बात पर ज्यादा जोर देकर धरना प्रदर्शन किया तो उन पर गोलियां चलवा दी थी
क्या इंदिरा गांधी ने संसद के बाहर साधु संतों की गोलियों से हत्या करवाई थी ?
यह सत्य है कि गोहत्या के निषेध के लिए संसद के बाहर नवम्बर १९६६ में चल रहे अहिंसक आंदोलन में कुछ शरारती लोगों द्वारा संसद के बाहर खड़े वाहनों में आग लगा दिये जाने पर पुलिस और सेना ने निहत्थे साधुओं पर गोली चलाई थी जिसमें लगभग ३०० लोग मारे गये।तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी और गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा जी ने इसकी ज़िम्मेदारी से इंकार किया था और बताया था कि उन्होंने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया था।
क्या इंदिरा गांधी ने संसद के बाहर साधु संतों की गोलियों से हत्या करवाई थी ?
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी महाराज व अनेक संतों के नेतृत्व में हजारों साधु महात्माओं ने गोपाष्ठमी के दिन 07नवम्बर, 1966 को गोहत्या पर प्रतिबंध लगवाने के लिए कानून बनाने की मांग को लेकर संसद को घेरने के उद्देश्य से संसद की ओर कूच किया था। उस समय साधुओं के साथ सैकड़ों गायें भी थीं। संसद भवन के सामने पहूँचते ही बिना किसी चेतावनी के पुलिस ने गोली बारी कर दी जिसमें हजारों साधुओं के साथ असंख्य गांऐ भी मारी गई थी। उस समय साधुओं की लाशो व मृत गायों के बीच खड़े हो कर रोते हुए स्वामी करपात्री जी महाराज ने इन्दिरा गांधी को श्राप देते हुए कहा था कि ” तेरा व तेरे परिवार का अंत भी इसी भांति गोपाष्ठमी के दिन ही होगा।” इस अमानवीय घठना के बाद तत्कालीन गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा ने न केवल अपने पद से त्यागपत्र दे दिया वरन् सक्रिय राजनीति से भी अलग हो गए। स्वतंत्र भारत की यह सबसे क्रूरतापूर्ण घटना थी।अब श्राप का असर देखिये। इन्दिरा गांधी, संजय गांधी व राजीव गांधी की मौत गौपाष्ठमी के दिन ही हुई। संतो के आंसू व उनका श्राप बरबाद कर गया जालिमों को।
7 नवम्बर 1966 को गोपाष्टमी की तिथि पर कांग्रेस द्वारा किये गए 5000 गौरक्षक साधु-संतों के नरसंहार के विषय में आप क्या जानते हैं?
आज गोपाष्टमी है, और आज मैं 7 नवम्बर 1966 को इसी गोपाष्टमी की तिथि पर कांग्रेस द्वारा किये गए 5000 गौरक्षक साधु-संतों के नरसंहार के विषय से आपको अवगत कराने जा रहा हूँ।
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वैसे तो एक समय में कोंग्रेस का चुनाव चिन्ह हिंदुओं के लिए समान्नित गाय बछड़ा और दो बैलों की जोड़ी रहा है किंतु हिंदूओं की आस्था पर आघात करना कॉन्ग्रेस का चरित्र है, और सम्भवतः इसी कारण से कांग्रेस ने केरल में हिंदुओं की आस्था को आघात पहुंचाने हेतु बीच सड़क पर गाय काटकर उसे पकाया और खाया था,
भारत के राजनीतिक इतिहास में झांकें तो हिंदुओं को लुभाने और उनके वोट हथियाने हेतु नेहरू और इंदिरा ने जनता को गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध के कई सब्जबाग दिखाए थे, और यही आश्वाशन देकर उनके वोट बटोरे थे, किंतु सत्ता में आने पर वे न केवल मुकर गए अपितु इंदिरा नीत कांग्रेस ने तो गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग करने वाले साधु संतों का बर्बर नरसंहार तक किया था,
वैसे तो कांग्रेस ने अब तक कई नरसंहार करवाएं हैं, किंतु आज मैं आपका परिचय उस वास्तविक घटना से करवाने जा रहा हूँ जिसका आंखों देखा वर्णन पत्रकार मनमोहन शर्मा ने अपने लेख के माध्यम से किया गया था, यह लेख पंजाब केसरी में प्रकाशित हुआ था, किन्तु जिस कड़वी सच्चाई को इसमें उजागर किया गया था उसी कारण इस सत्य को पुर्णतः दबा दिया गया और ये सुनिश्चित किया गया कि देश की जनता 1966 के उस वीभत्स सन्त नरसंहार से अनभिज्ञ रहे,
1966 के संत नरसंहार की पृष्ठभूमि यह थी कि प्रधानमंत्री पद के लिए पहली बार चुनाव लड़ने से पूर्व इंदिरा गांधी साधु संतों के पास आशीर्वाद लेने गई थी जिनमें करपात्री महाराज भी सम्मिलित थे,
करपात्री महाराज ज्योतिरमठ के शंकराचार्य ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे और वाराणसी स्थित धर्म संघ के संस्थापक थे और सनातन दर्शनशास्त्र संस्थान अद्वैता वेदांत में शिक्षक भी थे, 1948 में उन्होंने “संमार्ग” नामक समाचार पत्र आरंभ किया था, तथा 1948 में ही उन्होंने एक पारंपरिक हिंदू राजनीतिक पार्टी “ राम राज्य परिषद”का गठन किया था और हिंदू कोड बिल के भेदभाव पूर्ण नियमों के विरुद्ध उन्होंने एक बहुत बड़ा जनआंदोलन भी किया था इसके अतिरिक्त में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने हेतु भी कार्य करते थे,
इंदिरा गांधी द्वारा समर्थन मांगने पर करपात्री महाराज ने इंदिरा को सशर्त समर्थन दिया और शर्त यह थी कि प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी पूरे भारतवर्ष में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगवाएँगी,
किंतु नेहरू गांधी परिवार की परंपरा अनुसार ही इंदिरा गांधी ने करपात्री महाराज के संग छल किया और प्रधानमंत्री बनने के बाद करपात्री महाराज द्वारा कई बार याद दिलाने पर भी गोहत्या प्रतिबंध पर कोई कदम नहीं उठाए,
करपात्री महाराज समय-समय पर इंदिरा गांधी से मिलने उन्हें उनका वचन याद दिलाने दिल्ली आते रहे, किंतु इंदिरा गांधी उन्हें टालती रही, अंत में जब इंदिरा गांधी ने करपात्री महाराज के आगमन पर उनसे मिलना भी बंद कर दिया तब करपात्री महाराज ने आंदोलन का मार्ग चुना, करपात्री महाराज के नेतृत्व में गौरक्षा अभियान समिति का गठन हुआ, इस संगठन से लाखो की संख्या में लोग जुड़े और आंदोलन आरंभ होने के बाद 44,000 से अधिक गौरक्षक आंदोलनकारी अपनी गिरफ्तारीयां दे चुके थे, परंतु इंदिरा गांधी के नेतृत्व की सरकार गौरक्षा अभियान समिति और करपात्री महाराज की मांगों को इसके बाद भी स्वीकार नहीं कर रही थी, अतः अंतिम विकल्प के रूप में करपात्री महाराज ने संसद भवन के बाहर अपने शिष्यों व समर्थकों समेत धरना देने का निश्चय किया, किंतु उसकी परिणिति क्या होने वाली थी इसकी तो कभी करपात्री महाराज ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी,
उन दिनों प्रदर्शनकारियों को संसद भवन परिसर के गेट तक आने की अनुमति थी, 5 नवंबर से ही देश के कोने-कोने से गौ भक्तों के जत्थे इस प्रदर्शन में भाग लेने हेतु पहुंचने शुरू हो गए, 7 नवंबर 1966 को संसद के सामने एक बहुत बड़ा मंच बनाया गया था, सुबह 8:00 बजे से ही नगर के विभिन्न भागों से गौभक्तों के समूह इस प्रदर्शन में भाग लेने के लिए संसद पर पहुंचने शुरू हो गए थे,
मंच पर दो-ढाई सौ नेता विराजमान थे इनमें चारों शंकराचार्य, हिंदू ह्रदय सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज, रामचंद्र वीर जी के साथ-साथ आर्य-समाज, गौ सेवा अभियान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, नामधारी समाज तथा दर्जनों संगठनों के नेता सम्मिलित थे और भाषणों का दौर शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था,
पत्रकार मनमोहन शर्मा बताते हैं कि वह वक्ताओं के भाषण को रिपोर्ट करने हेतु संसद भवन के प्रेस रूम में बैठे हुए थे कि अचानक लोकसभा सुरक्षा दल के एक प्रमुख अधिकारी घबराए हुए प्रेस रूम में पहुंचे और उन्होंने यह सूचना दी कि गौभक्तोपर और साधु संतों पर पुलिस गोलियां चल रही है,
मनमोहन शर्मा को यह लगा कि पुलिस आंसू गैस चला रही होगी जिसे इन अधिकारी महोदय ने गोलियां समझ लिया है, किंतु उसके बाद कई लोग अंदर आये और उन्होंने इस बात की पुष्टि करी कि पुलिस वास्तव में गौ भक्तों पर गोलियां चला रही है, मनमोहन शर्मा दौड़ते हुए संसद परिसर के मुख्य गेट की तरफ गए और देख कि पुलिस वास्तव में गौभक्तों की भीड़ पर अंधाधुंद गोलियां चला रही थी, चारों ओर गोलियोँ की आवाज गूंज रही थी, आंसू गैस के धुंए के कारण आंखों में जलन वह सांस लेने में तकलीफ हो रही थी, मनमोहन शर्मा ने रुमाल पानी से भिगोकर आँखों व् नाक पर बांधा और संसद भवन परिसर की ओर निकल गए, वहां उन्होंने पाया कि जहां तक उनकी दृष्टि जा रही थी वहां चारों तरफ केवल लाशें ही लाशें बिखरी हुई थी, चारों और खून बह रहा था जिससे सड़क पूरी तरह से लाल हो गई थी, सड़क पर भारी संख्या में लोगों के जूते चप्पल बिखरे हुए थे, संसद भवन से लेकर पटेल चौक तक शव बिखरे हुए थे, घायल जहाँ तहाँ जमीन पर पड़े कराह रहे थे और पानी मांग रहे थे, परिवहन विभाग भवन, आकाशवाणी भवन, एवं योजना भवन के बाहर कुछ वाहन जल रहे थे, फिर उन्हें पता चला कि पुलिस अशोक रोड स्थित कामराज नगर और गोल डाकखाना के पास भी प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चल रही है, इस के तुरंत बाद रीगल और विंडसर प्लेस पर भी गोलियां चलाए जाने का समाचार प्राप्त होना शुरू हुआ, और मनमोहन शर्मा ये समाचार देने पुनः संसद भवन की और भागे, जहाँ उन्हें तत्कालीन गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नन्दा खड़े दिखे, उनकी आँखों में आंसू थे, निर्दोष साधु संतों के रक्त रंजित शवों को देखकर पत्रकार मनमोहन शर्मा अपना आपा को बैठे और गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा पर बरस पड़े, और चिल्लाते हुए बोले
“तुम्हे शर्म नहीं आती है, एक ओर गौभक्त बनते हो, और दूसरी और निर्दोष गौभक्तों पर गोलियां चलवा रहे हो ?”
मनमोहन शर्मा आवेश में बोलते जा रहे थे, और गुलज़ारी लाल नन्दा अश्रुपूरित आँखों से सब सुने जा रहे थे, मनमोहन शर्मा के चुप होने के बाद उन्होंने रोते हुए उत्तर दिया की “भाई मैंने कोई गोली चलाने का निर्देश नहीं दिया, मैं खुद हैरान हूं कि गोलियां क्यों और किसके आदेश पर चलायीं जा रही हैं”
मनमोहन शर्मा लिखते हैं कि प्रेस रूम में गोली चलाये जाने का समाचार अपने दफ्तर को देने के बाद वे पुनः रिपोर्टिंग हेतु बाहर निकल पड़े, संसद भवन से लेकर पटेल चौक तथा कृषि भवन विंडसर प्लेस और गोल डाकखाना तक साधु-संतों, पुरुषों, औरतों और बच्चों के बेशुमार शव बिखरे हुए थे और सड़कों पर हर जगह खून पड़ा था, इतने में पुलिस ने रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार मनमोहन शर्मा को वहाँ से हटा दिया और उन्हें पुनः सन्सद भवन को वापस लौटना पड़ा, रास्ते में उन्होंने देखा कि सैनिकों की टुकड़ियां अपने ट्रकों और बख्तरबंद वाहनों में सवार सन्सद की ओर पहुंचना शुरू हो गए थे, सेना ने चारों तरह मोर्चा संभाल लिया था और किसी को बाहर निकलने की अनुमति नही थी, दिल्ली पुलिस के गुप्तचर विभाग के एक अधिकारी से मनमोहन शर्मा को जानकारी प्राप्त हुई कि शवों को दिल्ली के चार अस्पतालों में पहुँचाया जा रहा है, जब मनमोहन शर्मा वेलिंग्टन अस्पताल पहुंचे तो वहाँ कड़ी सुरक्षा थी और किसी को अंदर जाने कि अनुमति नही थी, किसी परिचित पुलिस अधिकारी के सहयोग से अंदर घुसे तो पाया कि वहां शवों के अम्बार लगे हुए थे, और गिनने पर पाया कि शवों की संख्या 374 थी, जिनमे सौ से अधिक महिलाओं व् बच्चों के शव भी सम्मिलित थे, इसके बाद सैनिकों ने मनमोहन शर्मा को शाम तक अस्पताल से निकलने की अनुमति ही नहीं दी, जिसके बाद उन्होंने अपने दफ्तर फोन कर अन्य तीन अस्पताल जहाँ शव रखे जा रहे थे वहाँ पर संवाददाता भेजने को कहा, किन्तु कड़ी होती जा रही सुरक्षा बलों की टीमों ने किसी को भी अंदर नहीं घुसने दिया,
ढलती शाम के साथ अपने दफ्तर पहुंचकर मनमोहन शर्मा अपने साथियों संग यह खबर लिखने की तैय्यारी कर रहे थे कि गृह मंत्रालय से निर्देश प्राप्त हुआ कि इस नरसंहार पर पूरे देश में केवल सरकार द्वारा जारी प्रेसनोट ही प्रकाशित व् प्रसारित करें, कोई भी समाचार पत्र या संवाद समिति अपने संवाददाता द्वारा तैयार की गयी किसी भी खबर को प्रकाशित व् प्रसारित नहीं करेगी,
इस तरह से इंदिरा गांधी की सरकार ने मीडिया पर इस नरसंहार की खबर प्रकाशित करने से रोक लगा दी, सरकारी प्रेस नोट में दावा किया गया था कि प्रदर्शनकारियों पर हुई पुलिस फायरिंग में केवल 16 व्यक्ति मरे हैं, प्रेस नोट में लिखा गया था कि दिल्ली में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगाया जा रहा है और प्रशासन सेना के हवाले किया जा रहा है,
मनमोहन शर्मा लिखते हैं कि बाद में उन्हें जानकारी हुई की गौरक्षकों की रैली पर गोलियां चलवाना एक सुनियोजित षड्यंत्र के र्अंतर्गत किया गया था जिसमें एक कुख्यात कांग्रेसी सांसद और ग्रहमंत्रालय के एक राज्यमंत्री सम्मिलित था, षड्यंत्र का उद्देश्य गौरक्षा अभियान को बदनाम करना और गुलजारी लाल नंदा को गृहमंत्री के पद से हटवाना था,
वाहनों में आग लगाने एवं विभिन्न सरकारी भवनों पर हमला करने के हेतु कांग्रेस कार्यकर्ताओं और गुंडों को विशेष रूप से हरयाणा, पश्चिमी यूपी, राजस्थान से बुलाया गया था, इसके अलावा मनमोहन शर्मा लिखते है कि उन्हें जानकारी प्राप्त हुई की गुप्तचर विभाग ने ग्रहमंत्रालय को यह सुचना पहले ही दी थी की दिल्ली पुलिस साधु-संतों, पुरुषों, महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों पर गोली चलाने से इंकार कर सकती है, इसीलिये कश्मीर मिलिशिया को विशेष रूप से बुलाया गया था, और निर्देशित किया गया था कि गोली घायल करने हेतु पैरों पर नहीं अपितु वध करने हेतु सीने व् सर में मारनी है, मिलिशिया ने 11 हजार राउंड फायर किए थे और मरने वालों की संख्या 2000 से 5000 के बीच आंकी गयी थी, बाद में ये सारे रिकॉर्ड प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर नष्ट कर दिए गए थे।
यह पूरा षड्यंत्र शत प्रतिशत सफल रहा हताशा ग्रस्त होकर गुलज़ारीलाल नन्दा ने त्यागपत्र दे दिया और गौरक्षा आंदोलन भी समाप्त हो गया, आजतक इस नरसंहार की कभी कोई जांच नहीं हुई और किसी दोषी को कोई दंड नहीं मिला, स्थिति तो यह है कि इस घटना को स्वतंत्र भारत के इतिहास से ही मिटा दिया गया और अधिकांश भारतीयों को पता ही नहीं की ऐसा भी कुछ इस देश के राजधानी में घटित हुआ था, जिसमे निर्दोष निहत्थे साधु-संतों, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का बर्बरतापूर्वक कांग्रेसियीं ने नरसंहार करवाया था।
(मेरे इस लेख के तथ्य राष्ट्रीय संवाद समिति हिंदुस्तान समाचार के पत्रकार के रूप में उस प्रदर्शन को कवर कर रहे मनमोहन शर्मा द्वारा अपने लेख “जब दिल्ली में गौभक्तों के खून की होली खेली गई” (पंजाब केसरी 07-11-2016, पृष्ठ11) में वर्णित उस दिन की घटनाओं पर आधारित है)
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कहते हैं कि उसी गोपाअष्ठमी दिन करपात्री महाराज ने इंदिरा को श्राप दिया था, और यह भी एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन इंदिरा की हत्या हुई वह दिन भी गोपाअष्ठमी की ही तिथि थी।
इंदिरा गांधी के ‘हिंदू नरसंहार 1966’ की सच्चाई क्या है?
चुनाव के मद्देनज़र एक पुरानी तस्वीर व्हॉट्सऐप और सोशल मीडिया पर तेज़ी से शेयर की जा रही है.
“क्या आप जानते हैं कि मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए 7 नवंबर 1966 के दिन इंदिरा गांधी ने गोवध-निषेध हेतु संसद भवन का घेराव करने वाले 5000 साधुओं-संतों को गोलियों से भुनवा दिया था. आज़ाद भारत में इतना बड़ा नृशंस हत्याकांड पहले कभी नहीं हुआ था.” ये मैं नहीं कह रहा, वायरल तस्वीर में ऐसा ही लिखा था।
कुछ लोगों ने इस घटना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से भी की है और लिखा है कि भारतीय इतिहास में 1984 का ज़िक्र किया जाता है, लेकिन 1966 की बात कोई नहीं करता.
जहां तक मेरी समझ काम करती है इन बातों को युवा पीढ़ी से
वो मामला क्या था जब इंदिरा गांधी ने साधु संतों पर गोली चलवाई थी?
गो हत्या के विरोध में प्रदर्शन किया गया था!
इंदिरा गांधी के ‘हिंदू नरसंहार 1966’ की सच्चाई क्या है?
1966 के गो-हत्या बंदी Andolanमें जब संसद के सामने रोते और साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने दिया था श्राप- मैं कांग्रेस को श्राप देता हूं कि एक दिन हिमालय मे तपश्चर्या कर रहा एक साधू आधुनिक वेशभूषा मे इसी संसद को कब्जा करेगा और कांग्रेसी विचारधारा को नष्ट कर देगा। यह एक सच्चे औऱ असली ब्राह्मण का श्राप है।
स्वाधीन भारत में विनोबाजी ने पूर्ण गोवध बंदी की मांग रखी। उसके लिए कानून बनाने का आग्रह नेहरू से किया। वे अपनी पदयात्रा में यह सवाल उठाते रहे। कुछ राज्यों ने गोवध बंदी के कानून बनाए।
इसी बीच हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मल चंद्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता)
क्या 1966 में गौ-हत्या बंद करने के लिए आंदोलन करने वाले साधु और गौ-सेवक हिंसक थे? अगर वह हिंसक थे, तो इंदिरा के गोली चलाने के आदेश से पहले, उन्होंने जनता या सार्वजनिक संपत्ति का कितना नुकसान किया था?
वो मामला क्या था जब इंदिरा गांधी ने साधु संतों पर गोली चलवाई थी?
घटना सत्य है, किंतु पूरे प्रकरण को नमक मिर्च के साथ कुछ झूठे तस्वीर लगाकर परोसे जाने का सिलसिला जारी है। इस कारण आई टी सेल के झूठे खबरों से सावधान रहने की जरुरत है। बाकी ब्यौरा नीचे है ..…
संतों को रोकने के लिए संसद के बाहर बैरीकेडिंग कर दी गई थी। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी सरकार को यह खतरा लग रहा था कि संतों की भीड़ बैरीकेडिंग तोड़कर संसद पर हमला कर सकती है। कथित रुप से इस खतरे को टालने के लिए ही पुलिस को संतों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया गया। एक रिपोर्ट के मुताबिक, तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को इस बात का अहसास था कि वे बातचीत से हालात को संभाल लेंगे, लेकिन मामला हाथ से निकल गया और
क्या यह सच है कि इंदिरा गांधी को किसीने श्राप दिया था कि तुम्हारी मृत्यु गोलीयों से छलनी होकर होगी?
करपात्री जी महाराज ने
इंदिरा गांधी को किस लिए उनके अंगरक्षको ने गोली मारी थी ?
इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षको ने गोली इस लिए मारी थी क्यों की वो स्वर्ण मंदिर पर भारतीय सेना द्वारा चलाए गए आतंक रोधी और खालिस्तान लिबरेशन विरोधी अभियान से गुस्से में थे और वो इसका दोषी तत्कालीन प्रधामंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को मानते थे इस लिए प्रधानमंत्री आवास के बाहर उनकी गोली मार कर हत्या कर दी गई इसके फल स्वरूप देश भर में सिक्ख विरोधी दंगे सुरु हो गए और हजारों सिक्ख मार दिए गए
इंदिरा गांधी के ‘हिंदू नरसंहार 1966’ की सच्चाई क्या है?
‘संतों ने लगाई जान की बाज़ी
1966 की इस घटना से जुड़े जितने भी पोस्ट हमें मिले, उनका लब्बोलुआब यही था कि साल 1966 में भारत के हिंदू संतों ने गो-हत्या पर प्रतिबंध लगवाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाई थी लेकिन कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया.
कुछ लोगों ने इस घटना की तुलना 1984 के सिख विरोधी दंगों से भी की है और लिखा है कि भारतीय इतिहास में 1984 का ज़िक्र किया जाता है, लेकिन 1966 की बात कोई नहीं करता.
इस दुर्घटना में कितने लोगों की मौत हुई? इसे लेकर भी तमाम तरह के दावे सोशल मीडिया पर दिखाई दिए. कुछ ने लिखा है कि इस दुर्घटना में कम से कम 250 साधु-संतों की मौत हुई थी. गूगल
क्या वजह थी कि इंद्रा गांधी के अंगरक्षकों ने उनकी गोली मार कर हत्या कर दी ?
ऑपरेशन ब्लू स्टार में टैंक का प्रयोग गुरुद्वारा हरमिंदर साहिब पर,,,,जिससे सीखो की भावनाए आहत हुई,,,उनके सिख अंगरक्षो ने है इंद्रा की हत्या की
क्या 1966 में गौ-हत्या बंद करने के लिए आंदोलन करने वाले साधु और गौ-सेवक हिंसक थे? अगर वह हिंसक थे, तो इंदिरा के गोली चलाने के आदेश से पहले, उन्होंने जनता या सार्वजनिक संपत्ति का कितना नुकसान किया था?
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई ने अपनी क़िताब ‘बैलेट: टेन एपिसोड्स देट हैव शेप्ड इंडियन डेमोक्रेसी’ में 1966 की उस घटना का वर्णन किया है.
उन्होंने बताया, “हरियाणा के करनाल ज़िले से जनसंघ के सांसद स्वामी रामेश्वरानंद उस कथित आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. उनकी मांग थी कि देश में एक क़ानून बने जिसके अनुसार गोहत्या को अपराध माना जाए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस माँग का समर्थन कर रहा था.”
“इस माँग को लेकर हज़ारों साधु-संत अपनी गायों के साथ दिल्ली चले आए और आधिकारिक जानकारी ये है कि उन्होंने सरकारी संपत्ति का नुकसान किया, मंत्रालय की इमारतों के बाहर तोड़फ़ोड़ की. साथ ही संसद में घुसने की
मोरारजी देसाई के कार्यकाल में इंदिरा गांधी के गुर्गों ने प्लेन हाईजैक किया और इंदिरा गांधी को तिहाड़ जेल से निकलवाया। जिन दो गुर्गों ने इस कारनामे को अंजाम दिया वो कांग्रेस में बड़े पदों तक पहुंचे. वे कौन हैं?
संसद परिसर में राममनोहर लोहिया ने इंदिरा गांधी को चिकोटी (Pinch) क्यों काटी थी?
करपात्री महाराज ने इंदिरा गांधी को क्यों श्राप दिया?(तीनों की मौत बहुत ही दर्दनाक रही)
इंदिरा गांधी के ‘हिंदू नरसंहार 1966’ की सच्चाई क्या है?
इंदिरा गांधी ने 10 हज़ार से अधिक साधु संतो को क्यो मरवा दिया था?
अपनी जवानी के दिनों में सोनिया गांधी कैसी दिखती थीं?
क्या इंदिरा गांधी वाक़ई सबसे ताक़तवर भारतीय प्रधानमंत्री थीं?
इंदिरा गांधी की हत्या करने वाले अंगरक्षकों का क्या हुआ?
कौन था वो ब्रह्मचारी जिसकी बात इंदिरा गांधी टाल नहीं पाती थीं ?
करपात्री जी महाराज कौन थे ? संसद भवन के सामने उनके समर्थकों पर गोलियाँ किसने और क्यों चलवाईं थीं ?