जीवनभर मुस्लिम साम्प्रदायिक गुंडागर्दी को कवर फायर देते रहे सलीम – जावेद
Dee Kay Tripathi:
जावेद अख्तर ने 1970 से 1982 तक लेखक सलीम के साथ मिलकर 24 बॉलीवुड फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी। इनमें से ज्यादातर फिल्में अंडरवर्ल्ड पर अपराध आधारित कहानियां थीं।
इस अवधि के दौरान, बॉम्बे में पांच खूंखार अपराधी थे – हाजी मस्तान, यूसुफ पटेल, करीम लाला वरदराजन मुदलियार और दाऊद इब्राहिम। इनमें से चार मुसलमान थे। पुलिस रिकॉर्ड से पता चलता है कि मुंबई में 80 प्रतिशत अपराधी मुसलमान थे।
लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि उसी दौरान बॉम्बे में जावेद अख्तर और सलीम जावेद ने 24 फिल्मों की कहानी लिखी, उनकी स्क्रिप्ट के खलनायक कभी मुसलमान नहीं थे। यह जावेद अख्तर को लोकप्रिय फिल्मों के शक्तिशाली माध्यम से जनता की सोच को प्रभावित करने के लिए अचूक पूर्वाग्रह दिखाता है।
जावेद अख्तर द्वारा लिखी गई फिल्म दीवार से जुड़ी कहानी जानी-पहचानी है। फिल्म का नायक एक हिंदू है, एक नास्तिक है जो हिंदू धर्म से इतनी नफरत करता है कि वह मंदिर की सीढ़ियों पर भी पैर नहीं रखता है। वह भगवान के प्रसाद को छूता तक नहीं है लेकिन वही नास्तिक हिंदू नायक, एक इस्लामी धार्मिक प्रतीक है, उसकी बांह पर संख्या 786 बिल्ला है जिस पर वह गहरा विश्वास करता है। यही बिल्ला उसकी जान बचाता है जब एक गोली उसे लगती है।
1983 से 2006 तक जावेद अख्तर ने 14 और फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी लेकिन उन 14 फिल्मों में भी एक भी मुस्लिम किरदार को नेगेटिव नहीं दिखाया, यानी 1970 से 2006 तक कुल 38 फिल्मों में जावेद अख्तर के किस्सों में एक भी मुस्लिम किरदार को विलेन के तौर पर नहीं दिखाया गया। ध्यान रहे उनमें से लगभग 60% फिल्में शुद्ध अपराध की कहानियों पर आधारित थीं।
उन दिनों मुंबई में मुस्लिम गुंडों, तस्करों, हत्यारों, आतंकवादियों का अपराध कहर ढा रहा था। जिसके बारे में पूरा देश जानता है लेकिन जावेद अख्तर की लिखी हर कहानी का खलनायक हमेशा हिंदू था, यह संयोग नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में, यह संयोग नहीं बल्कि एक प्रयोग था….
गौरतलब है कि यह जावेद अख्तर पाकिस्तानी मुशायरे के सेमिनारों और सम्मेलनों के बहाने दशकों से पाकिस्तान की कई यात्राएं कर रहा है लेकिन उन्होंने पाकिस्तान में हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी या बौद्ध परिवारों पर पाकिस्तानी मुस्लिम गुंडों द्वारा की जा रही हत्या, लूट और बलात्कार के राक्षसी कहर के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला।
पाकिस्तान में गैर-मुसलमानों की ऐसी दर्दनाक स्थिति उनकी किसी कहानी या ग़ज़ल पर कभी नहीं पड़ी थी लेकिन ये वही जावेद अख्तर हैं जिन्होंने सीएए का विरोध किया था और पाकिस्तानी मुस्लिम गुंडों को भारत की नागरिकता देने की जिद कर रहे थे।
तीन-चार दशक पहले फिल्म जिहाद की कमान वामपंथियों के मुखौटे में वैचारिक रूप से चालाक ठगों और धोखेबाजों के गिरोह को सौंप दी गई थी। 7-8 साल पहले तक देश के वैचारिक धरातल पर वामपंथ का मुखौटा लगाकर वैचारिक रूप से चालाक ठगों और धोखेबाजों के गैंग ने तानाशाह की तरह देश पर राज किया। सत्ताधारी लालची कांग्रेस इस वामपंथी वैचारिक कचरे की गठरी को शो पीस की तरह अपनी पीठ और खोपड़ी पर ढोती रही।
लेकिन 7-8 साल पहले इस देश के आम आदमी को सोशल मीडिया का मंच मिला और उस मंच से आम आदमी ने सच बोला। सच्चाई की इस गर्जना के कारण, वामपंथी विचारधारा बुरी तरह से ढहने लगी, देवताओं के स्थान पर कब्जा करने वाले देवता। वामपंथी शैतानों की जो मूर्तियाँ सीधी खड़ी थीं, उन्हें जनता ने उखाड़ना शुरू कर दिया है।
बॉलीवुड जिहाद का ये सिलसिला अभी भी जारी है जैसे आम आदमी की इसके खिलाफ लड़ाई…
(अशोक डोगरा की वाल से साभार)