ज्ञान:तीन नहीं, सात पीढ़ियों का करें श्राद्ध तर्पण

बात चिढ़ाने के लिये नहीं कही जा रही,

अपितु भविष्य में हम वह न करें जो पीछे हो चुका – उस दृष्टि से देखिये,

पितृ श्राद्ध सदैव श्रद्धा का विषय रहा है,

कोई करता है कोई नहीं करता है,

जो करता है उसको क्या लाभ होता है या जो नहीं करता है उसको क्या हानि होती है ? – इस ओर हमें अभी जाना नहीं,

लोग श्राद्ध क्यों नहीं कर पाते ?

बोले – समय नहीं है !

लेकिन बिरला, सिंघानिया, अम्बानी, अडानी श्राद्ध को समय निकाल लेते है …

अब बहाना बदल जायेगा – बोलेंगे – वो समृद्ध हैं कर सकते हैं,

हमने अपने गाँव के निर्धन श्रमिक को छुट्टी लेते देखा – ‘बाबू का पिण्ड पारण कराना है’

जल, तिल, कुश, अन्न के कुछ कण, पुष्प और मिट्टी पात्र तो वह निर्धन भी जुटा लेता है,

अब बोलेंगे – अच्छे पण्डित नहीं मिलते !

बच्चों को दुनिया के सर्वोच्च स्कूल में पढ़ाने की इच्छा रखने वाले इसका उत्तर स्वयं को स्वयं से दे लेंगे,

एक कारण और है श्राद्ध न कर पाने के पीछे – अशुद्ध वंश परम्परा प्रपितामह-प्रपितामही, पितामह-पितामही, पिता-माता के नाम और गोत्र संग परम नाना-नानी, परनाना-नानी, नाना-नानी के नाम और गोत्र !

देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण होते हैं ,

बैंक का ऋण न चुकाये तो डिफाल्टर हो जायेंगे – बाउंसर आयेंगे – सिविल खराब होगा – आगे कहीं से ऋण नहीं मिलेगा !

और इधर ?

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कुछेक भारतीय- नामी भी श्राद्ध पर आक्षेप करते हैं, कमनिष्ठ, जार्य समाजी-नमाजी और आधुनिकता के नाम पर जिनको ग्राफ्टिंग करनी है – ऐसे लोग भी श्राद्ध नहीं करते – उनसे तर्क-वितर्क न करें,

और उधर पाश्च्यात्य शैली भी पितृ को पीटर नाम रख कहीं न कहीं से समीचीन बनाये हुये है,

देश से अधिक अब विदेश में श्राद्ध की संवेदनाओं का मूल्य स्थापित हो रहा

#मानिये_न_मानिये

कभी कभी जब सो कर उठते हैं तो पता ही नहीं चलता कि हम कौन हैं ; कहाँ हैं ; फिर धीरे धीरे सब याद आता है ; कभी कभी रात थी कि दिन इस बात का भी पता कुछ देर में लगता है

इस सूक्ष्म अहंकार के जागने से पहले की अवस्था को ‘महत्’ सर्ग बोलते हैं

जब पता चल गया कि ‘मैं कौन हूँ ‘ वह हो गया अहंकार सर्ग

फिर पञ्च महाभूत भासते हैं – शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध यह तीसरा सर्ग !

इसके बाद इन्द्रियां – चौथा सर्ग ! देवता -पांचवा सर्ग!
अविद्या -छठां ! यह छ: प्राकृत सर्ग हैं !

वैकारिक सर्ग के तीन प्रकार –
7. स्थावर – समस्त वृक्ष पादप ,इनके छ:भेद- वनस्पति,लता,ओषधि,त्वकसार(जिस पौधे का छिलका ही काम आवे),वीरुध और द्रुम !

8. पशु-पक्षी – इनके अट्ठाइस प्रकार -गाय बकरी शूकर हरिण गवय रुरु मेष और ऊँठ आदि जिनके एक ही खुर के दो भाग होते हैं
गधा घोडा खच्चर गौर शरभ चमरी आदि जिनके खुर फटे नहीं होते
कुत्ता सियार भेंडिया जिनके पंजे में पांच नाखून होते हैं

गिद्ध कंक आदि पक्षी भी इसी आठवें सर्ग होते हैं

मनुष्यो का सर्ग नवां है
मनुष्य वह जो मन से सम्बन्ध सी ले

कुमारो का सर्ग दशवाँ !

देवता;पितर;असुर;गन्धर्व;अप्सरा;यक्ष-राक्षस;भूत-प्रेत-पिशाच; सिद्ध-चारण-विद्याधर-किन्नर आदि ये वैकृत सर्ग में आते हैं

यह रही ब्रह्मा की सृष्टि !

और ;
इसे बताया गया है ईश्वर महत्ता बताने को !

🙂

आधार : भागवत-दर्शन: तीसरा स्कंध !
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सृष्टि कैसे बनी ? उस प्रक्रिया पर इतने मत, मतांतर, मतभेद हैं जिनकी गिनती नहीं तो सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया की कोई गणना ही क्या करे !

श्राद्ध श्रद्धा की वस्तु है,

मिट्टी के भीतर छिपी वृक्ष की जड़ को सींचे तो सामने दीखनेवाली शाखा-प्रशाखा हरी, फूल-फल-भरी रहती हैं,

वैसे ही मूल रूप पूर्वजों की पूछ, आपके वंश वृक्ष को हरियाली और फल-फूल प्रदान करती है ….

मन ही मन कानून मानने से बात नहीं बनती, उसको फॉलो करना पड़ता है,
वैसे ही मन ही मन पूर्वजों के प्रति प्रेम अलग बात है, शास्त्रीय-पद्धति से कुछ करना अलग …

मानो तो गंगा माँ है
ना मानो तो बहता पानी ….

विपरीत प्रचलन की रीत चलन शीघ्र हो जाती है,

जैसे पर्वत आरोहण यानी पहाड़ चढ़ने में परिश्रम होता है, पर पतन-गिरने में ? लुढ़कते चले जाओ !

श्राद्ध हेतु लोग कसीदा काढ़ देते हैं – मृत्यु के बाद अपने पिता, पितामह, माता, मातामही के लिये क्या पाखण्ड करते हो ? जीवित रहते क्यों न किया ?

ऐसा भाव क्यों नहीं आता कि जब मृत्यु पश्यात भी इसके मन में अपने पूर्वजों के प्रति इतनी श्रद्धा – सेवा- आदर भावना है तो जीवित रहते कितनी रही होगी !!

श्राद्ध हेतु कुछ एक निषेध भी हैं – बोले – पाखण्डियों-ढोंगियों-नग्नों को न आमन्त्रित करें ..

पूछे – पाखण्डी, ढोंगी तो समझ आयी, नग्न कौन ?
बोले – जो वेद, शास्त्र, गुरु-परम्परा विहीन है !

सनातन संस्कारों में जन्म के बाद पिता नवजात को दसवें दिन गोद में लेकर उसके कान में एक मन्त्र बोलता है – जिसका आशय होता है -“तुम हमारे शरीर के अंग अंग के रस हो, मेरी आत्मा तुममें है, तुम मेरी ही आत्मा हो, तुम सौ शरद ऋतुएं देखो, यानी स्वस्थ रहते हुए शत वर्ष जीओ !!”

जिनको अपने माता-पिता बोझ लगते हों
उन्हें बेटा-बेटी पैदा करने का अधिकार ही नहीं
क्योंकि, एक दिन इसी सिद्धांत से वे भी बोझ बन जाएंगे

जीते जी कोई भी माता-पिता से उऋण तो हो ही नहीं सकता , मरणोपरांत भी श्राद्ध आदि से अपने जीवन का ऋण ही प्रदर्शित करता है

पितृ पक्ष में श्रद्धा हो तो श्राद्ध करें
इससे संतति परम्परा शुद्ध रहती है – मान्यता है

जिनके पिता हैं , वे भाग्यशाली हैं
जिनके पिता सशरीर नहीं हैं वे उन्हें अपने आप में देखें – यही भारतीय परम्परा है

मानिए न मानिए परम पिता तो सबके एक ही हैं

भारतीय सनातन परम्परा में संस्कार 16 होते हैं

जिनको संस्कारों की जानकारी चाहिए वे पंडितप्रवर पट्टाभिराम शास्त्री जी, काशी की पुस्तक ‘संस्कार’ देख सकते हैं,गर्भाधान से अंत्येष्टि संस्कार तक का शास्त्रीय चिंतन उसमें है

खैर, आपके सभी संस्कार दकियानूसी और प्रदूषण फैलाने वाले लग रहे – उन लोगों को जो शहरों में रहते हैं , सरकारी वेतन पाते हैं, यूनियनबाजी करते हैं, मित्र बनकर आपको छद्म रूप से चराते हैं

विवाह के कई मायने हैं – अरेंज मैरेज में कुल-गोत्र देखा जाता है, जो परम्परा हजारों वर्ष से हमारे पूर्वज लेकर यहाँ तक आये उसे हम आपके कहने से छोड़ दें ?क्योंकि खुद के कुल-खानदान का पता नहीं !

एक सियार की पूँछ कटी तो सबकी कटनी चाहिए ?

इसी प्रसंग में याद दिला दें विदेशों में ‘शुद्ध खून’ ‘खानदानी खून’ की बड़ी कीमत है, जो भारत में अभी भी इफरात है – गोत्र परम्परा के रूप में

आप उसको नष्ट करके बाद में कहेंगे कि विदेशो में जो शुद्ध खून है वैसा दुनिया में कहीं नहीं, मतलब आप तो एजेंट निकले !!

विवाह में पारिवारिक सामाजिक सामंजस्य का जो गणित है उस पर भी प्रहार, विवाह संतति प्राप्त करने को है, और अपनी वासना बिखरने से बचाने को भी, इसमें दैहिक सुख भोग की भावना गौण है – आपने दैहिक भूख को इतनी आग लगाईं कि अब उसमें ‘लेस्बियन’ जैसी चीजें उफन कर बाहर फैल रही है – समाज में दुर्गन्ध भी ! क्या किसी लेस्बियन जोड़े को कोई बाल-बच्चा हुआ ?
यदि नहीं , तो यह दृष्टि तुच्छ और क्षणिक , गैर जिम्मेदाराना -पशुवत है

रही बात अंत्येष्टी की … दुनिया में सारे मुर्दे गाड़े जाएंगे तो धरती कम पड़ जायेगी – यह मार-काट भी उन लोगों ने ज्यादा की जिनकी संख्या ज्यादा थी – मरेंगे तो गड़ेंगे कहाँ ?
जल गए तो सड़ नहीं पाएंगे, मने जीते जी सड़ा पानी पीते हैं
मरने के बाद भी सड़ना ही बदा है

यहाँ तो फूंक के स्वाहा .. मिट्टी मिट्टी में, हवा हवा में, आग आग में, पानी पानी में , आकाश आकाश में

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आपका खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन बदल गया
अब जेहन ही बदलना बाकी है

एक सियार की पूँछ कट गयी,
उसने सभा जोड़ी और सबको पूँछ कटाने के लिये प्रेरित करने लगा,
बोला – बहुत आराम है, न काँटे-झाड़ी में उलझने का झंझट, न सम्भाल-सँवारने का टाइम खोटी …

चौधरियों ने कहा – पिछवाड़ा दीख रहा, इज्जत का फालूदा हो रहा – उसका कुछ नहीं ? निर्लज्ज, बेशर्म !!

वैसे ही जिनके कुल-वंशावली-गोत्र का अता-पता ही नहीं वे श्राद्ध और श्रद्धा का विरोध करने लगते हैं
✍🏻सोमदत्त द्विवेदी जी की पोस्टों से संग्रहित

भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन(क्वार) माह कृष्णपक्ष की अमावस्या 16 दिवस को पितृपक्ष कहते है इसे 16 श्राद्ध भी कहते है. पितरों का पृथ्वी पर आगमन कर जल आहार ग्रहण करना व परिवार को आशीर्वाद देना पितृपक्ष है. यहां पितृ से आशय जैसे मनुष्य योनि, देव योनि ठीक वैसे ही पितृ योनि से है. इसका कथित ‘पितृसत्तात्मकता’ से कोई लेना देना नही है.

पितृपक्ष अश्विन माह में ही क्यों?

आपके मन मे यह प्रश्न कभी ना कभी उठता होगा कि अश्विन माह में ही पितृपक्ष क्यों मनाया जाता है. चूंकि सनातन में सब कुछ तर्क और लॉजिकल है. यहां आंख मूंदकर अंधविश्वास जैसा कुछ नही है. यहां सभी परम्पराओं के पीछे कुछ ना कुछ आधार है. शास्त्रानुसार पितृलोक को चंद्रमा के दक्षिण में 22° पर कहीं माना जाता है. विज्ञान अनुसार अश्विन माह के कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की दूरी पृथ्वी के सबसे निकट होती है. अतः पितरों का चंद्रमा से पृथ्वीलोक हेतु आगमन का यही सबसे उपयुक्त समय होता है. वेदों में पितरों के निवास की दिशा दक्षिण मानी गई है जिसमें महाश्वान व हीनश्वान का जिक्र है. अब जरा गूगल कीजिए केनिस माइनर व केनिस मेजर पढ़िए. वेदों के श्लोक व विज्ञान के केनिस माइनर मेजर तारे पढ़कर आपका मन अपने पूर्वजों के प्रति गर्व से भर उठेगा कि उन्हें खगोल व अंतरिक्ष विषय का कितना गहरा ज्ञान था. ना केवल ज्ञान था अपितु उसे व्यवहारिक रुप में परम्पराओं में ढालकर अपनाया भी जाता था.

पुनः पितृपक्ष विषय पर लौटते है. आपके मन में उठ रहे एक और प्रश्न का उत्तर लीजिए कि श्राद्धपक्ष तिथि अनुसार ही क्यों मनाए जाते है. जब आप इसका उत्तर पाएंगें तो आपका मन ऋषिमुनियों का ज्ञान जानकर रोमांचित हो उठेगा. पितृलोक व पृथ्वी की समय गणना अलग अलग होती है.
पितृलोक का 1 दिन= पृथ्वी का 1 वर्ष लगभग.
पितृलोक का 1 घण्टा= पृथ्वी के 15/16 दिन.
पितृलोक का 4 मिनट= पृथ्वी का 1 दिन.

पितृलोक का “दरवाजा” अश्विन माह के कृष्णपक्ष में केवल 1 घण्टे के लिए खुलता है जो कि पृथ्वी पर 15/16 दिन के बराबर है. किसी परिवार के पितृ को पृथ्वी पर रुकने को केवल 4 मिनट का समय ही मिलता है जो कि पृथ्वी पर 1 दिन के बराबर है. यह 4 मिनट का समय तिथि अनुसार तय होता है इसलिए व्यक्ति की मृत्यु पश्चात कुछ वर्ष उपरांत उसके तिथि मिलान की पूजा की जाती है. आज की भाषा में यह तिथि मिलान पूजा-पाठ पितृलोक का वह “वीजा” है जो आपके पूर्वजों की आत्मा को वर्ष में एक बार 4 मिनट हेतु आपके घर आकर जल आहार ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करता है.

पितृलोक का 1 दिन पृथ्वी पर 1 वर्ष बराबर होता है अतः पितृ श्राद्धपक्ष में जलपान ग्रहण कर वर्षभर के लिए तृप्त रहते है और आपको आशीर्वाद प्रदान करते है. यह जलपान उन्हें विधिपूर्वक श्राद्ध करने व मनुष्यों, ब्राह्मणों, पक्षी, पशुओं को भोजन कराने से मिलता है. वे बड़ी आशा से पितृपक्ष में अपने परिवार के घर जाते है किंतु यदि श्राद्धपक्ष ना किया जाए तो उन्हे आहार नही मिलता जिससे वे दुखी होकर भूखे – प्यासे श्राप भी दे सकते है. सोचिए जब किसी अनजान भूखे प्यासे मनुष्य का श्राप इतना कठोर लगता है तो आपके अपने पूर्वजों की आत्मा जो आपके कारण पूरे वर्ष भूख प्यास से तड़पनी है उसका श्राप कितना कठोर लगेगा. इसे पितृदोष भी कहा जाता है. पितृदोष के अनेक कारणों में से एक यह भी है.

पितृ के नाराज होने से आपका अच्छा समय खराब हो जाता है. आपको कारण ही समझ नही आता. दशा महादशा सब अच्छी होकर भी गृह क्लेश ऐनवक्त पर काम बिगड़ना, शादी ब्याह में देरी, शुभ कार्यो में बाधा, नौकरी – व्यवसाय – करियर में परेशानी बनी रहती है. अतः जैसा भी बने विधिपूर्वक श्राद्धपक्ष में पितरों को याद करें । कुछ ना बने तो कुछ मीठा बनाकर, दीपक जलाकर नैवेद्य बनाए व गाय – कुत्ता-  कौंवा या जो मिले उसे खिलाए. वह भी ना बने तो कुछ फल मंदिर में चढ़ा आये और पितरों का आह्वान कर जलपान ग्रहण करने का निवेदन करें व आशीर्वाद मांगें.

अतः किसी की बातों में ना आकर इस तर्कपूर्ण वैज्ञानिकतापूर्ण और आपके पूर्वजो से जुड़ी परम्परा को अंधविश्वास मानने की भूल ना करें अपितु उन्हें पूर्ण तर्को से उत्तर देंवे. हीनभावना में आपको नही बल्कि उन लोगों को आना चाहिए जिन्हें ना शास्त्रों का ज्ञान है और ना ही विज्ञान का.

पितरों को नमन कीजिए वे आपके साक्षात देवता है. शास्त्रों में पूर्वजों को देवतुल्य माना गया है. यह ऐसे देवता है जिनसे आपका बल्ड रिलेशन गौत्र रिलेशन है. सबसे पहले वे ही आपकी सुनते है. कहते है जिनके पुरखे प्रसन्न रहते है उस घर में सदैव खुशहाली रहती है.

पितृदेव प्रसन्न रहे.
✍🏻राकेश गुहा

श्राद्ध और पितृपक्ष का वैज्ञानिक महत्व
लेखक – डॉ. ओमप्रकाश पांडे
  (लेखक अंतरिक्ष विज्ञानी हैं)

श्राद्ध कर्म श्रद्धा का विषय है। यह पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम है। श्राद्ध आत्मा के गमन जिसे संस्कृत में प्रैति कहते हैं, से जुड़ा हुआ है। प्रैति ही बाद में बोलचाल में प्रेत बन गया। यह कोई भूत-प्रेत वाली बात नहीं है। शरीर में आत्मा के अतिरिक्त मन और प्राण हैं। आत्मा तो कहीं नहीं जाती, वह तो सर्वव्यापक है, उसे छोड़ दें तो शरीर से जब मन को निकलना होता है, तो मन प्राण के साथ निकलता है। प्राण मन को लेकर निकलता है। प्राण जब निकल जाता है तो शरीर से जीवात्मा को मोह रहता है। इसके कारण वह शरीर के इर्द-गिर्द ही घूमता है, कहीं जाता नहीं। शरीर नष्ट होता है, तब प्राण मन को लेकर चलता है। मन कहाँ से आता है? कहा गया है चंद्रमा मनस: लीयते यानी मन चंद्रमा से आता है। यह भी कहा है कि चंद्रमा मनसो जात: यानी मन ही चंद्रमा का कारक है। इसलिए जब मन खराब होता है या फिर पागलपन चढ़ता है तो उसे अंग्रेजी में ल्यूनैटिक कहते हैं। ल्यूनार का अर्थ चंद्रमा होता है और इससे ही ल्यूनैटिक शब्द बना है। मन का जुड़ाव चंद्रमा से है। इसलिए हृदयाघात जैसी समस्याएं पूर्णिमा के दिन अधिक होती हैं।
चंद्रमा वनस्पति का भी कारक है। रात को चंद्रमा के कारण वनस्पतियों की वृद्धि अधिक होती है। इसलिए रात में ही पौधे अधिक बढ़ते हैं। दिन में वे सूर्य से प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन लेते हैं और रात चंद्रमा की किरणों से बढ़ते हैं। वह अन्न जब हम खाते हैं, उससे रस बनता है। रस से अशिक्त यानी रक्त बनता है। रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से मज्जा और मज्जा के बाद अस्थि बनती है। अस्थि के बाद वीर्य बनता है। वीर्य से ओज बनता है। ओज से मन बनता है। इस प्रकार चंद्रमा से मन बनता है। इसलिए कहा गया कि जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन। मन जब जाएगा तो उसकी यात्रा चंद्रमा तक की होगी। दाह संस्कार के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होगा, मन उसी ओर अग्रसर होगा। प्राण मन को उस ओर ले जाएगा। चूंकि 27 दिनों के अपने चक्र में चंद्रमा 27 नक्षत्र में घूमता है, इसलिए चंद्रमा घूम कर अठाइसवें दिन फिर से उसी नक्षत्र में आ जाता है। मन की यह 28 दिन की यात्रा होती है। इन 28 दिनों तक मन की ऊर्जा बनाए रखने को श्राद्धों की व्यवस्था की गई है।
चंद्रमा सोम का कारक है। इसलिए उसे सोम भी कहते हैं। सोम सबसे अधिक चावल में होता है। धान हमेशा पानी में डूबा रहता है। सोम तरल होता है। इसलिए चावल के आटे का पिंड बनाते हैं। तिल और जौ भी इसमें मिलाते हैं। इसमें पानी मिलाते हैं, घी भी मिलाते हैं। इसलिए इसमें और भी अधिक सोमत्व आ जाता है। हथेली में अंगूठे और तर्जनी के मध्य में नीचे का उभरा हुआ स्थान है, वह शुक्र का होता है। शुक्र से ही हम जन्म लेते हैं और हम शुक्र ही हैं, इसलिए वहाँ कुश रखा जाता है। कुश ऊर्जा का कुचालक होता है। श्राद्ध करने वाला इस कुश रखे हाथों से इस पिंड को लेकर सूंघता है। चूंकि उसका और उसके पितर का शुक्र जुड़ा होता है, इसलिए वह उसे श्रद्धाभाव से उसे आकाश की ओर देख कर पितरों के गमन की दिशा में उन्हें मानसिक रूप से उन्हें समर्पित करता है और पिंड को जमीन पर गिरा देता है। इससे पितर फिर से ऊर्जावान हो जाते हैं और वे 28 दिन की यात्रा करते हैं। इस प्रकार चंद्रमा के तेरह महीनों में श्येन पक्षी की गति से वह चंद्रमा तक पहुँचता है। यह पूरा एक वर्ष हो जाता है। इसके प्रतीक के रूप में हम तेरहवीं करते हैं। गंतव्य तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए हर 28वें दिन पिंडदान किया जाता है। उसके बाद हमारा कोई अधिकार नहीं। चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाएगा।
पिंडदान कराते समय पंडित लोग केवल तीन ही पितरों को याद करवाते हैं। वास्तव में सात पितरों को स्मरण करना चाहिए। हर चीज सात हैं। सात ही रस हैं, सात ही धातुएं हैं, सूर्य की किरणें भी सात हैं। इसीलिए सात जन्मों की बात कही गई है। पितर भी सात हैं। सहो मात्रा 56 होती हैं। कैसे? इसे समझें। व्यक्ति, उसका पिता, पितामह, प्रपितामह, वृद्ध पितामह, अतिवृद्ध पितामह और सबसे बड़े वृद्धातिवृद्ध पितामह, ये सात पीढियां होती हैं। इनमें से वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश, अतिवृद्ध पितामह का तीन अंश, वृद्ध पितामह का छह अंश, प्रपितामह का दस अंश, पितामह का पंद्रह अंश और पिता का इक्कीस अंश व्यक्ति को मिलता है। इसमें उसका स्वयं का अर्जित 28 अंश मिला दिया जाए तो 56 सहो मात्रा हो जाती है। जैसे ही हमें पुत्र होता है, वृद्धातिवृद्ध पितामह का एक अंश उसे चला जाता है और उनकी मुक्ति हो जाती है। इससे अतिवृद्ध पितामह अब वृद्धातिवृद्ध पितामह हो जाएगा। पुत्र के पैदा होते ही सातवें पीढ़ी का एक व्यक्ति मुक्त हो गया। इसीलिए सात पीढिय़ों के संबंधों की बात होती है।
अब यह समझें कि 15 दिनों का पितृपक्ष हम क्यों मनाते हैं। यह तो हमने जान लिया है कि पितरों का संबंध चंद्रमा से है। चंद्रमा की पृथिवी से दूरी 385000 किलो मीटर की दूरी पर है। हम जिस समय पितृपक्ष मनाते हैं, यानी कि आश्विन महीने के पितृपक्ष में, उस समय पंद्रह दिनों तक चंद्रमा पृथिवी के सर्वाधिक निकट यानी कि लगभग 381000 किलोमीटर पर ही रहता है। उसका परिक्रमापथ ही ऐसा है कि वह इस समय पृथिवी के सर्वाधिक निकट होता है। इसलिए कहा जाता है कि पितर हमारे निकट आ जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में कहा है विभु: उध्र्वभागे पितरो वसन्ति यानी विभु अर्थात् चंद्रमा के दूसरे हिस्से में पितरों का निवास है। चंद्रमा का एक पक्ष हमारे सामने होता है जिसे हम देखते हैं। परंतु चंद्रमा का दूसरा पक्ष हम कभी देख नहीं पाते। इस समय चंद्रमा दक्षिण दिशा में होता है। दक्षिण दिशा को यम का घर माना गया है। आज हम यदि आकाश को देखें तो दक्षिण दिशा में दो बड़े सूर्य हैं जिनसे विकिरण निकलता रहता है। हमारे ऋषियों ने उसे श्वान प्राण से चिह्नित किया है। शास्त्रों में इनका उल्लेख लघु श्वान और वृहद श्वान के नाम से हैं। इसे आज केनिस माइनर और केनिस मेजर के नाम से पहचाना जाता है। इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी आता है। वहाँ कहा है श्यामश्च त्वा न सबलश्च प्रेषितौ यमश्च यौ पथिरक्षु श्वान। अथर्ववेद 8/1/19 के इस मंत्र में इन्हीं दोनों सूर्यों की चर्चा की गई है। श्राद्ध में हम एक प्रकार से उसे ही हवि देते हैं कि पितरों को उनके विकिरणों से कष्ट न हो।
इस प्रकार से देखा जाए तो पितृपक्ष और श्राद्ध में हम न केवल अपने पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं, बल्कि पूरा खगोलशास्त्र भी समझ ले रहे हैं। श्रद्धा और विज्ञान का यह एक अद्भुत मेल है, जो हमारे ऋषियों ने बनाया है। आज समाज के कई वर्ग श्राद्ध के इस वैज्ञानिक पक्ष को न जानने के कारण इसे ठीक से नहीं करते। कुछ लोग तीन दिन में और कुछ लोग चार दिन में ही सारी प्रक्रियाएं पूरी कर डालते हैं। यह न केवल अशास्त्रीय है, बल्कि हमारे पितरों के लिए अपमानजनक भी है। जिन पितरों के कारण हमारा अस्तित्व है, उनके निर्विघ्न परलोक यात्रा की हम व्यवस्था न करें, यह हमारी कृतघ्नता ही कहलाएगी।
पितर का अर्थ होता है पालन या रक्षण करने वाला। पितर शब्द पा रक्षणे धातु से बना है। इसका अर्थ होता है पालन और रक्षण करने वाला। एकवचन में इसका प्रयोग करने से इसका अर्थ जन्म देने वाला पिता होता है और बहुवचन में प्रयोग करने से पितर यानी सभी पूर्वज होता है। इसलिए पितर पक्ष का अर्थ यही है कि हम सभी सातों पितरों का स्मरण करें। इसलिए इसमें सात पिंडों की व्यवस्था की जाती है। इन पिंडों को बाद में मिला दिया जाता है। ये पिंड भी पितरों की वृद्धावस्था के अनुसार क्रमश: घटते आकार में बनाए जाते थे। लेकिन आज इस पर ध्यान नहीं दिया जाता।
(वार्ताधारित)
✍🏻साभार – भारतीय धरोहर

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