ज्ञान: आर्य भी बाहरी आक्रमणकारी?झूठ,सफेद झूठ,बता रहा सिनौली का उत्खनन

भारतीय इतिहास में बताये गये  आर्यन आक्रमण के झूठ का इस अध्ययन से हुआ अनावरण 

संजय तिवारी | Mar 31, 2020

युद्ध तो अभी शुरू भी नहीं हुआ है। अभी तो ठीक से शंखनाद भी नहीं हुआ है। सेनाएं भर सज रही हैं। इस महाभारत में कौन कहां किस खेमे में है अभी यह भी ठीक से तय नहीं है। व्यूह तो बहुत समय से रचा जा रहा है लेकिन अभी तक रचा नहीं जा सका है क्योंकि यह धर्मकाल नहीं है। कलियुग है। इस कलियुग में न धर्मराज हैं, न भीष्म। केवल पांडव हैं और कौरव। इन पांडवों और कौरवों को पहचानने के लिए प्राचीन इतिहास में प्रवेश करना आवश्यक है। इस प्रवेश कथा को प्रारंभ करने का मन है। पहले एक नजर डालते हैं उस साजिश पर जिसने हमारे प्राचीन सनातन इतिहास को विकृत कर दिया और भारत को घोषित कर दिया पिछड़ा और मूढ़। कैसे ? समझिये इस षडयंत्र को।

इतिहास का झूठ है आर्य आक्रमण

 

भारत की सभ्यता और संस्कृति के विकास के संबंध में कई तरह के दावे किए जाते हैं अब एक बिल्कुल नए अध्ययन के दौरान यह दावा किया गया है कि हड़प्पा संस्कृति (Harappa Culture) यहां के लोगों ने ही विकसित की और यही मूल वैदिक संस्कृति है।

भारत में आज भी यही Theory पढ़ाई जाती है कि आर्य आक्रमणकारी थे लेकिन अब भारत में Archaeological Survey of India की खुदाई से जो नए तथ्य सामने आ रहे हैं उससे एक बार फिर ये साबित हो गया है कि आर्यों के भारत पर हमला करने की बात सही नहीं है।

मुण्डक उपनिषद का उद्घोष है सत्यमेव जयते, अर्थात् सत्य की ही विजय होती है भारत में अंग्रेज़ों और वामपंथी इतिहासकारों ने हमेशा ये कहा कि आर्य, भारत के मूल निवासी नहीं थे आर्य विदेशी थे। उन्होंने उत्तर भारत पर आक्रमण करके, यहां कब्ज़ा कर लिया और भारत के मूल निवासी आर्यों के हमले की वजह से भागकर दक्षिण भारत चले गए। ये भी कहा जाता है कि आर्यों ने भारत के मूल निवासियों को अपना गुलाम बना लिया। भारत में आज भी यही Theory पढ़ाई जाती है कि आर्य आक्रमणकारी थे लेकिन अब भारत में Archaeological Survey of India की खुदाई से जो नए तथ्य सामने आ रहे हैं। उससे एक बार फिर ये साबित हो गया है कि आर्यों के भारत पर हमला करने की बात सही नहीं है। आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। भारत वर्ष ही आर्यों की मातृ भूमि है।

उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में सिनौली में इसी वर्ष फरवरी के महीने से Archaeological Survey of India ने खुदाई शुरू की थी। इसी खुदाई में कुछ दिन पहले 2 रथ मिले और ये एक बहुत बड़ी बात है। पहली बार भारतीय उपमहाद्वीप में पुरातत्व से जुड़ी किसी खुदाई में रथ मिले हैं। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका को भौगोलिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप भी कहा जाता है। यानी आज तक इस हिस्से में कभी भी रथ नहीं मिला था। ये भारत की एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना थी लेकिन लोग इस घटना के महत्व को समझ नहीं सके। ये घटना भारत के DNA से जुड़ी है। इसलिए आज हम विस्तार से इसका विश्लेषण करेंगे।

पुरा विज्ञानियों का कहना है कि यह रथ महाभारत के समय के हैं। इन रथों के पहियों में बहुत अच्छी Quality के तांबे का इस्तेमाल किया गया है। यही वजह है कि रथ का ढांचा इतने वर्षों के बाद भी सुरक्षित है। ये रथ करीब साढ़े 4 हज़ार वर्ष पुराने हैं।

हालांकि अब तक भारत में सिंधु घाटी सभ्यता को सबसे प्राचीन माना जाता है। कई इतिहासकारों का मानना है कि आज से 3 हजार 300 वर्ष पहले आर्यों ने हमला करके सिंधु घाटी के लोगों की सभ्यता को खत्म कर दिया। इतिहासकारों ने ये एजेंडा भी चलाया कि आर्यों के पास ज़्यादा अच्छे हथियार थे। उनकी तकनीक अच्छी थी, इसलिए आर्यों ने भारत के मूल निवासियों को आसानी से हरा दिया और भारत में आधुनिक सभ्यता की नींव रखी थी लेकिन अब यह साढ़े 4 हजार वर्ष पुराना रथ ये साबित कर रहा है कि भारत में पहले से ही युद्ध कला बहुत विकसित थी। भारत के मूल निवासियों के पास भी रथ थे। युद्ध में भारत के मूल निवासी घोड़ों का इस्तेमाल करते थे। अब तक इतिहासकारों का एक वर्ग ये साबित करने की कोशिश करता था कि भारत में आधुनिक सभ्यता के पुराने निशान नहीं हैं, मेसो-पोटामिया की सभ्यता, भारत में जन्म लेने वाली सभ्यताओं से ज्यादा उन्नत थी लेकिन अब इस महाभारत कालीन रथ ने ये साबित कर दिया है कि भारत का समाज बहुत ज्ञानी और कुशल था। जिस जगह से ये रथ मिला है वो जगह भी बहुत महत्वपूर्ण है। बागपत उसी हस्तिनापुर के ऐतिहासिक साम्राज्य का हिस्सा है जिसके लिए महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। महाभारत काल में इस जगह का नाम व्याघ्र-प्रस्थ था। महाभारत, भारत का ऐतिहासिक ग्रंथ भी है जहां सम्मान देने के लिए बार-बार आर्य और आर्यपुत्र जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है। इससे भी ये साबित होता है कि भारत, आर्यों की भूमि है और इस जगह पर जो रथ मिला है वो किसी आर्य योद्धा का हो सकता है।

भारत में बहुत सारे प्रमाण आ चुके हैं जिनसे ये साबित हो गया है कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे। सिंधु घाटी सभ्यता, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और सिनौली, ये सभी भारत की वैदिक सभ्यता का ही हिस्सा थे। एजेंडा चलाने वाले इतिहासकारों के पास भी अब इस Theory का बचाव करने के लिए कोई तर्क भी नहीं बचा है लेकिन इसके बावजूद भारत के बहुत सारे स्कूलों, कॉलेजों और विश्व विद्यालयों में यही पढ़ाया जाता है कि आर्य, आक्रमणकारी थे। ज़रा विचार कीजिए कि ये कितनी गंभीर बात है कि हमसे ही ये कहा जाता है कि हमारे पूर्वज हमलावर और विदेशी थे। इतिहास में इसे आर्य आक्रमण सिद्धांत कहकर प्रचारित किया गया। इस सिद्धांत को अंग्रेज़ इतिहासकारों और विद्वानों ने खूब बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। इसके अलावा अंग्रेज़ों की कृपा पाने वाले इतिहासकारों ने भी आर्य आक्रमण सिद्धांत को खूब आगे बढ़ाया।

अंग्रेज इतिहासकारों के इस Agenda के पीछे भी एक बहुत बड़ी वजह ये थी कि अंग्रेज़ खुद, भारत में आक्रमण करके आए थे। अंग्रेज़ों ने आर्यों को हमलावर बताकर ये साबित करने की कोशिश की थी कि भारत के जो लोग अंग्रेजों का विरोध करते हैं वो खुद ही हमलावर हैं और विदेशी मूल के हैं इसलिए उन्हें अंग्रेजों का विरोध करने का कोई हक नहीं है। कई इतिहासकारों ने आर्यों को आक्रमणकारी साबित करके मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों के आक्रमणकारी होने के दाग़ को भी धोने की कोशिश की। कुल मिलाकर बात ये है कि जब इतिहास को गलत तरीके से पढ़ाया जाता है, तो समाज और राजनीति में बहुत सारी गड़बड़ियां ((विकृतियां)) आ जाती हैं। आपने देखा होगा कि आजकल बहुत सारे लोग Victim Card, Play करने के लिए यानी खुद को पीड़ित बताने के लिए… आर्य आक्रमण सिद्धांत का इस्तेमाल करते हैं। दलित और आदिवासियों की राजनीति करने वाले बहुत सारे नेता खुद को आर्यों से पीड़ित बताकर एक सामाजिक विभाजन पैदा करने की कोशिश करते हैं। हमें लगता है कि अगर सही इतिहास पढ़ाया गया होता तो इस तरह की गड़बड़ियां नहीं होतीं। अध्ययन में यह भी दावा किया गया है कि देश में कृषि तकनीक ईरान या फिर बाहर से आये लोगों ने नहीं शुरू की थी। इसे शुरू करने वालों में यहां के लोग शामिल थे।

यह दावा है विशेषज्ञो का

पुणे के डेक्कन कॉलेज के पूर्व कुलपति वीएस शिंदे का कहना है कि आर्यन शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल गलत है। उनका मानना है कि भारत से लोग बाहर गए और कई देशों में जाकर बसे। उन्होंने कहा कि तुर्कमेनिस्तान और ईरान के लोगो के उस वक़्त के कंकाल का मिलान करने पर भारत के लोगों का संबंध वहां के लोगों से मिला, जिससे इस दावे की पुष्टि होती है। अध्ययन के अनुसार, ज़्यादातर साउथ एशिया के देशों के लोगों का डीएनए (DNA) हड़प्पन डीएनए है। अध्ययन का दावा है कि भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश में लोग यहीं से जाकर बसे थे। अध्ययन का दावा किया गया है कि भारत में आर्यन हमले (Aryan invasion) जैसी कोई घटना नहीं हुई थी। इस संबंध में दुनियाभर में हुए अध्ययन में यह दावा किया जाता है कि देश में विकास कार्य पश्चिम के लोगों ने किया। इस तरह के अध्ययन में यह भी दावा जाता रहा है कि यहां के लोग समर्थ नहीं है लेकिन यह अध्ययन इस बात को भी गलत साबित कर रहा है। इस नई जेनेटिक स्टडी (Genetic Study) के अनुसार, पिछले 12 हज़ार साल से अब तक जो विकास हुआ वो यहां के लोगों ने ही किया है। इस दौरान बाहर से कोई नहीं आया था। अध्ययन का यह भी दावा है कि हड़प्पा के समय का डीएनए विश्लेषण करने के दौरान यह बात सामने आई की इसमें 12 हज़ार साल में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

 

दक्षिण एशिया के सभी लोगों का मूल एक

अध्ययन का दावा है कि पूरी साउथ एशिया (South Asia) के लोगो के पूर्वज (Ancestors) एक ही हैं। इसके अलावा अलग-अलग धर्म के लोगों का मूल एक ही है। इस दौरान खुदाई में हवनकुंड जैसी चीज़ें मिली हैं। हमारे ऋग्वेद में वैदिक लोगों का ज़िक्र होता है, हो सकता है की वो लोग हड़प्पा सभ्यता के हों। लेकिन प्रोफेसर शिंदे का मानना है कि हड़प्पन और वैदिक एक ही हैं। शिंदे का कहना है कि देश के टेक्स्ट बुक्स में बदलाव होना चाहिए। इस रिसर्च की शुरुआत 2011-2012 में हुई थी। जिसमें हॉरवर्ड यूनिवर्सिटी (Harward University) भी शामिल थी। बताया जा रहा है कि इस दौरान 3 से 4 करोड़ का रुपए का खर्च आय़ा है। सेल जर्नल (Cell Journal) में इससे संबंधित पेपर पब्लिश हुआ है। जिससे माना जा सकता है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक समुदाय ने इस अध्ययन (Study) को स्वीकार किया है। इस अध्ययन से संबंधित जानकारी हम सरकार को भी भेजेंगे। साथ ही प्रयास करेंगे कि अध्ययन से प्राप्त जानकारी टेक्स्ट बुक्स में आ सके। वैज्ञानिकों ने हरियाणा में राखीगढ़ी गांव में हड़प्पा सभ्यता के कंकालों का डीएनए टेस्ट किया। जिसके आधार पर हुए रिसर्च के दौरान यह जानकारियां सामने आई हैं।

कभी नहीं हुआ कोई आर्य आक्रमण

सनातन संस्कृति के आधार समर्थक हिन्दुओं को बांटो और आपस में लड़ाकर ही खत्म करो की नीति ही अंग्रेजों व वामपंथियों और कांग्रेस व इसाइयों तथा मुसलमानों व झूठे बिकाऊ सेकुलर हिन्दुओं तथा सभी हिन्दू विरोधी लोगों ने चला रखा है। गजवाहिन्द के तहत भारत से हिन्दुओं का खात्मा करने का सपना कौन देख रहा है सभी को अब खुल कर विचार करना चाहिये। भारत के प्राचीन इतिहास को अंग्रेजों और वामियों तथा कांग्रेसियों के इतिहासकारों ने केवल 3000 वर्ष में समेटकर धूमिल करके भारत के सभी लोगों को बांटकर लड़ाया जिसमें अभी तक वो काफी सफल भी हैं तथा इन इतिहासकारों के इतिहास को झुठलाने हेतु अमेरिका के नासा द्वारा खोजा गया श्रीराम जी के समय बनाया गया मानव निर्मित सेतु भारत व श्रीलंका के बीच में है।

आधुनिक इतिहासकारों के महान पाप

इन षड्यंत्रकर्ताओं ने बड़े पाप किये हैं। महाभारत युद्ध के बाद के भारत से लेकर जनमेजय, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे महान प्राचीन भारतीय नायकों से लेकर ललितादित्य-बप्पा रावल जैसे महान् विजेता सम्राटों का नाम इतिहास से मिटा देना, महाराणा प्रताप को अकबर से पराजित दिखाना,वीर शिवाजी और बाजीराव प्रथम की वीरता, बुद्धिमत्ता, युद्ध कौशल और न्यायप्रियता को जानबूझकर छिपाकर भारत के सम्पूर्ण इतिहास पराजित देश के रूप में प्रचारित करना, जिससे भारतीय कभी अपने पूर्वजों अपने इतिहास पर गर्व न कर सकें और मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम बने रहें। ऐसे सभी साम्राज्यों और दिव्य महापुरुषों का समय  कुछ ही शताब्दियों में समेटकर भारतीय इतिहास को  विकृत किया गया और भारतीय उसी विदेशियों की जूठन को चाटने में लगे हुए हैं। मुगलों तथा अंग्रेजों और अंग्रेजों के द्वारा बनाई गयी कांग्रेस तथा कुछ बिकाऊ दलितों के कंधे पर भीमटे बनकर इसाइयों और मुसलमानों के रूपये के बल पर मुसलमान और इसाई और वामपंथी तथा जातिवादी नेता अपने स्वार्थ में केवल हिन्दुओं को कमजोर करने हेतु हिन्दुओं को बांटकर हर तरह का षडयंत्र कर रहे हैं। इसमें हिन्दुओं को खत्म करने हेतु कांग्रेसी भी ज्यादातर षडयंत्र ही कर रहे हैं उनसे सावधान रहें तथा इस सच को भारत के सभी लोगों को जान लेने का समय आ गया है।

बागपत: खुदाई में मिला खजाना, महाभारत काल के रथ और मुकुट भी!
आदित्य बिड़वई
01 मई 2019,उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में आने वाले सनौली में भारतीय पुरातत्व विभाग (आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ) को बड़ी कामयाबी मिली है. यहां जमीन के नीचे 4000 साल पुराने पवित्र कक्ष, शाही ताबूत, दाल-चावल से भरे मटके, तलवारें, औजार, मुकुट और इंसानों के साथ दफनाई गई जानवरों की हड्डियां मिली हैं. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

एएसआई इंस्टिट्यूट ऑफ़ आर्कियॉलजी के डायरेक्टर डॉ एस. के मंजुल का कहना है कि एएसआई को सनौली में कई प्राचीनतम सभ्यताओं के अवशेष मिले थे. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

इसके बाद जनवरी 2018 में सनौली में खुदाई शुरू की गई. उस वक्त यहां खुदाई में दो रथ, शाही ताबूत, मुकुट, तलवारें, ढाल मिले थे. जिससे यह साबित हुआ था कि 2 हजार साल पहले योद्धाओं की लंबी फौज यहां रहा करती होगी.(फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

डॉ. एस. के मंजुल का कहना है कि इस बार हमें खुदाई में मिले अवशेष हड़प्पन सभ्यता से अलग मिले हैं. इसे देखकर ऐसा लगता है कि हाल ही में मिले अवशेष हड़प्पन सभ्यता के सबसे विकसित समय के हैं. इससे यह समझने में आसानी होगी कि यमुना और गंगा के किनारे कैसी संस्कृति होगी. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

डॉक्टर एस. के मंजुल ने आगे बताया कि इस बार की खुदाई में हमें तांबे से बनी तलवारें, मुकुट, ढाल, रथ के अलावा चावल और उड़द दाल से भरे मटके मिले हैं. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

इसके अलावा जो कब्रें मिली हैं उनके पास जंगली सूअर और नेवले के शव भी मिले हैं. इससे यह समझ में आता है कि जानवरों की बलि दिवंगत आत्माओं को दी गई होगी. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

एएसआई को खुदाई में जमीन के अंदर कुछ पवित्र कक्ष भी मिले हैं. इनके बारे में डॉ. एस. के मंजुल का कहना है कि उस वक्त मौत के बाद पवित्र कक्षों में शवों को रखकर अनुष्ठान किया जाता होगा. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

फिलहाल एएसआई खुदाई में मिले अवशेषों का डीएनए, धातु शोधन और बोटानिकल एनालिसिस कर रही है. डॉ. एस. के मंजुल का मानना है कि एएसआई को अब तक मिली साइट्स में सनौली ऐसी जगह मिली है जहां सबसे ज्यादा कब्रें हैं. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

मालूम हो कि सनौली में मिली कब्रों को महाभारत काल से भी जोड़कर देखा जाता रहा है. क्योंकि महाभारत काल में पांडवों के मांगे 5 गांवों में बागपत भी शामिल था. (फोटो: आर्कियॉलजिकल सर्वे ऑफ इंडिया)

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