ज्ञान:रक्षाबंधन है समाज को एक सूत्र में बांधने का पर्व
रक्षा बन्धन-
रक्षा-बन्धन समाज को एकता सूत्र में बान्धने का पर्व है। यह शिक्षक होने के कारण मुख्यतः ब्राह्मणों का दायित्व माना गया है।
रक्षा बन्धन-(क) ब्राह्मण का अर्थ-हम उसी का विश्वास करते हैं जो स्वयं अपने भीतर सन्तुष्ट हो। लोभी व्यक्ति पैसा या शक्ति के लोभ में कोई भी झूठ कह सकता है। अतः ब्राह्मण में भी पुरोहिती का कर्म निन्दनीय माना गया था। हम उन्हीं कवियों की वाणी का अनुसरण करते हैं, जो संन्यासी थे जैसे कबीर, तुलसीदास आदि। जो अपने द्वारा अपने भीतर ही सन्तुष्ट हो, उसी की बात समाज को प्रभावित कर एक कर सकती है-
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मने तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ (गीता २/५५)
यहां जहाति शब्द का प्रयोग कामनाओं की हत्या के लिये किया गया है। इसी अर्थ में कुरान में अरबी शब्द जहाति का प्रयोग है, जिसका अर्थ जिहाद है। जो अपने आवरण (शर्म या चर्म) के भीतर सन्तुष्ट रहे वह शर्मन् है जो ब्राह्मण की उपाधि होती है। शर्म का अर्थ सुख भी है-
स्यादानन्द थुरानन्द शर्म्मशातसुखानि च। (अमरकोष, १/४/२५)=आनन्द, शर्म, सुख आदि पर्यायवाची हैं।
तस्मा अग्निर्भारतः शर्म यं सत् (ऋग्वेद, ४/३५/४), सायण भाष्य-शर्म= सुख
स नः शर्माणि वीतयेऽग्निर्यच्छतु शन्तमा। (ऋग्वेद ३/१३/४) सायण भाष्य-शर्माणि शर्म शब्दो गृहवाची, छाया शर्मेति तन्नामसु पाठात्।
वाग्वै शर्म। अग्निर्वै शर्माण्यन्नाद्यानि यच्छति (ऐतरेय ब्राह्मण २/४०, ४१)
= यह अग्नि हमारी शान्ति के लिये शर्म (आश्रय, आवरण) दे। वाक् (शब्द, ज्ञान) भी हमारी रक्षा करते हैं, अतः शर्म हैं।
४ वर्णों को शर्मा, वर्मा (कवच द्वारा रक्षा), गुप्त (धन द्वारा रक्षा), दास (कर्म द्वारा रक्षा) इसी अर्थ में कहते हैं-
ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि। देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादि संयुतम्। शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्। गुप्त दासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्य शूद्रयोः। (विष्णु पुराण २/१०/८९)
(ख) अदृश्य रक्षा-हाथ पर बान्धने वाला रक्षा-सूत्र हमारी रक्षा ४ सूत्रों से करता है-(१) एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक ज्ञान की परम्परा, (२) समाज तथा देश को एक करने का ज्ञान, (३) विविध व्यवसायों का समन्वय और रक्षा, (४) प्रकृति तथा मनुष्य की परस्पर निर्भरता = आधिदैविक विपत्तियों से रक्षा।
यथोक्तान्यपि कर्म्माणि परिहाय द्विजोत्तमः। आत्मज्ञाने शमे च स्यात् वेदाभ्यासे च यत्नवान्॥९२॥
एतद्धि जन्मसाफल्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। प्राप्यैतत् कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा॥९३॥
पितृ-देव-मनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः॥९४॥ (मनुस्मृति, अध्याय १२)
= शास्त्रों में वर्णित कर्त्तव्यों को छोड़कर भी ब्राह्मण को इन्द्रिय-जय, आत्मज्ञान, तथा वेद अध्ययन करना चाहिये। तभी उसका ब्राह्मण जन्म सार्थक है। पितर, देव, मनुष्य सभी का नेत्र वेद ही है, जो सनातन, अपौरुषेय है।
(ग) एकता सूत्र-वैदिक मन्त्र-
यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकस्य सुमनस्यमानाः।
तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्त्वाय शतशारदाय॥१॥
नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमं ह्येतत्।
यो बिभर्त्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः॥२॥
अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वीर्य्याणि।
इन्द्र इवेन्द्रियाण्यधि धारयामो अस्मिन् तद् दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम्॥३॥
समानां मासामृतुभिष्ट्वा वयं सम्वत्सररूपं पयसा पिपर्मि।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनुमन्यन्तामहृणीयमानाः॥४॥ (अथर्व वेद १/३५)
हाथ पर सूत्र बान्धते समय पहला मन्त्र पढ़ा जाता है। (१) आकाश में सूर्य अपने से १०० व्यास की दूरी पर हमें रखॆ हुये है (दाक्षायन), इसका हिरण्य (तेज स्रोत) हमें वर्चस (मानसिक शक्ति), बल, १०० वर्ष की आयु देता है। (२) राक्षस, भूत, पिशाच उस व्यक्ति का तेज नहीं सह पाते जिसमें देवताओं का ओज इस दाक्षायण हिरण्य द्वारा रक्षित है। (३) दाहिने हाथ के इस सूत्र से हम जल, तेज, ज्योति, ओज, बल वनस्पति से पाते हैं। (४) हम, मास (चन्द्र से), ऋतु, समा (वर्ष) से सम्वत्सर रूप पय का पान करते हैं (हमारे सभी यज्ञ या उत्पादन इसी चक्र में हैं), उनसे आकाश के इन्द्र तथा पृथ्वी पर की अग्नि का तेज पाते हैं।
पौराणिक मन्त्र-येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे! मा चल मा चल॥
= मैं तुमको उसी प्रेम के बन्धन से बान्धता हूं जिससे महाबली असुर राजा बलि भी बन्ध गया था। यह सूत्र हमारी रक्षा से नहीं हटे।
(घ) उपाकर्म-मनुस्मृति के अनुसार श्रावण या भाद्रपद से आरम्भ कर साढ़े ५ मास पौष मास तक उपाकर्म = वेद अध्ययन होता है। शुक्ल पक्षमें वेद, कृष्ण पक्ष में वेदाङ्ग पढ़ते हैं-सैद्धान्तिक, व्यावहारिक ज्ञान है। बाकी वर्ष में इनका उपयोग होता है।
श्रावण्यां प्रोष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि। युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोऽर्धपञ्चमान्॥९५॥
पुष्ये तु छन्दसां कुर्य्याद् बहिरुत्सर्जनं द्विजः। माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्णे प्रथमेऽहनि॥९६॥
यथाशास्त्रं तु कृत्वैवमुत्सर्गं छन्दसा बहिः। विरमेत् पक्षिणीं रात्रिं तदेवैकमहर्निशम्॥९७॥
अत ऊर्ध्वं तु छन्दांसि शुक्लेषु नियतः पठेत्। वेदाङ्गान् च सर्वाणि कृष्ण पक्षेषु सम्पठेत्॥९८॥
(मनुस्मृति, अध्याय ४)
उपाकर्म के दिन ऋषि तर्पण कर अपराह्ण में कपास या रेशम की शुद्ध रक्षा बान्धते हैं-
उपाकर्म्म दिने प्रोक्तमृषीणाञ्चैव तर्पणम्। ततोऽपराह्ण समये ’रक्षापोटलिकां’ शुभाम्॥१॥
कारयेदक्षतैः सस्तैः सिद्धार्थैः हेमभूषिताम्। वस्त्रैर्विचित्रैः कार्पासैः क्षोमैर्व्वा मलवर्ज्जितैः॥२॥
विचित्रं ग्रथितं सूत्रं स्थापयेत् भाजनोपरि। (भविष्योत्तर पुराण)
(ङ) स्वस्तिक-शकुन (शुभ चिह्न, पक्षी) के लिये जमीन को गोबर से लीप कर उसपर स्वस्तिक चिह्न बनाते हैं जिसका मन्त्र है-
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ (यजु २५/१९)
यह आकाश के वृत्त (पृथ्वी कक्षा) की ४ दिशा हैं-ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी इन्द्र, रेवती का पूषा, श्रवण का गोविन्द जो अरिष्ट की नेमि या सीमा (दूर करने वाले) हैं, तथा पुष्य का बृहस्पति। यह जीवन के ४ उद्देश्य (पुरुषार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) पूरा करता है-समाज के क्रम (श्रवा) में श्रेष्ठ अर्थात् वृद्धश्रवा इन्द्र की रक्षा में ही धर्म पालन होता है। विश्व को पाने या जानने से हमारी पुष्टि पूषा द्वारा होती है। हमारी इच्छा (काम) गोविन्द से पूरी होती है तथा मोक्ष ज्ञान से होता है जिसका स्रोत बृहस्पति है।
(च) शुभ पक्षी-द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति। (ऋक् १/१६४/२०)
= समान वृक्ष पर दो पक्षी एक साथ रहते हैं, जिनमें एक तो फलों को स्वाद से खाता है, दूसरा बिना खाये केवल देखभाल करता है। शरीर के भीतर इनको आत्मा (दर्शक) जीव (कर्त्ता) कहा गया है जिनको बाइबिल में आदम, ईव कहा है। सभी जीवों में मस्तिष्क के ये २ भाग नियन्त्रण करता है-एक कार्य करता है, दूसरा सुधार।
कनिक्रदज्जनुषं प्रब्रुवाण इयति वाचमतिरेव नावम्।
सुमङ्गलश्च शकुने! भवासि मा त्वा काचिदभिभा विश्व्या विदत ॥ (ऋक् २/४२/१)
= हे कपिञ्जल शकुन! अपने स्वर से भविष्य की सूचना देकर जीवन को दिशा देते हो। तुम शिकारी के भय से मुक्त होकर विचरो।
मा त्वा श्येन उद् वधीन्मा सुपर्णो मा त्वा विददिषु मान् वीरो अस्ता।
पित्र्यामनु प्रदिशं कनिक्रदत् सुमङ्गलो भद्रवाही वदेह॥ (ऋक् २/४२/२)
= कोई शिकारी पक्षी, गरुड़ या व्याध का बाण उड़ते समय आक्रमण नहीं करे। दक्षिण दिशा में पितर रक्षा करें।
अव क्रन्द दक्षिणतो गृहाणां सुमङ्गलो भद्रवादी शकुन्ते।
मा नः स्तेन ईशत माघशंसो बृहद् वदेम विदथे सुवीराः॥ (ऋक् २/४२/३)
= हे शकुन! घर की दक्षिण दिशा से शुभ स्वर दो, जिससे हम चोर, आतङ्की से सुरक्षित रहें तथा वीरता से बड़ी बात कहें।
प्रदक्षिणिदभि गृणन्ति कारवो वयो वदन्त ऋतुथा शकुन्तयः।
उभे वाचो वदति सामगा इव गायत्र्यं च त्रैष्टुभं चानु राजति॥(ऋक् २/४३/१)
= हे शकुन! दक्षिण दिशा से (साम वेदके) उद्गाता जैसा गान करो। तेरा स्वर ऋतु (क्षेत्र) २ प्रकार से शुभ हो-गायत्र साम (२४ अक्षर का मन्त्र या मनुष्य से २२४ गुणा बड़ी पृथ्वी) पर तथा त्रिष्टुप् (४४ अक्षर, शनि तक का क्षेत्र) अन्तरिक्ष को शुभ करे।
उद्गातेव शकुने साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि।
वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्या सर्वतो नः शकुने भद्रमा वद विश्वतो नः शकुने पुण्यमा वद॥ (ऋक् २/४३/२)
= हे शकुन! उद्गाता की तरह साम द्वारा हमें ब्रह्म-पुत्र (ऋत्विक, ज्ञानी) करो। वैसे ही प्रसन्न हो जैसा घोड़े का बच्चा अपनी मां के पास जाकर होता है। हमें भद्र तथा पुण्य के लिये प्रेरणा दो।
आवदंस्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः।
यदुत्पतन् वदसि कर्करिर्यथा बृहद् वदेम विदथे सुवीराः॥ (ऋक् २/४३/३)
= हे शकुन! हमारे लिये अच्छे शब्द कहो, बैठ कर सुमति दो (इससे घर में स्थिरता होती है), उड़ते समय कठफोड़वा की तरह बोलो, जिससे हम जीवन में दक्ष रहें।
✍🏻अरुण उपाध्याय