ज्ञान: छठ पर्व का शास्त्र,विज्ञान और लोकप्रचलन

शास्त्रीय मूल भी है लोकपर्व छठ का

1. हिन्दुओं का प्रत्येक पर्व लोक आस्था का पर्व है, केवल छठ ही नहीं। होली, दीपावली, दशहरा जैसे लोक आस्था के महापर्वों के सामने छठ की व्यापकता बहुत ही कम है।

2. वैदिक ऋषियों की ही देन है छठ। यदि कोई आपको कहे कि यह ब्राह्मणों की देन नहीं, बल्कि लोक -मानस की उपज है तो आप जोर से खिलखिला कर हँस दीजिये।

स्कंद की षण्मातृकाओं में से एक हैं षष्ठी (छठी) मैया। स्कंद का एक नाम कार्त्तिकेय है और यह कार्त्तिक मास उन्हीं के नाम पर है। षण्मातृकाओं में से छठी माता हैं। इनका नाम देवसेना है। संतान जन्म होने के बाद छठे दिन छठियार में भी इन्हीं की पूजा होती है। षष्ठी देवी संतान के लिए अत्यंत कल्याणकारी हैं और कुष्ठ जैसे दुःसाध्य रोगों का निवारण करती हैं। ये सूर्य की शक्ति की एक अंश हैं जो कार्त्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि के दिन सूर्यास्त के समय और सप्तमी के सूर्योदय के समय तक विशेष रूप से प्रस्फुटित रहती हैं। यह सब ज्ञान और विधान ब्राह्मण ऋषियों की देन है। शाकद्वीपीय अर्थात् सकलदीपी ब्राह्मणों से पहली बार यह विधि श्रीकृष्ण-पुत्र साम्ब ने सीखी थी। श्रीकृष्ण ने अपनी संतान साम्ब के जीवन की रक्षा के लिए उन्हें निमंत्रित कर के उसे यह सिखवाया था।

हमारे पूजनीय ब्राह्मणों के विरुद्ध विषवमन करने वाले वामपंथी लोगों ने हमारी संस्कृति और सभ्यता को तोड़ने के लिए यह दुष्प्रचार शुरू किया कि यह ब्राह्मणों द्वारा नहीं दिया गया है।

3. छठ व्रत में बिचौलिए ही नहीं, कईचौलियो की जरूरत पड़ती है यानि अकेले कर पाना अत्यंत दुष्कर है। इसका कर्मकांड बहुत ही विस्तार लिए चार दिनों तक फैला हुआ है। बहुत सारे लोग रहें तभी कोई व्रती इसे सही ढंग और सहूलियत से कर सकता है। यह कोई आसान पूजा नहीं है जिसे बस एक पुरोहित बुलाकर झट से निपटा दिया।

4. डूबते सूर्य को अर्घ्य देना तो हिन्दुओं का अनिवार्य दैनिक कर्म है। दैनिक गायत्री संध्या-आह्निक में प्रतिदिन डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। त्रिसंध्या जो नहीं करता वह व्रात्य है यानि धर्म से पतित। और त्रिसंध्या में उदय होते, अस्त होते सूर्य के अतिरिक्त मध्याह्म में भी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।

5. किसी भी कर्मकाण्ड और पूजा विधान में पुजारी की आवश्यकता नहीं है, यदि आप उसे स्वयं ही कर पा रहे हैं। यज्ञ एवं अनन्त प्रकार के जो विधान ब्राह्मण ऋषियों ने दिए हैं उन सबमें से लगभग सभी को व्यक्ति द्वारा स्वयं ही करने का विधान है। जो स्वयं कर पाने में असक्षम है उन्हें ही मदद के लिए पुरोहितों की व्यवस्था है। पर यह स्पष्ट बताया गया है कि स्वयं करने से ही अधिकतम लाभ है।

6. का दो छठ में जटिल मंत्रों की आवश्यकता नहीं!!– केवल जटिल भोजपुरी गीतों की आवश्यकता है जिनका अर्थ अधिकांश लोग समझते ही नहीं !! आज तक शायद ही किसी ने छठ में ‘बहँगी’ का उपयोग देखा हो पर ‘कॉंच ही बाँस के बहँगिया…’ गाए बिना छठ सम्पन्न हो ही नहीं सकता !!…….. ये मंत्र भोजपुरी में हैं।

मैं यह सब इसलिये लिख रहा हूँ कि छठ में भाव – विभोर होते हुए हमें कोई बरगला कर हानिकारक एवं अंट- शंट बातें न सिखा दे !!
✍🏻यशेन्द्र प्रसाद

छठ : वनस्पति विज्ञान का भी पर्व

कार्तिक मास पूरा ही प्रकृति में वनस्पति, औषध, कृषि और उसके उत्पाद के ज्ञान की धारा लिए है। अन्नकूट के मूल में जो धारणा रही, वह इस ऋतु में उत्पादित धान्य और शाक के सेवन आरंभ करने की भी है। अन्न बलि दिए बिना खाया नहीं जाता, इसी में भूतबलि से लेकर देव बलि तक जुड़े और फिर गोवर्धन पूजा का दिन देवालय देवालय अन्नकूट हो गया।

छठ पर्व इस प्रसंग में विशिष्ट है कि कुछ फल इसी दिन दिखते है। डलिए भर भर कर फल निवेदित किए जाते हैं, सूर्य को निवेदित करने के पीछे वही भाव है जो कभी मिस्र और यूनान में भी रहा। छठ तिथि का ध्यान ही फल मय हुआ क्योंकि छह की संख्या छह रस की मानक है। भोजन, स्वाद और रस सब षट् रस हैं। इस समय जो फल होते हैं, वो बिना चढ़ाए महिलाएं खाती नहीं है।

बांस के डलिए भरे फलों में शाक सहित रसदार फल भी होते हैं : केला, अनार, संतरा, नाशपाती, नारियल, टाभा, शकर कंदी, अदरक, हल्दी और काला धान जिसे साठी कहते हैं और जिसका चावल लाल होता है, अक्षत के रूप में प्रयोग होता है। श्रीफल, सिंघाड़ा, नींबू, मूली, पानी फल अन्नानास… सबके सब ऋतु उत्पाद। ईख का तोरण द्वार और बांस की टोकरी… यह सब वंश पूर्वक अर्चना है। फिर, चवर्णक और मसालों में गिनिए : पान, सुपारी, लोंग, इलायची, सूखा मेवा… है न रोचक तथ्य और सत्य। प्रकृति ने जो कुछ हमें दिया, उसका अंश हम उत्पादक शक्तियों को निवेदित करके ही ग्रहण करें। यह भाव भारतीयों का अनुपम विचार है जिसका समर्थन गीता भी करती है।
जय जय।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू
छठ….
जब विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता की स्त्रियां अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ सज-धज कर अपने आँचल में फल ले कर निकलती हैं तो लगता है जैसे संस्कृति स्वयं समय को चुनौती देती हुई कह रही हो, “देखो! तुम्हारे असँख्य झंझावातों को सहन करने के बाद भी हमारा वैभव कम नहीं हुआ है, हम सनातन हैं, हम भारत हैं। हम तबसे हैं जबसे तुम हो, और जबतक तुम रहोगे तबतक हम भी रहेंगे।”
जब घुटने भर जल में खड़ी व्रती की सिपुलि में बालक सूर्य की किरणें उतरती हैं तो लगता है जैसे स्वयं सूर्य बालक बन कर उसकी गोद में खेलने उतरे हैं। स्त्री का सबसे भव्य, सबसे वैभवशाली स्वरूप वही है। इस धरा को “भारत माता” कहने वाले बुजुर्ग के मन में स्त्री का यही स्वरूप रहा होगा। कभी ध्यान से देखिएगा छठ के दिन जल में खड़े हो कर सूर्य को अर्घ दे रही किसी स्त्री को, आपके मन में मोह नहीं श्रद्धा उपजेगी।
छठ वह प्राचीन पर्व है जिसमें राजा और रंक एक घाट पर माथा टेकते हैं, एक देवता को अर्घ देते हैं, और एक बराबर आशीर्वाद पाते हैं। धन और पद का लोभ मनुष्य को मनुष्य से दूर करता है, पर धर्म उन्हें साथ लाता है।
अपने धर्म के साथ होने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि आप अपने समस्त पुरुखों के आशीर्वाद की छाया में होते हैं। छठ के दिन नाक से माथे तक सिंदूर लगा कर घाट पर बैठी स्त्री अपनी हजारों पीढ़ी की अजियासास ननियासास की छाया में होती है, बल्कि वह उन्ही का स्वरूप होती है। उसके दउरे में केवल फल नहीं होते, समूची प्रकृति होती है। वह एक सामान्य स्त्री सी नहीं, अन्नपूर्णा सी दिखाई देती है। ध्यान से देखिये! आपको उनमें कौशल्या दिखेंगी, उनमें मैत्रेयी दिखेगी, उनमें सीता दिखेगी, उनमें अनुसुइया दिखेगी, सावित्री दिखेगी… उनमें पद्मावती दिखेगी, उनमें लक्ष्मीबाई दिखेगी, उनमें भारत माता दिखेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके आँचल में बंध कर ही यह सभ्यता अगले हजारों वर्षों का सफर तय कर लेगी।
छठ डूबते सूर्य की आराधना का पर्व है। डूबता सूर्य इतिहास होता है, और कोई भी सभ्यता तभी दीर्घजीवी होती है जब वह अपने इतिहास को पूजे। अपने इतिहास के समस्त योद्धाओं को पूजे और इतिहास में अपने विरुद्ध हुए सारे आक्रमणों और षड्यंत्रों को याद रखे।
छठ उगते सूर्य की आराधना का पर्व है। उगता सूर्य भविष्य होता है, और किसी भी सभ्यता के यशश्वी होने के लिए आवश्यक है कि वह अपने भविष्य को पूजा जैसी श्रद्धा और निष्ठा से सँवारे… हमारी आज की पीढ़ी यही करने में चूक रही है, पर उसे यह करना ही होगा… यही छठ व्रत का मूल भाव है।
मैं खुश होता हूँ घाट जाती स्त्रियों को देख कर, मैं खुश होता हूँ उनके लिए राह बुहारते पुरुषों को देख कर, मैं खुश होता हूँ उत्साह से लबरेज बच्चों को देख कर… सच पूछिए तो यह मेरी खुशी नहीं, मेरी मिट्टी, मेरे देश, मेरी सभ्यता की खुशी है।
मेरे देश की माताओं! परसों जब आदित्य आपकी सिपुलि में उतरें, तो उनसे कहिएगा कि इस देश, इस संस्कृति पर अपनी कृपा बनाये रखें, ताकि हजारों वर्ष बाद भी हमारी पुत्रवधुएँ यूँ ही सज-धज कर गंगा के जल में खड़ी हों और कहें- “उगs हो सुरुज देव, भइले अरघ के बेर…”
जय हो….
✍🏻सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *