झेलिए:आपने ही तो पैदा किए कूल डूड्स और उनकी दुनिया

सबसे पहले तो दही के बारे में सोचिये। दही के बारे में सोचने इसलिए कहा है क्योंकि अगर आप 45 वर्ष से अधिक आयु के हैं तो आपको थोड़े साल पहले के शादी-ब्याह जैसे आयोजनों के भोज याद दिलाना आसान होगा। डेढ़ दशक पहले तक जब आप भोज में जाते थे पार्टी में नहीं तो आपको प्लेट लेकर खाने के लिए कतार में खड़ा नहीं होना पड़ता था। आपको बिलकुल तमीज़ से बिठाया जाता था और मेजबानी कर रहे लोगों का परिवार और मित्र सब मिलकर परोसने और खिलाने की जिम्मेदारी संभालते थे। समय के साथ ये परंपरा “कूल डूड्स” के कारण गायब हो गई है।

अब सवाल है कि जब ऐसे परोसा जा रहा हो तो आपको सारे व्यंजन एक साथ रखे तो दिखेंगे नहीं। तो पता कैसे चलेगा कि सारे व्यंजन परोस दिए गए हैं, अब खाना ख़त्म समझा जाए ? तो अंत में दही और मिठाई (आमतौर पर रसगुल्ला) परोसा जाता था। दही के आते ही समझ आ जाता था कि सभी व्यंजन थाली में आ चुके हैं। उस दौर का प्लेट भी प्लेट नहीं होता था पत्तल होता था जो बायोडिग्रेडेबल होता था अब जैसा पर्यावरण के लिए हानिकारक थेर्मोकोल नहीं ये भी एक दूसरी बात है। खैर, आपको तो पता ही है कि पिछले पंद्रह बीस सालों से कूल डूड्स ही ऐसे आयोजनों में मेन्यु तय करते हैं।

पैसे भी जरूर वही 18-25 की आयु के कूल डूड्स देते होंगे ना, तो जाहिर है मर्जी भी उन्हीं की चलेगी। जो 45+ का वर्ग है उसे अच्छी तरह पता था कि भारत एक गर्म जल-वायु वाला प्रदेश है। ज्यादा तला-भुना या मांसाहारी भोजन के बाद दही खाना पाचन को सही रखने के लिए जरूरी है। अब मगर खाने के व्यंजन की लिस्ट वो तैयार करते तब ना ? भण्डार में या रसोइये के पास खाना बनते बेचारे 45+ वाले होते तब तो दही रखवाने या कटहल, लौकी, कद्दू, सीताफल जैसे शाकाहारी व्यंजनों की किसी को याद आती ? वहां तो कूल डूड्स होते थे ना, उन्होंने बस पनीर चलाया और बाकि सारे व्यंजन गायब कर डाले।

अरे शर्माइये मत जनाब ! आधे टाइम कूल डूड्स पर इल्जाम और सवाल करते ही ये घूँघट में घुस के नयकी दुल्हनिया मत बनिए। आपका ही किया धरा है, कूल डूड्स तब पैदा भी नहीं हुए थे जब ये आपने किया था, इसे कबूलना सीखिए। आइये अब इसे एक पीढ़ी आगे ले चलिए, कूल डूड्स वाली पीढ़ी से आगे देखिये कि कैसे ऐसी ही हरकतों का असर होता है। अपने पिताजी, दादाजी को याद कीजियेगा तो याद आ जाएगा कि वो सुबह सुबह या शाम के वक्त कोई मोटा सा धर्म ग्रन्थ या अखबार लिए, बाकायदा कलम के साथ, उसे पढ़ने में जुटे बैठे होते थे। किताब में कुछ लिखना हो तो पेन्सिल इस्तेमाल किया जाए, कलम बिलकुल नहीं, इसकी सख्त हिदायत भी आस पास बैठे बच्चों को मिल रही होती थी।

इसका नतीजा ये होता था कि घर के सबसे छोटे बच्चे भी बड़ो को देख कर यही करना सीखते थे। डेढ़-दो साल, या तीन-चार साल के बच्चों को भी कलम और नया अखबार तो छूने नहीं दिया जाता था। अखबार नया फाड़ देगा और कलम गिराई तो निब टूटेगा ! तो बच्चे का सबसे प्रिय काम क्या होता था ? मौका पाते ही वो अख़बार बाकायदा जमीन पर बिछा कर बैठता और बड़े भाई-बहन या चाचा की कलम झपट लाता। फिर वो पूरी तन्मयता से अखबार पर आड़ी टेढ़ी लाइन दागने में जुटा रहता। अब आप क्या करते दिखते हैं बच्चे को ? एक स्मार्ट फ़ोन है, प्रबल संभावना है कि आप उसी पर सोशल मीडिया की पोस्ट पढ़ने में शाम में जुटे दिखते हैं। बच्चा कुछ नहीं समझता लेकिन बड़ों की नक़ल तो करेगा ही। उनकी सीखने-समझने की स्पीड आपसे कई गुना तेज है इसलिए फ़ोन-टैब हाथ आने पर उसमें यू ट्यूब चलाना भी सीख लेगा।

किसी एसेम्बली लाइन प्रोडक्शन में बना कर किसी घर में अट्ठारह साल का कूल डूड इम्पोर्ट थोड़ी होता जनाब ? पैंतालिस और पचपन वाले का थोड़ा सा एडवांस वर्शन है बस !

इसे बदला जा सकता है, लेकिन उसके लिए पहले तो आपको खुद को ही बदलना होगा। कोरे उपदेश किसी काम के नहीं होते, अगर वो चीज़ें आपके आचरण में नहीं दिखती तो वो नहीं सीखी जायेंगी। अगर आप चाहते हैं कि सभ्यता-संस्कृति से थोड़ा परिचित हो तो शरीर को कष्ट दीजिये, खुद सुबह उठ कर मोबाइल में, लैपटॉप पे, साउंड सिस्टम पे कोई शास्त्रीय संगीत का राग, कोई संस्कृत श्लोक-स्त्रोत बजाने की मेहनत कीजिये। अगर आप चाहते हैं कि समाजवाद नाम के कोढ़ से ग्रस्त ना हो जाए, कहीं जातिवाद के पचड़े में अपना समय बर्बाद ना करे तो खुद दो अखबार पढ़ते दिखिए, फिर उसे भी पहले फिल्मों वाला, फिर स्पोर्ट्स वाला, और धीरे धीरे फिर एडिटोरियल पढ़ना सिखाइए।

उसका इंटरव्यू अंग्रेजी में ही होगा, ये आपको अच्छी तरह पता है। चाहे आप लाख छाती पीट लीजिये हिंदी में कोई स्तरीय प्रकाशन भी नहीं आते क्योंकि हिंदी प्रकाशक-संपादक पैसे नहीं देगा। तो एक ख़ास विचारधारा से ग्रस्त होने और देर से आने के बाद भी हिन्दू, इंडियन नेशन जैसे अंग्रेजी अखबार और दूसरी पत्रिकाएं पढनी होंगी। उनका असर थोड़ा न्यूट्रल करना हो तो घर में आपको ही “ए वंडर देट वाज इंडिया”, “लैंड ऑफ़ सेवेन रिवर्स”, “बीइंग हिन्दू” जैसी किताबें रखनी होंगी। कोई भी स्कूल बच्चों को ना तो अखबार पढ़ना सिखाएगा, ना इंडियन कल्चर के बारे कुछ अच्छा सिखाने की उनकी जिम्मेदारी है। ये आपका काम है आपको ही करना होगा। करीब करीब इसी विषय पर हाल में यशार्क (Yashark Pandey) ने दो लेख और कई किताबों का नाम लिखा था।

छुट्टियाँ, त्यौहार और अन्य अवसरों/आयोजनों का इस्तेमाल करना सीखिए, वरना कूल डूड होने में कोई उम्र के अट्ठारह होने का मामला नहीं होता, करने वाले तो सब अब पैंतालिस-पचास से ऊपर के ही हैं।
✍🏻आनन्द कुमार

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