डकैत डीएनए ब्रिटिशर्स की नेताजी के नाम पर क्यों सुलगी?

सुभाष चंद्र बोस से अब क्यों चिढ़ रहा है ब्रिटिश इको सिस्टम? नाजी विचारधारा और हिटलर का दिया हवाला!
सुभाषचंद्र बोस की जर्मन तानाशाह हिटलर से मुलाकात का मात्र एक मकसद भारत की आजादी की लड़ाई को धार और रफ्तार देना था. सुभाष बाबू दूर-दूर तक नाजी विचारधारा से इत्तेफाक नहीं रखते थे. लेकिन बोस को इस मुलाकात के लिए घेरने वाले श्वेत वर्चस्व (white supremacist) कभी चर्चिल की कारगुजारियों पर खुद से सवाल नहीं पूछते हैं.

मई 1942 में सुभाष बाबू ने बर्लिन में हिटलर से मुलाकात की थी.
नई दिल्ली,27 जनवरी 2025,बंगाल के दुर्भिक्ष में लाखों भारतीयों का निवाला छीनने वाले, जालियांवाला बाग में निहत्थे हिन्दुस्तानियों पर गोलियां बरसाने वाले, भारत से खरबों डॉलर लूट कर अपनी तिजोरी भरने वाले अंग्रेजों को आज भी इस बात पर आपत्ति है कि सुभाष चंद्र बोस भारत को आजाद कराने की कोशिश में जर्मनी के तानाशाह हिटलर से मदद मांगने क्यों चले गये?

उसी महज एक मुलाकात को यादकर अंग्रेज 82 साल बाद भी भारत का ताना दे रहे हैं. सैम बिडवेल और उसके जैसे कइयों की बोस से नाराजगी की यही वजह है.

सैम बिडवेल कौन है ये बताएंगे पहले संदर्भ समझिए.

बात 23 जनवरी की है. सुभाष चंद्र बोस की जयंती थी. भारत सरकार इस दिन को पराक्रम दिवस के रूप में भी मनाती है. इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब उन्हें याद करते हुए नमन किया तो भारत से हजारों मील दूर बैठे कुछ ब्रिटिश नस्लवादी चिढ़ गये. पीएम मोदी द्वारा एक्स पर किये गये पोस्ट पर ब्रिटिश इंटेलिजेंसिया ने भारत की आलोचना की और सुभाष चंद्र बोस को नाजियों का हितैषी बताया.

हालांकि ये अंग्रेज अपने प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की करतूतों को याद करना भूल गये. जिसने बंगाल के अकाल के दौरान भारतीयों का राशन काट दिया था और लाखों भारतीय कंकाल बनकर मरने को मजबूर हुए.

लेकिन इस दफे इंडियन यूजर्स नहीं चुके उन्होंने अंग्रजों को चर्चिल की एक-एक गुनाह की लिस्ट याद दिला दी.

पीएम मोदी ने तेइस जनवरी को सुभाष चंद्र बोस को याद करते हुए ट्वीट किया,”आज पराक्रम दिवस पर मैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अद्वितीय है. वे साहस और धैर्य के प्रतीक थे. उनका विजन हमें प्रेरित करता रहता है, क्योंकि हम उनके सपनों का भारत बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं.”

प्रधानमंत्री मोदी के इस ट्वीट में अंग्रेजों के बारे में कुछ भी नहीं है, और न ही ब्रिटेन की आलोचना है.

इसके बावजूद श्वेत वर्चस्व (white supremacy ) से ग्रस्त ब्रिटेन के कई थिंक टैंक पीएम मोदी के इस पोस्ट पर कूद पड़े.

लंदन स्थित थिंक टैंक एडम स्मिथ इंस्टीट्यूट में नेक्स्ट जेनेरेशन सेंटर के डायरेक्टर सैम बिडवेल ने इस मामले में भारत अभद्र हमला किया और सुभाष चंद्र बोस को नाजियों का मददगार और हिटलर का प्रशंसक बताया.

सैम बिडवेल ने पीएम मोदी के पोस्ट पर जवाब देते हुए ट्वीट किया, “सुभाष चंद्र बोस नाजियों के सहयोगी थे. वे हिटलर के प्रशंसक थे और उन्होंने ब्रिटिश की जंगी कोशिशों को कमजोर करने के लिए सक्रिय रूप से काम किया.”

बिडवेल ने आगे कहा, “नीचे के पोस्ट में, भारत के प्रधानमंत्री उन्हें एक नायक के रूप में मनाते हैं. आइए यह दिखावा करना बंद करें कि भारत हमारा एक सहयोगी है. हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए, हम खलनायक हैं.”

इस अंग्रेज के एक पोस्ट पर जोरदार संवाद हुआ. इस ट्वीट को 10 लाख लोग देख चुके हैं. दर्जनों भारतीयों ने इस ट्वीट के लिए बिडवेल को आईना दिखाया और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों की कारगुजारियां सामने रखी दी.

दरअसल नैतिकता का तकाजा तय करने वाले अंग्रेजों को इस बात पर भी दिक्कत है कि हम अपने उस नायक को याद करें जो कूटनीति में अंग्रेजों से भी तेजतर्रार थे, बुद्धिमता में गोरों को पीछे छोड़ देते थे और जिनके सामने खड़े होने पर ब्रिटिश को अपनी कमतरी का एहसास होने लगता था.

एक तरफ बोस, दूसरी ओर हिटलर

1941 में सेकेंड वर्ल्ड वॉर के दौरान पूरा यूरोप भयंकर युद्ध झेल रहा था. हिटलर की सेना ब्रिटेन पर भारी पड़ रही थी. इसी टाइमफ्रेम में भारत माता की आजादी का सपना लिए सुभाष चंद्र बोस 1941 में मास्को होते हुए बर्लिन पहुंचे. बोस यहीं से अपनी गतिविधियां अंजाम देने लगे.

बोस ने बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की और 19 फरवरी 1942 को जर्मनी के नौएन शहर से अपना रेडियो प्रसारण शुरू कर दिया. ये अंग्रेजों के बीबीसी के लिए बोस की ओर से जवाब था

तब हिटलर बर्लिन से ही वर्ल्ड वॉर 2 ऑपरेट कर रहा था. सुभाष चंद्र बोस हिटलर से मीटिंग के लिए संदेश भिजवाने लगे.

बोस की योजना हिटलर की मदद लेकर भारत में क्रांति करने की थी, जिससे ब्रिटिश सेना का ध्यान जर्मनी के खिलाफ युद्ध से हट जाए. बोस “मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त है” के सिद्धांत पर काम कर रहे थे. उन्होंने अनुमान लगाया कि इस प्रक्रिया में ब्रिटेन सैन्य रूप से सुपीरियर जर्मनी के खिलाफ युद्ध हार जाएगा और इसके नतीजे में भारत को भी खो देगा, यानी कि भारत भी आजाद हो जाएगा.

आखिरकार 29 मई 1942 को ये बहुप्रतीक्षित मीटिंग हुई. लेकिन सुभाष चंद्र बोस को इस मीटिंग से निराशा हाथ लगी. साम्राज्यवादी अहंकार और ताकत के उन्माद में डूबे हिटलर ने बोस को मदद देने से इनकार कर दिया.

सुभाष चंद्र बोस पर फिल्म बनाने वाले वाले श्याम बेनेगल (जिनकी हाल ही में मृत्यु हुई है) ने कहा था, “उस बैठक में उन्होंने (बोस ने) हिटलर से “मीन कैम्फ” में एशियाई लोगों से संबंधित अंशों को काटने के लिए कहा लेकिन हिटलर ने कहा कि भारत के लिए ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन रहना बेहतर है.हिटलर ने उनकी मदद करने से इनकार कर दिया.”

इसी मुलाकात के बारे में सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी रहे गिरिजा मुखर्जी ने लिखा है, “यह मुलाकात सुभाष के लिए निराशा भरी थी. उन्होंने हिटलर को एक उतावला व्यक्ति समझा.”

बोस ने एक महत्वपूर्ण प्रसारण में कहा कि जर्मनी या जापान की आंतरिक राजनीति भारत से संबंधित नहीं है. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि एक्सिस पावर के साथ सहयोग का मतलब उनकी सामाजिक आर्थिक नीतियों को स्वीकार करना नहीं है. या भारत के आंतरिक मामलों में उनकी स्थिति को स्वीकार करना नहीं है.

नाजी विचारधारा को कहीं से सपोर्ट नहीं करते थे सुभाष

गिरिजा मुखर्जी ने लिखा है, “जर्मनी, इटली और इंग्लैंड के खिलाफ लड़ने वाले देशों के बारे में सुभाष बोस के विचारों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें सबसे पहले सुभाष बोस के कई लेखों और उनके बारे में दिए गए बयानों को देखना होगा. अगर हम ऐसा करेंगे, तो हम पाएंगे कि उन्होंने अपने भाषण या लेखन में कहीं भी नाजी या फासीवादी विचारों की प्रशंसा या समर्थन नहीं किया है.”

उन्होंने कहा है कि उन्होंने उनके द्वारा लिखी गई लगभग सभी बातें पढ़ी हैं और उन्हें उनका ऐसा कोई लेख नहीं मिला जिसमें उन्होंने दिखाया हो कि वे दूसरों को स्वतंत्रता से वंचित करने या लोगों को उनके राजनीतिक विश्वासों या उनकी जाति के कारण प्रताड़ित करने के विचारों से प्रति आकर्षित थे.

खुद सुभाष चंद्र बोस ने भी हिटलर की विचारधारा की कड़े शब्दों में निंदा की है. उन्होंने लिखा है,”हिटलर ने श्वेत जातियों की नियति के बारे में बात की है कि वे शेष विश्व पर शासन करेंगे. लेकिन ऐतिहासिक तथ्य यह है कि अब तक एशियाई लोगों ने यूरोप पर यूरोपियों से कहीं अधिक प्रभुत्व जमाया है. हम जो अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, हम चाहते हैं कि सभी राष्ट्र स्वतंत्र हों और यूरोप और एशिया एक दूसरे के साथ शांति से रहें. इसलिए, हमें इस बात से दुख होता है कि जर्मनी में नया राष्ट्रवाद स्वार्थ और नस्लीय अहंकार से प्रेरित है”.

स्पष्ट है कि बोस सिर्फ भारत की आजादी के लिए हिटलर की मदद चाहते थे. वे किसी भी तरह से नाजी विचारधारा के समर्थन में नहीं थे. बावजूद इसके नस्लीय अहंकार में डूबे अंग्रेज भारत से उम्मीद करते हैं कि हम बोस को भूल जाएं.

सैम बिडवेल की तरह ही ड्रयू नाम के एक ब्लूटिकधारी शख्स ने बोस से हिटलर की मुलाकात पर आपत्ति जताई.

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को पढ़ाने वाले युवान यी झू ने भी इस मुद्दे पर ब्रिटिश प्रोपगेंडा का हवा दी है और लिखा है.

याद नहीं आते चर्चिल के गुनाह

नस्लभेद और श्वेत वर्चस्वाद से पीड़ित इन किसी लोगों ने ब्रिटेन के पूर्व पीएम विंस्टन चर्चिल को 24 जनवरी (चर्चिल का निधन) को उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए या फिर उसके पैरोंकारों से ये नहीं पूछा कि चर्चिल का बंगाल के अकाल में क्या रोल था.

शशि थरूर ने ब्रिटेन में एक भाषण में कहा था, “मिस्टर चर्चिल के बारे में गहराई से अध्ययन करने की जरूरत है, उनके हाथ उतने ही खून से रंगे हैं जितने हिटलर के रंगे हैं, खास तौर पर उन फैसलों के कारण जिनकी वजह से 1943-44 का बंगाल का भयावह अन्न संकट पैदा हुआ जिसमें 43 लाख लोग मारे गए.”

वायसराय आर्चीबाल्ड वेवेल जब अकाल पीड़ित जिलों को और अनाज भेजने की मांग की तो चर्चिल ने जान-बूझकर अनाज को भुखमरी झेल रहे बंगाल से हटा कर विश्व युद्ध में लड़ रहे अंग्रेज सिपाहियों के लिए भेजने का फैसला किया.

 

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