डॉ.आंबेडकर का मत: शूद्र पूर्व में क्षत्रिय थे,चक्रवर्ती राजा भी और मंत्र दृष्टा ऋषि भी
कौन थे शूद्र… आर्यों से अलग या क्षत्रियों में ही शामिल वर्ण, क्या रहे हैं डॉ. आंबेडकर के विचार?
अंबेडकर ने अपने शोध में इस तथ्य को बहुत मजबूती से रखा कि शूद्र मूल रूप से आर्य सौर जाति (सोलर रेस) का हिस्सा थे. वे प्राचीन इंडो-आर्यन समाज में क्षत्रिय वर्ण में शामिल थे, जो योद्धा वर्ग के रूप में जाना जाता था. अंबेडकर के अनुसार, एक समय ऐसा था जब आर्य समाज में केवल तीन वर्ण थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य. उस समय शूद्र एक अलग वर्ण नहीं थे, बल्कि क्षत्रिय वर्ण का ही भाग थे।
डॉ. आंबेडकर का शूद्र वर्ण पर क्या था नजरिया
बिश्वजीत
नई दिल्ली,14 अप्रैल 2025 (विश्वजीत),डॉक्टर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने भारतीय इतिहास और सामाजिक संरचना और इसके ढांचे को बहुत गहराई से पढ़ा और समझा था. उनकी किताब “हू वर द शूद्राज?” (शूद्र कौन थे?) में उन्होंने शूद्रों की उत्पत्ति और भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में उनकी स्थिति पर प्रकाश डाला है. किताब में अंबेडकर ने दो मुख्य प्रश्नों पर विचार किया है, पहला तो ये कि शूद्र कौन थे और वे वर्ण क्रम में चौथे स्थान पर कैसे आ गए.
अंबेडकर का विश्लेषण पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देता है और शूद्रों के ऐतिहासिक संदर्भ पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. अंबेडकर के इस सिद्धांत को समझने और उनके द्वारा उठाई गई “शूद्रों की पहेलियों” पर विचार करना जरूरी हो जाता है.
अंबेडकर ने अपने शोध में इस तथ्य को बहुत मजबूती से रखा कि शूद्र मूल रूप से आर्य सौर जाति (सोलर रेस) का हिस्सा थे. वे प्राचीन इंडो-आर्यन समाज में क्षत्रिय वर्ण में शामिल थे, जो योद्धा वर्ग के रूप में जाना जाता था. अंबेडकर के अनुसार, एक समय ऐसा था जब आर्य समाज में केवल तीन वर्ण थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य. उस समय शूद्र एक अलग वर्ण नहीं थे, बल्कि क्षत्रिय वर्ण का हिस्सा थे. यह त्रि-वर्णिक संरचना प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को दर्शाती थी, जिसमें शूद्रों का स्थान आज की तुलना में कहीं अधिक सम्मानजनक था.
Ambedkar Jayanti: Social Justice and Political Accusations and Counter-accusations
अंबेडकर ने अपने निबंध में शूद्रों की उत्पत्ति और उनके पतन के कारणों की खोज की है. उन्होंने विभिन्न लेखकों (पारंपरिक और आधुनिक) की ओर से दिए गए सिद्धांतों और ऐतिहासिक सामग्री की जांच की. इसके आधार पर उन्होंने एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे संक्षेप में कुछ खास बिंदुओं के जरिए समझा जा सकता है.
1. शूद्र आर्य सौर जाति की एक समुदाय थेः अंबेडकर का मानना है कि शूद्र गैर-आर्य नहीं थे, जैसा कि आमतौर पर माना जाता है. वे आर्य समुदाय का हिस्सा थे और सौर जाति से संबंधित थे.
2. शूद्रों का स्थान क्षत्रिय वर्ण में थाः प्राचीन इंडो-आर्यन समाज में शूद्रों को क्षत्रिय वर्ण में गिना जाता था. वे योद्धा वर्ग का हिस्सा थे और सामाजिक रूप से उच्च स्थान रखते थे.
3. आर्य समाज में पहले केवल तीन वर्ण थेः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीन वर्ण ही प्रारंभ में अस्तित्व में थे. शूद्र उस समय एक अलग वर्ण नहीं थे, बल्कि क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत आते थे.
4. शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों के बीच निरंतर संघर्ष थाः शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों के बीच लंबे समय तक वैमनस्य रहा. इस दौरान ब्राह्मणों को शूद्र राजाओं से कई प्रकार की यातनाएं और अपमान सहने पड़े.
5. ब्राह्मणों ने शूद्रों का उपनयन कराने से मना कर दियाः शूद्रों के प्रति ब्राह्मणों में घृणा बढ़ने के कारण, उन्होंने शूद्रों को उपनयन संस्कार (पवित्र धागा पहनने का अधिकार) से वंचित कर दिया.
6. सामाजिक पतन और चतुर्थ वर्ण का निर्माणः पवित्र धागे से वंचित होने के कारण शूद्र सामाजिक रूप से नीचे गिर गए. वे वैश्यों से भी नीचे चले गए और अंततः चतुर्थ वर्ण के रूप में स्थापित हो गए.
7. अंबेडकर का यह सिद्धांत शूद्रों के पतन को एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखता है, जो सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों का परिणाम थी. उनके अनुसार, शूद्रों का यह पतन स्वाभाविक नहीं था, बल्कि यह ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच शक्ति के संघर्ष का परिणाम था.
शूद्रों की पहेलियां: ऐतिहासिक विरोधाभास
अंबेडकर ने शूद्रों की सामाजिक और ऐतिहासिक स्थिति को समझने के लिए “शूद्रों की पहेलियां” नाम से अपनी एक अवधारणा सामने रखी. ये पहेलियां प्राचीन भारतीय समाज में शूद्रों की स्थिति और उनकी भूमिका के बारे में व्यापक रूप से प्रचलित मान्यताओं को चुनौती देती हैं. अंबेडकर ने इन पहेलियों को सूचीबद्ध करते हुए कई विरोधाभासों पर प्रकाश डाला, जो शूद्रों की स्थिति को समझने में जटिलता पैदा करते हैं.
इसमें एक जगह आता है कि शूद्रों को गैर-आर्य और आर्यों का शत्रु माना जाता है. फिर यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषि शूद्रों की महिमा क्यों गाते हैं? यदि शूद्र गैर-आर्य थे और आर्यों ने उन्हें पराजित कर गुलाम बनाया था, तो वेदों में शूद्रों की प्रशंसा क्यों की गई? यह एक बड़ा विरोधाभास है. वहीं, जब शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था. फिर सुदास, जो एक शूद्र थे, ने ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना कैसे की?
शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं था. फिर सुदास ने अश्वमेध यज्ञ कैसे किया? शतपथ ब्राह्मण में शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे संबोधित करने का मंत्र भी दिया गया है. यह पारंपरिक मान्यता के विपरीत है. शूद्रों को उपनयन का अधिकार नहीं था. फिर इस पर विवाद क्यों हुआ? इसके साथ ही बादरी और संस्कार गणपति जैसे विद्वानों ने उनके पक्ष में तर्क क्यों दिए?
शूद्र संपत्ति जमा नहीं कर सकते थे. फिर मैत्रायणी और कठक संहिता में शूद्रों को धनी और समृद्ध क्यों बताया गया है? प्राचीन ग्रंथों में शूद्रों को धनवान बताया गया है, जो इस मान्यता के विपरीत है कि वे संपत्ति अर्जित नहीं कर सकते. शूद्र को राज्य का अधिकारी बनने का अधिकार नहीं था. फिर महाभारत में शूद्रों को मंत्रियों के रूप में क्यों दर्शाया गया है? यह इस धारणा को गलत साबित करता है कि वे केवल सेवा करने के लिए थे. यहां तक की सायण जैसे विद्वानों ने सुदास और अन्य शूद्र राजाओं का उल्लेख किया है, जो इस बात का प्रमाण है कि शूद्र राजा भी थे.
डॉ. अंबेडकर का यह विश्लेषण शूद्रों की स्थिति को समझने में एक क्रांतिकारी कदम है. उन्होंने न केवल शूद्रों की उत्पत्ति और पतन की प्रक्रिया को समझाया, बल्कि प्राचीन भारतीय समाज में उनकी भूमिका से जुड़े विरोधाभासों को भी उजागर किया. अंबेडकर का यह सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि सामाजिक संरचना में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं होते, बल्कि वे शक्ति, संघर्ष और वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम होते हैं.
शूद्रों की पहेलियां हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि प्राचीन भारतीय समाज उतना सरल नहीं था, जितना उसे दर्शाया जाता है. अंबेडकर ने अपने शोध से यह साबित किया कि शूद्रों का पतन एक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक कारणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके इस कार्य ने भारतीय समाज की गहरी समझ को बढ़ावा दिया और सामाजिक न्याय के लिए एक नई दिशा प्रदान की।
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भीमराव आंबेडकर
शूद्र क्षत्रिय