नेपाल में क्यों उठ रही है राजशाही वापसी की मांग?
नेपाल में क्यों उठी राजतंत्र बहाली की मांग
चंद्रभूषण
नेपाल में राजतंत्र और ‘हिंदू राष्ट्र’ को फिर से बहाल करने को लेकर प्रदर्शनों का एक नया सिलसिला शुरू हो गया है। 15 दिसंबर से राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP) ने इन्हीं दोनों मुद्दों पर दो महीने का ‘जनजागरण अभियान’ चलाने की घोषणा की है। इस अभियान के बाद उसकी योजना ‘मेची से महाकाली तक’ यानी नेपाल के पूरबी और पश्चिमी छोरों को जोड़ती हुई एक जागरण यात्रा निकालने की है। RPP के पास नेपाली संसद में 14 सीटें हैं, लेकिन इन प्रदर्शनों का नेतृत्व उसके हाथ में नहीं था। यूं कहें कि इनके बारे में उसका नजरिया दुविधाग्रस्त था।
राजतंत्र समर्थक प्रदर्शनों के पीछे संदिग्ध व्यक्ति
संदिग्ध भूमिका
नवंबर में हुए प्रदर्शनों में केंद्रीय भूमिका नेपाल के सुदूर पूर्वी जिले झापा के रहने वाले दुर्गा प्रसाई नाम के एक संदिग्ध व्यक्ति की बताई जाती है, जिसके नजदीकी रिश्ते नेपाल की तीनों बड़ी पार्टियों से रहे हैं और जिसकी ख्याति 500 करोड़ रुपये का कर्ज लेकर अदायगी के नाम पर सन्नाटा खींच जाने वाले व्यक्ति की है।
आर्थिक पहलू
यह कोई दबा-छिपा तथ्य नहीं है। इस आंदोलन का सबसे मुखर आर्थिक मुद्दा अब तक यही है कि सरकार के इशारे पर बैंक लोगों को खामखा कर्ज वसूली के लिए परेशान कर रहे हैं। राजतंत्र की वापसी हो गई तो रातोंरात यह जोर-जबर्दस्ती खत्म हो जाएगी और सारे कर्जे माफ कर देने के अलावा बैंकों के पास कोई चारा ही नहीं रहेगा!
अंतर्विरोध भी हैं
तीन साल पहले हुए ऐसे ही प्रदर्शनों के मुकाबले इस बार के प्रदर्शन यकीनन ज्यादा बड़े हैं। संसद में एक राजतंत्र समर्थक दल की मौजूदगी से इन्हें एक तार्किक स्वर मिला है। हालांकि राजा की प्रशंसक शक्तियों में आपसी अंतर्विरोध भी कम नहीं हैं। RPP के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेंद्र लिंग्डेन दुर्गा प्रसाई को ‘अराजक शक्ति’ बता रहे हैं और मीडिया से अपना नाम ‘एक डिफॉल्टर के साथ तो न ही जोड़ने’ का आग्रह कर रहे हैं।
लोकतंत्र से मोहभंग
सवाल यह है कि दक्षिण एशिया के इस सबसे नए गणराज्य में लिखित संविधान लागू होने के मात्र आठ वर्षों के अंदर राजतंत्र की वापसी को लेकर शुरू हुई इस दूसरी सुगबुगाहट को किस तरह देखा जाए? गणराज्य, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद से नेपाल के लोगों का क्या सचमुच इतनी जल्दी मोहभंग हो गया है?
सत्ता की भूख
कुछ बातें निश्चय ही चिंताजनक हैं। मसलन यही कि सत्ता की ललक नेपाली राजनेताओं में बहुत ज्यादा है और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। वहां पूरे-पूरे गुट के इधर से उधर होने की घटनाएं अक्सर देखी गई हैं।
अस्तित्व का संकट
दूसरा मामला अस्तित्व के संकट का है। सत्ता के करीब नहीं रहे तो पार्टी खत्म हो जाएगी, और अकेले पड़ गए तो जेल चले जाएंगे, इस तरह का एक डर सबको है। माओवादी धड़े में यह डर सशस्त्र संघर्ष के समय की गतिविधियों से जुड़ा है। बाकियों के साथ ऐसा मामला नहीं है तो उन्हें भ्रष्टाचार के किसी न किसी मामले में धर लिए जाने का डर है।
मौकापरस्त राजनीति
विचार को लेकर काफी सारा खूनखराबा वहां हो चुका है, लेकिन संसदीय राजनीति में वैचारिक पोलेपन का हाल यह है कि चीन के करीबी समझे जाने वाले कम्युनिस्ट नेता केपी शर्मा ओली की पार्टी NCP (UML) ने पिछला आम चुनाव राजतंत्र के पक्ष में खुलकर खड़ी पार्टी RPP के साथ कई सीटों पर समझदारी बनाकर लड़ा।
भूकंप की चोट
इस गिरावट में कुछ भूमिका संयोगों की भी है। 2015 के विनाशकारी भूकंप ने नेपाल में आम लोगों के तो घर-बार तबाह किए ही, इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी बहुत नुकसान पहुंचाया। हालात कुछ सुधरने शुरू हुए तो कोरोना महामारी की रोक-छेक ने यहां की टूरिस्ट अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। कोरोना गया तो रूस-यूक्रेन युद्ध और अभी इस्राइल-फलस्तीन टकराव ने मुद्रास्फीति को बेकाबू कर दिया। इसके चलते ब्याज दरें डबल डिजिट में चल रही हैं और कर्ज अदायगी में चूक की घटनाएं बढ़ गई हैं।
राजतंत्र का आकर्षण
इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद और भाषाई बहुलता के नाटक का पर्दा गिराकर ‘एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक राजा’ वाले पुराने ‘स्वर्णिम’ दौर में वापस लौट जाने का वक्त आ गया है? तराई के वरिष्ठ पत्रकार चंद्र किशोर जहां-तहां सुनने में आ रही इस बात का जिक्र करते हैं कि ‘नेपाल में राजतंत्र के समापन की घोषणा तब हुई थी, जब भारत में सोनिया गांधी के प्रभाव वाली सरकार मौजूद थी।
भारत का असर
अभी जब हिंदू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा ने वहां इतना जोर पकड़ लिया है तो नेपाल पर इसका कुछ तो व्यवस्थागत प्रभाव पड़ेगा ही।’ लेकिन उनकी अपनी राय है कि यह सोच नेपाल में आए बदलाव के आंतरिक कारणों की अनदेखी पर आधारित है। ‘लोकतंत्र में समस्याएं झेल रहे लोगों ने राजतंत्र में इससे कहीं ज्यादा चौतरफा बदहाली देख रखी है।’
लोकतंत्र से लाभ
नेपाली लोकतंत्र में काफी कुछ मुझे ऐसा दिखता है, जो 1990 की शुरुआत तक मौजूद राजतंत्र के लिए कल्पना से भी परे था। मसलन, तामांग और नेवार जैसी बौद्ध जातियों को सरकारी तौर पर ‘मतवाली’ (पियक्कड़) जाति मानकर नागरिक अधिकारों से वंचित रखा जाता था। लेकिन लोकतंत्र आने के बाद संसद में इनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया।
नेपाल की क्षेत्रीय पहचानें ‘पहाड़ी’ और ‘मधेस’ तक सीमित नहीं हैं, यह अनुभूति लोगों को फेडरलिज्म से होनी शुरू हुई है। नेपाली राजनेता अगर गिरने की होड़ ही न ठान लें तो लगता नहीं कि इन परिवर्तनों को पीछे छोड़कर लोग राजतंत्र और हिंदू राष्ट्र की ओर दौड़ लगाने लगेंगे।