नोटबंदी के सात साल व,तब विशेषज्ञों ने क्या कहा था?

नोटबंदी: स्वच्छता की नई राजनीति
एम.जी. अरुण नई दिल्ली, 21 नवम्बर 2016 |
यह घोषणा उतनी ही नाटकीय और अप्रत्याशित थी जितनी कि सितंबर के आखिरी दिनों में सेना की ”सर्जिकल स्ट्राइक.” नवंबर की 8 तारीख को शाम 8.17 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में समानांतर अर्थव्यवस्था पर एक तगड़ा हमला बोला और काले धन के जमाखोरों के पास अपने नोटों की गड्डियां बचाने के लिए सिर्फ चार घंटे से भी कम वक्त छोड़ा. उन्होंने ऐलान कर दिया कि उस दिन आधी रात के बाद से 500 रु. और 1,000 रु. के नोट अमान्य हो जाएंगे और उनकी कोई वैधानिकता नहीं रहेगी.

उनके पास ऐसा करने के कारण भी थे. काले धन ने भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़ों को खोखला करना शुरू कर दिया था और कई क्षेत्रों में भ्रष्टाचार के बीज बो दिए थे. नतीजतन, मुद्रास्फीति बढ़ रही थी और रियल स्टेट की कीमतें चढ़ रही थीं. अमेरिका स्थित ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी ने एक रिपोर्ट, ”विकासशील देशों में गैर-कानूनी धन प्रवाह 2004-2013″, में अनुमान लगाया था कि भारत से बाहर जाने वाला काला धन 2004-2013 के बीच 505 अरब डॉलर (लगभग 33.3 लाख करोड़ रु.) का था. उससे पहले 2007 में विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि भारत की काली अर्थव्यवस्था देश के जीडीपी के 23.7 फीसदी के बराबर है.

इस कड़े कदम पर विचार तो कुछ समय से चल रहा था. पिछली 27 जून को रेडियो पर अपने श्मन की बात्य कार्यक्रम में मोदी ने कहा था कि अगर कर चोरी करने वालों ने अपनी आय का खुलासा अपने आप नहीं किया तो सरकार कड़े कदम उठाएगी. फिर 2 सितंबर को एक टीवी साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा था, ”अगर 30 सितंबर के बाद मैं सख्त कदम उठाऊं तो उसके लिए मुझे दोष मत दीजिएगा.” मोदी अपनी चेतावनी पर टिके रहे और इस कदम की टाइमिंग तो एक मास्टरस्ट्रोक थी. उनकी सरकार के पांच साल के कार्यकाल का लगभग आधा बीत चुका है और मोदी को काले धन के मुद्दे पर विपक्ष की तरफ से बार-बार हो रही नुक्ताचीनी का जवाब देने के लिए कोई न कोई बड़ी घोषणा करने की जरूरत थी. लिहाजा, उत्तर प्रदेश में चुनावी महासंग्राम से ऐन पहले मोदी ने यह जंग छेड़ दी और इसके लिए सब तरफ से तारीफ भी बटोर ली. यहां तक कि कटु आलोचना करने वाले जनता दल-यूनाइटेड (जेडीयू) ने भी इस कदम की सराहना कर दी. पार्टी प्रवक्ता के.सी. त्यागी ने कहा, ”प्रधानमंत्री ने इस कदम से अपने चुनावी वादे को पूरा कर दिया है. हम इसका स्वागत करते हैं.”
हालांकि कांग्रेस ने इस कदम का विरोध किया और कहा है कि इसका आम आदमी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि 1978 में भी मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने बड़े नोटों को प्रचलन से बाहर कर दिया था लेकिन वह कदम भी अपने लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा था. वकील-एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण का कहना था कि यह कदम भले ही स्वागतयोग्य है लेकिन काले धन की बड़ी मात्रा पार्टिसिपेटरी नोट्स (विदेशी निवेशकों के लिए एक तरह की वित्तीय प्रतिभूति) के रूप में है या फिर बैंकों में या कर मुक्त देशों में जमा है. उस सिलसिले में कुछ नहीं किया गया है. उनका कहना है कि 500 रु. और 1,000 रु. के नोटों को प्रचलन से बाहर करके नए नोट जारी करने का असर दिहाड़ी और प्रवासी कामगारों पर ज्यादा पड़ेगा और उन लोगों पर भी जिनके पास बैंक खाते नहीं हैं.
दूसरी तरफ, इस कदम का समर्थन करने वालों का कहना है कि यह प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत 22 करोड़ खातों को खोले जाने के बाद का अगला तार्किक कदम था. फिर, इसकी योजना भी काफी पहले बना ली गई थी. छह महीने पहले भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के अधिकारियों को यह निर्देश दे दिया गया था कि वे 100 रु. के नोट ज्यादा मात्रा में छापें. उसके बाद उन्हें 500 रु. और 2,000 रु. के नए नोट छापने का निर्देश दिया गया.

प्रचार का पैसा
आधिकारिक रूप से इस कदम को आतंकवादी संगठनों, अंडरवर्ल्ड के गुटों और पाकिस्तान की आइएसआइ पर घातक प्रहार करने वाला बताया गया है, क्योंकि ये सभी भारत में अपनी गतिविधियां चलाने के लिए जाली मुद्रा पर निर्भर रहते हैं. लेकिन इस कदम का बहुत दबाव राजनैतिक हलकों में भी महसूस किया जाएगा. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉक्वर्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि कांग्रेस द्वारा दिखाई गई आय का 93.8 फीसदी और बीजेपी की आय का 91.3 फीसदी गुमनाम स्रोतों से आता है. हालांकि जिन दो पार्टियों को तुरंत इसका असर झेलना पड़ेगा, वे हैं सपा और बीएसपी, जो उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों में मुक्चय प्रतिद्वंद्वी हैं. बीएसपी के प्रवक्ता ने तो इस मसले पर टिप्पणी करने से ही मना कर दिया. हालांकि बाद में मायावती ने इसे गरीबों को परेशान करने वाला कदम बताया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की टिप्पणी सतर्कता भरी थी—उन्होंने केंद्र से यह सुनिश्चित करने को कहा कि इस कदम का प्रतिकूल असर आम आदमी को न झेलना पड़े. वे यह भी चाहते थे कि केंद्र ग्रामीण इलाकों में कैंप लगाए, जहां बैंकों की पहुंच कम है ताकि लोग अपने करेंसी नोट बदल सकें. अब, भले ही राजनैतिक नेता इस मसले पर उदासीनता दिखलाएं या फिर ममता बनर्जी की तरह ऑनलाइन गुस्सा जाहिर करें जिन्होंने ट्ड्ढवीट करके कहा था, ”इस क्रूर फैसले को तुरंत वापस लिया जाए्य्य, लेकिन हकीकत यही है कि प्रचार के पैसे का नकदी अर्थव्यवस्था के साथ लंबे समय से काला रिश्ता रहा है.

चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों के अनुसार राजनैतिक दलों को 20,000 रु. से कम के चंदों का हिसाब देने की जरूरत नहीं होती. इससे उनके पास थोड़ा रचनात्मक हिसाब-किताब बनाने की गुंजाइश बन जाती है. मसलन, बीएसपी सुप्रीमो मायावती की कई ऐसी तस्वीरें आती हैं जिनमें उन्हें नोटों की मालाएं पहनाते हुए दिखाया जाता है लेकिन आधिकारिक घोषणा में यही कहा गया है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान उनकी पार्टी को कोई नकद चंदा नहीं मिला. प्रचार के पैसे पर एडीआर की रिपोर्ट कहती है कि ”पार्टियां खर्च में जटिलताओं का लाभ उठाकर नकद पैसा लेती हैं और खर्च करती हैं.” बाकी आंकड़े भी इस नजरिए को बल देते हैः 2004 से 2014 के बीच चुनाव लडऩे वाली 37 क्षेत्रीय पार्टियों में से 19 ने दावा किया कि उन्होंने जितना धन इकट्ठा किया, उससे ज्यादा खर्च कर दिया. 2014 में शिरोमणि अकाली दल ने 17.8 करोड़ रु. इकट्ठे किए लेकिन 18.5 करोड़ रु. खर्च कर दिए. इसी तरह 2011 में तृणमूल कांग्रेस ने 12.7 करोड़ रु. जुटाए लेकिन 18.4 करोड़ रु. खर्च कर दिए.

सफाए का दमखम
बड़े नोटों को प्रचलन से बाहर करने का विचार सबसे पहले इस साल आम बजट पेश किए जाने से भी पहले जनवरी में आया. उस समय विचार यह था कि इसकी घोषणा बजट के हिस्से के तौर पर की जाए लेकिन इतने महत्वाकांक्षी बदलाव के लिए जरूरी जमीनी काम के लिए योजना और समय दोनों की जरूरत थी. इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में प्रोफेसर सब्यसाची कर स्पष्ट करते हैं, ”पहला कदम उठा लिया गया है और यह बड़े शानदार तरीके से किया गया. यह बिल्कुल हैरान कर देने वाला था और इसे ऐसा ही होना भी चाहिए था.”
पलटकर देखा जाए तो कई सारे कदमों की परिणति इस रूप में जाकर हुई. मसलन, भारतीय रिजर्व बैंक ने 1,000 रु. के नोटों की आपूर्ति सालभर पहले ही कम करनी शुरू कर दी थी. तब उसने अनुमानित 190 करोड़ नोटों के बजाए सिर्फ 97.7 करोड़ नोट ही जारी किए. नवंबर के पहले हफ्ते में उसने नोटों की तुरंत तब्दील करने की वित्तीय क्षेत्र की क्षमता को परखने के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट भी चलाया था. उसने बैंकों को कहा था कि वे अपने दस फीसदी एटीएम सिर्फ 100 रु. के नोटों से चलाएं. एक अन्य बड़ा कदम जन धन बैंक खातों में तेजी लाने का था. इनके अलावा और भी कई संकेत थे, जैसे कि काले धन के लिए स्व-घोषणा योजना जिसके जरिए 65,000 करोड़ रु. की राशि ”सफेद” हो गई.

अर्थव्यवस्था के लिए उम्मीद
हालांकि एक बड़ा सवाल अब भी कायम हैः इस फैसले का आर्थिक असर क्या पड़ेगा? इसका कोई एक जवाब नहीं है लेकिन इसके कई संभावित नतीजे हैं. पहली, आम लोग और संस्थान अपने नोटों को बदलने के लिए बैंकों में कतार लगाकर खड़े हैं, इससे बैंक जमा में वृद्धि की संभावना है. दूसरा, ग्रामीण परिवारों को पुराने नोटों को जमा कराने के लिए बैंक खाते खोलने होंगे, तो इससे वित्तीय समावेश की सरकारी योजनाओं के बेहतर नतीजे देखने को मिल सकते हैं. तीसरा, काला धन सबसे ज्यादा भूमिका जमीन-जायदाद की खरीद में निभाता है इसलिए पहले से बदहाली के दौर से गुजर रहे रियल एस्टेट बाजार पर और भी नकारात्मक असर पडऩे की संभावना है. चौथा, नोटों की अदला-बदली से कुल काला धन वैधानिक स्वरूप अख्तितयार कर लेगा इसलिए सरकार के कर राजस्व संग्रह में भी तेजी आ सकती है. जैसा कि एक ब्रोकरेज हाउस नोमुरा ने एक रिसर्च नोट में लिखा, ”हम यकीन करते हैं कि यह कदम मुद्रास्फीति के लिहाज से अच्छा रहेगा क्योंकि काला धन हमेशा मुद्रास्फीति को बढ़ा देता है. लेकिन निकट भविष्य में इसके उपभोग पर प्रतिकूल असर डालने का अंदेशा है.”

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि नोट वापसी के कदम से ”प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर संग्रह में वृद्धि होगी. बैंक जमा में वृद्धि होगी और केंद्र तथा राज्यों को खासा वित्तीय लाभ हासिल होगा.” उन्होंने यह भी कहा कि इस फैसले से उपभोग की प्रवृत्ति भी बदलेगी और ज्यादा से ज्यादा लोग नकद में लेन-देन के बजाए इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन के लिए प्रेरित होंगे.

एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख ने कहा, ”यह एक शानदार कदम है और संभवतया काले धन को सिस्टम से बाहर निकालने का सबसे बेहतर तरीका.” हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि इस कदम की खासी प्रशासनिक लागत भी है और निकट भविष्य में यह अर्थव्यवस्था पर असर डालेगी. इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आइजीआइडीआर) में प्रोफेसर आशिमा गोयल का कहना है कि इस कदम का एकबारगी असर होगा और साथ ही यह भविष्य में भी नकदी जमा करने वालों को हतोत्साहित करेगा क्योंकि नए नोट चिप-सक्षम होंगे. लेकिन, उनका यह भी कहना था कि, ”यह भविष्य में काला धन जमा करने से नहीं रोक पाएगा जब तक रियल एस्टेट और राजनैतिक फंडिंग जैसे काले धन के स्रोतों में पारदर्शिता नहीं लाई जाती और कर चोरी करने वालों की पहचान करने के लिए आंकड़ों का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जाता.”

अफरातफरी से निबटना
अगले कुछ हफ्तों तक भारत के वित्त तंत्र पर खासा दबाव रहेगा. इस समय प्रचलन में मौजूद कुल मुद्रा का मूल्य 17 लाख करोड़ रु. अनुमानित है और इसमें से 80 फीसदी बड़े नोट हैं. यानी बैंकों को 13.6 लाख करोड़ रु. मूल्य की मुद्रा बदलनी होगी जो व्यवस्थागत लिहाज से भारी काम है. मोदी की घोषणा के तुरंत बाद मंगलवार की शाम को एटीएम के बाहर लगी लंबी कतारें इस बात का संकेत थीं कि आने वाले दिनों में क्या हाल रहने वाला है.

ऑनलाइन कारोबार पर भी असर पड़ेगा. केपीएमजी के भारत में ई-कॉमर्स और स्टार्ट-अप्स के पार्टनर श्रीधर प्रसाद का कहना है कि इस समय विभिन्न ऑनलाइन रिटेलरों के ”कैश ऑन डिलिवरी” के भुगतान विकल्प वाले लगभग 30 लाख ऑर्डर प्रक्रिया में हैं. वे कहते हैं, ”अगर तत्काल कोई ”ई-वालेट पे ऑन डिलिवरी” मॉडल तैयार नहीं कर लिया जाता तो इनमें से कई ऑर्डर कैंसिल हो जाएंगे या फिर डिलिवरी तंत्र को जाम कर देंगे. उस पर भी कई उपभोक्ता इतने कम समय में किसी ई-वॉलेट को अपनाने से हिचकेंगे.”

आदित्य बिड़ला समूह के मुख्य अर्थशास्त्री अजित रानाडे का कहना है कि कुछ दिनों तक आम जनता को तकलीफ तो जरूर होगी लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर उन क्षेत्रों में देखने को मिलेगा जहां काला धन खासी बड़ी मात्रा में मौजूद है, जैसे कि रियल एस्टेट, निर्माण और शिक्षा. वे कहते हैं, ”अर्थव्यवस्था के लिए कुछ मुश्किलें होंगी, लेकिन ज्यादा समय के लिए नहीं.” वे सरकार के फैसले से हैरत में भी नहीं थे क्योंकि उनके अनुसार आम बजट की तैयारी के दौरान यह विचार अक्सर उठता रहा है. ”हमारे नोटों का मूल्य वैसे भी बहुत ज्यादा है. आदर्श स्थिति में उन्हें प्रति व्यक्ति आय का 0.25 फीसदी तक होना चाहिए यानी अधिकतम 250 रु. तक.” मसलन, अमेरिका में सबसे बड़ा नोट 100 डॉलर मूल्य का है. रेटिंग कंपनी आइसीआरए में वरिष्ठ अर्थशास्त्री अदिति नायर का कहना था कि कुछ क्षेत्रों में गतिविधियों में व्यवधान आने से आर्थिक विकास के उम्मीद से थोड़ा कम रहने की संभावना हो सकती है.

हकीकत से सामना
बुधवार को सरकार की घोषणा और अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत से बाजार घबरा गए थे और सवेरे के कारोबार में सेंसेक्स में 1689 अंक की गिरावट आ गई थी. हालांकि आगे दिन में उसने उस नुक्सान की काफी भरपाई कर ली. फिर भी वह पिछले दिन के मुकाबले 338 अंकों की गिरावट पर बंद हुआ. सबसे ज्यादा खामियाजा रियल एस्टेट के शेयरों को हुआ और बीएसई का रियलटी इंडेक्स 14 फीसदी गिर गया. यह अनपेक्षित भी नहीं था और इसे अर्थव्यवस्था की साफ-सफाई की अनिवार्य कीमत के रूप में देखा जा रहा है. कंसल्टेंसी फर्म जेएलएल के चेयरमैन और कंट्री हेड अनुज पुरी कहते हैं, ”बड़े नोटों को बंद करना एक बड़ा कदम है जिससे रियल एस्टेट क्षेत्र में बिना हिसाब के धन पर रोक लगाने में काफी मदद मिलेगी.” वे कहते हैं कि ज्यादा पारदर्शिता लाने, भारतीय रियल एस्टेट क्षेत्र को ज्यादा भरोसेमंद बनाने और विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षक बनाने के उद्देश्य से कड़े उपायों की दरकार लंबे समय से थी.
भारतीय रियल एस्टेट क्षेत्र लंबे समय से अनियमित और असंगठित होने की वजह से काले धन को ठिकाने लगाने के लिए पसंदीदा रहा है. हालांकि यह सेक्टर भी बड़ी आर्थिक ताकत रहा है. कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी के अनुसार उसमें 2005 से 2014 के बीच 10.5 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया. उसके 2025 तक 676 अरब डॉलर मूल्य का आकार ले लेने की संभावना है यानी 2014 की तुलना में पांच गुना. सरकार को बिना साफ-सफाई किए रियल एस्टेट क्षेत्र में इस तेजी का मामूली फायदा ही मिलेगा. इसे इस तरह से देखा जा सकता हैः आदर्श स्थिति में जमीनों की बड़ी कीमतों का असर स्टांप ड्यूटी और पूंजीगत लाभ के रूप में सरकारी राजस्व में वृद्धि के तौर पर होना चाहिए. इसके उलट होता यह है कि कर चोरी में वृद्धि होती है, कीमतों को कम दिखाया जाता है. प्रभावी तौर पर कर सिर्फ दर्ज की गई कीमत—आधिकारिक बिक्री मूल्य- पर ही अदा किया जाता है जो हकीकत में उस कीमत से काफी कम होती है जो अदा की गई होती है. बाकी बची राशि नकद दी जाती है जिसे न जाहिर किया जाता है और न कभी उस पर शुल्क अदा किया जाता है. ऐसे में, रियल एस्टेट (नियमन व विकास) अधिनियम (ऐेरा) लाने के बाद सरकार के इस नए कदम से इस तरह की प्रवृत्तियों पर काफी रोक लगेगी. नाइट फ्रैंक (इंडिया) के सीएमडी शिशिर बैजल का कहना है, ”इससे इस क्षेत्र के सभी हितधारकों के बीच समान धरातल स्थापित होगा. उसके अलावा रेरा, जीएसटी बिल और बेनामी ऐक्ट जैसे कानूनों की मदद से इस क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी.”

चमकता बाजार
भारत दुनिया में सोने के सबसे प्रमुख बाजारों में से है. यह बाजार भी परदे के पीछे की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान करता है. काला धन जमा करने वाले चोर रास्तों से कमाई पूंजी को मुद्रास्फीति के असर से बचाने के लिए उसे सोने-चांदी और जेवरात में निवेश कर देते हैं. सोने और जेवर के बाजार में अंधाधुंध नकदी लेन-देन खरीदारों को काला धन सोने व जेवर में तब्दील करने का रास्ता दिखाता है और बेचने वाले भी बिक्री मूल्य को कम दिखाकर अपनी बेहिसाब संपत्ति को छुपाकर रख लेते हैं. बाजार में इस तरह की कई कहानियां चल रही हैं कि मुंबई के कुछ इलाकों में लोगों ने प्रीमियम देकर काले धन को सोने में बदल डाला. यही वजह थी कि प्रधानमंत्री की घोषणा के अगले दिन सोने की कीमतें दो फीसदी तक बढ़ गईं.

फिक्की के एक अध्ययन के अनुसार काला धन पैदा करने वाला एक अन्य क्षेत्र नकली ब्रांडों का है. उत्पाद नकली होते हैं इसलिए बेचने वाले न तो खुद को और न ही अपनी बिक्री को रजिस्टर करवाते हैं. लिहाजा, निर्माण व जॉब वर्क पर उत्पाद शुल्क, ट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं पर सेवा शुल्क और उत्पादों की बिक्री पर वैट की चोरी के रूप में होती है. सरकार की नीतियों का एक प्रत्याशित नतीजा यह होगा कि ये और ऐसे ही अन्य छोटे क्षेत्र वैधानिक जामा पहनाने के लिए मजबूर होंगे जिससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी. कंसल्टेंट जमाल मेकलई कहते हैं, ”अगर इस साफ-सफाई की बदौलत अर्थव्यवस्था में तेजी आ जाती है तो इससे रुपया भी मजबूत होगा.”

मोदी ने काले धन के मुद्दे की जड़ पर हमला करने की हिम्मत दिखाकर आलोचकों को कुछ शांत कर दिया है. लेकिन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि इन नीतिगत बदलावों के चलते पैदा हुए हिचकोलों को झेलने में उनकी सरकार कामयाब हो जाए.

(साथ में उदय माहूरकर, श्वेता पुंज और कौशिक डेका)

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