पटेल का दाय: भारत के एकीकरण की महागाथा
#सरदार —–(द्वितीय अंक)
#आधुनिक_भारत_के_एकीकरण_की_महागाथा
1945 के बाद वातावरण में आजादी की महक के साथ मुस्लिम साम्प्रदायिकता और उनके भारत को तोड़ने के इरादों व 562 राजाओं के कारण भारत के बालकनाइजेशन की आशंकाएं भी तैर रहीं थीं।
यह सरदार की दूरदर्शिता ही थी कि एक ओर जहाँ पहले से कमजोर हो चुके ब्रिटिशों पर दवाब बढ़ाने के लिये उन्होंने ब्रिटिशों का विरोध करते हुए नवंबर 1945 में आजाद हिंद फौज के सेनानियों की पैरवी की वहीं फरवरी 1946 के नौसैनिक विद्रोह में ब्रिटेन द्वारा भारत की आजादी को टालने हेतु कोई बहाना ना देने हेतु विद्रोही नाविकों का विरोध किया व समर्पण हेतु उन्हें राजी किया।
इसी प्रकार सी. आर. फार्मूले पर अपने प्रारंभिक विरोध को तजकर उन्होंने व्यवहारिक रुख अपनाया और कैबिनेट मिशन के प्रावधानों को स्वीकार कर जिन्ना के हाथों में सत्ता जाने से रोककर भारत को आत्मविनाश से रोका।
बदले हुए घटनाक्रम में कृष्ण मेनन के गुप्त सुझाव पर क्रिप्स की संस्तुति तथा चर्चिल के ‘सशर्त आशीर्वाद’ के साथ आये हुए माउंटबेटन के साथ अपनी बैठकों में उन्होंने ब्रिटिशों की मनोवृत्ति को ताड़ लिया और फिर सरदार ने अपनी एक और खूबी का परिचय दिया।
#कड़ी_सौदेबाजी
माउंटबेटन ने सरदार से वचन लिया कि चर्चिल और उस जैसे अन्य कट्टर श्रेष्ठतावादी ब्रिटिश तत्वों को संतुष्ट रखने के लिये भारत के राष्ट्रमंडल से जुड़े रहने का विरोध नहीं करेंगे और बदले में माउंटबेटन सरदार को अपनी टोकरी को ‘सेबों’ से भरने में मदद करेंगे। ये ‘सेब’ दरअसल भारत की वे 562 रियासतें थीं जिनके कब्जे में भारत की 5 लाख वर्गमील अर्थात 40% भूमि व 8.5 करोड़ की जनसंख्या आती थी और जो ब्रिटिश सर्वोच्चता के खात्मे की घोषणा का इंतजार कर रहे थे ताकि अपनी संप्रभुता की घोषणा कर सकें। इन रियासतों के अधिपतियों में से कई विलासी, कामुक, चरित्रहीन और निर्दयी थे जिन्हें भारतीय जन गण की आकांक्षाओं की रत्ती भर भी परवाह नहीं थी। कई शासकों जैसे हैदराबाद के निजाम, ग्वालियर के सिंधिया, जयपुर के कछवाहा व जोधपुर के राठौड़ के पास शक्तिशाली सेनायें भी थीं।
सरदार की दूरदृष्टि ने ये बात ताड़ ली कि ब्रिटिशों के सहयोग के बिना इन रियासतों से निबटना आसान नहीं होगा और वैसे भी चीन में माओत्सेतुंग के नेतृत्व में बर्मा (म्यामां) तक आ पहुंचे कम्यूनिस्टों को रोकने के लिए ब्रिटिश व अमेरिका ही उनके स्वाभाविक सहयोगी थे, इसलिये राष्ट्रमंडल में बने रहने में उनके व्यवहारिक मस्तिष्क को कोई हानि नहीं दिख रही थी। बदले में उन्हें माउंटबेटन के रूप में ब्रिटिशों का नैतिक समर्थन व ब्रिटिश तंत्र का सक्रिय सहयोग मिल रहा था।
इस सहयोग का पहला कदम था, 4 जून 1947 को माउंटबेटन की विशाल प्रेस कॉन्फ्रेंस जिसमें सभी रजवाड़ों व नवाबों को भी बुलाया गया और स्वयं माउंटबेटन ने तीन विकल्प दिये–
1- भारत में विलय
2- पाकिस्तान में विलय
3- स्वतंत्र सार्वभौम राज्य की घोषणा
परंतु रियासतों का ध्यान प्रथम दो विकल्पों को छोड़कर तीसरे विकल्प में ज्यादा था और उत्साहित होकर हैदराबाद के निजाम व भोपाल के नवाब जैसे बड़े राज्यों से लेकर बिलासपुर जैसी छोटी रियासतों ने भी स्वतंत्र निरंकुश राजतंत्र का स्वप्न देखना प्रारंभ कर दिया।
भोपाल के नवाब और हैदराबाद के निजाम ने तो 5 जून को और त्रावणकोर ने 11 जून को स्पष्ट घोषणा कर दी कि 15 अगस्त1947 के बाद वे स्वतंत्र हो जाएंगे।
परंतु माउंटबेटन अभीतक अपने वादे पर कायम थे और उनके सहयोग का दूसरा कदम था– ‘5 जलाई 1947 को रियासती विभाग की स्थापना और उसे सरदार पटेल के प्रभार में सौंपने का समर्थन’।
सरदार का एक अद्भुत गुण व्यक्तियों की परख और उनका उचित स्थान व उचित समय पर प्रयोग भी था और इसका परिचय देते हुये उन्होंने इस विभाग में नेहरू द्वारा संस्तुत एच. वी. आयंगार के स्थान पर वी.पी.मेनन की नियुक्ति की जिनपर माउंटबेटन बहुत निर्भर रहते थे। सरदार उन्हें उनकी योग्यता के अतिरिक्त उन्हें वायसरॉय और स्वयं के बीच सम्पर्कसूत्र के रूप में भी देखते थे और मेनन ने उन्हें कभी निराश भी नहीं किया।
सरदार पटेल ने भारत के एकीकरण हेतु साम, दाम, दंड, भेद सभी नीतियों का उपयोग किया।
सर्वप्रथम ‘साम नीति’ का प्रयोग करते हुये 5 जुलाई को सरदार ने बहुत नरम शर्तों पर नवाबों, नरेशों को भारत में विलय का आह्वान किया।
परंतु 18 जुलाई 1947 में ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित होने के साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप में राजनैतिक चूहा बिल्ली का खेल शुरू हो गया। भोपाल, त्रावणकोर, हैदराबाद तो स्वतंत्रता की घोषणा कर चुके थे साथ ही धौलपुर, अलवर आदि कुछ रियासतें भी यही स्वप्न देखने लगीं।
अपने सहयोग के वचन के अनुरूप माउंटबेटन ने 25 जुलाई 1947 को नरेंद्र मंडल की अंतिम बैठक बुलाई और भारत के राजाओं को भारत में विलय का आह्वान किया। अपनी ‘साम नीति’ के अनुरूप सरदार पटेल ने राजाओं से देशभक्तिपूर्ण त्याग प्रदर्शित करने और राष्ट्रीयता की पुकार को स्वीकारने का आह्वान किया इसके साथ ही उन्होंने ‘दाम नीति’ का प्रयोग करते हुए ‘प्रिवी पर्स और राजाओं के विशेषाधिकारों की रक्षा’ का भी वचन दिया। अधिकांश छोटे राजा उनके इस वचन से प्रभावित होकर भारत में विलय के लिए तैयार होने लगे।
परंतू इधर भोपाल के नवाब हमीदुल्लाखां के उकसावे पर जोधपुर के राजा जिन्ना के प्रलोभन पर पाकिस्तान में विलय के प्रस्ताव पर डांवाडोल हो रहे थे और बीकानेर व जैसलमेर के शासक जोधपुर के इस युवा महत्वाकांक्षी राजा की ओर ताक रहे थे, परंतु सरदार पटेल की सजगता, जोधपुर के दीवान व राजमाता और उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह जी द्वारा हनुवंतसिंह को देशभक्ति का पाठ पढ़ाती हुई ‘#ऐतिहासिक_फटकार’ के कारण वे लज्जित हो गए और उन्हें सद्बुद्धि आ ही गयी।
बीकानेर पहले ही इस त्रिगुट से अलग हो चुका था अतः 6 अगस्त 1947 को बीकानेर नरेश सादुल सिंह के हस्ताक्षरों से विलय का क्रम प्रारंभ हुआ और इसके बाद तो विलयपत्रों पर हस्ताक्षरों की श्रृंखला प्रारम्भ हो गई।
कई नाटकीय घटनाक्रमों के बाद अंततः जोधपुर नरेश हनुवंत सिंह ने भी विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।अन्य राजा पहले ही सहमत हो चुके थे। जयपुर नरेश ने तो यूरोप से ही विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर भेज दिये। अब केवल संयुक्त राजस्थान का गठन शेष था जिसकी नींव ‘मत्स्य संघ’ के रूप में पहले ही डाली जा चुकी थी।
बस्तर के युवा राजा को निजाम के दुष्चक्र से निकालकर सहज रूप से भारतीय संघ में सम्मिलित होने को राजी किया।
उड़ीसा के 23 और नागपुर के 38 ‘सेब’ सहज ही सरदार की टोकरी में आ गये।
मध्यभारत के ग्वालियर, इंदौर और विंध्य की रियासतों ने भी समर्पण कर दिया।
सौराष्ट्र मंडल में भी ‘नवानगर’ के ‘अंकल जाम साहब’ को साथ उनके भाई कर्नल हिम्मतसिंह के माध्यम से ‘साम और दामनीति’ द्वारा साधा जिसका सुफल यह हुआ कि जूनागढ़ को छोड़कर समस्त सौराष्ट्र क्षेत्र के 222 से अधिक राजाओं ने विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।
इस एकीकृत सौराष्ट्र का गठन कर उन्होंने अपने गुरु गांधीजी की इच्छा पूर्ण कर अपनी ‘गुरुदक्षिणा’ भी अर्पित की। बड़ौदा के गायकवाड़ ने फूट फूट कर रोते हुए भी अंततः विलयपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।
इसके बाद पटेल मुंबई पहुंचे और दक्षिण भारत की रियासतों को समेट लिया।
परंतु त्रावणकोर के राजा पर सरदार पटेल के सद्परामर्शों और उचित शर्तों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने 11जून से ही एक सार्वभौम शासक की भांति व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया। अंततः सरदार ने त्रावणकोर के शासक को चेतावनी दी और ‘अचानक’ वहाँ विलय के समर्थन में उग्र आंदोलन प्रारंभ हो गया यहां तक कि एक ‘उग्र देशभक्त’ ने “ओरसिनी” के इतिहास को दोहराते हुए राजा पर छुरे से वार किया। भयभीत राजा ने विलयपत्र पर 12 अगस्त को हस्ताक्षर कर दिये। लगे हाथों सरदार पटेल ने कोचीन राज्य से विलयपत्र पर हस्ताक्षर करवाकर त्रावणकोर से मनमुटाव भी खत्म करवा दिया जिससे दक्षिण के राज्यों की पुनर्रचना में बाधा ना पड़े।
इसके बाद सरदार पंजाब पहुंचे और पटियाला सहित पंजाब की रियासतों के सामने विलयपत्र रख दिये। पटियाला की खाली खजाना नरेश ने हस्ताक्षर कर दिये परंतु फरीदकोट के नवाब ने थोड़ी हेकड़ी दिखाई। सरदार ने नक्शे पर फरीदकोट पर पेंसिल से लाल घेरा बनाया और नितांत इतिमीनान से पूछा,” क्या चाहते हैं?”
कुछ ही क्षणों बाद फरीदकोट रियासत भारत का अभिन्न अंग बन चुकी थी।
अब केवल चार रियासतें शेष थीं।
#जूनागढ़, #कश्मीर, #हैदराबाद और #भोपाल
जूनागढ़ के बाबी वंश के श्वानप्रेमी सनकी नवाब महाबतखान तृतीय ने 99% हिंदू प्रजा की भावना को कुचलकर 14 अगस्त 1947 में पाकिस्तान में अपनी रियासत का विलय घोषित कर दिया जिससे जनता बौखला उठी और सरदार पटेल की शह पर प्रबल जनांदोलन प्रारंभ कर दिया। नवाब की हठधर्मिता देखकर सरदार पटेल ने भी सख्ती दिखाते हुए 9 नवंबर 1947 को पुलिस कार्यवाही की और और नवाब अपने कुत्तों के साथ पाकिस्तान भाग खड़ा हुआ और जूनागढ़ का भारत में विलय हो गया। बाद में 20 फरवरी 1948 को जनमत संग्रह में इस विलय की पुष्टि कर दी गई।
कश्मीर विलय का मामला काफी पेचीदा था और उसे सरदार पटेल द्वारा कार्यान्वयित भी नहीं कराया जा सका क्योंकि प्रथम तो कश्मीर मामले को प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने हाथों में ले रखा था और द्वितीय उस समय तक माउंटबेटन ‘दो सेबों’ — ‘कश्मीर और हैदराबाद’ को बदली हुई अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में, सरदार की टोकरी में ना पहुंचने देने की ठान चुके थी।
कश्मीर के राजा हरि सिंह डोगरा जिन्ना और नेहरू दोंनों से अपनी नफरत के चलते ना भारत में मिलना चाहते थे और ना पाकिस्तान में बल्कि वे कश्मीर को ‘पूर्व का स्विट्जरलैंड’ बनाकर अपने राजवंश को कायम रखना चाहते थे। माउंटबेटन ने इस बीच अपने पूर्ववर्ती रुख से हटकर महाराजा को भारत या पाकिस्तान दोंनों में से एक को चुनने की ‘सलाह’ दी जबकि इससे पूर्व वे नरेशों को भारत में विलय का प्रोत्साहन देते रहे थे।
प्रारंभ में सरदार जनसांख्यिकी वितरण के अनुसार रियासतों का विलीनीकरण करवाने हेतु प्रतिबद्ध रहे थे जिसे रामचंद्र गुहा ने सरदार द्वारा मुस्लिम बहुल कश्मीर को पाकिस्तान को दे देने की रजामंदी के रूप में प्रस्तुत किया है। लेकिन पहले जोधपुर प्रकरण और फिर जूनागढ़ प्रकरण से चिढ़कर उन्होंने पूर्णतः कठोर रवैया अपना लिया। इसकी पुष्टि 17 अगस्त 1947 से प्रभावी हुई ‘रैडक्लिफ लाइन’ द्वारा सामरिक महत्व के जिले गुरुदासपुर के हाथ आते ही वहां कश्मीर को जाने वाली सड़क की ताबड़तोड़ मरम्मत के आदेश से पता लगता है। सरदार पटेल ने स्पष्ट रूप से इसे भारी सैन्य उपकरणों के त्वरित परिवहन हेतु मजबूत और तेजी से बनाने का आदेश दिया था। इससे स्पष्ट है कि उन्हें साफ तौर पर या तो पता था या अंदेशा था कि पाकिस्तान कश्मीर पर आक्रमण अवश्य करेगा और तब भारतीय सैन्य कार्यवाही के लिये इस सड़क की बहुत ज्यादा आवश्यकता पड़ेगी।
सरदार पटेल की आशंका सत्य निकली। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों के नेतृत्व में कबायलियों ने कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की सेना के मुस्लिम सैनिक कबायलियों से जा मिले और वे सब 24 अक्टूबर तक बारामुला तक आ पहुंचे।
विवश महाराज हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद मांगीं।परंतु जिन ‘एक दो सेबों’ को माउंटबेटन ने सरदार की टोकरी से बाहर रखने की छूट मांगी थी उनमें कश्मीर भी था। ऐसा प्रतीत होता है कि माउंटबेटन किन्ही ‘अज्ञात कारणों’ से कश्मीर को पाकिस्तान को देना चाहते थे। ऐसा तब और स्पष्ट हो जाता है जब उन्होंने नेहरू को कश्मीर तक सैन्य सहायता तब तक ना पहुंचाने की सलाह दी जब तक कि महाराजा विलयपत्र पर हस्ताक्षर नहीं कर देते।
सबकुछ गहन शांति से घटनाक्रम को देख रहे सरदार पटेल सहसा हरकत में आये। कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन के साथ उन्होंने मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर विलयपत्र पर लेने भेजा। एयरचीफ मार्शल बुशर को एक विमान स्वयं को और अन्य शेष विमान सेना ले जाने के लिये रखने का आदेश दिया।
मेनन विलय पत्र पर हस्ताक्षर लेकर लौट आये और वे स्वयं भी श्रीनगर को निकल पड़े। जम्मू में महाराजा से मिलकर जब वे लौटे तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों द्वारा हवाई पट्टी की चमत्कारिक रूप से मरम्मत की जा चुकी थी जिसपर भारतीय सेना के विमान उतर रहे थे। श्रीनगर की जनता ने भारतीय सेना का मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया। कबायलियों पर भारतीय सेना का प्रत्याक्रमण शुरू हो गया था और वे अब पीछे भाग रहे थे।
कश्मीर अब सुरक्षित था और अब उसके भारत के अभिन्न अंग बनने में किसी को शंका नहीं थी।लेकिन माउंटबेटन इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं थे और उन्होंने इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने के लिए नेहरू को बड़ी आसानी से राजी कर लिया। अंतिम मिनिट तक इस रेडियो प्रसारण को रोकने के लिये सरदार ने अपने निजी सचिव शंकर को दौड़ाया परंतु……..
अब बारी हैदराबाद की थी। 82698 वर्गमील का लंबा चौड़ा भूक्षेत्र, 87% हिंदू आबादी जिसका शासन मध्यएशिया से आये आक्रांताओं का एक वंशज उस्मान अली आसफजा जो ‘निजाम’ और ‘हिज एग्जालटेड हाइनेस’ की पदवी के साथ निरंकुश रूप से चला रहा था और उसकी मुख्य ताकत थे ‘मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन’ के रजाकार और उनका कर्ताधर्ता कासिम रिजवी जो उसका मुख्य सलाहकार भी था।
हैदराबाद को पूर्ण रूप से स्वतंत्र और संप्रभु ‘इस्लामी निजाम’ बनाने को संकल्पित राजाकार गुंडों ने अधिसंख्यक परंतु शांतिपूर्ण हिंदुओं पर अत्यचारों के पहाड़ तोड़ दिये और तब स्थिति सरदार के लिए असह्य हो गई।
इससे पूर्व 1948 में ही माउंटबेटन ने हैदराबाद को बचाने की आखिरी कोशिश की और जिसे सरदार ‘पेट का फोड़ा’ कहते थे उस हैदराबाद की स्वायत्तता के लिए सरदार को मना लिया और सरदार ने एक रहस्यमय मुस्कुराहट के साथ फाइल पर हस्ताक्षर कर दिये परंतु उनकी इस मुस्कुराहट का राज तब खुला जब रिज़वी की सलाह पर निजाम इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और संसार भर से हथियार खरीदने और अन्य देशों से मान्यता प्राप्त करने की कोशिशें शुरू कर दीं। उसकी इस हरकत ने सरदार के लिए ‘ऑपरेशन पोलो’ के दरवाजे खोल दिये। इस बार सरदार ने नेहरू की इस विवाद को शांतिपूर्वक सुलझाने की सलाह को उपेक्षित कर दिया और भारतीय सेना 17 सितंबर 1948 को हैदराबाद में घुस गईं। निजाम की भारत से निबटने तथाकथित तैयारियां फुस्स साबित हुईं और सिर्फ 5 दिन में ही ऑपरेशन पूर्ण हुआ और निजाम के विलयपत्र पर हस्ताक्षर के साथ ही हैदराबाद भारत का अभिन्न अंग बन गया।
अब अंत में बचा था भोपाल जिसके नवाब हमीदुल्ला खान ने मार्च 1948 में अपनी आजादी की घोषणा की।इससे पूर्व भी उसने जोधपुर आदि कई राज्यों को पाकिस्तान में विलय या रियासतों का संघ बनाकर उन्हें भारत से अलग रखने की कोशिशें की थीं। तमाम भारत विरोधी हरकतों के बावजूद नवाब जिन्ना व नेहरू से अपने घनिष्ठ संपर्कों के दम पर अब तक अपने अस्तित्व को बचाये हुआ था। परंतु जनमत तेजी से उसके विपरीत होता जा रहा था और यहाँ तक कि उसके द्वारा नियुक्त राज्य के प्रधानमंत्री चतुरनारायण मालवीय भी विलय के पक्ष में हो चुके थे। सरदार द्वारा अभिप्रेरित विलाद के समर्थन में उग्र होते आंदोलन और भोपाल में ही जमकर बैठे वी पी मेनन का दवाब वह नहीं झेल सका और इस दवाब तथा दिनकर जोशी द्वारा उल्लेखित घटना के अनुसार दिल्ली में गुस्से से भरे शरणार्थी दंगाइयों से अपनी पुत्री के प्राण बचाने के एवज में ‘भयपूर्ण कृतज्ञता’ के साथ 30 अप्रैल 1949 को विलय पत्रों पर हस्ताक्षर कर दिये।
भोपाल के विलय के रूप में अंतिम आहुति के साथ ही सरदार पटेल द्वारा भारत के राजनैतिक एकीकरण का महायज्ञ पूर्ण हुआ और भारत निश्चिन्त होकर अपने प्रगतिपथ की ओर बढ़ सका।
इसके बाद सरदार पटेल अधिक नहीं जिये। उनका स्वास्थ्य पहले से ही खराब था और गांधीजी की मृत्यु के पश्चात उन्हें दिल का दौरा भी पड़ा था।
शासन व्यवस्था में भी अल्पसंख्यक समस्या, आर एस एस, सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण, धारा 370, राष्ट्रपति पद पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद की नियुक्ति आदि पर उनके नेहरू से गंभीर मतभेद हो चुके थे और शक्तिशाली होकर भी अपनी शक्ति का प्रयोग ना करने व गांधीजी को दिये वचन के कारण मन ही मन घुटते रहते थे और अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पाते थे।
अंततः अपना महत्कार्य पूर्ण कर उन्होंने 15 दिसंबर 1950 को मुंबई में महाप्रयाण किया।
सरदार ने क़भी कोई किताब नहीं लिखी क्योंकि उनका जीवन एक खुली किताब थी। राजनीति में होते हुए भी वे असत्य संभाषण, वचनभंग और विश्वासघात से दूर रहे। अपने स्पष्ट वक्तव्यों व निर्भीक विचारधारा के कारण उन्हें गांधीजी का मौन क्रोध झेला, लगभग हाथ आया प्रधानमंत्री पद त्यागा और यहां तक कि उन पर ‘दक्षिणपंथी’ और ‘ सांप्रदायिक’ होने के आरोप लगाये गए, मरणोपरांत भी उनकी, उनके नाम की, उनकी विरासत और उनके स्मृतिस्थलों की घोर उपेक्षा की गई, परंतु इस प्रातःस्मरणीय महापुरुष का वास्तविक यश भारत के मानचित्र में निहित है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक और द्वारिका से कोहिमा तक संपूर्ण भारत ही सरदार पटेल का स्मारक है, उनकी विशालतम नवनिर्मित लौह प्रतिमा ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ तो भारतवासियों के ह्रदयों में उनके स्थान को प्रतिबिंबित करने का माध्यम भर है।
आधुनिक समय में यदि हम पुनः एक राष्ट्र के रूप में खड़े हैं तो इसका श्रेय आपको जाता है सरदार। वस्तुतः हमारे ह्रदय में आपका स्थान आपकी इस लौहमूर्ति से भी ऊंचा है जिसके जरिये हम आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने का प्रयास कर रहे हैं।
कृतज्ञ राष्ट्र का कोटि कोटि प्रणाम।