प्रोफेसर इमेरिटस रोमिला थापर अपने संस्कृत-फारसी ज्ञान पर सवालों के जवाब कब देंगीं?
श्रीराम जन्मभूमि मंदिर मामले में अनधिकार टांग अड़ाकर अपनी मिट्टी पलीद कराने वाली प्रोफेसर रोमिला थापर के संस्कृत ज्ञान पर उठा सवाल बेहद गम्भीर है। याद है ना, सुप्रीम कोर्ट में इन्हें स्वीकार करना पडा था कि पुरातत्व से उनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है फिर भी विशेषज्ञ बनकर बाबरी मस्जिद के पक्ष में अपनी राय देने पहुंच गई थी-
वकील जे साई दीपक के एक वीडियो क्लिप के वायरल होने के बाद से रोमिला थापर सोशल मीडिया में ट्रेंड कर रही हैं। इस पूरे प्रकरण को राइट बनाम लेफ्ट के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ज्यादातर लोग दोस्त या दुश्मन के दो सरल वर्गों में बाँटकर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। किसी वकील की किसी इतिहासकार पर अमर्यादित टिप्पणी का कोई अकादमिक महत्व नहीं है लेकिन रोमिला थापर के संस्कृत ज्ञान पर पिछले कुछ सालों से जो सवाल बार-बार उठ रहा है वह गम्भीर अकादमिक विचार का विषय होना चाहिए।
कोरियाई भाषा एवं साहित्य के विद्वान प्रोफेसर पंकज मोहन ने कुछ समय पहले एक फेसबुक पोस्ट में प्रोफेसर J.W. deJong को याद किया। प्रोफेसर पंकज मोहन के अनुसार प्रोफेसर डि-योंग “बौद्ध धर्म पर पीएचडी कोर्स में सिर्फ वैसे छात्रो को दाखिला देते थे जिन्हें बौद्ध ग्रंथों की चार प्रमुख भाषाओं– पालि, संस्कृत, चीनी और तिब्बती– में दक्षता प्राप्त थी और बौद्ध विद्या के आधुनिक डिसकोर्स की तीन प्रमुख भाषाओं — अंग्रेजी, फ्रेंच और जापानी – पर अधिकार था।”
प्रोफेसर डि-योंग असाधारण प्रतिभाशाली थे। विकिपीडिया के अनुसार वो कई भाषाओं में निष्णात थे। हर शोधार्थी में इतनी प्रतिभा नहीं होती, फिर भी उम्मीद की जाती है कि शोधार्थी शोध के प्राथमिक स्रोत की भाषा में निष्णात हो। अमेरिका एवं यूरोप के कई नामी विद्यापीठ में उम्मीद की जाती है, शोधार्थी प्राथमिक स्रोत की भाषा और अपनी भाषा के साथ ही दो अन्य आधुनिक भाषाओं से भी परिचित हो यानी कम से कम पढ़कर उन्हें समझ सके।
प्रोफेसर रोमिला थापर के संस्कृत ज्ञान पर पहले भी प्रश्न उठाए जा चुके हैं जिनका उन्होंने आज तक संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया है। प्रोफेसर पुष्पेश पन्त एक संवाद में रोमिला थापर के संस्कृत और फारसी ज्ञान पर सवाल उठा चुके हैं। आज ट्विटर पर प्रोफेसर प्रभात रंजन ने इस विषय पर टिप्पणी करते हुए लिखा, “प्रसिद्ध विद्वान वागीश शुक्ल का एक लेखा है जिसमें उन्होंने यह बताया है कि किस प्रकार संस्कृत की जानकारी नहीं होने के कारण उनकी अनेक व्याख्याएँ गलत हैं। उन्होंने सोदाहरण यह लेख अंग्रेज़ी में लिखा था लेकिन किसी पत्रिका ने नहीं छापा। बाद में उसका हिंदी करके पूर्वग्रह ने छापा।”
प्रोफेसर पंकज मोहन ने बताया है कि प्रोफेसर J.W. deJong ने ही प्रोफेसर एएल बाशम की ऑस्ट्रेलिया नैशनल यूनिवर्सिटी में नियुक्ति करके वहाँ भारत अध्ययन विभाग की नींव रखी थी। संयोग की बात है कि प्रोफेसर बाशम प्रोफेसर थापर के पीएचडी गाइड रहे थे। जहाँ तक मेरी जानकारी है, प्रोफेसर रोमिला थापर को संस्कृत की उतनी ही जानकारी है जितनी उन्होंने पीएचडी कोर्सवर्क में ली होगी जिसे हम सर्टिफिकेट/डिप्लोमा लेवल संस्कृत कह सकते हैं। किसी विषय के इमेरिटस प्रोफेसर के प्राथमिक स्रोत का भाषा ज्ञान ऐसा विषय नहीं है जिसे टाला जा सके। अकादमिक जगत एवं सुधी पाठकों को यह जानने का पूरा हक है कि प्रोफेसर रोमिला थापर की संस्कृत में गति कैसी है।
इस प्रसंग के बारे में गूगल सर्च कर रहा था तो एक वीडियो-शार्टस नजर आया जिसमें पत्रकार सौरभ द्विवेदी जेएनयू से इतिहास में पीएचडी धारी रुचिका शर्मा से इस बाबत सवाल पूछ रहे हैं। सौरभ के सवाल पर रुचिका शर्मा ने बला की मासूमियत से कहा, “रोमिला थापर जो हैं उनकी जो स्कॉलरशिप है वह बहुत इम्पार्टेंट है। इसलिए नहीं कि उनको लैंग्वेज नहीं आती शायद, ये उनकी डिसएडवांटेज है भी तो कहीं न कहीं, यदि आप ध्यान से उनकी स्कॉलरशिप पढ़ें तो आप देखेंगे कि अगर वो किसी से ट्रांसलेशन से करवाती भी हैं किसी से तो वो प्राइमरी सोर्सेस से ही ट्रांसलेट करवाती हैं, तो उनकी ट्रांसलेशन पर आप त्रुटि नहीं निकाल सकते…ऐसा नहीं है कि अगर आपको लैंग्वेज नहीं आती है तो ट्रांसलेशन सोर्सेज के हो नहीं सकते…इतिहास जो है जब लिखा जाता है तो बहुत चीजों का समागन होकर लिखा जाता है, एक उसमें लैंग्वेज होती है, एक उसमें जियोग्राफी होती है और जरूरी नहीं है कि इतिहासकार सारी चीजें में एक्सपर्ट हो..मुझे इतिहासकार बनने से पहले मुझे जियोग्राफर भी बनना पड़ेगा, मुझे इतिहासकार बनने से पहले सोशियोलॉजिस्ट भी बनना पड़ेगा…”
यह वही रुचिका शर्मा हैं जो पिछले दिनों ट्विटर पर रानी पद्मिनी से जुड़ी अपने अभद्र टिप्पणियों और वल्गर इंटरप्रिटेशन के लिए विवादों में रही थीं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से पीएचडी करने वाली रुचिका शर्मा के विचारों को प्रोफेसर डि-योंग के विचारों के समानांतर रखकर देखें तो बात साफ होती है। जेएनयू इतिहास विभाग से पीएचडी धारक अपने शोध विषय की प्राथमिक भाषा के समुचित ज्ञान को आवश्यक नहीं समझता। उसकी नजर में प्राथमिक स्रोत की भाषा आए तो अच्छा, न आए तो भी कोई बात नहीं क्योंकि वह ट्रांसलेशन करा लेगा! क्या दुनिया के किसी दूसरे नामी विद्वान का उदाहरण कोई दे सकता है जो ट्रांसलेशन (मूलतः इंग्लिश ट्रांसलेशन) के सहारे किसी विषय का इमेरिटस प्रोफेसर या अथॉरिटी मान लिया गया हो?
कई गम्भीर जन भी रोमिला थापर के संस्कृत ज्ञान के सवाल पर दाएँ-बाएँ करते नजर आते हैं। उनके लिए रोमिला थापर का उद्धरण दिया जा रहा है ताकि वो अपने रुख पर पुनर्विचार कर सकें। ये कथन है प्रोफेसर रोमिला थापर का, “ज्ञान की हर शाखा का मूल काम यह महसूस कराना है कि आपको सवाल उठाना होगा, आपको मौजूदा ज्ञान पर सवाल उठाना होगा। यदि आप मौजूदा ज्ञान पर सवाल नहीं उठाते हैं तो आप अपने विषय में प्रगति नहीं कर सकते।”
स्पष्ट है कि सवाल सब पर उठेंगे। प्रोफेसर रोमिला थापर भी उठेंगे। मुझे नहीं लगता है कि प्रोफेसर थापर ने कभी उन पर हिन्दी में उठे सवालों का जवाब दिया होगा। इसलिए उनसे जवाब की उम्मीद नहीं है लेकिन हिन्दी समाज में प्रोफेसर थापर के लिए जिरह करने वालों को कम से कम खुद इसका जवाब जान लेना चाहिए। पता नहीं प्रोफेसर रोमिला थापर को हिन्दी आती है या नहीं!
साभार: रंगनाथ सिंह