भारतीय चुनाव विश्लेषण और मुसलमान स्थायी तत्व, इस्लामी कारक

दो साल पहले

मुसलमानों के धार्मिक मुद्दे राजनीति का विषय नहीं रहे यह अच्छा, विश्लेषणों में अब M फैक्टर घुसाने से परहेज करें!

गुजरात और दिल्ली नगर निगम में मुस्लिम मतों की अच्छी खासी संख्या होने के बावजूद चुनाव में मुसलमान मतदाताओं के पसंद के मुद्दे नहीं खड़े हो पाए. हिमाचल में तो नाममात्र के मुस्लिम मतदाता हैं. स्वाभाविक है कि वहां मुसलमानों का कोई राजनीतिक मुद्दा ही नहीं था. अगर देखें तो बिल्कुल साफ़ नजर आ रहा है कि तीनों राज्यों में चुनावी लिहाज से मुस्लिम निरर्थक साबित हुए.
धार्मिक आधार पर हालिया चुनावी नतीजों के विश्लेषण को लिया जा सकता है
धार्मिक आधार पर हालिया चुनावी नतीजों के विश्लेषण को लिया जा सकता है
अनुज कुमार शुक्ला

नई दिल्ली,10 दिसंबर 2022,समाज और राजनीति में बहुत बदलाव आया है. चुनाव और उसके मुद्दे लगभग बदल चुके हैं. लेकिन एक चीज बदलने को तैयार नहीं है- चुनावों का स्टीरियोटाइप विश्लेषण. अब तमाम चुनावी विश्लेषण देखकर हंसी आती है. एक दशक पहले अखबार और टीवी के जमाने में ही यह ठीक और भरोसमंद नजर आता था. उस जमाने में जब फैक्ट चेक भी नहीं था. किसी चीज को क्रॉस चेक करने का मैकेनिज्म नहीं था. सिवाय इसके कि जो ज्ञान मिल रहा है आंख मूदकर उसे स्वीकार कर लीजिए. साक्षरता और समझ भी तो नहीं थी. मगर अब हर जेब में इंटरनेट होने की वजह से चुनावों से जुड़ा जितना डेटा किसी पत्रकार, विश्लेषक और पार्टी प्रवक्ताओं के पास नहीं होगा, हो सकता है कि वह डेटा आम मतदाताओं के पास हो. अब अंग्रेजी का भी भौकाल नहीं रहा कि कोई अंग्रेजीदा मनमाने विश्लेषणों से भारतीय भाषाई समाज में पब्लिक ओपिनियन तैयार करे. भाषाई आधार पर अब समाज में कमोबेश हर जाति और परिवार के अपने ओपिनियन मेकर हैं.

इसलिए बहुत जरूरी हो जाता है कि ओपिनियन एनालिसिस के नाम पर मीडिया को, पार्टी प्रवक्ताओं को और वित्तपोषित बुद्धिजीवियों को स्टीरियोटाइप से बाहर निकलना चाहिए. यह दौर सूचनाओं का समुद्र है. ऐसे में जबरदस्ती करना लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए ठीक नहीं. वर्ना तमाम संस्थाओं, व्यक्तियों की बची-खुची प्रासंगिकता खोने का खतरा है. क्योंकि ऐसे विश्लेषण, मौजूद तथ्यों और समाज की सोच से बिल्कुल मेल नहीं खाते. समाज जिस भाषा और विचार से उसे समझना चाहता है, वह नहीं होता. ऐसे विश्लेषणों से निकले निष्कर्ष भ्रमित करते हैं और निराश करते हैं. लोकतंत्र में विकासोन्मुखी और सबकी भागीदारी वाले विचार को नुकसान पहुंचाते हैं. बावजूद प्राय: देखने को मिलता है कि कुछ लोग मनमानी से बाज नहीं आते. क्यों भला?

उदाहरण के लिए धार्मिक आधार पर हालिया चुनावी नतीजों के विश्लेषण को लिया जा सकता है. विश्लेषण की जमीन धार्मिक है लेकिन निष्कर्षों में सारी चिंताएं सिर्फ मुसलमानों की दिखती है. यह दुर्भाग्य है. जबकि भारत के तमाम राज्यों में अन्य अल्पसंख्यक धार्मिक समूह भी हैं, लेकिन उन्हें फोकस कर एक भी विश्लेषण नहीं दिखेगा. गुजरात में ‘जैनियों’ की अच्छी खासी संख्या है, पारसी भी हैं- लेकिन गारंटी है कोई विश्लेषण उन्हें लेकर नहीं मिलेगा. क्योंकि अल्पसंख्यक समूह का होने के बावजूद उनमें ध्यानाकर्षण वाले तत्व नहीं हैं.

मजेदार यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इनकी सकारात्मक भूमिका और सहयोग दिखता है. मगर उसे चुनावी लिहाज से एक गैरजरूरी धार्मिक समुदाय मान लिया गया है. दूसरी तरह लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को लेकर मुसलमान मतदाताओं की सोच इसके ठीक उलट है. उनकी व्यवस्थाओं को मजबूत करने वाली चुनावी भूमिका नजर नहीं आती, लेकिन निष्कर्षों की सबसे बड़ी यूएसपी बनकर निकलते हैं. मजेदार यह भी है कि चुनाव दर चुनाव निर्णायक वोट के रूप में उनका कोई वजूद नहीं रहा.

आगे बढ़ें, उससे पहले एक चीज बिल्कुल साफ़ कर देना चाहता हूं कि मुसलमान होना और मुसलमानों के राजनीतिक मुद्दे दो अलग चीजें हैं. और यह पूरी तरह स्पष्ट और प्रत्यक्ष है कि मुसलमानों के राजनीतिक मुद्दे, वह चाहे जिस भाषा भाषी, धर्म, पंथ, संस्कृति का हो- भारतीय समाज से बिल्कुल मेल नहीं खाते. 

गुजरात और दिल्ली निगम में मुस्लिम मतों की अच्छी खासी संख्या होने के बावजूद चुनाव में मुसलमान मतदाताओं के पसंद के मुद्दे नहीं खड़े हो पाए. हिमाचल में तो नाममात्र के मुस्लिम मतदाता हैं. स्वाभाविक है कि वहां मुसलमानों का कोई राजनीतिक मुद्दा ही नहीं था. अगर देखें तो बिल्कुल साफ़ नजर आ रहा है कि तीनों राज्यों में चुनावी लिहाज से मुस्लिम निरर्थक साबित हुए. और यह ताजा उदाहरण बिल्कुल नहीं है. पश्चिम बंगाल जैसे कुछ नतीजों को छोड़ दिया जाए तो एक दशक से ना जाने कितने चुनावों में मुसलमान मतों की रचनात्मक भूमिका नहीं दिखी. उनका कोई असर नहीं दिखा. लेकिन वीर बहादुरों के विश्लेषणों को देखिए तो लगता है देश की राजनीतिक धुरी मुसलमान और उनके राजनीतिक मुद्दे हैं.

दुर्भाग्य से उनके तमाम राजनीतिक मुद्दे समाज विरोधी हैं. निष्कर्ष में उनके महत्व की स्थापना देख लीजिए. या तो तमाम लोगों में अब क्षमता नहीं रही कि ईमानदारी से चीजों को देखकर समाज को बताएं. या वे अपने ओहदे का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं- निजी फायदों के लिए. दुनिया की राजनीति जिस तरह बदल रही है- भारत के लिहाज से यह ठीक बात नहीं है.

स्टीरियोटाइप विश्लेषण में होता क्या है?

हालिया स्टीरियोटाइप विश्लेषण देखकर ऐसा लग रहा कि हारे या जीतें, मुसलमान मतदाता ही देश की राजनीति और भविष्य के मुद्दे तय कर सकते हैं. और मुद्दा भी क्या? ख़ास लिबास का, ख़ास बोली भाषा, ख़ास संस्कृति, और खानपान का. पाषाणकालीन सामाजिक व्यवस्थाओं का. निष्कर्षों से उन्हें अधिकार मिल जाता है कि भारतीय समाज भविष्य में किन मुद्दों पर राजनीति करेगा. जिन्हें राजनीति में फांसीवाद से फिलहाल चिंता हो फरही है और भारत एक टूटा हुआ और बिखरा हुआ देश नजर आ रहा है- यह सब उन्हीं निष्कर्षों की प्रतिक्रिया भर है. सीधी और स्पष्ट बात यही है.

बावजूद कि कई फिरकों, टुकड़ो में बंटे होने, आरक्षण लेने, भविष्य में और आरक्षण की चाह रखने के बावजूद मुसलमानों को एक ईकाई के रूप में ही देखने की अनिवार्य परंपरा बना दी गई. संविधान के मूल्यों का सीधा उल्लंघन है या. समझ नहीं आता कि किस तर्क और मुंह से दूसरे वर्गों को विध्वंसक खांचों में बंटा करार दे दिया जाता है. गुजरात के विश्लेषण को गौर से देखिए. गुजरात में एक पार्टी लगातार सत्ता के शीर्ष पर कायम है, दशकों से. मुस्लिम एंगल की वजह से यह पता ही नहीं चल पा रहा कि आखिर भाजपा की लगातार जीत के पीछे क्या है? लोगों को एक दो चुनाव तक मूर्ख बनाया जा सकता है. गुजरात को देखकर ऐसा लग रहा कि लोग जवानी से बुढापे की दहलीज पार कर चुके, मगर किन्हीं वजहों से पार्टी बदलने को तैयार नहीं हैं. क्यों? हमें पता नहीं. मोदी चाहे जो वजह बताएं, चूंकि वे नेता हैं तो हम नहीं मान सकते हैं.

मगर जिनकी जवाबदारी है वे तो ईमानदारी से बता सकते हैं. या अभी भी यही कहेंगे कि आप, कांग्रेस, ओवैसी और सभी निर्दलीय एक होकर लड़ते तो गुजरात में भाजपा की जीत नहीं होती. सवाल है कि फिर एक होकर हर चुनाव क्यों नहीं लड़ लेते. और चुनाव तो यूपी में भी बसपा-सपा ने एक होकर लड़ा. फिर बार-बार यह फर्जी निष्कर्ष क्यों निकाल लाते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसे विश्लेषण जानबूझकर थोपे जाते हैं. क्योंकि विश्लेषणों से निकले झूठे सैम्पल्स की मदद से राजनीतिक दलों तक समाज की सही सोच को पहुंचने से रोक दिया जाता है. ऐसे विश्लेषण चुनाव से पहले ही शुरू हो जाते हैं. किसी राज्य में चुनाव की घोषणा होने के बाद मुस्लिम मत कितने प्रतिशत हैं और चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी, कोई ओवैसी, किसी पीस पार्टी की क्या भूमिका होगी- हवा हवाई एनालिसिस आने लगते हैं. किसी एक आम-ख़ास के मुंह में चैनल का बूम घुसाकर उसकी आवाज को समाज की आवाज बना दिया जाता है. भूसा और गेहूं में फर्क नहीं जानने वाले कुछ अंग्रेजीदा उसी एक आवाज को सैद्धांतिक रूप दे देते हैं. गुजरात में देखिए कि चुनाव से पहले तक ओवैसी लगभग हर रोज हर टीवी चैनल पर नजर आते थे, लेकिन मतगणना में उन्हें तवज्जो ही नहीं मिली.

बर्बादी की कगार पर पहुंच चुके अखिलेश को अब भी समझ नहीं

मुस्लिम एंगल से विश्लेषणों का अपना एजेंडा है. असल में यह सिर्फ इसलिए है कि भारतीय राजनीति में किसी दल की तरफ झुंड के झुंड मुसलमान मतों के जाने का भ्रम बना रहे. यह भ्रम बना रहे ताकि भारत के विचार का विरोध करने वाली राजनीति मजबूत बनी रहे. जिसे सत्ता में आना हो, उसकी मजबूरी है कि अपने कुनबे का थोड़ा वोट जुटाकर मुसलमानों के मुद्दे पर राजनीति करे और सत्ता की मलाई खाए. भले ही उसे अपने ही समाज का बंटवारा क्यों ना करना पड़े. यह समीकरण बहुत पहले ख़त्म हो चुका है. फिर भी विश्लेषणों से लगातार सुविधाजनक स्थापनाएं महज इसलिए होती हैं कि भारत का लोकतंत्र और राजनीति अपनी स्वाभाविक जरूरत के हिसाब से, स्थानीयता के हिसाब से और भूगोल के हिसाब से मुद्दों को निर्धारित ना कर पाए.

कांग्रेस समेत तीसरे दलों की बर्बादी के पीछे और भाजपा की बेशुमार कामयाबी के पीछे असल में यही एक बिंदु महत्वपूर्ण है. पिछले डेढ़ दशक में देश में इंटरनेट विस्तार के साथ भाजपा के शीर्ष पर जाने के रास्ते और पड़ाव देख लीजिए. रामपुर और मैनपुरी के उपचुनाव से अब इतना तो समझ ही सकते हैं कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सत्ता के बिल्कुल मुहाने पर खड़े थे. मगर आजम खान की नाराजगी का हौवा कुछ इस तरह खड़ा किया गया कि शिवपाल यादव तो उन्हें याद नहीं आए लेकिन सिर पर ‘जिन्ना का जिन’ सवार हो गया. उनकी तरफ आ रहे तमाम वोट बिदक गए. भाजपा को असल में विकल्पहीन जीत मिली थी वहां. वे अपराजेय नहीं थे. उन्हें हराया जा सकता था. निष्कर्षों की भूमिका क्या होती है, सपा की राजनीति में देखिए. तीनों राज्यों में मुस्लिम मुद्दों की कोई भूमिका नहीं रही. उनका मत मुस्लिम बहुल सीटों पर भी निर्णायक नहीं रहा.

शिवपाल की मदद से अखिलेश ने मैनपुरी रिकॉर्ड मतों से जीता लेकिन आजम खान रामपुर बचा नहीं पाए. शिवपाल सपा में जा चुके हैं. लेकिन यूसीसी पर रामगोपाल यादव ने एक दिन पहले ही साफ़ कर दिया कि वे मुसलमानों के धार्मिक मुद्दे को सुरक्षित करने के लिए लड़ाई लड़ेंगे. यूसीसी का विरोध करेंगे. अब पूछा जाए कि गैरकांग्रेसवाद और यूसीसी को लेकर डॉ. लोहिया और डॉ. आंबेडकर की क्या राय थी- तो कोई जवाब देने लायक नहीं है.

मुस्लिम बहुल सीटों की हकीकत क्या है और विश्लेषण कैसे हो रहा?

गुजरात की कुछ मुस्लिम बहुल सीटों का विश्लेषण कई मायनों में मजेदार है. एजेंडा भी साफ हो जाता है. बताया जा रहा है कि कैसे भाजपा के खिलाफ बेतहाशा मुस्लिम उम्मीदवारों की वजह से विपक्ष को नुकसान उठाना पड़ा. मानो बेतहाशा मुस्लिम उम्मीदवार नहीं होते तो भाजपा हार जाती. वह विपक्ष जो चुनाव से पहले सिर्फ थोक में मिलने वाले मतों की उम्मीद में गठबंधन नहीं कर पाता, चुनाव के बाद बताया जाता है कि अगर वे साथ लड़ते तो नतीजे अलग होते? गजब देश है. उदाहरण के लिए गुजरात की लिम्बायत, बापूनगर, वेजलपुर और सूरत ईस्ट जैसी कुछेक सीटों को सैम्पल बनाकर किए गए एनालिसिस का नमूना गूगल कर लीजिए. मजेदार यह है कि यहां तीनों बड़ी पार्टियों (भाजपा, कांग्रेस और आप) ने हिंदू उम्मीदवारों को ही टिकट देने में दिलचस्पी दिखाई.

लिम्बायत और वेजलपुर में तीनों पार्टियों ने हिंदू उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. ये सीटें भाजपा के खाते में गईं. यहां बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार थे. ओवैसी के भी. लेकिन जीतने वाले भाजपा उम्मीदवार की मार्जिन जितनी थी, सभी मुस्लिम प्रत्याशियों को मिले कुल मत भी उतने नहीं थे. सूरत ईस्ट में जरूर कांग्रेस ने मुस्लिम प्रत्याशी उतारा. बावजूद यहां भी हार-जीत के अंतर के बराबर दूसरे अन्य मुस्लिम उम्मीदवारों ने मिलकर भी वोट नहीं हासिल किया. और विश्लेषण क्या हो रहा है? अगर थोक के भाव में मुस्लिम उम्मीदवार नहीं होते तो इन सीटों पर विपक्ष जीत जाता. जबकि ईमानदारी से तो यही सवाल होना था कि मुस्लिम बहुल सीटों पर आखिर क्या वजह रही कि विपक्ष को भी हिंदू प्रत्याशी ही मैदान में उतारने पड़े?

गुजरात से रामपुर तक मतलब साफ़ है कि मुस्लिम मतदाता अब मुस्लिम बहुल सीटों पर भी निर्णायक नहीं रहे. और राजनीति का मुद्दा पूरी तरह से या तो राष्ट्रवाद है या फिर हिंदुत्व का. हिंदुत्व से तात्पर्य यहां भारतीय संस्कृति से है. और इसमें सभी धर्म हैं. जो भाजपा विरोधी दल जीत रहे हैं असल में वह भी इन्हीं मुद्दों पर आधारित है. कांग्रेस, आप का कायाकल्प आखिर क्या है? नतीजों की बड़ी बात यह भी तो है कि मुस्लिम बहुल सीटों पर भी राजनीतिक पार्टियां अगर ईमानदारी से जनता के मुद्दों पर लडे तो उन्हें वहां भी किसी मुस्लिम कैंडिडेट की जरूरत नहीं है. चुनाव से निकलने वाली असल चीजों को बताया ही नहीं जा रहा.

अब सवाल है कि जब मुलिम बहुल सीटों पर भी मुसलमान मत निर्णायक नहीं हैं तो ऐसे झूठे विश्लेषण क्यों और किस फायदे के लिए हो रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके जरिए भाजपा और कांग्रेस विरोधी, छोटे-छोटे दलों की राजनीति का एजेंडा सेट किया जा रहा है. ऐसे ही एजेंडा की वजह से तमाम राजनीतिक दल आज की तारीख में समाज से डिसकनेक्ट हो चुके हैं और लगातार प्रासंगिकता खो रहे हैं.

हिमाचल का भी एक उदाहरण देख लीजिए

हिमाचल के ही नतीजों को ले लीजिए. यहां मात्र 0.9 मतों के अंतर से सत्ता भाजपा के हाथ से फिसल गई. 0.9 प्रतिशत के अंतर ने भाजपा को 25 की संख्या में और कांग्रेस 40 के आंकड़े पर पहुंचा दिया. यहां कांग्रेस का कोई चेहरा नहीं था. राहुल गांधी गए नहीं. प्रियंका ने सिर्फ 4 सभाएं कीं, मगर यूं प्रचारित किया जा रहा कि हिमाचल में कांग्रेस के पक्ष में सुनामी थी. जबकि यहां भाजपा में आतंरिक खींचतान थी और सरकारी पेंशनर्स का एक साइलेंट वोट था. किसी को भनक तक नहीं लगी. मीडिया तक भांप नहीं पाया. आख़िरी वक्त में पेंशनर्स के स्विंग ने भाजपा को पटखनी दे दी.

विश्लेषण क्या आ रहे हैं, उठाकर देख लीजिए. यह साइलेंट वेव यूपी के विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्वी हिस्से में भी नजर आया था. उत्तराखंड में भी दिख रहा था. पेंशनर्स पिछले कुछ चुनाव से निर्णायक हो रहे हैं, मगर मुस्लिम एंगल पर विचार देने वाले उसे भांप तक नहीं पाए. उनके निष्कर्षों से किसी पार्टी को भला क्या मदद मिलेगी. अब हिमाचल के किस सैम्पल को आप भाजपा विरोधी दलों तक पहुंचाना चाहते हैं? हिमाचल पर आ रहे बुद्धिजीवियों के विश्लेषण को फिर गौर से देखिए. इसे गांधी परिवार के चरणों में समर्पित कर ऐतिहासिक घोषित कर दिया गया.

बिना मुस्लिम प्रत्याशी उतारे भी सीटें जीती जा सकती हैं

समझना मुश्किल नहीं कि लोकतंत्र के लिहाज से यह स्थिति किस कदर घातक है. इससे बचा नहीं गया तो हमारे लोकतंत्र का बहुदलीय स्वरुप नष्ट हो जाएगा और हम इसकी शिकायत भी नहीं कर सकते हैं. बहुत अच्छा है कि राजनीति में अब मुसलमानों के राजनीतिक मुद्दे नहीं हैं. होने भी नहीं चाहिए. यह हालिया जनादेश से निकली एक बहुत बड़ी बात है जिसे भाजपा विरोधी दलों को गौर से देखना चाहिए. छह दिसंबर बीत गया और पता भी नहीं चला. यह मामूली बात नहीं है. बावजूद कि प्रोपगेंडा चलाने वाले वित्त पोषित बुद्धिजीवी राजनीति में अभी भी बाबरी विध्वंस को पीछे छूटा नहीं मान रहे. उसे बार-बार याद कर अपनी मूर्खता प्रदर्शित कर रहे हैं.

हाल ही में एक उम्दा लेखक और बुद्धिजीवी पर नजर गई. उन्होंने तर्क दिए कि जब अयोध्या में राम से जुड़े ढेरो मंदिर मौजूद हैं- यह बात पचाने लायक नहीं कि बाबर ने जन्मभूमि तोड़कर मस्जिद बनाई होगी. या फिर तुलसी ने रामचरितमानस में उसका जिक्र क्यों नहीं किया? तुलसी जैसा राम प्रिय भला उस घटना को याद करने से कैसे चूक सकता है? सवाल बढ़िया है. लेकिन भारतीय परंपरा से अनभिज्ञ मूर्खों को कौन समझाएं कि सनातन व्यवस्था में ‘जन्मभूमि’ का मतलब और महत्व क्या है? सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ी जगह तो उसे ही माना जाता है. ‘जननी जन्मभूमिश्च’. उसके नहीं होने की भरपाई किसी चीज के होने से कभी नहीं की जा सकती. देश में लाखों शिव मंदिर हैं. मगर वह ज्ञानवापी के विश्वेश्वर’ की जगह नहीं ले सकते.

एक मिनट के लिए यह मान भी लिया जाए कि वहां मंदिर नहीं था. लेकिन यह तो असंभव है कि जिस राम को हजारों साल से पूरी दुनिया पूज रही है- उन्हीं राम के जन्मस्थान में ही उनके जन्मस्थान का कहीं जिक्र ही ना हो. कोई निशान ही ना हो. कहीं तो रहा होगा? बाबरी ढांचे के नीचे ना सही, जब दर्जनों मंदिर हैं वहां राम के नाम पर तो जन्मस्थान का भी कहीं कोई वजूद रहा ही होगा. सवाल है कि आखिर वह कहां है? मूर्खों को कौन समझाए कि रामचरित मानस, बाबरनामा नहीं है जो तुलसीदास वहां उसका जिक्र करते.

बावजूद कि उन्होंने दर्ज किया है. उनके कई दोहों को राममंदिर विवाद में कोर्ट में भी पेश किया जा चुका है. बावजूद कि मामले में पुरातात्विक रिपोर्ट भी मंदिर की गवाही दे चुका है. सुप्रीम कोर्ट रामलला के पक्ष में फैसला भी दे चुका है, मंदिर अंतिम निर्माण की दिशा में है. बावजूद कोई मानने को तैयार नहीं, तो इस बीमारी का कुछ भी नहीं किया जा सकता. अब एक लाइलाज बीमारी के लिए कोई अपनी पार्टी के राजनीतिक मुद्दे बदलना चाहेगा तो वह असल में वह आत्महत्या ही करने जा रहा है. ओवैसी के लिए जरूर यह आत्महत्या नहीं होगी. उन्हें बाबरी के विध्वंस का रोना रोते रहना चाहिए. मगर दूसरे क्यों और क्या कर रहे हैं?

राजनीति में मुसलमान मुद्दा नहीं रहे तो तमाम चीजें अपने आप बदल जाएंगी

चुनाव नतीजों के मायने गहरे हैं. इसमें सभी दलों के लिए संदेश है. भविष्य में देश की राजनीति मुसलमानों के तय मुद्दों पर नहीं हो सकती. अब वक्त भी नहीं है. सभी राजनीतिक दलों को गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ नतीजों पर आत्ममंथन करना चाहिए. यह भी कि गैरबराबरी एक अस्थायी व्यवस्था है और इसे हमेशा के लिए खत्म करने का कोई मैकेनिज्म किसी पार्टी, विचार और व्यवस्था में नहीं है. यह हमारे बहुलता के सिद्धांत को भी संरक्षण नहीं देता. असमानता, गैरबराबरी रहेगी किसी ना किसी रूप में. बस हमें मानवता की स्थापना करनी है जो समाज में घुले जहर कम करे और सहअस्तित्व के सिद्धांत को मजबूत करे.

कायदे से राजनीति के मुद्दे असल में भूख, समान शिक्षा, एक जैसी स्वास्थ्य सुविधाओं, सार्वजनिक परिवहन के होने चाहिए. सुरक्षा के समान अवसर के होने चाहिए. कम से कम सभी के लिए एक समान मौका तो होना ही चाहिए. स्वाभिमान का मुद्दा सबके लिए होना चाहिए. और सबसे बड़ा मुद्दा संप्रभुता का होना चाहिए. इसके लिए चाहे जो करना पड़े. अगर समाज तैयार है. उसे चलने दीजिए, दौड़ाने दीजिए. चाहें तो उसकी रफ़्तार पर नजर रख सकते हैं.

अगर राजनीति बदली तो तो समाज बदल जाएगा. समाज बदलेगा तो उसमें संकोच पनपेगा और इस तरह हमारी संस्कृति खुद ब खुद बदल जाएगी. निश्चित ही हम एक शांत और ज्यादा मानवीय समाज होंगे करुणा से भरे हुए. हम ऐसे ही थे और अभी भी विपरीत से विपरीत हालात में भी रहने की कोशिश तो कर ही रहे हैं. वोटबैंक पॉलिटिक्स ने सत्ता में बने रहने के लिए हमारे दलों को विवश किया. जो चीजें नहीं थी उसे स्थापित किया गया और बहुत हद तक असलियत को छिपाया गया. आज नहीं तो कल, राजनीतिक मुद्दे बदलने ही पड़ेंगे. समय रहते बदले तो औचित्य बना रह जाएगा. बाद बाकी जो है वह एक-एक कर सामने आ ही रहा है. समाज में पनप रहे संकोच और भारी गुस्से को देखते हुए संभल जाइए.

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