मंदिर कैसे कंगाल किये अंग्रेजों और काले अंग्रेजों ने?

जब आपदाएं आती हैं तो सब लोग मदद के लिए आगे आते हैं | गुरूद्वारे से चंदा आ जाता है, चर्च फ़ौरन धर्म परिवर्तन को दौड़ पड़ते हैं आपदा ग्रस्त इलाकों में | ऐसे में मंदिर और मठ क्यों पीछे रह जाते हैं ? दरअसल इसके पीछे 1757 में बंगाल को जीतने वाले रोबर्ट क्लाइव का कारनामा है | लगभग इसी समय में उसने मैसूर पर भी कब्ज़ा जमा लिया था | सेर्फोजी द्वितीय के ज़माने में 1798 में जब थंजावुर को ईस्ट इंडिया ने अपने कब्जे में लिया तब से मंदिरों को भी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया था |
जब भारतीय रियासतों को अंग्रेजों ने अपने कब्ज़े में लेना शुरू किया तो अचानक उनका ध्यान गया कि शिक्षा और संस्कृति के गढ़ तो ये मंदिर हैं | मंदिरों और मठों के पास ज़मीन भी काफी थी | देश पे कब्ज़ा ज़माने के साथ-साथ आर्थिक फ़ायदे का ऐसा स्रोत वो कैसे जाने देते ? फ़ौरन ईस्ट इंडिया कंपनी के ईसाई मिशनरियों ने इस मुद्दे पर ध्यान दिलाया | नतीज़न इस पर फौरन दो कानून बने | दक्षिण भारत और उत्तर भारत के लिए ये थोड़े से अलग थे |
1. Regulation XIX of Bengal Code, 1810
2. Regulation VII of Madras Code, 1817
“For the appropriation of the rents and produce of lands granted for the support of …. Hindu temples and colleges, and other purposes, for the maintenance and repair of bridges, sarais, kattras, and other public buildings; and for the custody and disposal of nazul property or escheats, in the Presidency of Fort Williams in Bengal and the Presidency of Fort Saint George, some duties were imposed on the Boards of Revenue….”
ऐसा जिस कानून में लिखा था जाहिर है वो ये समझ कर लिखा गया था जिस से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं ज्यादा ना आहत हो जाएँ | धार्मिक भावनाओं को भड़काने का नतीजा अच्छा नहीं होगा उन्हें ये भी पता था, पूरे भारतीय समाज को ये एक हो जाने का मौका देने जैसा होता | इसके अलावा मिशनरियों का तरीका भी धीमा जहर देने का होता है |
• ईस्ट इंडिया कंपनी को पता था कि मंदिरों के पास कितनी संपत्ति है | उन्हें बचाना क्यों जरुरी है इसका भी उन्हें अंदाजा था |
• इन निर्देशों / कानूनों में कहीं भी चर्चों का कोई जिक्र नहीं है | उनकी संपत्ति को छुआ तक नहीं गया है |
1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद जब पूरे भारत पर विदेशियों का कब्ज़ा हो गया तब उन्होंने अपनी असली रंगत दिखानी शुरू की | 1863 में ब्रिटिश सरकार अलग अलग मंदिरों के लिए अलग अलग ट्रस्टी बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दी | भारतीय तब विरोध करने लायक स्थिति में नहीं थे |
The Religious Endowments Act, 1863
 • ट्रस्टी, मैनेजर और superitendent नियुक्त करने का अधिकार
• संपत्ति revenue board के अधीन होगी, जो ट्रस्टी चलाएंगे
• जिन मामलों में मंदिर या मठ की संपत्ति का सेक्युलर उदेश्यों के लिए इस्तेमाल करना हो
Beginning of the Loot, 1927
सरकार को नजर आया कि मठों और मंदिरों की संपत्ति आसानी से अपने फ़ायदे को इस्तेमाल की जा सकती है | 1863 के बाद के सालों में वो भली भांति मंदिरों की संपत्ति पर अपने “सेक्युलर” अधिकारी बिठा चुके थे ऐसे में वो जो चाहे वो कर सकते थे | सही मौका देखकर Madras Hindu Religious Endowments Act, 1926(Act II of 1927) अधिसूचित किया गया | इस एक्ट में सरकार सिर्फ एक Notification देकर मंदिर और उसकी संपत्ति अधिग्रहित कर सकती थी | इस एक्ट की एक और ख़ास बात ये है कि पिछली बार जहाँ मस्जिद भी थोड़े बहुत सरकारी नियंत्रण में थे अब वो एक ईसाई सरकार के नियंत्रण से बाहर थे |
ये कानून सिर्फ हिन्दू धार्मिक संस्थानों के लिए है | ईसाई और मुस्लिम संस्थान इस से सर्वथा मुक्त हैं |
सिर्फ एक notification पूरे मंदिर की सारी चल अचल संपत्ति ईसाईयों के कब्ज़े में डाल देता है |
“सैकुलर भारतीय सरकारों के कारनामे
हिन्दू धार्मिक संस्थानों पर पूरा कब्ज़ा, 1951
Consolidating the control  over Hindu religious properties. 1951
सन 1951 में मद्रास सरकार ने THE MADRAS HINDU RELIGIOUS AND CHARITABLE ENDOWMENTS ACT, 1951 बनाया | ये कानून बाकि सभी पिछले कानूनों के ऊपर था और हिन्दू मंदिरों पर सरकारी “सेक्युलर” नियंत्रण पक्का करता था | कमिश्नर और उनके अधीन कर्मचारी कभी भी मंदिर पूरा कब्ज़ा सकते थे | इस अनाचार का प्रबल विरोध हुआ | 1954 में सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के कई हिस्से असंवैधानिक बताये | यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट ने एक हिस्से के बारे में कहा कि वो ‘beyond the competence of Madras legislature’ है |
1956 में दक्षिण भारतीय राज्यों के पुनः निर्धारण के बाद हर राज्य ने मंदिरों पर नियंत्रण के अपने अलग-अलग कानून बनाये |
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क्रमशः
( कई भेंड़ की खाल में छुपे भेड़िये चिल्लायेंगें कि मंदिरों से मदद क्यों नहीं जाती जबकि चर्च मदद करता है | मंदिर के पैसे किसके कब्ज़े में हैं ये जानना हर हिन्दू को जरुरी है | तथाकथित “सेकुलरों” के जवाब को पोस्ट का कोई भी हिस्सा इस्तेमाल कर ले | कोई कॉपीराइट नहीं है |

+*+*+*आनंद कुमार 

चर्च-मस्जिदों पर नहीं, तो सिर्फ हिंदू मंदिरों पर क्यों है सरकारी कंट्रोल?
government’s control only on the temples

अगर सरकारें मस्जिदों, चर्चों और गुरद्वारों को नहीं चलाती तो मंदिर क्यों चलाती है:अश्विन सांघी

सेकुलरिज्म का मतलब क्या है? इसका मतलब है, धर्म और राजनीति अलग-अलग रखना। क्या इस मायने में भारत सेकुलर है? यह परिभाषा मानें तो यही कहना होगा कि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं है। जिस देश में 1950 के दशक में हिंदू पर्सनल लॉ बन गया हो और जहां शरिया आधारित मुस्लिम पर्सनल लॉ को मंजूरी मिली हो, उसे आप सेकुलर कैसे कहेंगे? अगर देश धर्मनिरपेक्ष है तो यहां केंद्र और राज्य सरकारें मंदिरों का प्रबंधन क्यों करती हैं?  एक के बाद एक सरकारों ने हज समिति कानून, 1959 के मार्फत सब्सिडी बढ़ाई, फिर इसे कैसे सेकुलर मानें?

जिन लोगों ने संविधान की प्रस्तावना लिखी थी, उन्होंने सेकुलर शब्द का प्रयोग नहीं किया। वे जानते थे कि ऐसा करना बेईमानी होगी। प्रस्तावना में सेकुलर शब्द इमरजेंसी के दौरान डाला गया, जब देश की संसद पंगु हो चुकी थी।

अब जरा आप यह बात उन लोगों से कहिए,जो खुद को सेकुलर मानते हैं। वे कहेंगे,भारत का मामला अलग है। हमारे यहां इसका यह अर्थ नहीं कि सरकार धर्म से दूर रहे। इसका मतलब तो है कि वह सभी धर्मों से बराबर की दूरी बनाने की कोशिश करे। यह भी फिजूल की बात है। इस हिसाब से भी भारत धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा पर खरा नहीं उतरता।

अगर आपको मेरी बात पर यकीन न हो रहा हो तो मैं आपको हिंदू रिलीजियस और चेरिटेबल एंडॉमेंट एक्ट की याद दिला दूं। यूं तो यह कानून तमिलनाडु में बना,लेकिन देश के कई राज्यों में इससे मिलते-जुलते कानून बनाए गए। जिन राज्यों में बीजेपी की हुकूमत थी, वे भी इसमें पीछे नहीं रहे। असल में इस कानून से राज्यों को चार लाख से अधिक हिंदू पूजास्थलों की संपत्ति अपने हाथों में लेने का अधिकार मिला। आपको लग रहा होगा कि यह तो मस्जिदों,चर्चों और गुरद्वारों के मामले में भी होगा। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो गलत हैं,सरकारों का नियंत्रण सिर्फ मंदिरों की कमाई पर है।

सन 1925 में अंग्रेजों ने मद्रास रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडॉमेंट एक्ट बनाया। इससे सारे धार्मिक संस्थान सरकार के नियंत्रण में आ गए। इस कानून का अल्पसंख्यकों की ओर से जोरदार विरोध हुआ। तब अंग्रेजों ने मुसलमानों, ईसाईयों और पारसी समुदाय के धर्मस्थलों को इसके दायरे से बाहर कर दिया। उसी साल सिख गुरद्वारा कानून भी पास हुआ। इससे सिखों के धर्मस्थल सिख परिषद के तहत आ गए। आखिर में सिर्फ मंदिरों पर सरकार का नियंत्रण बना रहा।

कानून अंग्रेजों ने बनाया था, इसलिए आजादी के बाद इसे खत्म हो जाना चाहिए था। स्वतंत्र भारत की सरकारें मंदिरों का जिम्मा हिंदू समुदाय को सौंप सकती थीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तमिलनाडु सरकार ने 1959 में हिंदू रिलीजियस कानून बना दिया। इससे वहां के मंदिर एक कमिश्नर की निगरानी में आ गए। तमिलनाडु की देखादेखी दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों ने भी ऐसे ही कानून बनाए। इसलिए आज तमिलनाडु में 44 हजार मंदिरों का नियंत्रण राज्य सरकार के हाथों में है तो आंध्र भी 33 हजार मंदिरों के साथ उससे बहुत पीछे नहीं है।

सच बताएं तो 15 राज्यों में धार्मिक भेदभाव वाला यह कानून है। सरकारें कहती हैं कि मंदिर प्रशासन संपत्ति हड़प न लें, इसलिए यह कानून बनाया गया। क्या इस दलील में दम है? इसका जवाब देने से पहले आपको मद्रास हाईकोर्ट के एक हाल के निर्देश के बारे में बताते हैं। अदालत ने इसमें तमिलनाडु सरकार से पूछा कि मंदिरों की 47 हजार एकड़ जमीन कहां चली गई? वह सरकारी रेकॉर्ड से कैसे गायब हो गई? यानी सरकारें मंदिरों की संपत्ति की रक्षा नहीं कर पाईं। तो गलत निकली न सरकारी दलील।

कानून का आधार गलत है, यह तो साबित हो ही गया। अब अगले सवाल पर आते हैं कि भारत को सही मायने में सेकुलर कैसे बनाया जा सकता है? मुझे लगता है कि इसके लिए सरकार को दो काम करने होंगे और दोनों ही बहुत जल्द। पहला, वह हिंदू मंदिरों का नियंत्रण छोड़ दे। यह धर्मनिरपेक्षता पर एक दाग है। इस सवाल से मुंह चुराना भारी पड़ेगा। अगर हम सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष नहीं हुए तो यकीन मानिए समाज में सांप्रदायिकता और बढ़ेगी।

दूसरा, सभी भारतीयों के लिए समान आचार संहिता हो। यानी शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और तलाक के बाद गुजारे भत्ते के लिए एक कानून हो। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। आखिर सरकार ने पचास के दशक में हिंदुओ के लिए शादी, उत्तराधिकार जैसे कई कानून पास किए थे। क्रिमिनल और कॉन्ट्रैक्ट लॉ भी सबके लिए समान हैं। इनका धार्मिक आधार पर विरोध नहीं हुआ।

हाल के वर्षों में धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, कट्टरपंथ, उग्रवाद, हिंदुवाद, हिंदुत्व, इस्लाम, इस्लामिक और तालिबानीकरण जैसे मुद्दों को लेकर बहस तेज हुई है। इस शोरगुल में हम भूल गए हैं कि असल में भारत एक धार्मिक देश है। जिन देशों में एक विचारधारा मानी जाती है या एक सच को स्वीकार करने को कहा जाता है, उसकी तुलना में धार्मिक दर्शन विविधता और बहुलतावादी है। एक ही बाग में हजार फूल खिल सकते हैं। इनमें से हरेक की अपनी अलग खुशबू हो सकती है। ये सारे फूल मिलकर गुलदस्ते की खूबसूरती को चार चांद लगाते हैं। लेकिन ऐसा तभी होगा, जब माली सारे फूलों का एक जैसा ख्याल रखे। उनके साथ एक जैसा सलूक करे। उपनिषदों में जो वसुधैव कुटुम्बकम कहा गया है, उसका अर्थ यही है। समस्त विश्व एक परिवार है। इसलिए अगर हम सच्चे अर्थ में धर्मनिरपेक्ष बनना चाहते हैं तो हमें इस धार्मिक पथ पर चलना होगा।

(चाणक्याज चैंट और द कृष्णा, ये उपन्यास लेखक के हैं)
आवाज़ : रोहित उपाध्याय
*ये लेखक के निजी विचार हैं

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