मत:ब्राह्मणों के दानवीकरण के पीछे का ऐजेंडा क्या है?
सिर्फ ब्राह्मणों के सिर पर ही ठीकरा क्यों?
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर तो मानते थे कि छुआछूत के लिए ब्राह्मण जिम्मेदार नहीं है। फिर भी इसका ठीकरा सिर्फ ब्राह्मणों के सिर फोड़ा गया। यह तब है, जब खालिस इस्लामी व्यवस्था में दलित भी अंततः ‘काफिर’ हैं। इसका प्रमाण पाकिस्तान के पहले श्रम मंत्री दलित जोगेंद्रनाथ मंडल की वो मार्मिक चिट्ठी है, जो उन्होंने इस्तीफे के बाद भारत लौटते समय लिखी थी। हकीकत तो ये है कि ब्राह्मण-विरोधी अभियान का असली मकसद हिंदू समाज की रीढ़ को तोड़ना है। यह जहर केवल सवर्णों के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरे हिंदू समाज के विरुद्ध फैलाया जा रहा है।
जब मैं इस लेख को अंतिम रूप दे रहा था तभी कश्मीर में जिहादियों द्वारा 26 निर्दोष पर्यटकों को गोलियों से मारने की खबर आई। गोली चलाने से पहले इस्लामी आतंकवादियों ने पीड़ितों से उनका सिर्फ मजहब पूछा, जाति नहीं। उनके लिए ब्राह्मण, दलित, राजपूत, बनिया, यादव, पिछड़ा, अति-पिछड़ा, आदिवासी— सब हिंदू है। इस घटनाक्रम के पीछे वह क्रूर सच्चाई है, जिसे जानबूझकर अनदेखा करके वामपंथी-इस्लामी गठजोड़ सेकुलरवाद के नाम पर हिंदू समाज को जातिवाद के नाम पर बांटने का नैरेटिव परोसता है। ब्राह्मणों और जनेऊ-तिलकधारियों का दानवीकरण— इनके एजेंडे का हिस्सा है, ताकि हिंदू समाज संगठित न हो और वे जाति के नाम पर एक-दूसरे से लड़ते रहे।
लेकिन यही समूह सभी मुस्लिमों को मजहब के नाम पर एकजुट करने में कोई कसर नहीं छोड़ते, जो नियम-कानून को रौंदकर स्कूल-कॉलेजों में हिजाब-बुर्का का समर्थन और कट्टरवाद-जिहाद का प्रत्यक्ष-परोक्ष महिमामंडन करते है। लेकिन यही गिरोह कर्नाटक रूपी जनेऊ प्रकरण और फिल्मकार अनुराग कश्यप की ब्राह्मणद्वेषी विषवमन पर चुप्पी साधकर बैठ जाते है।
आखिर कर्नाटक में क्या हुआ? सूबे के बीदर जिले के साई स्पूर्थी पीयू कॉलेज में 17 अप्रैल को एक छात्र ने जनेऊ उतारने से मना किया, तो उसे परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया। जब मामला सुर्खियों में आया और इस पर विवाद हुआ, तब कॉलेज के प्रधानाचार्य के साथ उनके स्टाफ सहयोगी को निलंबित कर दिया गया और आपाधापी में राज्य के मंत्री ईश्वर बी. खंड्रे ने पीड़ित छात्र को निशुल्क सीट देने की पेशकश की है। इसी तरह के मामले प्रदेश के गडग और धारवाड़ जिले में भी सामने आए, जहां बकौल आरोप, परीक्षा अधिकारियों ने छात्रों का जनेऊ काटकर कूड़ेदान में फेंक दिया। शिवमोगा स्थित आदिचुंचनगिरी स्कूल में ‘सामान्य प्रवेश परीक्षा’ देने आए तीन छात्रों से भी जनेऊ उतारने को कहा गया था।
इसी दौरान फिल्म निर्माता-निर्देशक अनुराग कश्यप ने भी ब्राह्मण समाज के लिए अमर्यादित और बेहूदी टिप्पणी की थी। जब सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटा, तो अनुराग ने माफी मांग ली। वास्तव में, इस तरह का चिंतन न ही पहली बार सामने आया है और न ही यह आखिरी बार होगा। यह उस विभाजनकारी रणनीति से जनित है, जिसे अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक राज को शाश्वत बनाने हेतु अपनाई थी। स्वतंत्र भारत के शुरुआती नेतृत्व को ब्रितानी चालबाज़ी से खुद को पूरी तरह मुक्त कर लेना चाहिए था। मगर दुर्भाग्यवश, राष्ट्र के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी जिन कंधों पर थी, उनका एक बड़ा हिस्सा उसी औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली की उपज था, जिसका उद्देश्य ही एक ऐसे भारतीयों का निर्माण करना था, “जो नस्ल और रंग से तो भारतीय हो, लेकिन स्वाद, सोच, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज…।”
प्रारंभिक सरकार की कृपा से शिक्षा और अन्य अहम संस्थानों में बैठे वामपंथी— जिनका वैचारिक उद्देश्य ही भारतीय संस्कृति का मूलतः विनाश करना रहा है— उन्होंने सेकुलरवाद के नाम पर इन्हीं विभाजनकारी ब्रितानी उपक्रमों को और मजबूत बना दिया। यह वही वामपंथी गिरोह था, जिसने ब्रिटिशों और मुस्लिम लीग की मदद करते हुए पाकिस्तान के निर्माण में भी भूमिका निभाई थी।
समरस और सर्वसमावेशी भारतीय समाज सदियों पहले अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों का शिकार हो गया था। इन कुरीतियों के परिमार्जन हेतु समय-समय पर कई सफल आंदोलनों ने जन्म लिया। यह ठीक है कि हमारा समाज आज भी जातिगत भेदभाव से मुक्त नहीं हुआ है। बदकिस्मती से इसके कुछ मामले वक्त-ब-वक्त सामने आ ही जाते हैं, लेकिन जेहनी तौर पर कोई भी छुआछूत का समर्थन नहीं करता। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर तो मानते थे कि छुआछूत के लिए ब्राह्मण जिम्मेदार नहीं है। फिर भी इसका ठीकरा सिर्फ ब्राह्मणों के सिर फोड़ा गया। यह तब है, जब खालिस इस्लामी व्यवस्था में दलित भी अंततः ‘काफिर’ हैं। इसका प्रमाण पाकिस्तान के पहले श्रम मंत्री दलित जोगेंद्रनाथ मंडल की वो मार्मिक चिट्ठी है, जो उन्होंने इस्तीफे के बाद भारत लौटते समय लिखी थी।
हकीकत तो ये है कि ब्राह्मण-विरोधी अभियान का असली मकसद हिंदू समाज की रीढ़ को तोड़ना है। यह जहर केवल सवर्णों के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरे हिंदू समाज के विरुद्ध फैलाया जा रहा है। इसकी जड़ें 16वीं सदी तक जाती हैं, जब ‘जेसुइट मिशनरी’ फ्रांसिस जेवियर भारत आया था। उस दौर में ब्राह्मण, चर्च और ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे मतांतरण अभियान के सबसे बड़े बाधक थे।
31 दिसंबर 1543 को रोम के राजा को लिखे अपने पत्र में जेवियर ने एक जगह साफ तौर पर लिखा था— “अगर ब्राह्मण हमारा विरोध न करते, तो हम सबको ईसा मसीह की शरण में ला सकते थे।..” कालांतर में कैथोलिक चर्च और पुर्तगाली ईसाई मिशनरियों के निर्देश पर 1559 तक दर्जनों मंदिरों और देवी-देवताओं की मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया गया। जेवियर के बाद एक और ‘जेसुइट मिशनरी’ रॉबर्ट डी नोबिली नई रणनीति के साथ भारत पहुंचे और उन्होंने पाया ईसाई मिशनरियों के दुष्प्रचार के बाद भी शेष हिंदू, ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा भाव रख रहे हैं। तब नोबिली ने स्वयं ब्राह्मण जैसा दिखाने के लिए संन्यासी भेष धारण कर लिया।
इस प्रकार जेवियर-नोबिली के वैचारिक वारिसों ने अंग्रेजों से गठजोड़ कर अपने निहित स्वार्थों के लिए ब्राह्मणों को राक्षसी छवि में ढालना शुरू किया। उन्होंने हिंदू ग्रंथों की विकृत व्याख्या कर झूठी कहानियां गढ़ीं। यही ब्रितानी-चर्च गठजोड़ आगे चलकर ‘द्रविड़ आंदोलन’ की बुनियाद बना, जिसने पहले स्वतंत्रता-विरोधी और फिर हिंदू-विरोधी रूप ले लिया। इस चिंतन के अंश आज भी प्रत्यक्ष रूप दिखते है। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) के शीर्ष नेता और तमिलनाडु के वर्तमान उप-मुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन द्वारा वर्ष 2023 में सनातन संस्कृति की तुलना डेंगू-मलेरिया-कोरोना से करते हुए उसे मिटाने की बात करना— इसका प्रमाण है।
ब्राह्मण-विरोध और जातिगत राजनीति, एक सुनियोजित औपनिवेशिक एजेंडा रहा है, जिसका मकसद हिंदू समाज में वैमनस्य पैदा करके भारत को तोड़ना है। इस्लाम के नाम पर भारत पर हमला करने वाले जिहादी ‘काफिरों’ का संहार करने से पहले उनकी जाति नहीं पूछते। उनकी नजरों में किसी भी बुतपरस्त को जीवन जीने का अधिकार नहीं है। जिन आतंकवादियों ने मंगलवार को कश्मीर में पर्यटकों पर हमला किया, वह भी इसी नक्शे-कदम पर चल रहे हैं.
–बलबीर पुंज