मत: हनुमान जयंती होती है, हनुमज्जन्मोत्सव नहीं
जयन्ती भारतीय परम्परा है जन्मदिन नहीं –
हनुमान जयंती के अवसर पर कई लोग एक पोस्ट फॉरवर्ड करते हैं – “जयंती उनकी मनाई जाती है जो अब संसार में नहीं हैं? या जयंती मरे हुये लोगों की मनाई जाती है”। किसी फॉरवर्ड करने वाले से पूछिए की इस बात का क्या आधार है?
ये बात कहाँ वर्णित है?
क्या ये व्याख्या व्याकरण ग्रन्थों से ली गई है या किसी शब्दकोश में ऐसा अर्थ दिया हुआ है?
उत्तर है कहीं नही, ऐसा मत किसी अधिकृत आचार्य का भी नहीं है। फिर यह बात कहाँ से आई? जब किसी आचार्य ने ऐसा कहा नहीं, न ही ऐसा वर्णन किसी ग्रन्थ में है, तो यह बात प्रचलित कैसे हुई? किसने प्रचारित किया, और लोग बिना जाने समझेंगे फॉरवर्ड भी करने लगे? हिन्दू धर्म में शास्त्रों और ग्रन्थों की कमी नहीं है, न व्याकरणाचार्य की कमी है न व्याकरण ग्रन्थों की। निरुक्त, निघण्टु से लेकर अमरकोश तक शब्दकोशों की भी कमी नहीं है, किन्तु दुःख की बात यह है कि इनका अध्ययन करने वालों की सबसे न्यून संख्या भी हिंदुओ की ही है। और हो भी क्यों नहीं योग्य गुरू के समक्ष शिष्य को भी योग्यता सिद्ध करनी पड़ती थी, उसके बाद लम्बे काल तक ग्रन्थों का अध्ययन आदि करके ज्ञान के अधिकारी हो पाते थे, अब तो बस व्हाट्सएप पोस्ट फोरवर्ड करो ज्ञानी बन जाओ। योग्यता, शास्त्र अध्ययन आदि का शॉर्टकट व्हाट्सएप पोस्ट।
मेरे विचार से इस तरह के पोस्ट जानबूझकर फैलाये जाते हैं ये देखने के लिये की समाज कितना मूल से जुड़ा हुआ है या मूल से कितना विलग हो गया है। और यहां दुःख के साथ कहना है कि लोग ऐसी चीजों पर प्रश्न करने की बजाए न सिर्फ उसको आगे बढ़ाते हैं, बल्कि कोई सन्दर्भ या तथ्य मांगे तो स्वकल्पित मूर्खतापूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि ऐसी बातों का कोई सन्दर्भ या आधार नहीं होता, मैंने यहाँ स्पष्ट रूप से स्वकल्पीत शब्द का प्रयोग किया है क्योंकि ऎसा मैसेज या पोस्ट करने वाले किसी भी व्यक्ति ने आज तक न तो कोई तथ्य प्रस्तुत किया न हीं कोई संदर्भ। मैंने भी इस अवसर पर व्याकरण ग्रंथ और शब्दकोष की परम्परा पर पोस्ट करना प्रारम्भ कर दिया है, कम से कम हम अपनी परम्परा को तो समझेंगे। इस पोस्ट के बाद मैं कुछ पोस्ट व्याकरण ग्रंथ, व्याकरण के आचार्य और शब्दकोष परम्परा पर करूंगा।
खैर बात करते हैं हनुमान जयंती और जन्मोत्सव की – हनुमान जयंती की प्रथा व्हाट्सएप पोस्ट करने वाले ज्ञानी द्वारा प्रारंभ नहीं कि गई है तो मैं शास्त्र प्रमाण या सन्दर्भ की बात करूंगा। देखते हैं शास्त्र क्या कहते हैं जयंती की जन्मोत्सव?
वैशाखे मासि कृष्णायां दशमी मन्दसंयुता।
पूर्वप्रोष्ठपदायुक्ता कथा वैधृतिसंयुता॥३६॥
तस्यां मध्याह्नवेलायां जनयामास वै सुतम्।
वैशाख मास में कृष्णपक्ष की दशमी को जब चन्द्रमा पूर्वप्रोष्ठ नक्षत्र में था उस दिन मध्याह्न समय पर अञ्जना ने पुत्र को जन्म दिया।
दशम्यां मन्दयुक्तायां कृष्णायां मासि माधवे।
पूर्वाभाद्राख्यनक्षत्रे वैधृतौ हनुभानभूत्॥८५॥
माधव मास के कृष्ण पक्ष की दशमी पर, पूर्वभद्र नक्षत्र में, वैधृति योग में हनुमान् हुए।
पूर्वभाद्राकुम्भराशौ मध्याह्ने कर्कटांशके।
कौण्डिन्यवंशे सञ्जातो हनुमानञ्जनोद्भवः॥८९॥
अञ्जना के पुत्र हनुमान् कुम्भ राशि के पूर्वभाद्रा नक्षत्र , कर्कट अंश में मध्याह्न के समय पर कौण्डिन्य वंश में जन्मे।
॥ पराशरसंहितायां हनुमज्जन्मकथनं नाम षष्ठः पटलः॥
जयन्तीनामपूर्वोक्ता हनूमज्जन्मवासरः तस्यां भक्त्या कपिवरं नरा नियतमानसाः।
जपन्तश्चार्चयन्तश्च पुष्पपाद्यार्घ्यचंदनैः धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः फलैर्ब्राह्मणभोजनैः।
समन्त्रार्घ्यप्रदानैश्च नृत्यगीतैस्तथैव च तस्मान्मनोरथान्सर्वान्लभते नात्र संशयः॥८१॥
हनुमान् के जन्म का दिन पहले जयन्ती नाम से बताया गया है। उस दिन भक्तिपूर्वक, मन को वश मे करके, पुष्प, अर्घ्य चन्दन से, धूप, दीप से, नैवेद्य से, फलों से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, मन्त्रपूर्वक अर्घ्य प्रदान करने से तथ नृत्यगीता आदि से कपिश्रेष्ठ का जप, अर्चना करते हुए मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
एको देवस्सर्वदश्श्रीहनूमान् एको मन्त्रश्श्रीहनूमत्प्रकाशः।
एका मूर्तिश्श्रीहनूमत्स्वरूपा चैकं कर्म श्रीहनूमत्सपर्या॥८२॥
हमेशा एक ही देवता हैं – हनुमान्, एक ही मन्त्र है – हनूमत्प्रकाशक मन्त्र, एक ही मूर्ति है – हनुमान् स्वरूप की, और एक ही कर्म है – हनुमान् की पूजा।
जलाधीना कृषिस्सर्वा भक्त्याधीनं तु दैवतम्।
सर्वहनूमतोऽधीनमिति मे निश्चिता मतिः॥८३॥
पूरी कृषि जल के अधीन है, देवता भक्ति के अधीन हैं, सबकुछ हनुमान् के अधीन है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।
हनूमान्कल्पवृक्षो मे हनूमान्मम कामधुक्।
चिन्तामणिस्तु हनुमान्को विचारः कुतो भयम्॥८४॥
हनुमान् मेरे कल्पवृक्ष हैं, हनुमान् मेरी कामधेनु हैं, हनुमान् मेरी चिन्तामणि हैं, इसमें विचार करने का क्या है, भय कहाँ है?
– पराशरसंहिता में स्पष्ट रूप से जयंती लिखा हुआ है, जन्मोत्सव नहीं। कुछ और प्रसंग देखते हैं –
जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः –स्कन्दमहापुराण,तिथ्यादितत्त्व,
जो जय और पुण्य प्रदान करे उसे जयन्ती कहते हैं । कृष्णजन्माष्टमी से भारत का प्रत्येक प्राणी परिचित है । इसे कृष्णजन्मोत्सव भी कहते हैं । किन्तु जब यही अष्टमी अर्धरात्रि में पहले या बाद में रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो जाती है तब इसकी संज्ञा “कृष्णजयन्ती” हो जाती है —
रोहिणीसहिता कृष्णा मासे च श्रावणेSष्टमी ।
अर्द्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयापि यदा भवेत् ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशिनी ।।
और इस जयन्ती व्रत का महत्त्व कृष्णजन्माष्टमी अर्थात् रोहिणीरहित कृष्णजन्माष्टमी से अधिक शास्त्रसिद्ध है । यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती–
चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।
तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते ॥–नारदीयसंहिता
अयोध्या में श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के सन्त कार्तिक मास में स्वाती नक्षत्रयुक्त कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को हनुमान् जी महाराज की जयन्ती मनाते हैं —
स्वात्यां कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके कृष्णेSञ्जनागर्भत एव मेषके ।
श्रीमान् कपीट्प्रादुरभूत् परनतपो व्रतादिना तत्र तदुत्सवं चरेत् ॥
–-वैष्णवमताब्जभास्कर
कहीं भी किसी मृत व्यक्ति के मरणोपरान्त उसकी जयन्ती नहीं अपितु पुण्यतिथि मनायी जाती है । भगवान् की लीला का संवरण होता है । मृत्यु या जन्म सामान्य प्राणी का होता है । भगवान् और उनकी नित्य विभूतियाँ अवतरित होती हैं । और उनको मनाने से प्रचुर पुण्य का समुदय होने के साथ ही पापमूलक विध्नों किम्वा नकारात्मक ऊर्जा का संक्षय होता है । इसलिए हनुमज्जयन्ती नाम शास्त्रप्रमाणानुमोदित ही है —
“जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः” —स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व
जैसे कृष्णजन्माष्टमी में रोहिणी नक्षत्र का योग होने से उसकी महत्ता मात्र रोहिणीविरहित अष्टमी से बढ़ जाती है । और उसकी संज्ञा जयन्ती हो जाती है । ठीक वैसे ही कार्तिक मास में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी से स्वाती नक्षत्र तथा चैत्र मास में पूर्णिमा से चित्रा नक्षत्र का योग होने से कल्पभेदेन हनुमज्जन्मोत्सव की संज्ञा ” हनुमज्जयन्ती” होने में क्या सन्देह है ??
एकादशरुद्रस्वरूप भगवान् शिव ही हनुमान् जी महाराज के रूप में भगवान् विष्णु की सहायता के लिए चैत्रमास की चित्रा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को अवतीर्ण हुए हैं —
” यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिः।
अवतीर्ण: सहायार्थं विष्णोरमिततेजस: ॥
–-स्कन्दमहापुराण,माहेश्वर खण्डान्तर्गत, केदारखण्ड-८/१००
पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते ॥
चैत्र में हनुमज्जयन्ती मनाने की विशेष परम्परा दक्षिण भारत में प्रचलित है ।
इसलिए वाट्सएप्प में कोपी पेस्ट करने वालों गुरुजनों के चरणों में बैठकर कुछ शास्त्र का भी अध्ययन करो । वाट्सएप्प या गूगल से नहीं अपितु किसी गुरु के सान्निध्य से तत्त्वों का निर्णय करो ।
हनुमज्जयन्ती शब्द हनुमज्जन्मोत्सव की अपेक्षा विलक्षणरहस्यगर्भित है ”
आजकल वाट्सएप्प से ज्ञानवितरण करने वाले एक मूर्खतापूर्ण सन्देश सर्वत्र प्रेषित कर रहे हैं कि हनुमज्यन्ती न कहकर इसे हनुमज्जन्मोत्सव कहना चाहिए ; क्योंकि जयन्ती मृतकों की मनायी जाती है । यह मात्र भ्रान्ति ही है ।
व्यावहारिक भाषाशास्त्र के अनुसार जयन्ती शब्द के अनेक अर्थों में दुर्गा , पार्वती , कलश के नीचे उगाए हुए जौ , पताका तथा जन्मदिन/स्थापना दिवस प्रधान हैं ।
व्याकरण की दृष्टि में
लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे इस पाणिनीय सूत्र से √जी जये धातु में शतृप्रत्यय करनेपर “जयत्” कृदन्त पद निष्पण्ण होता है और स्त्रीत्व की विवक्षा में उगितश्च सूत्र से ङीप् और शप्श्यनोर्नित्यम् से नुगागम होकर जयन्ती पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ होगा – “जीतती हुई (स्त्री) । प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ “विजयिनी तिथि” से है ।
”जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः” –स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व
यह जयन्ती पद का शाब्दिक अर्थ है । विशेष अर्थ में यह अवतारों तथा महापुरुषों की जन्मतिथि का वाचक है । यथा , परशुराम जयन्ती , बुद्धजयन्ती , स्वामी विवेकानन्द जयन्ती आदि ।
यह जयन्ती पद रोहिणीयुता कृष्णाष्टमी के लिए रूढ भी है ।
अग्निपुराण का वचन है –
कृष्णाष्टम्यां भवेद्यत्र कलैका रोहिणी यदि ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता उपोष्या सा प्रयत्नतः ।।
इससे जयन्ती व्रत का महत्त्व रोहिणीविरहित जन्माष्टमी से अधिक सिद्ध होता है । यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती–
चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि ।
तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते ॥
–नारदीयसंहिता
आधुनिक काल में तो मूर्तामूर्त , जड-चेतन वस्तुओं में अन्तर किए बिना वार्षिक समारोहों को भी जयन्ती कहने की प्रथा चल पडी है – स्वर्णजयन्ती , हीरकजयन्ती आदि समारोह विभिन्न संस्थाओं के भी मनाए जाते हैं किन्तु वहाँ भी उनकी उत्पत्ति की तिथि ही गृहीत है ।
जयन्ती भारतीय परम्परा है जन्मदिन नहीं
उन्होंने एक कथित महात्मा के जन्मदिन को भी जयंति बना दिया , ईश्वर बना रहे और तुम इतने बड़े मूर्ख हो कि हनुमान जी की “ हनुमत जयंति” को जन्मदिन लिख रहे हो ।
जयंति और जन्मदिन में अंतर नहीं समझ में आता तो “प्राकट्य” लिखो ।
और यदि अभी भी बात समझ में भी नही आ रही समझाने पर….
कुछ कमेंट्स आए हैं उनका उत्तर :
दिन भर लिस्बन में भ्रमण पर था अत: मैं पूरा उत्तर लिख नहीं पाया ।
जयंत का अर्थ ही जिसके जय का अंत न हो । भगवती जगदंबा दुर्गा को जयंती कहा गया है ।
जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री….
भारत के स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती या रजत जयंती या हीरक जयंती भी इसीलिये मनाई जाती है क्योकि हम इसे शुभ घटना मानते हैं ।
अब आता हूँ , जन्मोत्सव पर , तो दुनिया में जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है ।
हमारा सनातन आदि और अंत पर नहीं बल्कि अनादि और अनंत पर आधारित है ।
फिर से समझिए , आदि और अंत और जन्मदिन , एक अब्राहमिक व्यवस्था हैं, अनादि , अनंत और जयंती सनातनी व्यवस्था है ।
आसमानी किताब वाले क्रिसमस सबेरात मनाते हैं और अंत में दोज़ख़ का इंतिजार करते हैं