आज भी गूंज रहे उत्तराखंड में नईमा-मोहन उप्रेती दंपत्ति के गीत-संगीत

उत्तराखंडी पहाड़ियों के दिलों में आज भी गूंजते हैं नईमा खान-मोहन उप्रेती के गीत   Nirmal kant
नईमा खान के गाए तमाम लोकगीत आज भी उत्तराखंड के पहाड़ी लोगों के दिल में बसे हुए हैं, शिखर-घाटियों व धुर-जंगल में बसने वाली न्यौली घुघुती व कफ्फू में आज भी नईमा खान उप्रेती के गीत सुनायी देते हैं… याद कर रहे हैं चन्द्रशेखर तिवारी ।
सत्तर के दशक में लखनऊ के आकाशवाणी केन्द्र से पर्वतीय लोगों लिए कार्यक्रम प्रसारित होता था उत्तरायण। यह कार्यक्रम घण्टेभर चलता था। तब उत्तरायण से पहाड़ के गीत जन-जन के बीच अपनी पहुंच बना रहे थे। जीतसिंह नेगी,वीना तिवारी,केशब अनुरागी,चन्द्र सिंह राही, कबूतरी देवी,मोहन उप्रेती व नईमा खान उप्रेती,रमेश जोशी, भानुराम सुकोटी जैसे गायकों के गीत आकाशवाणी ने खूब प्रसारित किये। उस काल खंड में मोहन उप्रेती व नईमा खान उप्रेती के गाये अनेक युगल गीत लोगों के बीच लोकप्रिय थे।
नईमा खान की सुरीली आवाज में गजब का सम्मोहन था जिसमें पहाड़ के लोक की ठसक साफ दिखती थी। पर्वतीय गीत-संगीत व रंगमंच के कुशल चितेरे मोहन उप्रेती के स्वर-गीतों में नईमा खान की सुरों की मिठास मिसरी की तरह घुली रहती। यह बात सही है कि अगर नईमा खान न होती तो सम्भवतः मोहन उप्रेती के गीत अधूरे ही रह जाते। मोहन-नईमा के बीच गीत-संगीत का यह रिश्ता कुछ दिनों बाद जीवन साथी के रुप में उभर कर सामने आया।

गीत-संगीत की अलौकिक दुनिया में विचरण करते नईमा खान की सुरीली आवाज ने मोहन उप्रेती के दिल में कब जगह बना ली पता ही न चला। दोनों ही एक दूसरे के हो चुके थे। अल्मोड़ा के तत्कालीन पहाड़ी समाज में इस तरह दो अलग-अलग समुदायों का प्रणय तब एक बड़ी घटना थी। लोगों को यह रिश्ता रास नहीं आया। यह अल्मोड़ा जैसे शहर की सामाजिक समरसता विशेषता रही कि बाहरी  मतभेद होते हुए भी कहीं न कहीं अन्दर खाने इस रिश्ते को स्वीकार्यता दी गयी थी। कालांतर में मोहन-नईमा की इस शानदार जोड़ी ने कुमाउनी लोक संगीत को नित नये आयाम दिये। इस तरह पहाड़ी संस्कृति को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचता हुआ देखकर लोगों ने उनके प्रणय में बाधक रहे उस जाति बन्धन को स्वतः ही भुला दिया।

नईमा खान के पुरखे 18 वीं सदी के आसपास अल्मोड़ा में बसे थे। उनके पूर्वजों में एक प्रमुख व्यवसायी हाजी नियाज अहमद खान ने यहां जामा मस्जिद व मदरसे का निर्माण करवा अपनी जायजाद का अधिकतर हिस्सा वक्फ को भी दिया था। नईमा खान के पिता मोहम्मद शब्बीर खान इन्हीं हाजी नियाज अहमद खान के बेटे थे। पिता की तरह मौहम्मद शब्बीर खान भी शहर के जरुरतमंद लोगों की मदद करते थे। अल्मोड़ा म्युनिसिपल बोर्ड के सभासद रहते कुछ समय वे उसके अध्यक्ष भी रहे। 25 मई 1938 को अल्मोड़ा के कारखाना बाजार में नईमा खान जन्म हुआ। उनकी स्कूली पढ़ाई शुरुआत में स्थानीय एडम्स और बाद रैमजे कालेज में हुई। 1958 में आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य,राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र विषयों से बी.ए. आर्ट्स परीक्षा पास की। 1969 में उन्होने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से स्नातक परीक्षा पास की। बाद में पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट से उन्होंने डिप्लोमा भी लिया।

नईमा खान के रंगकर्म की शुरुआत स्कूली दिनों से ही होने लगी थी। नईमा खान के जीवन का यह विचित्र संयोग ही रहा कि एडम्स कालेज के एक कार्यक्रम में मोहन उप्रेती से उनकी मुलाकात हुई थी। इस कार्यक्रम में उप्रेती ने एक गीत भी गाया था। एडम्स कालेज की एक अध्यापिका के तैयार  ‘घा काटणा जानु हो दीदी,घा काटणा जानु हो दीदी,हिटो दीदी हिटो भुलू सब दगड़ जानू‘   गीत की धुन मोहन उप्रेती ने ही बनायी और नईमा व उनकी सहपाठियों को उसकी रिहर्सल कराई। स्टेज पर आने से यह घसियारी नृत्य लोगों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हुआ। यह घसियारी नृत्य उस समय नैनीताल, बदांयू व बिजनौर समेत अन्य स्थानों के क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में सदैव प्रथम स्थान पर आया। इस घसियारी नृत्य को लोक कलाकार संघ ने देश के कई शहरों में प्रदर्शित किया। बाद में पर्वतीय कला केन्द्र दिल्ली की ओर से भी इसकी प्रस्तुति देश-विदेश में की गयी। एडम्स स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही नईमा ने मोहन उप्रेती के सानिध्य में   घास काटणा जानू हूं दीदी के अलावा पार रे भीड़ा को छै घस्यारी व नी बास घुघुती रुनझुन  जैसे कई गीतों की रिहर्सल की। इन्हीं दिनों उप्रेती के निर्देशन में तैयार पंचवटी नृत्य नाटिका का प्रर्दशन हुआ। कार्यक्रम देखने पं. गोविन्द बल्लभ पंत भी थे।इस नाटिका नईमा ने रामचरित मानस की चौपाईयों सहित कई गीतों का गायन किया।

साठ के दशक के शुरुआती साल 1955 के आसपास में नईमा खान मोहन उप्रेती के बनाये युनाइटेड आर्टिस्ट क्लब से जुड़ी। यही युनाइटेड आर्टिस्ट क्लब बाद के कुछ सालों में लोक कलाकार संघ के नाम से जाना गया। लोक कलाकार संघ से जुड़ते हुए नईमा खान ने गीत-संगीत के क्षेत्र में अपना विशेष स्थान बना लिया था। तब लोक कलाकार संघ में जब-तब लोकनृत्य व सामूहिक गीतों की रिहर्सल व कार्यक्रम होते रहते थे। समय-समय पर इसमें स्थानीय महिला -पुरुष कलाकार जुड़ते रहे। बाद में लोक कलाकार संघ की प्रसिद्धि अल्मोड़ा से बाहर कई शहरों व महानगरों तक भी पहुंच जाने से इसके कलाकार वहां अपनी प्रस्तुतियां देने लगे। नईमा खान की भागीदारी इन कार्यक्रमों में हमेशा बनी रही। गीता जोशी,रमा मासीवाल,हेमा उप्रेती जोशी (मोहन उप्रेती की बहन) आदि महिला गायकों के साथ वे झोड़ा, छपेली जैसे सामूहिक लोकगीतों को गाया करती थी। मोहन-नईमा के ये युगल गीत    पारा रे भीड़ा को छै घस्यारी व स्याली मेरी ओ सरीला तथा चल धौं स्याली बाजारई    उस दौर में खूब लोकप्रिय हुए। उप्रेती के नेतृत्व में कलाकार साथियों के साथ जब नईमा लैंसडाउन जा रही थीं तब उनकी भेंट भवाली में विमल राॅय, वैजन्ती माला, दिलीप कुमार, जाॅनी वाकर व प्राण सहित अन्य कलाकारों से हुई। वहां मधुमती फिल्म की शूटिंग चल रही थी। विमल राॅय के आग्रह पर तब वहां कुछ न्योली गीत व एक कुमाउनी लोकगीत  ओ दरी हिमाल दरी,ता छूमा ता छूमा दरी   की रिर्काडिंग भी की गयी। बाद में पता चला कि गीतों का तो इस फिल्म में उपयोग नहीं किया पर उनकी धुनों का उपयोग जरुर कर लिया गया।मोहन उप्रेती के साथ नईमा जब-तब सम्मेलनों व सांस्कृतिक आयोजनों में जाया करती थी। नईमा मोहन उप्रेती के साथ एक बार दिल्ली में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के सम्मेलन में भी गयीं जिसमें मुम्बई से बलराज साहनी व हेमन्त कुमार व अचला सचदेव जैसे कई दिग्गज फिल्मी कलाकार भी आये हुए थे। तब नईमा ने स्टेज पर गीता उप्रेती व मोहन उप्रेती के साथ   बेड़ू पाको बारामासा व ओ लाली हौसिया पधानी  गीतों की शानदार प्रस्तुति दी। फिल्मी कलाकारों को इस कार्यक्रम ने अत्यधिक प्रभावित किया और भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि आप जैसे स्टेज आर्टिस्टों का कद हम जैसे परदे के कलाकारों से कहीं अधिक ऊपर होता है।
नईमा ने दिल्ली के तालकटोरा गार्डन में आयोजित उस कार्यक्रम में भी प्रस्तुति दी जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी आये हुए थे। कार्यक्रम की समाप्ति होने पर उनकी जवाहर लाल नेहरु से मुलाकात भी हुई। संगीत नाटक अकादमी की ओर से मोहन उप्रेती के निर्देशन में नईमा ने हेमा और गीता के सहयोग से अल्मोड़ा की परम्परागत रामलीला की रिकार्डिंग भी की। जहां तक नाटकों का सवाल है नईमा ने ज्यादातर उनमें गायन की भूमिका निभाई है। उस दौर में   पंचवटी,दादा का अभिनय और गौरा  नाटक    लोगों के बीच खूब लोकप्रिय रहे। गौरा नाटक में नईमा ने गौरा के लिए विरह गीत गाया था    मोहे भाता नहीं है यह मेला, आजा आजा बसंत अकेला    इस गीत की धुन कुमाउनी गीत नि बासा घघुती पर आधारित थी। उन्होंने औरंगजेब की आखिरी रात नाटक में पहली बार अभिनय किया। इस नाटक में उन्होंने जहांआरा की भूमिका अदा की थी। इस नाटक में पहले लेनिन पंत को औरंगजेब का अभिनय करना था लेकिन उन्हें अचानक कुछ काम से बाहर जाना पड़ा, अन्ततः उनके बदले जगदीश पाण्डे को इस नाटक में औरंगजेब की भूमिका निभानी पड़ी।
दिल्ली में पर्वतीय कला केन्द्र के माध्यम से नईमा ने एक दर्जन से ज्यादा दूरदर्शन के नाटकों व धारावाहिकों में अपना योगदान दिया। इनमें कालीदास रचित मेघदूत नृत्य नाटिका की लोगों ने बहुत सराहना की। पर्वतीय कला केन्द्र से पहाड़ की लोक गाथाओं पर आधारित प्रस्तुतियों जैसे राजुला मालूशाही, गोरीधना,अजुवा बफौल व रामी बौराणी में भी नईमा की महत्वपूर्ण भागीदारी रही थी। मोहन उप्रेती व नईमा के प्रसिद्ध गीत बेड़ू पाको बारामासा व ओ लाली हौसिया को एच.एम.वी. कम्पनी ने रिकार्ड भी किया था। आकाशवाणी के तमाम लोक गीतों, नाटकों व अन्य रेडियो कार्यक्रमों को भी उन्होनें अपनी आवाज से सजाया-संवारा । अपने गीत-संगीत के गुरु व जीवन साथी मोहन उप्रेती के 1997 में निधन हो जाने के बाद उन्होंने पर्वतीय कला केन्द्र की बागडोर संभाली और उनके कामों को आगे बढ़ाया। 2010 में उन्हें नटसम्राट थिएटर ग्रुप की ओर से लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड सम्मान भी दिया गया। 15 जून 2018 को 80 वर्ष की आयु में नईमा खान उप्रेती का दिल्ली में निधन हो गया। अपने निधन से पूर्व उन्होंने अपना शरीर मेडिकल काॅलेज को दान दे दिया था। नईमा खान उप्रेती भले ही आज इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके गाए तमाम लोकगीत आज भी पहाड़ के लोगों के दिल में बसे हुए हैं। शिखर-घाटियों व धुर-जंगल में बसने वाली न्यौली घुघुती व कफ्फू में आज भी नईमा खान उप्रेती के गीत सुनायी देते हैं जो निरन्तर आगे भी सुनाई देते रहेगें। अल्मोड़ा के गली-बाजारों में मोहन-नईमा के गीत-संगीत और उनके निश्छल प्रेम के कभी खतम न होने वाले ठेठ अल्मोड़िया ठसक वाले किस्से अब भी जीवन्त बने हुए हैं। ’पार भीड़ा कौछे भागी सूर-सूर….मुरली बाजि गै…बिणुली बाजि गै पड़िगै बरफ सुवा पड़िगै बरफ….पंछी हुनि उड़ि ऊंनी मैं तेरी तरफ…’।

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