वनवासियों के बाबा ब्रह्म दत्त

 

 

वनवासियों के ‘उद्धारक बीडी शर्मा नहीं रहे

डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा

पेशे से भारतीय प्रशासनिक सेवा(आईएएस) अधिकारी, शिक्षा से गणित में पीएचडी लेकिन ज़िंदगी भर वनवासियों की लड़ाई से प्रसिद्ध डॉक्टर ब्रह्मदेव शर्मा नहीं रहे.

मध्य प्रदेश काडर के सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी डॉक्टर बीडी शर्मा का 2015 में देहांत हो गया था.वे ग्वालियर में अपने घर पर दोनों बेटों और पत्नी के साथ थे.  सालभर से बीमार और शारीरिक तौर पर  काफ़ी कमज़ोर हो गए थे.

भारत में आदिवासियों की दुर्दशा और समस्या के मुद्दे पर वे लगातार आवाज़ उठाते रहे. लेकिन आखिरी दिनों में वो तब चर्चा में आए थे जब छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के कलेक्टर को माओवादियों से छुड़ाने में उन्होंने प्रोफ़ेसर हरगोपाल के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

डॉक्‍टर बीडी शर्मा से 40 साल से परिचित हिंदी की लेखिका सुमन केशरी ने अपनी फ़ेसबुक वॉल पर उनको याद करते हुए लिखा, ”वो कहते थे अगर संविधान सही में लागू हो जाए तो भारत की समस्याएं हल हो जाएंगी, परेशानी यह है कि संविधान पुस्तक बन कर रह गई है.”

सुमन केशरी ने आगे लिखा है, ”एक गाँधीवादी के मुँह से ये सुनना- ग़ज़ब का अनुभव था वह, एक बेबसी की अनुभूति भी- सुमन अगर तुम वहाँ बस्तर चली जाओ तो सोचोगी इन्होंने इतनी देर से बंदूक़ें क्यों उठाईं?…”

आदिवासियों के लिए कई सरकारी नीतियों के निर्धारण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1966 बैच के आईएएस अधिकारी डॉक्टर शर्मा मौजूदा छत्तीसगढ़ (तब मध्य प्रदेश) के बस्तर ज़िला कलेक्टर के रुप में आदिवासियों के पक्ष मे खड़े होने पर बहुत चर्चित रहे।

आदिवासियों और दलितों के लिए सरकारी नीतियों पर उनके और सरकार में मतभेद से 1981 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी. लेकिन ग़रीबों, आदिवासियों और दलितों के लिए उनका संघर्ष जारी रहा. सरकार ने 1981 में ही उन्हें नॉर्थ ईस्ट युनिवर्सिटी का कुलपति बनाकर शिलॉंग भेजा.अपने पांच साल के कार्यकाल में उन्होंने वहां भी ख़ूब लोकप्रियता पाई थी.

बस्तर
बस्तर के कलेक्टर के तौर पर डडॉक्टर शर्मा ने वनवासी अधिकारों के लिए काम किया.

1986-1991 तक वो अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के आयुक्त रहे.इस पद पर रहे वो आख़िरी आयुक्त थे क्योंकि इसके बाद एससीएसटी राष्ट्रीय आयोग का गठित हो गया था.लेकिन अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयुक्त के रुप में उनकी तैयार रिपोर्ट  वनवासियों की भयावह स्थिति बताने वाले और उनकी संस्तुतियां वनवसियों को न्याय दिलाने की शक्ति रखने वाला प्रपत्र माना जाता है.उन्होंने गांवों की ग़रीबी का रहस्य बताते हुए किसानों से सुनियोजित लूट का विस्तृत विवरण दिया था.

1991 के बाद वो पूरी तरह वनवासियों और दलितों के अधिकार के लिए लड़ने लगे. 1991 में भारत जन आंदोलन और किसानी प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने वनवासी और किसानों के मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा.

अक्सर सामाजिक आंदोलन पहले संस्था बनाते हैं फिर विचार फैलाते  हैं लेकिन डॉक्टर शर्मा के अनुसार संस्था नहीं विचारों को पहले सामान्य जन तक पहुंचना चाहिए.

बस्तर
“जल जंगल ज़मीन” का नारा दिया डॉ. शर्मा ने

इस संबंध में उनकी लिखी हुई किताबों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और “गांव गणराज” की परिकल्पना ने ठोस रूप लिया जिससे स्पष्ट हुआ कि गांव के लोग अपने संसाधनों में हिस्सा नहीं चाहते, वे उसका स्वामित्व चाहते हैं.

इसी आंदोलन में, “जल जंगल और ज़मीन” का नारा और विचार उभरा.

वो उत्कृष्ट लेखक भी थे और ‘गणित जगत की सैर’, ‘बेज़ुबान’, ‘वेब ऑफ़ पोवर्टी’, ‘फ़ोर्स्ड मैरिज इन बेलाडिला’, ‘दलित्स बिट्रेड’ आदि अनेक विचारणीय पुस्तक लिखी.

इसके साथ-साथ वो हस्तलिखित पत्रिका भूमिकाल का संपादन भी करते थे.

डॉक्टर ब्रह्म देव शर्मा (जिन्हें लोग प्यार से बाबा ब्रह्म दत्त या बाबा जी कहते थे) मध्य भारत (मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के वनवासी क्षेत्र) में 20वीं सदी के उत्तरार्ध में वनवासियों के बीच बहुत गहरे और लंबे समय तक काम करने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में से एक थे।उनका मुख्य कार्य क्षेत्र और योगदान:वनवासी संस्कृति का संरक्षण और संसंवर्धनथआ। बाबा जी ने गोंड, बैगा, कोरकू, भिलाला, कोल, मारिया, मुड़िया आदि जनजातियों की मौखिक परंपराओं, लोक कथाओं, गीतों, नृत्यों और रीति-रिवाजों को संकलित किया।

उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तकें हैं:“तुमुल” (गोंडी महाकाव्य)
“बारिश बोंगा”, “लिंगो पेन”, “भीमा पेन” आदि गोंडी लोक महाकाव्यों का हिंदी अनुवाद एवं व्याख्या।
“बैगा लोक साहित्य”, “कोरकू लोक कथाएँ” जैसी दर्जनों किताबें।
जनजातीय भाषाओं का लिपिबद्धीकरण और संरक्षण गोंडी भाषा के लिए देवनागरी में लेखन-पद्धति को लोकप्रिय बनाया।
गोंडी शब्दकोश तैयार किया।
आदिवासी बच्चों के लिए गोंडी-हिंदी प्राइमर (पढ़ना-लिखना सीखने की किताबें) तैयार कीं।
शिक्षा और जागृति सैकड़ों गांवों में अशिक्षित आदिवासी बच्चों के लिए अनौपचारिक स्कूल चलाए।
बाल मजदूरी, शराबबंदी, दहेज प्रथा के खिलाफ जनजागरण किया।
“वनवासी एकता मंच” जैसे संगठन मजबूत किये।
वन अधिकार और जल-जंगल-जमीन की लड़ाई 1970-80 के दशक में वन विभाग और ठेकेदारों के वनवासियों को उनके परंपरागत जंगल छुड़ाने के खिलाफ आंदोलन चलाया।
बाद में वन अधिकार कानून (FRA 2006) आने पर सामुदायिक वन अधिकार दावे भरवाने में बड़ी भूमिका निभाई।
आध्यात्मिक-सामाजिक संश्लेषण वे स्वयं को “पेनकार” (गोंडी परंपरा में देवता का सेवक) मानते थे।
बाबा बोंगा, पेन आदि वनवासी देवी-देवताओं के प्रति गहरी श्रद्धा रखते हुए भी सभी धर्मों को समादर देते थे।
उनकी जीवन शैली अत्यंत सादगी भरी थी; वे जंगलों में झोपड़ी बनाकर रहते थे, वनवासियों की तरह ही खाते-पीते थे।
अंतिम वर्ष और विरासत 1990 के दशक में वे छत्तीसगढ़ के बस्तर और मध्य प्रदेश के धार-झाबुआ-बड़वानी क्षेत्र में सक्रिय रहे।
2005 के आसपास उनका देहावसान हुआ (सटीक तिथि अलग-अलग स्रोतों में अलग मिलती है)।
आज भी मध्य भारत के हजारों आदिवासी घरों में उनकी तस्वीर पूजी जाती है और उन्हें “बाबा” या “गुरु जी” कहा जाता है।

संक्षेप में: ब्रह्म देव शर्मा उस दुर्लभ व्यक्ति थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन बाहरी लोग जो “वंचित” या “असभ्य” कहते थे, उन वनवासी समाजों की संस्कृति, भाषा, अधिकार और आत्मसम्मान के लिए समर्पित कर दिया। वे न तो किसी बड़े एनजीओ के नेता थे, न सरकारी योजनाओं के लाभार्थी, बल्कि पूरी तरह स्वतंत्र और स्वनिर्भर भाव से आदिवासियों के साथी बने रहे।
तुमुल महाकाव्य का सारांश

वेरियर एल्विन का योगदान
तुमुल महाकाव्य का सारांश
तुमुल महाकाव्य (Tumul) का सारांशतुमुल गोंड जनजाति का सबसे पवित्र और सबसे लंबा मौखिक महाकाव्य है, जिसे गोंडी भाषा में “तुमुल” या “तुमल” कहा जाता है। इसे पारधी-बारदी (गोंड पुजारी-गायक) पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से गाते आए हैं। ब्रह्म दत्त शर्मा ने इसे सबसे पहले 1970-80 के दशक में दर्ज किया और हिंदी में इसका पूर्ण अनुवाद-संकलन किया (पुस्तक का नाम भी “तुमुल” ही है)। यह काव्य लगभग 12-15 हजार पंक्तियों का है और इसमें गोंड समाज की पूरी विश्वदृष्टि, सृष्टि-कथा, देवता-परंपरा और नैतिक मूल्य समाए हुए हैं।मुख्य कथानक और भाग (संक्षिप्त सार)सृष्टि की रचना और महादेव-बारादेव (बड़ा देव) शुरू में कुछ भी नहीं था, केवल अंधेरा और पानी था।
उस जल में महादेव (पारब्रह्म या बड़ा देव) सो रहे थे।
महादेव ने सबसे पहले कछुआ (कछुआ पेन) पैदा किया, जो पृथ्वी को अपनी पीठ पर उठाए हुए है।
फिर महादेव ने कौवा, चील, गिद्ध जैसे पक्षियों को जन्म दिया ताकि वे दुनिया की खोज करें।
पहला मनुष्य: लिंगो (लिंगो पेन) महादेव ने 16 खंभों (या 16 भाइयों) को जन्म दिया, जिनमें सबसे छोटा और सबसे शुद्ध था लिंगो।
लिंगो को महादेव ने दुनिया में भेजा और कहा कि वह मानव जाति का आदि पुरुष बनेगा।
लिंगो जंगल में तपस्या करता है, लेकिन उसे कोई साथी (स्त्री) नहीं मिलती।
लिंगो की कैद और मुक्ति (कथा का सबसे प्रसिद्ध भाग) लिंगो को उसके 16 बड़े भाइयों ने ईर्ष्या के कारण पाताल लोक में एक लोहे के पिंजरे में कैद कर दिया।
सात साल तक लिंगो कैद में रहा। उसकी तपस्या से उसका पसीना जमीन पर गिरता रहा, जिससे वहाँ बांस के सात पोर उगे।
एक दिन एक बुढ़िया (या भैंस रूप में पार्वती) वहाँ से गुजरी और लिंगो की आवाज सुनी।
उसने लिंगो को मुक्त कराया। लिंगो ने बदले में उसे आशीर्वाद दिया कि गोंड लोग हमेशा उसकी पूजा करेंगे।
मानव जाति की शुरुआत मुक्त होने के बाद लिंगो को चार कुमारियाँ मिलीं (कुछ कथाओं में सात बहनें), जो कोहरे या बादल से पैदा हुई थीं।
इन चार बहनों से ही गोंड के चार प्रमुख सगा (क्लैन) चले: सात खंभा, चार खंभा, आदि।
इस तरह गोंड समाज की वंश-परंपरा शुरू हुई।
देवताओं का आविर्भाव और गाँव की स्थापना लिंगो ने सभी गोंड देवताओं (बड़ा देव, बूढ़ादेव, नारायणदेव, डोंगरदेव आदि) को जागृत किया और उन्हें गाँव-जंगल में स्थान दिया।
उसने गाँव के बीच में सaja घुर (साजा वृक्ष) लगाया, जिसके नीचे आज भी गोंड लोग अपना कुल-देवता रखते हैं।
लिंगो का विलय और अमरत्व अंत में लिंगो अपने शरीर को त्याग कर बांस के पेड़ में समा गया या आकाश में चला गया।
गोंड मान्यता है कि लिंगो आज भी जंगल में घूम…
वेरियर एल्विन का योगदान
वेरियर एल्विन (Verrier Elwin) का भारतीय आदिवासियों-वनवासियों के लिए योगदानवेरियर एल्विन (1902–1964) ब्रिटिश मूल के मानवशास्त्री, लेखक और आदिवासी-हितैषी थे, जो बाद में भारतीय नागरिक बने। उन्होंने अपना पूरा जीवन मध्य भारत और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाजों के अध्ययन, संरक्षण और उनके अधिकारों की लड़ाई के लिए समर्पित कर दिया। नेहरू जी उन्हें “आदिवासियों का मसीहा” कहते थे।मुख्य योगदान क्षेत्रआदिवासी संस्कृति का वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण एल्विन ने सबसे पहले आदिवासियों को “जंगली” या “असभ्य” मानने वाली औपनिवेशिक धारणा को चुनौती दी और सिद्ध किया कि उनकी अपनी उन्नत संस्कृति, कला, धर्म और सामाजिक व्यवस्था है।
प्रमुख किताबें:The Baiga (1939) – बैगा जनजाति पर क्लासिक मोनोग्राफ
The Muria and their Ghotul (1947) – मुरिया गोंड के गोतुल (युवा छात्रावास) पर विश्व प्रसिद्ध किताब
Maria Murder and Suicide (1943)
The Religion of an Indian Tribe (1955) – मारिया गोंड के धर्म पर
A Philosophy for NEFA (1957) – पूर्वोत्तर भारत के लिए नीति दस्तावेज
गोतुल संस्था को बचाने की लड़ाई ब्रिटिश सरकार और मिशनरियों ने मुरिया गोंड के गोतुल (जहाँ युवा अविवाहित लड़के-लड़कियाँ साथ रहकर जीवन-कौशल, नृत्य-गीत और प्रेम सीखते हैं) को “अनैतिक” बताकर बंद कराना चाहा।
एल्विन ने शोध से सिद्ध किया कि गोतुल में बलात्कार या अनैतिकता बहुत कम होती है और यह एक अनोखी सामाजिक-शिक्षा पद्धति है। उनकी किताब के बाद गोतुल पर प्रतिबंध हटा।
आदिवासियों के लिए अलग विकास नीति (Isolation → Integration with Protection) पहले वे पूर्ण अलगाव (Isolation) के पक्षधर थे, बाद में नेहरू के साथ मिलकर “संरक्षित एकीकरण” की नीति बनाई।
1950-60 के दशक में नेहरू की पंचशील नीति (आदिवासी विकास के पाँच सिद्धांत) को तैयार करने में एल्विन का बहुत बड़ा हाथ था।
उन्होंने सुझाया कि आदिवासियों पर बाहरी संस्कृति जबरन न थोपी जाए, उनकी भाषा, कला और परंपराएँ सुरक्षित रहें।
पूर्वोत्तर भारत (NEFA – आज का अरुणाचल प्रदेश) का विकास 1954 से मृत्यु तक वे नेहरू के सलाहकार और NEFA के मानवशास्त्रीय सलाहकार रहे।
सैकड़ों जनजातियों (अदी, अपातानी, निशि, गालो आदि) का पहला वैज्ञानिक अध्ययन किया।
स्कूल, अस्पताल और सड़कें बनवाते समय यह ध्यान रखा कि उनकी संस्कृति को नुकसान न हो।
आदिवासी साहित्य और कला का संरक्षण सैकड़ों लोककथाएँ, गीत, नृत्य और चित्रकला को लिखित रूप दिया।
बैगा, गोंड, मुरिया, मारिया, कोरकू, भिलाला, सहरिया आदि की मौखिक परंपराओं को बचाया।
विवाद और आलोचनाकुछ राष्ट्रवादी लोग उन्हें “आदिवासियों को हिंदू समाज से अलग रखने वाला” मानते थे।
मिशनरियों ने उन्हें “ईसाई-विरोधी” कहा क्योंकि उन्होंने कई जगह धर्मांतरण पर रोक लगवाने में मदद की।
कुछ वामपंथी उन्हें “रोमांटिक आदिवासी-प्रेमी” कहकर खारिज करते थे।

अंतिम वर्ष और विरासत1964 में बॉम्बे (मुंबई) में देहांत।
भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण (मरणोपरांत) दिया।
आज भी मानवशास्त्र के छात्रों के लिए उनकी किताबें अनिवार्य पाठ्य हैं।
मध्य भारत और पूर्वोत्तर के आदिवासी उन्हें “एल्विन बाबा” या “साहब” कहकर याद करते हैं।

संक्षेप में: वेरियर एल्विन पहले विदेशी थे जिन्होंने आदिवासियों को “अ study subject” नहीं, बल्कि अपने परिवार की तरह अपनाया और उनकी संस्कृति को वैश्विक पटल पर सम्मान दिलाया। उनके बिना आज का आदिवासी अध्ययन और नीति अधूरा होता।
गोतुल प्रथा का विस्तार

जवाहरलाल नेहरू का योगदान
गोतुल प्रथा का विस्तार
गोतुल प्रथा: मुरिया, हिल मारिया और कुछ गोंड आदिवासियों की अनोखी सामाजिक-शिक्षा व्यवस्थागोतुल छत्तीसगढ़ (बस्तर, कांकेर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, कोंडागाँव) और मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र की सीमा के मुरिया गोंड, हिल मारिया तथा कुछ भैंस-बफेलो गोंड समुदायों की सबसे प्रसिद्ध और अनुपम युवा-संस्था है। यह दुनिया की बहुत कम बची हुई ऐसी प्राचीन व्यवस्थाओं में से एक है जहाँ अविवाहित युवक-युवतियाँ रात में एक ही छत के नीचे रहते हैं, लेकिन वहाँ नैतिकता, अनुशासन और सामुदायिक नियम अत्यंत कड़े होते हैं।गोतुल के प्रकारपुराना (क्लासिक) गोतुल – अब बहुत कम बचा (मुख्यतः अबूझमाड़ क्षेत्र में)
लड़के-लड़कियाँ पूरी रात साथ रहते हैं, सोते हैं, लेकिन यौन-संबंध पूर्णतः वर्जित या बहुत नियंत्रित।
जैत गोतुल – विवाह के बाद भी कुछ रातें गोतुल में बिताई जाती हैं।
आधुनिक/नया गोतुल – आज ज्यादातर गाँवों में केवल नाच-गाना और सामूहिक काम के लिए रह गया है; रात में लड़कियाँ घर लौट जाती हैं।

गोतुल की संरचना और नियमगोतुल गाँव के बाहर या किनारे पर एक बड़ा लकड़ी-मिट्टी का घर होता है (बहुत सुंदर नक्काशी वाला)।
हर गोतुल के अपने पदाधिकारी होते हैं (लड़कों और लड़कियों दोनों के):बेलोसा / चेतक – लड़कों का नेता
बेलोसी / सेलानी – लड़कियों की नेता
कोटवार – अनुशासन रक्षक
मंझी/सिरहा – पुजारी या बड़ा भाई जैसा
हर शाम सूरज डूबते ही सारे अविवाहित युवक-युवती (लगभग 12-13 साल से विवाह तक) गोतुल आते हैं।
रात भर नाच (डंडा नृत्य, सैला, हुल्की, कर्मा), गीत, ढोल-मांदल, कहानी, चुटकुले, यौन-शिक्षा, खेती-शिकार की बातें होती हैं।
सुबह तड़के सब घर लौटते हैं, दिन में खेतों में काम करते हैं।

गोतुल में सीखी जाने वाली प्रमुख बातेंनृत्य-गीत और संगीत (मुरिया नृत्य विश्व प्रसिद्ध हैं)
प्रेम और यौन-शिक्षा (खुले लेकिन जिम्मेदारी भरे तरीके से)
सामुदायिक अनुशासन और सम्मान
स्वच्छता, मेहमाननवाजी, बड़ों का आदर
गाँव के नियम-कानून और विवाद सुलझाना
प्राकृतिक चिकित्सा, जड़ी-बूटी, शिकार कौशल

यौन-संबंध और “मोतियारी” संबंधपुराने गोतुल में “मोतियारी” (स्थायी प्रेमी-प्रेमिका) बनाने की परंपरा थी।
एक लड़का और लड़की आपस में चुनते थे और पूरी गोतुल अवधि तक वही साथी रहते थे।
लेकिन गर्भधारण को बहुत बड़ा अपराध माना जाता था। अगर हो जाता तो दोनों को कड़ी सजा (गाँव से निकाला जाना या जुर्माना)।
इसलिए ज्यादातर संबंध केवल छुअछुत, चुंबन, आलिंगन तक सीमित रहते थे। पूर्ण संबंध बहुत कम और गुप्त होते थे।
वेरियर एल्विन ने अपने शोध में पाया कि गोतुल वाले युवक-युवतियों में बलात्कार, व्यभिचार और यौन रोग बाहरी समाज से बहुत कम थे।

आज की स्थिति (2025 तक)सरकारी स्कूल, टीवी, मोबाइल और मिशनरी प्रभाव से अधिकांश गाँवों में पुराना गोतुल खत्म हो चुका है।
अब ज्यादातर जगहों पर केवल “सांस्कृतिक गोतुल” बचा है – जहाँ रात में लड़कियाँ नहीं रुकतीं।
बहुत कम गाँव (विशेषकर अबूझमाड़ के अंदरूनी इलाके) में अभी भी पुरानी शक्ल में गोतुल जीवित है।
छत्तीसगढ़ सरकार और कुछ एनजीओ अब इसे “सांस्कृतिक धरोहर” के रूप में संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।

निष्कर्षगोतुल कोई “फ्री सेक्स” की जगह नहीं था जैसा कि बाहर के लोग प्रचार करते थे। यह एक अत्यंत अनुशासित, सामुदायिक और रचनात्मक युवा-विश्वविद्यालय था, जहाँ बच्चे समाज के लिए जिम्मेदार और कुशल नागरिक बनकर निकलते थे। वेरियर एल्विन ने ठीक ही लिखा था:“गोतुल मुरिया समाज का दिल है। अगर गोतुल मर गया तो मुरिया संस्कृति भी मर जाएगी।”
आज गोतुल हमें यह सिखाता है कि यौन-शिक्षा और प्रेम को भी सामुदायिक अनुशासन और सम्मान के साथ सिखाया जा सकता है।
मुरिया नृत्य का विस्तार

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