विवेचना: ऋषि पंचमी कहीं कृषि पर्व तो नहीं?

ऋषि या कृषि पंचमी ?
#Sasyaved
भादौ की पंचमी को ऋषि पंचमी के रूप में मनाया जाता है। मैं अकसर देखता हूं कि इस दिन व्रतार्थी महिलाएं अपने घर के आसपास खड़ी वनस्‍पति को खोजने जाती हैं। सांवा, मलीचि, अपामार्ग, दूर्वा आदि को खोजती है और उखाड़कर ले आती है। घर पर उनको पीले परिधान या धागों में लपेटती हैं और ऋषि बनाकर पूजा करती हैं। व्रतवार्ता ताे महाभारत के प्रसंग की करती हैं ही… मगर मैं यह परंपरा देखकर हर बार सोचता हूं कि कहीं यह कृषि पर्व तो नहीं है ? ऋषियों ने इस विद्या के विषय में कहा है-

सस्‍यविद्या च वितता एता विद्या महाफला।
धर्माधर्मप्रणयिनी धर्माधर्म प्रसाधिका।। {सस्यवेद : श्री कृष्ण जुगनू, चौखम्बा)

क्‍योंकि, कृषि की खोज का श्रेय नारियों को जाता है। विल डूईरां ने ‘द लाईफ ऑफ ग्रीस’ में मिथकों पर विचार करते हुए माना है कि औरतें हल के प्रयोग में आने से पहले फावड़े से कृषि कार्य करती थीं, जब हल खेती के लिए आया तो यह कार्य पुरुषों के हाथ चढ़ गया तथापि महिलाएं इससे जुदा नहीं हुईं।

आदिम दौर में पुरुष शिकार के लिए भटकते रहते थे और औरतें जानवरों की हडि्डयों और लक‍ड़ी की गोदनियों से भूमि खोदकर विभिन्‍न कन्‍द-मूल आदि जमा करती थीं, इससे स्‍वाभाविक रूप से औरतों को यह जानकारी मिली कि कौन से पाैधे कहां, किस रूप में और किस मौसम में मिल सकते हैं और उनकी क्‍या किस्‍में-प्रजातियां होती हैं ?
मैंने भी अपनी ‘काश्‍यपीय कृषि पद्धति’ की भूमिका में इस बात को उठाया है। वैसे हमारे यहां देवियों का नामकरण भी इसी कृषि-वनस्‍पति के कारण हुआ है। जैसा कि मार्कण्‍डेय पुराण में कुष्‍मांडा व शाकम्‍भरी के लिए कहा गया है और यही मत बाद में शिवपुराण में भी लिया गया है कि शाक-सब्जियां उगाने के कारण देवी का नाम शाकम्‍भरी हुआ –

आत्‍मदेह समुद्भूतै: शाकैर्लोका भृता यत:।
शाकम्‍भरीति विख्‍यातं तत्‍ते नाम भविष्‍यति।। (शिवपुराण उमासंहिता 50, 35)

क्‍यों अधिकांश औषधियों, सब्जियों आदि का नामकरण स्‍त्रीलिंगवाची हैं, क्‍यों हल की रेखा के नाम ‘सीता’ से औरतों का भी नामकरण किया जाने लगा ? हां, सांवा धान्‍य प्रारंभिक खाद्य औषधि के रूप में माना गया, जैसा कि ‘समरांगण सूत्रधार’ आदि में आया है जो बिना खेत को हांके ही उत्‍पन्‍न हो जाता है और फिर ऋषि पंचमी के दिन इसी का आहार यह मानकर किया जाता है कि इस दिन औरतें हल हांककर उपजाया धान्‍य नहीं खातीं… जरूर ऋषि पंचमी के साथ कहीं न कही कृषि की परंपरा का तथ्‍य निहित लगता है। मित्रगण इस संबंध में अधिक विचार करेंगे। हाँ, इसी दिन रक्षा बंधन की परिपाटी उस युग की याद दिलाती है जबकि भारतीय मूल के कपास के पौधे रुई वाले हो जाते थे और वह ऋषि ज्ञानोपज रक्षात्मक होकर पारस्परिकता का भाव पोषित करती लगती थी।
यों इस दिन कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ सप्त ऋषि का पूजन, स्मरण होता है और इनमें से अधिकांश का सम्बन्ध कृषि से रहा है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए : कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:। जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:।। गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा।।

सस्यवेद : भारतीय कृषि विज्ञान

ऋषियों ने कृषि को हमारी आत्म निर्भरता के लिए बेहद जरुरी बताया है। उन्होंने कृषिकार्य को बढ़ावा देने का भरसक प्रयास ही नहीं किया बल्कि स्वयं कृषि भी की। आश्रमों के आसपास के क्षेत्र को कृषि के लिए उपयोगी बनाया। ये ‘क्षेत्र’ ही ‘खेत’ कहे गए। मिट्टी की प्रकृति काे पहले जाना गया…।

इस खेत की उपज-निपज के रूप में जो कुछ बीज पाये वे परिश्रम की धन्यता के फलस्वरूप धान या धान्य कहे गये। ये धन्य करने वाले बीज आज तक भारतीयों के प्रत्येक अनुष्ठान व कर्मकांड के लिए सजने वाले थाल में शोभित होते हैं। चावल अक्षत रूप में है तो यव के जौ या जव के नाम से जाना जाता है। रसरूप गुड़ के साथ धनिया तो पहला प्रसाद ही स्वीकारा गया है। ऋषिधान्य सांवा है जो शायद पहले पहल आहार के योग्य बना और जिसकी पहचान महिलाओं ने पहले की क्योंकि वे आज भी ऋषिपंचमी पर उसकी पूजा करती हैं।

इन खेतों के कार्यों से जो कुछ अनुभव अर्जित हुआ, वह सस्यवेद के प्रणयन का आधार बना। यह ज्ञान संग्रह से अधिक वितरण के योग्य माना गया। इसीलिये जो कुछ ज्ञान हासिल हुआ, उसे सीखा भी गया तो लिखा भी। सस्यवेद के इस प्रचार को दानकृत्य की तरह स्वीकार किया गया।

‘कृत्यकल्पतरु’ में सस्यवेद के दान की महत्ता लिखी गई है। पराशर का जोर कृषि के लिए मौसम के अध्ययन पर रहा तो काश्यप ने जल की उपलब्धि वाले इलाकों में खेती के उपाय करने को कहा। शाश्वत मुनि ने भूमिगत स्रोतों की खोज के लिए उचित लक्षणों को ‘दकार्गल’ नाम से प्रचारित किया। काश्यप ने पेड़ों की शाखाओं को भी द्रुमोत्पादन क्षेत्र के रूप में स्वीकारा और कलम लगाने के प्रयोग किए। कोविदार ऐसे ही बना… है न रोचक सस्यवेद की परंपराएं।

ऐसे उपाय लोक के गलि़यारे में बहुत हैं। आपको भी कुछ तो याद होंगे ही… पारंपरिक बातों, विशेष कर देशी खाद की बातें तो याद होंगी ही। हमें जरूर बताइयेगा।
जय जय।

✍🏻डॉ0श्रीकृष्ण “जुगनू”

 

रकेशर यानी ऋषि जो चंद्रेश्वर है !
#ऋषि_पंचमी

लोक हमेशा शास्त्र की व्यावहारिक पृष्ठभूमि को धारण करता है। शास्त्र के सत्य लोक से अधिग्रहित होते हैं और कहीं न कहीं उनका व्यावहारिक पक्ष प्रकट रूप होता ही है।
पूर्वजों की स्मृति का पर्व ऋषि पंचमी है। अनेक स्थानों पर इस दिन सरोवर या नदी के तट की पवित्र मिट्टी से सप्त ऋषि (जिनके शास्त्रीय नाम हैं – वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जगदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज) बनाए जाते हैं। उनका विधिपूर्वक पूजन किया जाता है। कुश व मंशा (श्यामक, सांवा धान्य) जो ऋषि धान्य है, से सप्त ऋषि व देवी अरुंधति को तर्पण दिया जाता है। उसके बाद अपने कुल, गोत्र के पूर्वज व मातृपक्ष के पूर्वज के नाम पर तर्पण दिया जाता है।

ऋषि पंचमी की परम्परा में प्राय: लोक वार्ताएं सुनी जाती है। सब की सब कंठस्थ होती हैं और कंथस्थ करवाई जाती हैं। उपवास रखा जाता है। फलाहार के रूप में सांवा के आटे का हलवा, मंशा की ही खीर व तुरी की सब्जी को भोग के बाद काम में लिया जाता है। फलाहार के बाद ये ऋषि विग्रह पुनः विसर्जन किए जाते हैं : आए जहां से, वहां पधारो। आशीष बांटो, जन्म सुधारो।

ग्रामीण महिलाएं इन ऋषि को रकेशर कहती हैं। तर्पण के समय सात रकेशर और एक रकेशर रानी को तर्पण देती है। यह शब्द राकेश्वर का देशज भी है जो चंद्रेश्वर होते हैं। इसलिए ऋषियों को चंद्रमा सी धवल कला, यानी वृद्ध जैसी दाढ़ी आदि धारण करवाई जाती है। ये सब चन्द्रमा के गुण नियामक भी हैं और चंद्रलोक से ऊपर भी।

ये हमारी पुरातन परम्परा है जिसमें प्रकृति प्रदत्त अनमोल महीन धान्य चाहे वो आज खरपतवार कहा जाता हो, उनका विशेष महत्व स्वयं सिद्ध है। यह जीवन में कृषि के महत्व और विकास की स्मृतियां संजोए हुए हैं जबकि आहार के लिए बीज और परिधान के लिए कपास का प्रयोग शुरू हुआ। यही नहीं, गृहस्थ में स्त्री को सम्मान मिला, उपयोगी वस्तुओं के संग्रह का भाव जागा, कला की प्रवृत्ति और कल्पना को साकार करने का मन बना।

मिट्टी से निर्मित ये ऋषि विग्रह मृण कला का बोध देते हैं। मिट्टी हमारी सृजन धरमिता की आधार है। वह नश्वरता का संदेश देती है लेकिन पककर चिरायु होने का ज्ञान भी देती है। पकी मिट्टी ने ही पुरातत्व का आधार स्थिर किया है। पूर्वजों की स्मृति बनाए रखने वाला यह पर्व कितने अर्थों को संजोकर हमें प्रेरित करता है!
( आवश्यक संशोधन सहित)
✍🏻श्री प्रशांत श्रीमाली

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