वीर सावरकर: जिनसे स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेज और बाद में कांग्रेस डरी

महान सावरकर को भारत रत्न क्यों नहीं?
हमारे देश में एक विशेष जमात यह राग अलाप रही है कि जिन्नाह अंग्रेजों से लड़े थे इसलिए महान थे। जबकि वीर सावरकर गद्दार थे क्यूंकि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी। वैसे इन लोगों को यह नहीं मालूम कि जिन्नाह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध सारे कर्म करते थे। जैसे सूअर का मांस खाना, शराब पीना, सिगार पीना आदि। वो न तो पांच वक्त के नमाजी थे। न ही हाजी थे। न ही दाढ़ी और टोपी में यकीन रखते थे। जबकि वीर सावरकर। उनका तो सारा जीवन ही राष्ट्र को समर्पित था। पहले सावरकर को जान तो लीजिये।
1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है.?
2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ…
3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी…
4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र ‘इन्डियन ओपीनियन’ में गाँधी ने निंदा की थी…
5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया…
6. सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुर्माना लगाया … इसके विरोध में हड़ताल हुई… स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा…
7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली… इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया…
8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया…
9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था…
10. ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंहने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी… भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी… पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी…
11. वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे…
12. सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदीबनाकर भारत लाया गया…
13. वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी…
14. सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले- “चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया.”
15. वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आजादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला…
16. वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकड़ और कोयले से कवितायें लिखी और 6000 पंक्तियाँ याद रखी…
17. वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा…
18. आधुनिक इतिहास के वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि-‘आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका.पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः.’अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है…
19. वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया… देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारोंसे डर लगता था…
20. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था…
21.वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके निधनपर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था….
22. वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया…
23. वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधी का शिलालेख लगवा दिया…वीर सावरकर ने दस साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था जबकि गाँधी ने कालापानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा नही चलाया….
24. महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी-देशभक्त, उच्च कोटि के साहित्य के रचनाकार, हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के मंत्रदाता, हिंदुत्व के सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे भव्य-दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे, जिनसे अन्ग्रेजी सत्ता भयभीत थी, आजादी के बाद नेहरु की कांग्रेस सरकार भयभीत थी…
25. वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया… पर आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों का सूर्य उदय हो रहा है..

 

अंग्रेज सरकार वीर सावरकर को पेंशन क्यों देती थी?
वीर सावरकर को अंग्रेज सरकार द्वारा पेंशन देने का कारण

वीर दामोदर सावरकर (जिन्हें विनायक दामोदर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है) को अंग्रेज सरकार ने 1924 से 1937 तक मासिक 60 रुपये की पेंशन (या इसे ‘डिटेंशन अलाउंस’ कहा जाता है) दी थी। यह पेंशन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी कैद के बाद की व्यवस्था का हिस्सा थी। आइए, इसकी पृष्ठभूमि और कारणों को विस्तार से समझें: पृष्ठभूमि

  • काला पानी की सजा: सावरकर को 1910 में नासिक षड्यंत्र मामले में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और 1911 से 1921 तक अंडमान की सेलुलर जेल (काला पानी) में रखा गया। यहां कठोर यातनाएं सहनी पड़ीं।
  • रिहाई की शर्तें: 1921 में उन्हें रत्नागिरि जेल स्थानांतरित किया गया। 6 जनवरी 1924 को रिहा किया गया, लेकिन शर्तों के साथ:
    • रत्नागिरि जिले से बाहर न जाना।
    • राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेना।
    • ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी का वादा (मर्सी पिटिशन के माध्यम से)।
  • यह प्रतिबंध 5 साल के लिए था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे कई बार बढ़ाया और पूर्ण मुक्ति 1937 में मिली।

पेंशन क्यों दी गई?यह पेंशन ब्रिटिश सरकार की एक मानक नीति का हिस्सा थी, जो राजनीतिक कैदियों (जिन्हें ‘स्टेट प्रिजनर’ माना जाता था) के लिए लागू की जाती थी। मुख्य कारण निम्नलिखित थे:

  1. डिटेंशन अलाउंस के रूप में:
    • ब्रिटिश सरकार राजनीतिक कैदियों को जेल से रिहा करने पर ‘रखरखाव भत्ता’ (detention allowance) देती थी, ताकि वे भूखे न रहें और समाज में स्थिर रहें। यह सभी काला पानी के कैदियों का अधिकार था, न कि विशेष सुविधा।
    • सावरकर ने 1929 में अपने खर्चों के लिए आवेदन किया था। उन्होंने 100 रुपये मांगे थे, लेकिन 60 रुपये ही मिले। यह भत्ता 1924-1937 तक चला।
    • उदाहरण: अन्य क्रांतिकारियों जैसे गणेश सावरकर (उनके भाई) को भी इसी तरह की सुविधा मिली थी।
  2. नियंत्रण और निगरानी बनाए रखना:
    • ब्रिटिश सरकार सावरकर को संदिग्ध मानती थी, लेकिन उनकी मर्सी पिटिशन (क्षमा याचिकाओं) के बाद उन्हें ‘सुधर गया’ समझा। पेंशन देकर उन्हें रत्नागिरि में बंगला उपलब्ध कराया गया, जहां निगरानी आसान थी।
    • यह व्यवस्था सुनिश्चित करती थी कि वे स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहें और ब्रिटिश हितों के खिलाफ न सक्रिय हों। कुछ स्रोतों के अनुसार, यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युवाओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती करने के लिए भी प्रोत्साहन का हिस्सा था।
  3. आर्थिक मजबूरी:
    • काला पानी की सजा के बाद सावरकर की डिग्री (बैरिस्टर) अमान्य कर दी गई थी, जिससे रोजगार नहीं मिला। परिवार गरीबी में जी रहा था। पेंशन शांति से जीवन निर्वाह को आवश्यक थी, न कि वफादारी के बदले।

विवाद और  दृष्टिकोण

  • आलोचकों का पक्ष: कुछ लोग (जैसे कांग्रेस नेता) इसे ‘गद्दारी का इनाम’ मानते हैं, क्योंकि सावरकर ने मर्सी पिटिशन लिखीं और गांधी हत्या में नाम आया। वे कहते हैं कि यह ब्रिटिश सहयोग का प्रमाण है।
  • समर्थकों का पक्ष: यह सामान्य सरकारी नीति थी, जो सभी कैदियों को मिलती थी। सावरकर ने क्रांतिकारी गतिविधियों (जैसे अबीनोवा) का नेतृत्व किया था, और पेंशन उनके बलिदान का हिस्सा था, न कि पुरस्कार। 1947 के बाद स्वतंत्र भारत सरकार ने भी उन्हें पेंशन दी।
पहलू
विवरण
राशि
60 रुपये प्रति माह (1929 से आवेदन पर)
अवधि
1924-1937 (रत्नागिरि प्रतिबंध के दौरान)
प्रकार
डिटेंशन अलाउंस (राजनीतिक कैदियों का रखरखाव भत्ता)
शर्तें
राजनीतिक गतिविधि निषेध, रत्नागिरि सीमा, ब्रिटिश वफादारी
स्रोत
ब्रिटिश सरकारी नीति; सावरकर के आवेदन पर
अंग्रेज सरकार वीर सावरकर को पेंशन क्यों देती थी?

वीर सावरकर को अंग्रेज सरकार द्वारा पेंशन देने का कारणवीर दामोदर सावरकर (विनायक दामोदर सावरकर) को ब्रिटिश सरकार ने 1924 से कम से कम 1937 तक (कुछ स्रोतों के अनुसार 1947 तक) मासिक 60 रुपये की राशि प्रदान की थी, जिसे विभिन्न स्रोतों में ‘पेंशन’, ‘अलाउंस’ या ‘स्टाइपेंड’ कहा गया है।

यह व्यवस्था उनकी जेल से रिहाई के बाद की शर्तों का हिस्सा थी, जब वे रत्नागिरि जिले में नजरबंद थे। आइए, ऐतिहासिक संदर्भ, कारण और विवादों को विस्तार से समझें:पृष्ठभूमि

  • कैद और यातनाएं: सावरकर को 1910 में भारत हाउस और फ्री इंडिया सोसाइटी से जुड़ाव के कारण गिरफ्तार किया गया। उन्हें 50 वर्ष की सजा मिली, और 1911 से 1921 तक अंडमान की सेलुलर जेल (काला पानी) में रखा गया, जहां कठोर यातनाएं सहनी पड़ीं। 1921 में उन्हें रत्नागिरि जेल स्थानांतरित किया गया।
  • क्षमा याचिकाएं (मर्सी पिटिशन): कैद के दौरान सावरकर ने कई याचिकाएं दाखिल कीं—1911, 1913, 1917 और 1920 में। इनमें उन्होंने खुद को ‘प्रोडिगल सन’ (भटका हुआ पुत्र) कहा, हिंसा त्यागी, और ब्रिटिश कानून का समर्थन किया। इन याचिकाओं के आधार पर 1924 में रिहाई मिली।
  • रिहाई की शर्तें: 6 जनवरी 1924 को रिहा हुए, लेकिन शर्तें थीं—रत्नागिरि जिले से बाहर न जाना, राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेना, और ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी। यह प्रतिबंध शुरू में 5 वर्ष का था, लेकिन कई बार बढ़ाया गया, और पूर्ण मुक्ति 1937 में मिली (बॉम्बे प्रेसिडेंसी की नई सरकार द्वारा)। ब्रिटिश ने उन्हें एक बंगला और आगंतुकों की अनुमति दी।

पेंशन (या अलाउंस) क्यों दी गई?यह राशि ब्रिटिश सरकार की राजनीतिक कैदियों के लिए एक मानक नीति का हिस्सा थी। मुख्य कारण और दृष्टिकोण निम्न हैं:

  1. रखरखाव भत्ता (डिटेंशन अलाउंस) के रूप में:
    • राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर ब्रिटिश सरकार ‘अलाउंस’ देती थी, ताकि वे आर्थिक रूप से स्थिर रहें और समाज में बिना विद्रोह के रह सकें। सावरकर की संपत्ति जब्त कर ली गई थी, और उनकी बैरिस्टरी डिग्री अमान्य थी, जिससे रोजगार मुश्किल था। यह सभी काला पानी कैदियों का सामान्य अधिकार था।
    • उदाहरण: गांधीजी को नमक सत्याग्रह के दौरान 100 रुपये और 1943-45 में 450-550 रुपये का अलाउंस मिला। सुभाष चंद्र बोस और अन्य कैदियों को भी ऐसी सुविधाएं मिलीं। सावरकर ने 1929 में आवेदन किया था, और 60 रुपये मंजूर हुए।
    • यह जीवनभर की पेंशन नहीं थी, बल्कि नजरबंदी की अवधि (1924-1937) तक सीमित थी।
  2. निगरानी और नियंत्रण बनाए रखना:
    • ब्रिटिश सावरकर को संदिग्ध मानते थे, लेकिन याचिकाओं के बाद उन्हें ‘सुधारित’ समझा। राशि देकर उन्हें रत्नागिरि में रखा गया, जहां निगरानी आसान थी, और वे स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहे। रिहाई के बाद सावरकर ने ब्रिटिश शासन की आलोचना लगभग बंद कर दी।
    • द्वितीय विश्व युद्ध में सावरकर ने क्विट इंडिया मूवमेंट का विरोध किया, ‘स्टिक टू योर पोस्ट्स’ पत्र लिखा, और युवाओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने को प्रोत्साहित किया। वे मुस्लिम लीग से गठबंधन कर प्रांतों में सरकारें बनवाने में शामिल हुए, जो ब्रिटिश हितों से जुड़ा था।
  3. आर्थिक आवश्यकता और अनुरोध:
    • सावरकर ने कई बार पेंशन बढ़ाने के लिए ब्रिटिश को लिखा। यह उनके परिवार की गरीबी और जीविका के लिए था।

विवाद और विभिन्न दृष्टिकोणयह मुद्दा राजनीतिक रूप से विवादास्पद है, क्योंकि सावरकर हिंदुत्व के प्रणेता और स्वतंत्रता सेनानी माने जाते हैं, लेकिन उनकी ब्रिटिश नीतियों का समर्थन आलोचना का कारण है:

  • आलोचकों का पक्ष (जैसे तुषार गांधी, कांग्रेस नेता): इसे ‘गद्दारी का इनाम’ या ‘सहयोग का फल’ मानते हैं। सावरकर को ‘कॉलेबोरेशनिस्ट’ कहा जाता है, क्योंकि याचिकाओं के बाद वे ब्रिटिश के साथ सहयोगी बने, और पेंशन उनकी जीविका का स्रोत थी। 1947 तक पेंशन जारी रही, और यह ब्रिटिश द्वारा प्रदान की गई ‘सस्टेनेंस’ थी।
  • समर्थकों का पक्ष: यह सामान्य ‘अलाउंस’ था, जो सभी राजनीतिक कैदियों को मिलता था, न कि विशेष पुरस्कार। सावरकर ने क्रांतिकारी कार्य किए, और यह प्रतिबंधों के दौरान जीविका के लिए था। 1947 के बाद स्वतंत्र भारत सरकार ने भी उन्हें पेंशन दी (1966 में मौत के बाद परिवार को)। यह सहयोग का प्रमाण नहीं, बल्कि नीतिगत व्यवस्था थी।

तथ्यों का सारांश (तालिका)

पहलू
विवरण
राशि
60 रुपये प्रति माह
अवधि
1924-1937 (कुछ स्रोतों में 1947 तक)
प्रकार
पेंशन/डिटेंशन अलाउंस/स्टाइपेंड (राजनीतिक कैदियों का रखरखाव भत्ता)
शर्तें
रत्नागिरि प्रतिबंध, राजनीतिक निष्क्रियता, ब्रिटिश वफादारी
स्रोत
ब्रिटिश सरकारी नीति; याचिकाओं और आवेदन पर

 

अंग्रेजों ने की वीर सावरकर की छह बार कुर्की

वीर सावरकर की कुर्की: ऐतिहासिक संदर्भ

विनायक दामोदर सावरकर (जिन्हें वीर सावरकर के नाम से जाना जाता है) एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, हिंदुत्व के प्रणेता और क्रांतिकारी थे। ब्रिटिश सरकार ने उनकी राष्ट्रवादी गतिविधियों के कारण उनकी संपत्ति को कई बार कुर्क किया। यह कुर्की मुख्य रूप से नासिक षड्यंत्र मामले (Nasik Conspiracy Case, 1910) से जुड़ी थी, जिसमें उन्हें ब्रिटिश अधिकारी ए.एम.टी. जैक्सन की हत्या में प्रेरणा देने का आरोप लगाया गया। आइए इसकी विस्तृत जानकारी देखें:कुर्की का मुख्य घटनाक्रमतिथि और कारण: 23 दिसंबर 1910 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने नासिक षड्यंत्र मामले में सावरकर को राजद्रोह (sedition) के आरोप में आजीवन कारावास (25 वर्ष) की सजा सुनाई। इस सजा के साथ ही उनकी संपूति की कुर्की (forfeiture of property) कर दी गई। यह कुर्की ब्रिटिश सरकार की रणनीति का हिस्सा थी, ताकि क्रांतिकारियों को आर्थिक रूप से कमजोर किया जा सके।मामले का आधार: सावरकर पर आरोप था कि उन्होंने लंदन से भारत भेजे गए 21 ब्राउनिंग पिस्तौलों का उपयोग जैक्सन हत्याकांड (1909) में करवाया। जैक्सन की हत्या 17-18 साल के अनंत कान्हेरे ने की थी, जो सावरकर के अभिनव भारत सोसाइटी से जुड़े थे।
दूसरी सजा: 30 जनवरी 1911 को जैक्सन हत्याकांड में दोषी ठहराए जाने पर दूसरी आजीवन कारावास (कुल 50 वर्ष) की सजा हुई। इससे पहले ही संपत्ति कुर्क हो चुकी थी।
कुर्की की पुनरावृत्ति:ब्रिटिश सरकार ने सावरकर की संपत्ति को 6 बार कुर्क किया। यह उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर (बाबाराव) की गिरफ्तारी और अन्य राष्ट्रवादी गतिविधियों से जुड़ा था। स्वतंत्रता के बाद भी यह संपत्ति भारतीय सरकार द्वारा लौटाई नहीं गई।

सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के भगूर (नासिक) में हुआ था। वे अभिनव भारत सोसाइटी (1904) के संस्थापक थे, जो सशस्त्र क्रांति पर आधारित थी।
1906-1909 तक लंदन में रहते हुए उन्होंने इंडिया हाउस और फ्री इंडिया सोसाइटी के माध्यम से क्रांतिकारी गतिविधियां चलाईं।
1909 में मदन लाल धींगरा की ब्रिटिश अधिकारी कर्जन वायली पर गोलीबारी के बाद सावरकर निशाने पर आ गए।
1910 में गिरफ्तारी: मार्सेल्स (फ्रांस) में जहाज से समुद्र में कूदकर भागने की कोशिश की, लेकिन पकड़े गए। फ्रांस ने विरोध किया, लेकिन ब्रिटिशों ने उन्हें प्रत्यर्पित करवाया।

परिणाम और जेल जीवन

सावरकर को काला पानी (सेलुलर जेल, अंडमान) भेजा गया, जहां 1911 से 1921 तक कठोर यातनाएं सहीं। जेल में उन्होंने हिंदी प्रचार, कैदियों को शिक्षा और ‘हिंदुत्व’ (1923) जैसी पुस्तक लिखी।
1924 में रत्नागिरी में नजरबंदी के दौरान शर्तों पर रिहा हुए: राजनीतिक गतिविधियां न करना।
मासिक भत्ता: जेल से रिहाई के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ₹60 मासिक भत्ता दिया, जो कैदियों के रखरखाव के लिए था, न कि पेंशन। कुछ आलोचक इसे “पेंशन” कहते हैं, लेकिन यह उनकी कुर्की के बाद की मजबूरी थी।

विवाद और विरासत

समर्थक दृष्टि: सावरकर को “वीर” (बहादुर) कहा जाता है। अमित शाह जैसे नेताओं ने कहा कि कोई परिवार ऐसा नहीं जहां दो भाइयों को 12 साल तक एक जेल में न मिलने दिया गया हो, और संपत्ति 6 बार कुर्क की गई।
आलोचना:  सोनिया गांधी की कांग्रेस  उन्हें “माफीवीर” कहती हैं, क्योंकि जेल में 6-7 दया याचिकाएं (mercy petitions) दीं। हालांकि, यह छूटकर क्रांति जारी रखने को थी।
वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष (1937-1943) रहे। 26 फरवरी 1966 को मुंबई में उनका निधन हुआ। हाल में रणदीप हुडा की फिल्म ‘स्वतंत्रता वीर सावरकर’ (2024) ने उनकी कहानी को फिर चर्चा में लाया।

यह घटना ब्रिटिश दमन की मिसाल है, जो क्रांतिकारियों को तोड़ने को कोई कोर-कसर नही छोडती थी।

‘वीर सावरकर थे भारत के महान सपूत’ – पढ़ें वो खत जिसे इंदिरा गाँधी ने खुद लिखा था

वीर सावरकर, इंदिरा गाँधी
इंदिरा गाँधी का खत, वीर सावरकर को देश का सपूत बताते हुए

लोक सभा चुनावों के ठीक पहले कॉन्ग्रेस राष्ट्रीय प्रवक्ता का पद छोड़ कर शिव सेना में जाने वालीं प्रियंका चतुर्वेदी ने कॉन्ग्रेस को आईना दिखाते हुए ट्वीट किया है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर को लेकर लिखा गया पत्र ट्वीट करते हुए उन्होंने आज की कॉन्ग्रेस को कम्युनिस्ट और वामपंथी [(Commie/Left)”] करार दिया है।

सावरकर थे ‘remarkable son of India’
प्रियंका द्वारा ट्वीट किए गए पत्र में इंदिरा गाँधी ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक’ संस्था के सचिव श्री पंडित बाखले को सावरकर की जन्म शताब्दी को लेकर उनकी योजनाओं के लिए सफलता की कामना की थी। साथ ही उन्होंने न केवल सावरकर को “भारत का विशिष्ट पुत्र” बताया था, बल्कि यह भी कहा था कि उनका ब्रिटिश सरकार से निर्भीक संघर्ष स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में अपना खुद का महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

यह पत्र 20 मई 1980 का है, और इंदिरा गाँधी के हस्ताक्षर पत्र पर साफ़ देखे जा सकते हैं।

कॉन्ग्रेस के लिए असहज स्थिति
इंदिरा गाँधी का यह पत्र कॉन्ग्रेस के लिए असहज स्थिति है, क्योंकि पार्टी पिछले कुछ समय से सावरकर को साम्प्रदायिक और फासीवादी के अतिरिक्त ‘गद्दार’ और ‘कायर’ भी बताने में लगी है। अगस्त में कॉन्ग्रेस के दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र नेताओं ने सावरकर की प्रतिमा पर कालिख पोतने के अलावा उस पर जूतों की माला पहनाई थी। एनएसयूआई (NSUI) की राष्ट्रीय महासचिव सुरभि द्विवेदी ने ट्विटर पर लिखा था कि सावरकर की प्रतिमा उन स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिमा के साथ नहीं लगाई जानी चाहिए, जिन्होंने देश के लिए अपनी जान दे दी। सुरभि ने लिखा था कि सावरकर अंग्रेजों को क्षमा याचिकाएँ लिखा करते थे।

ऐसे में कॉन्ग्रेस की 1947 के बाद की सबसे बड़ी नेत्रियों में गिनी जाने वाली इंदिरा गाँधी के शब्दों और अपने स्टैंड में साम्य समझा पाना कॉन्ग्रेस के लिए बड़ी चुनौती होगी।

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