वैदोपनिषद के बाद रामायण और महाभारत? फिल्म मैट्रिक्स देख लीजिए, समझ जायेंगें

मैट्रिक्स देखिए, तब भी समझ जाएंगे क्यों लिखना पड़ीं रामायण-महाभारत

करीबन बीस साल पहले भारत आज जैसा नहीं था. ये जो कंप्यूटर-इन्टरनेट-फेसबुक वगैरह हैं, ये भी नहीं हुआ करते थे.
हर तरफ व्याप्त इन्टरनेट जब नहीं था तो रेलवे का रिजर्वेशन भी अभी जैसा नहीं होता था. पहले तो तीसरी श्रेणी के लोगों का कोई रिजर्वेशन का हक़ ही नहीं होता था, फिर जब स्लीपर में कैटल क्लास टाइप शुरू हुआ, तो बिना रिजर्वेशन के आप आरक्षित डिब्बे में नहीं घुस सकते ,ऐसा नियम नहीं था.
इन्टरनेट ना होने की वजह से आप हर छोटी-मोटी जगह से आरक्षण करवा भी नहीं सकते थे. बड़े लोगों के लिए था आरक्षण, मामूली आदमी का इसपर कैसा अधिकार?

दो दशक पहले के उस दौर में अगर आपको सहरसा से दिल्ली जाना हो तो एक दिन सुबह की ट्रेन से समस्तीपुर जाना होता था. फिर समस्तीपुर से आरक्षण करवा के शाम की गाड़ी से देर रात वापिस आते.

लोगों को आरक्षण की ज्यादा जानकारी भी नहीं होती थी. ऊपर से लम्बे सफ़र में एक भाषा वाले के पास जब दूसरी भाषा बोलने वाला बैठा होता तो और दिक्कत!

ऐसे ही माहौल में एक बार मौलाना साहब और एक बाबू मोशाय एक ही जगह ऊपर नीचे के बर्थ पर थे. बांग्ला और उर्दू का ज्यादा मेल ना था तो बात चीत क्या होगी?

निदान… बंगाली बाबू अपनी ऊपर की बर्थ पर जा कर सो गए. थोड़ी देर में मौलाना भी नीचे लेट गए.

कुछ समय बाद बंगाली बाबू को शायद शौचालय जाने की जरूरत पड़ी. उतरने की कोशिश करते वो बोले, ओ बाबा एकटू शोरो, आमी पादेबो!

नीचे मौलाना साहब ने सुना फिर अनसुना कर दिया. भद्र पुरुष फिर बोले, ओ बाबा एक टू शोरो (थोड़ा खिसको), आमी पादेबो (मैं पैर रखूँगा).
एक-दो बार तो उनकी बात को मौलाना ने अनसुना किया. आखिर वो खिसिया के उठे, ‘अबे तुझे पादना है, हगना है, मूतना है, जो करना है ऊपर कर! तेरी पाद के लिए मुझे क्यों हैरान परेशान कर रखा है?’

ये अलग-अलग भाषा की समस्या अक्सर होती है. किसी के पाद का मतलब हो या किसी की दस्त का अर्थ, कभी-कभी समझ में नहीं आता.

इसका अच्छा नमूना आपको धार्मिक किताबों में भी दिख जाएगा. आज के दौर में जो भाषा बोली जाती है वो उसमें होती ही नहीं. उसमें जो भाषा होती है, उसका आज के दौर में ज्यादातर अर्थ का अनर्थ ही होता है.

ऐसे में हिन्दुओं को अगर अगली पीढ़ी को उनकी समझ में आने लायक भाषा में हिंदुत्व समझाना काफी मुश्किल लगता है. कई बार खुद भी समझ में नहीं आ रहा होता.

इस समस्या का एक आसान इलाज है कि पकड़ के मैट्रिक्स फिल्म सीरीज़ दिखा दी जाए. इस सीरीज़ की तीन फिल्मों में जितना हिंदुत्व का दर्शन है उतना कई लोगों को खुद भी पता नहीं होता. ऊपर से एक्शन से भरपूर है तो देखने में भी मज़ा आता है.

फिर ये भी समझ आ जाता है कि जब सीधे-सीधे दर्शन की वेद-उपनिषद जैसी किताबें मौजूद थीं तो फिर रामायण-महाभारत जैसे राजदरबार, युद्ध, प्रेम, वियोग, जैसी दर्ज़नों कहानियों वाली किताबें क्यों लिखनी पड़ी.
पहले फिल्मों में देख लीजिये जो रोचक लगे उसे भगवद्गीता में ढूंढ लीजियेगा. आसान है!

कोई चम्मच है ही नहीं! (देयर इज नो स्पून)

जानी पहचानी फिल्म श्रृंखला “मेट्रिक्स” के कई दृश्यों में नायक निओ जब सर्वज्ञ (ओरेकल) से मिलता है तो वहां कोई न कोई बच्चा भी होता है। कई लोग जिन्होंने ये श्रृंखला कई बार देखी होगी,वो “देयर इज नो स्पून” कहते ही दृश्य भी पहचान लेते हैं। इस दृश्य में एक बच्चा बैठे बैठे केवल मानसिक शक्ति से चम्मच को मोड़ रहा होता है। पहले तो ये देखकर निओ को यकीन ही नहीं होता कि उसे कोई नजरों का धोखा नहीं हो रहा है। फिर वो खुद इसकी नक़ल करने की कोशिश करता है और नाकाम होता है।

उसे असफल होता देखकर बच्चा समझाता है कि कोई चम्मच है ही नहीं! (देयर इज नो स्पून) जिसे वो प्रकृति की दूसरी चीज़ें समझ रहा है, वो वास्तव में कोई उससे अलग नहीं, उसके स्वरुप का विस्तार है। जब निओ ये स्वीकारने लगता है तब चम्मच उसकी इच्छा से भी मुड़ने लगता है, और वो आश्चर्यचकित होकर समझना चाहता है कि ऐसा हुआ कैसे? ये भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का उन्तीसवां श्लोक है –

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।

कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है, कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है, और कोई अन्य इसे आश्चर्य के समान सुनता है, और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता। निओ को जो परिवर्तन लाने थे, उसके लिए उसे चम्मच के विषय में सोचना ही नहीं था! जो परिवर्तन उसे प्रकृति (उसके संसार) में चाहिए थे, उनके लिए उसे कहीं बाहर नहीं, बल्कि स्वयं के अन्दर परिवर्तन करना था।

बाकी भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में ही आगे (इकतालीसवें श्लोक में) व्यवसायात्मिका बुद्धि यानी दूसरी कई वस्तुओं से ध्यान हटाकर केवल एक ही विषय पर ध्यान केन्द्रित करने की बात की जाती है। इन सभी हिस्सों को आपको स्वयं ही पढ़कर देखना चाहिए, क्योंकि जो हमने बता दिया है वो केवल नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको खुद ही पढ़ना होगा,ये तो याद ही होगा।
✍🏻आनन्द कुमार

तो साल 1927 में अमेरिकी महिला लेखक मिस कैथरीन मेयो ने एक चर्चित किताब लिखी मदर इंडिया। इस किताब में बताया गया कि कैसे भारत जातिवाद, महिला शोषण, गरीबी, दरिद्रता का घर है और जस्टिफिकेशन था कि क्यों अंग्रेजों को भारत में अपना राज जारी रखना चाहिए ताकि भारत की जनता को सभ्य समाज बनाया जा सके। ये किताब इतनी चर्चित और अंग्रेजों द्वारा पसंद की गई थी कि स्वयं चर्चिल ने ब्रिटिश संसद में इस किताब की प्रति लहराकर भारत पर अंग्रेजों के राज को सही बताया था।

इस किताब के जवाब में लाला लाजपत राय ने अगले साल 1928 में एक किताब लिखी जिसका नाम था दुखी भारत। अब सौल साल के बाद हमें ये किताब उठा कर एक बार देखनी चाहिए। कैथरीन मेयो द्वारा भारत के चित्रण पर लाला लाजपत राय का जवाब पढ़ने लायक है और ध्यान देने लायक बात ये है कि आज भी आपको भारत से प्यार करने वाला कोई भी आम सा आदमी बिल्कुल इन्ही सब सवालों के जवाब देता मिल जाएगो जो लाला लाजपत राय 1928 में दे रहे थे।

देवदासी प्रथा, अछूत, शिक्षा का अधिकार नहीं, हिन्दू-विधवा (रत्ना पाठक का हालिया बयान जोड़ लें) , मां मानते हो और गाय को सड़क पर छोड़ देते हो, अंग्रेज न होते तो भारत कभी एक देश हो ही नहीं सकता था। ये ही सारे सवाल आज भी किए जाते हैं बस अंतर ये है कि तब अंग्रेज इन बातों के पीछे छिपकर अपनी मक्कारी को जस्टिफाई कर रहे थे और आज भारत में ही एक तबका तैयार किया गया है जो भारत के बड़े-बड़े विश्वविद्यायलों में बैठकर मिस मेयो के मदर इंडिया की सोच को हमारी देश के बच्चों में डालते हैं साथ में ये ही लोग दावा भी करके हैं कि अंग्रेजों से ये लोग लड़े थे।

और मिस मेयो का भारत का जवाब लिखने वाले लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने वाले भगत सिंह को अपना विचारधारा का भी बता देते हैं।

100 साल पहले सेम कहानी चल रही थी। अपनी एक किताब में श्रीमती एनी बिसेंट इस बात का जवाब लिख रही थी कि अंग्रेज चले गए तो ‘ब्राह्मणवादी ताकतों का राज आ जाएगा’ कैसे अंग्रेज इस खौफ की आड़ में अपना राज बचाए हुए है।

बिल्कुल ये ही शब्दावली, ये ही सवाल आज भी भी जस के तस हैं
बस तब जवाब देने वाले लाला लाजपत राय अकेले थे
आज अनगिनत हैं

ये ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी भारत ही बिना किसी स्वार्थ के विश्व को राह दिखाएगा।

इस किताब में एक चैप्टर में लाला लाजपत राय ने लिखा भी है कि क्यों शक्तशाली भारत विश्व के लिए आवश्यक है।
✍🏻अविनाश

‘Hello I am leaving on 11th November’ वाला पोस्ट आपने कई लोगों की सोशल मीडिया वाल पर पढ़ लिया होगा | ये है क्या ? अगर आपको भी ये अजीब सा मज़ाक लगा हो तो थोड़ा सा पीछे जाइए | पीछे मतलब कबीर के युग में | फिर आप कबीर के के दोहे याद कीजिये |

एक जो प्रसिद्ध सा दोहा था वो कुछ ऐसा कहता है :-
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ |
जो घर बारे आपना, सो चले हमारे साथ ||

आपको क्या लगता है कबीर आपको अपना घर जला के अपने साथ कहीं की यात्रा पर चलने कह रहे हैं ? जाहिर है जवाब नहीं है | वो किसी घर को जलाने की बात नहीं कर रहे | वो prejudice को, inhibitions को, आपकी मूर्खता को जलाने और पीछे छोड़ने की बात करते हैं | आखरी बार पांच सौ पन्ने कब पढ़े थे पूरे पूरे वो भी सोचिये | जिसकी रोज की जॉगिंग की आदत है उसके सात एक दिन में अचानक पांच किलोमीटर आप नहीं दौड़ सकते ये भी याद रखिये |

अगर आपको कबीर, नानक, तुलसीदास, या कहिये कि किसी भी लेखक का लिखा समझना है तो आपको पूरी बात पढ़नी होगी | अगर दोहा है तो पूरा सन्दर्भ पढ़ना होगा फिर दोहे को देखिये | अगर चौपाई है तो चार लेने में से एक लाइन पढ़ के हा हुसैन का विलाप मत शुरू कर दीजिये | कई बार लोगों का पढ़ने का अभ्यास कम होता है | आखरी किताब पूरी बरसों पहले पढ़ी थी | शब्दों के अर्थ और उनके प्रयोग की जानकारी कभी रही भी होगी तो भूल गए होंगे इतने साल में |

कई बार आपको शब्द ही नहीं शब्दों के बीच में भी पढ़ना होगा | जो लिखा गया है वही नहीं, जो बिना लिखे कह दिया गया वो भी पढ़ना होगा | कम से कम शब्दों में कई बार ज्यादा बात कही जाती है | जंगल की आग जैसा फैलना कहने के लिए एक शब्द दवानल भी काफी होगा | लेकिन दवानल का मतलब पता हो तब ना ? कम अभ्यास और उस से भी कम पृष्टभूमि की जानकारी पर पूरा कैसे समझ लिया ?

पूरा पूरा समझने के लिए कई बार लिखे हुए को बार बार पढ़ने की जरूरत भी होती है | कई बार पूरा समझाने के लिए लेखक अपने लिखे को बार बार सुधारता भी है | जिसे कई बार हजारों सालों में सुधार गया है ऐसा कुछ पढ़ रहे हैं तो गलती ढूंढ पाने की संभावना कितनी होगी ? और हमने जो फेसबुक पोस्ट आज लिखा मगर फिर खुद ही भूल गए और दोबारा देखा ही नहीं, उसके पूरा सही होने की संभावना कितनी होगी ?

बाकी शब्दों के बीच पढ़ने की बात पर आश्चर्य है तो, ऊपर के किसी भी पैराग्राफ में “मूर्ख” या “घमंडी” जैसे शब्द तो कहीं इस्तेमाल नहीं हुए हैं ना ? क्या कहा गया है वो फिर कैसे समझ आया ?
✍🏻आनन्द कुमार

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