शोध:14 अंत-15वीं शताब्दी का प्रारंभ है संत कबीर का काल

कबीर जी का समय डाक्टर रामप्रसाद त्रिपाठी, एम. ए., डी. एस्-सी.

कबीर जी के समय के विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद हैं। उन को रामानंद का शिष्य मान कर कुछ विद्वानों ने उन का जन्म सन् 1399 के लगभग माना है। किंतु डाक्टर फार्कुहर ने उन का जन्म सन् 1440 में स्थिर करने का प्रयत्न किया है। इस लेख में उपर्युक्त दोनों मतों की विवेचना की जायगी। खेद है कि लेखक को प्रयाग में वे सब ग्रंथ नहीं मिल सके जिन की सहायता की उस को आवश्यकता थी। किंतु जो कुछ सामग्री यहाँ प्राप्त हो सकी है उसी के आधार पर यह लेख लिखा गया है।
सब से मुख्य बात यह है कि कबीर जी के समय और उन के जीवन की घटनाओं का आधार जिन ग्रंथों पर है उन में से कोई भी सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से पहले का नहीं है। भक्तमाल, आईन-ए-अकबरी और ग्रंथ साहब की रचना सोलहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में हुई थी। दबिस्ताने मज़ाहिब सत्रहवीं शताब्दी के मध्य भाग में, और भक्तमाल पर प्रियादास की टीका अठारहवीं शताब्दी के पूर्व भाग में रची गई। ग़रीबदास जी ने अठारहवीं शताब्दी के मध्य अथवा उत्तर भाग में अपने ग्रंथ लिखे। और उस के पीछे कबीरकसौटी और कबीरचरित्र आदि ग्रंथों की रचना हुई। खज़ीनतुल असफ़िया की रचना उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हुई।

नाभादास जी ने कबीर का वर्णन केवल एक ही छप्पय में किया है जिस में उन के जन्म, मरण, निवास्थान अथवा जीवन-घटनाओं का उल्लेख नहीं है। हाँ, रामानंद के शिष्यों में उन्होंने कबीर का नाम अवश्य दिया है। अग्रस्वामी की रहस्यत्रय की संस्कृत टीका में भी कबीर का नाम रामानंद के शिष्य के तौर पर लिया गया है। हम इस स्थान पर यह विवाद छेड़ना नहीं चाहते कि कबीर रामानंद के शिष्य थे अथवा नहीं। कबीर के काल-विवेचन के संबंध में हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से कबीर और रामानंद जी का संबंध माना जाता है। संभव है कि उस समय के पहले भी जनश्रुति भक्तमाल के कथन का समर्थन करती रही हो।
रामानंद और कबीर का संबंध मान लेने से कबीर के समय का कुछ अनुमान संभव है। किंतु रामानंद के समय के विषय में भी कुछ मतभेद है। डाक्टर फ़ार्कुहर ने उन का जन्म 1400 में इसलिए माना है कि उस से कबीर की आयु केवल 78 वर्ष माननी पडेगी। सन् 1299 मानने से कबीर की आयु 120 वर्ष माननी पड़ेगी जो फ़र्कुहर साहब मानने के लिए तैयार नहीं हैं। फार्कुहर के मत का समर्थन सर चार्ल्स इलियट ने भी किया है किंतु रामानंद का जन्म डाक्टर भंडारकर और कार्पेन्टर ने 1299 में माना है। 1299 और 1400 में एक शताब्दी का फ़र्क पड़ता है। अतएव डाक्टर फ़ार्कुहर के दिए हुए प्रमाणों पर विचार करना आवश्यक है।

डाक्टर फार्कुहर ने पहला प्रमाण आदि ग्रंथ का दिया है। उन्होंने नामदेव का समय 1400 से 1430 तक डॉक्टर भंडारकर के मतानुसार माना है। डाक्टर भंडारकर ने नामदेव के समय के निर्माण में जो दो प्रमाण दिए है उन में यदि दोनों नहीं तो एक तो अवश्य निर्बल है। प्रोफेसर रानाड़े आदि नामदेव का जन्म 1270 और मृत्यु 1350 में मानते है। नामदेव का समय 1400 से 1430 तक मानने के लिए कोई पुष्ट प्रमाण फ़ार्कुहर साहब ने नहीं दिया और डाक्टर भंडारकर ने भी कोई स्पष्ट और दृढ़ प्रमाण नहीं दिया। अतएव यह बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती कि नामदेव पंद्रहवीं शताब्दी में थे।
दूसरा प्रमाण फ़ार्कुहर ने पीपा जी पर अवलंबित किया है। आप ने मेकालिफ़ साहब के बतलाए हुए सन को मान कर पीपा जी का जन्म 1425 ई. में मान लिया है। इस का कारण आप ने केवल यही लिखा है कि यह सन् उन की धारणा से पूरा मेल खाता है। किंतु यह कोई प्रमाण नहीं। आप ने कनिघम साहब के कथन पर कुछ विचार प्रकट नहीं किया। कनिगहम ने गागरोन राज की वंशावली के आधार पर पीपा जी का समय 1360 से 1385 के बीच माना है अतएव पीपा जी को भी हम निश्चित रूप से पंद्रहवीं शताब्दी का नहीं कह सकते।

तीसरा प्रमाण फ़ार्कुहर ने रैदास का दिया है। आपने रैदास को मीराबाई का गुरु लिखा है। आप के कथनानुसार मीराबाई राणाकुंभ के ज्येष्ठ पुत्र की धर्मपत्नी थीं, और 1470 में चित्तौड़ छोड़ कर चली गई थी। किंतु यह भी कथन किसी दृढ़ प्रमाण पर अवलंबित नहीं। गौरीशंकर हीराचंद जी ओझा ने अपने उदयपुर के इतिहास में मीराबाई को राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र की वधू लिखा है और मीराँ का जन्म 1498, विवाह 1516, वैधव्य 1518-23 के बीच में और देहांत 1546 में माना है। इस हिसाब से मीराबाई सोहलवीं सदी की ठहरती है न कि पंद्रहवीं की। यही नहीं मीराँ को रैदास का शिष्य भक्तमाल में नहीं लिखा है। हाँ, प्रियादास ने किसी झाली रानी का उल्लेख अवश्य किया है किंतु यह नहीं सिद्ध है कि वह झाली की रानी मीराँबाई ही थीं। अतएव जब तक मीराँ का समय तथा उन का रैदास की शिष्या होना निश्चित न हो जाय तब तक फ़ार्कुहर साहब का तीसरा प्रमाण भी ग्राह्य नहीं हो सकता।
चौथा प्रमाण आप ने कबीर का आश्रय ले कर दिया है। आप कहते हैं कि यह निश्चित है कि कबीर की मृत्यु 1518 ईं में हुई किंतु उन का जन्म आप 1399 न मान कर रेवरेंड वेस्टकट, वन और टैगोर का दिया हुआ सन् 1440 मानते हैं। इसलिये कि 1440 मानने से कबीर की आयु 78 वर्ष की हो सकेगी जो 120 वर्ष के मुकाबले में अधिक ग्राह्य है। किंतु यह नहीं समझ में आता कि कबीर की मृत्यु 1518 में कैसे निश्चित हुई। क्या सिंकदर लोदी के संबंध और जन-श्रुति द्वारा ही मृत्यु की तिथि निश्चित हुई। वेस्टकट और की साहब ने इस विषय की विवेचना नहीं की। यदि ख़जीनतुल असफ़िया का प्रमाण माना जाय तो कबीर की मृत्यु 1514 में हुई किंतु यह कथन ठीक नहीं हो सकता। भक्तमाल, आईन, प्रियादास की टीका और दबिस्ताँ में तो मृत्यु का संवत् नहीं मिलता। अतएव कबीर की सहायता से रामानंद के काल का निरूपण उचित और संतोषजनक नहीं जान पड़ता।

कबीर के समय के निर्णय में सिकंदर लोदी का भी प्रमाण दिया जाता है। कुछ जन-श्रुतियों के अनुसार सिकंदर ने कबीर को अनेक कष्ट दिए किंतु वह कबीर का बाल भी बाँका न कर सका। सिकंदर को उस के गुरु शेख़ तक़ी ने कबीर के दमन के लिए उत्तेजित किया था। सिकंदर लोदी का राजत्व-काल 1487-88 से 1517 तक था। यदि जनश्रुति विश्वसनीय है तो कबीर का इसी समय में होना सिद्ध हो जायगा। किंतु सिकंदर और कबीर के संबंध की जन-श्रुतियाँ निम्नलिखित कारणों से विश्वसनीय नहीं जान पड़ती।
कबीर और सिकंदर लोदी के संबंध का उल्लेख भक्तमाल, आईन, अख़बारुल अख़ियार, दबिस्ताँ में नहीं मिलता। इस के अलावा वाक़यात मुश्ताक़ी, तारीख दाऊदी, तारीख़ खानजहाँ लोदी, निज़ामुद्दीन, बदायूनी और तारीख़ फिरिश्ता आदि, जिन के आधार पर सिकंदर का विश्वसनीय इतिहास लिखा जाता है उन के संबंध का उल्लेख नहीं करते। संभव है कि कोई यह कहे कि भक्तमाल में स्थानाभाव से उस का उल्लेख नहीं किया गया और अन्य ग्रंथ मुसलमानों ही ने लिखे हैं जो या तो सुलतान की दमन-नीति के विषय को छिपाना चाहते थे या सुल्तान की पराजय का वर्णन करना नहीं चाहते थे। किंतु ये दोनों शंकाएँ अनुचित है। सिकंदर की दमन-नीति की कुछ लोगों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। और सिकंदर के प्रतिकूल बातों का भी उल्लेख हुआ है।

इस के अलावा तक़ी नामक किसी शेख़ का सिकंदर का गुरु माना जाना किसी मौलिक इतिहास में नहीं मिलता। सिकंदर ने अपने पीर का एक स्थान में संकेत किया है। तारीख़ दाऊदी के अनुसार वे जलेसर के पास किसी स्थान में रहा करते थे। जलेसर के आस-पास रहने वाले किसी शेख़ तक़ी का उल्लेख मुझे अभी तक नहीं मिला। सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के किसी भी विश्वसनीय लेखक ने सिकंदर के संबंध में रामानंद, कबीर या शेख़ तक़ी का वर्णन नहीं किया है। प्रियादास ने ही जो अठाहरवीं शताब्दी के पूर्व भाग में हुए इस जनश्रुति का पहले पहल उल्लेख किया है। किंतु उन के कथन के आधार का कुछ पता नहीं चलता। क्या वे जनश्रुतियाँ जिन का प्रियादास ने आश्रय लिया है सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में प्रचलित न थीं? और यदि थी तो उन से उस समय के लेखकों ने क्यों लाभ नहीं उठाया? क्या वे उन पर विश्वास नहीं करते थे अथवा वे प्रचलति ही नहीं थी?
मानिकपुर के शेख़ तक़ी का वर्णन अखबारुल अख़ियार में अवश्य मिलता है किंतु वह बहुत थोड़ा है और उस में न उन का समय और न सिकंदर अथवा कबीर से संबंध का उल्लेख है। खजीनतुल असफ़िया में उन की मृत्यु का सन् 1574-75 दिया हुआ है किंतु वेस्टकट साहब को इस सन् की सत्यता में संदेह है। उन्होंने आईन-ए-अवध का हवाला देकर लिखा है कि तक़ी मानिकपुरी के गुरु ख़्वाजा कड़क थे जिन की मृत्यु सन् 1305 में हुई थी। इस हिसाब से संभवतः शेख़ तक़ी चौदहवीं शताब्दी में होंगे। वेस्ककट साहब के कथन का पुष्ट प्रमाण मुझे नहीं मिला।

चौदहवीं सदी में तक़ी का होना वेस्टकट साहब के अनुमान के प्रतिकूल था अतएव उन्होंने झूँसी के किसी शेख़ तक़ी का आश्रय ले कर कहा कि शायद कबीर के तक़ी यही झूँसी वाले तक़ी होंगे। किंतु उन्होंने जो कुछ झूँसी के तक़ी के विषय में लिखा है उस की सामग्री उन को शाह फ़िदा हुसेन सरकार पेंशनर से मिली थी। शाह साहब ने अपना कथन किन प्रमाणों के आधार पर किया है उन का मुझे अभी तक पता नहीं चला आशा है कि जैसा कि वे अपने माली बुद्धूदास पर किया करते थे। मौलिक प्रमाण न होने के कारण हम झूँसी वाले तक़ी पर इसलिये भरोसा नहीं कर सकते कि जनश्रुतियाँ और फ़ारसी के कुछ पीछे के लेखक मानिकपुर के ही तक़ी का कबीर से संबंध बताते हैं। झूँसी के तक़ी की मृत्यु सन् 1429 में मानी जाती है। इस सन् को मानने से कबीर को सिकंदर का समकालीन मानना कठिन होगा कारण यह है कि यदि कबीर तीस वर्ष के थे जब वे तक़ी से मिले थे तो कबीर की अवस्था सन् 1429 के पहले ही तीस वर्ष की होगी। यदि आप उन को सिकंदर का समकालीन कहे तो जब वह सिंहासनारूढ़ हुआ कबीर कम से कम 88 वर्ष के होंगे। यद्यपि यह नितांत असंभव नहीं किंतु सुग्राह्य नहीं कहा जा सकता। इस में मतभेद की गुंजाइश भले ही हो पर ऐतिहासिकों का मताधिक्य इस के अनुकूल न होगा। उपर्युक्त शंकाओं के कारण भी झूँसी के तक़ी का आश्रय लेना उपयोगी नहीं प्रतीत होता।
इस विषय को छोड़ने के पहले एक और विषय भी विचारणीय है। सिकंदर के समय में धार्मिक दमन की नीति प्रबल थी। अतएव उस के द्वारा कबीर जी का पीड़ित होना ही दोनों के समकालीन होने का प्रमाण कहा जा सकता है। किंतु इस प्रमाण में ज़ोर इसलिए अधिक नही जान पड़ता कि यह तो काकतालय न्याय की तरह है। इस भावनात्मक अनुमान के लिये कोई पुष्ट प्रमाण ही नहीं है। इस के अतिरिक्त यह भी मानना कुछ सरल नहीं कि प्रबल धार्मिक दमन के समय कबीर जी ने अपना क्रांतिकारी प्रचार किया हो और फिर भी इतने वर्ष जीते जागते रहे हो। उस से तो अधिक धार्मिक प्रचार की संभावना तब हो सकती है जब धार्मिक दमन करने वाली राजनैतिक शक्ति या तो अतीव उदार हो या ऐसी निर्बल हो गई हो कि वह अपनी आज्ञाओं का पालन न करा सके। यह दशा सिंकदर के समय में तो थी नहीं और शासन के अतीव उदार होने का भी कोई प्रमाण नहीं, अतएव शंका के लिये स्थान है। हाँ, सन् 1360 से ले कर कुछ वर्षों तक रही अर्थात् कम से कम 1394 तक तो रही ही होंगी। ये चालीस वर्ष पूर्व देश में क्रांति के थे। इस का ज़ोर शरक़ी वंश  स्थापना के बाद अवश्य कुछ कम हो गया होगा किंतु गड़बड़ कम से कम एक वर्ष तो जारी ही रहा। सारांश यह है कि सन् 1360 से चौदहवीं शताब्दी के अंत तक राजनीतिक क्रांति और धार्मिक क्रांति साथ साथ चलती रहीं। मेरे कथन का यह तात्पर्य कदापि नहीं कि मैं कबीर जी तथा अन्य संतों के आत्म-त्याग के विषय में संदेह करता हूँ। मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि प्रबल प्रचारक और प्रबल प्रचार के लिये चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही सब से उपयुक्त समय था। उपर्युक्त अनुमान चाहे संतोषजनक न हो किंतु यह अनुमान सिकंदरकालीन अनुमान से अधिक सहज और सुग्राह्य है।

कबीर जी के समय के निश्चित करने में रामानंद जी का सहारा लिया जाता है। जैसा पीछे लिखा जा चुका है सोलहवीं शताब्दी से तो अवश्य यह जनश्रुति प्रचलित थी कि कबीर जी रामानंद जी के शिष्य थे। हिंदी और फ़ारसी के लेखक इसी मत का समर्थन करते है। इस पर हम इस लेख में अधिक विचार न करके केवल इतना कहना चाहते हैं कि रामानंद और कबीर का समकालीन होना बहुत संभव है, चाहे कबीर रामानंद जी के शिष्य रहे हो या न रहे हों। रामानंद जी जिस आंदोलन के नेता थे उस का स्पष्ट प्रभाव कबीर जी के ग्रंथों में मिलता है। किंतु आश्चर्य यह है कि उन्होंने रामानंद जी का स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं किया। अयोध्यासिंह उपाध्याय ने ‘काशी में हम प्रगट भये है रामानं चेताए’ वाक्य को उद्धृत किया है। किंतु उस प्रमाण का निराकरण बाबू श्यामसुंदरदास  ने कबीर-ग्रंथावली की भूमिका में कर दिया है। नागरी-प्रचारिणी द्वारा प्रकाशित कबीर-ग्रंथावली में मुझे कहीं भी रामानंद जी का उल्लेख नहीं मिला। हाँ, बाबू बालगोविंद मिस्त्री ने इंडियन प्रेस, प्रयाग से बीजक का जो संस्करण प्रकाशित किया है उस में पृष्ठ 216 पर रामानंद रामरस माते। कहहिं कबीर हम कहि कहि थाके मिलता है किंतु यह रामानंद शब्द संभवतः नामवाची नहीं है क्योंकि न तो प्रसंग से ही प्रतीत होता है और न गुरुमुख टीका में ही वह नामवाची माना गया है। गुरु ग्रंथ साहब में जो कबीर की वाणी है और जिसे ग्रंथावली में परिशिष्ट रूप में प्रकाशित किया है उस में भी रामानंद जी का उल्लेख नहीं है कबीरदास जी ने गुरु की प्रशंसा अनेक स्थलों पर की है। किंतु यह नहीं बतलाया कि उन के गुरु कौन थे। अतएव केवल रामानंद के समय के सहारे कबीर जी का समय निर्धारण करना पर्याप्त न होगा। इस कथन से यह आशय न समझना चाहिए कि रामानंद के समय से कबीर के समय पर कुछ प्रकाश ही नहीं पड़ता।
रामानंद के अलावा कबीर जी ने अन्य व्यक्तियों का भी इतस्ततः उल्लेख किया है। उन में जयदेव, गोरखनाथ और नामदेव जी का उल्लेख अनेक बार किया गया है। अतएव उन नामों से भी सहायता लेना सर्वथा उचित है।

जयदेव कौन थे? एक जयदेव तो सुप्रसिद्ध गीतगोविंद के रचयिता थे, जो बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के समय में थे। लक्ष्मणसेन का समय बारहवीं शताब्दी का अंतिम भाग माना जाता है। दूसरे जयदेव चंद्रालोक के प्रणेता, नाटककार और नैयायिक है। भक्तमाल में भी दो जयदेव का उल्लेख है। उन में से एक तो गीतगोविंद के रचयिता ही हैं, और दूसरे जयदेव के विषय में कुछ भी नहीं बतलाया गया। गीतगोविंद के जयदेव का वर्णन अनेक भक्तों ने किया है। अतएव यह अत्यंत संभव है कि कबीर आदि महात्माओं ने भी उन्हीं का संकेत किया हो। यदि यह धारणा सत्य है तो कबीर जी बारहवीं शताब्दी के बाद ही हुए होंगे।
दूसरा नाम गोरखनाथ का आया है। गोरखनाथ का भी नाम बहुत प्रसिद्ध है। किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि गोरखनाथ नाम के एक ही अथवा एक से अधिक व्यक्ति थे। संभवतः सुप्रसिद्ध गोरखनाथ एक ही व्यक्ति होंगे। उन के नाम के साथ प्रायः मत्स्येद्रनाथ अथवा मुछंदरनाथ का भी नाम लिया जाता है। इन दोनों की चर्चा हिंदुओं और मुसलमानों ने भी की है। ज्ञानेश्वर जी ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ज्ञानेश्वरी में जिस की रचना सन् 1290 में मानी जाती है, अपनी गुरु परंपरा का उल्लेख किया है जि समें गोरखनाथ को मत्स्येंद्रनाथ का शिष्य लिखा है। उन के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ, गोरखनाथ के शिष्य गहिनी या गैनीनाथ, जिन के शिष्य निवृत्तिनाथ, निवृत्ति के शिष्य ज्ञानदेव जी थे इस परंपरा के अनुसार ज्ञानदेव से तीसरी पीढ़ी में गोरखनाथ थे। ज्ञानदेव तेरहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुए थे अतएव यह मानना अनुचित न होगा कि गोरखनाथ तेरहवीं शताब्दी के पूर्व अथवा मध्य भाग में होंगे। ज्ञानदेव का उल्लेख नामदेव जी ने परलोकवासियों में किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि कबीर जी तेरहवीं शताब्दी में नहीं हो सकते। वे गोरखनाथ और ज्ञानदेव के पश्चात् अर्थात् तेरहवीं शताब्दी के बाद ही हुए होंगे। हम यह पीछे लिख आ हैं कि नामदेव को चौदहवीं शताब्दी के बाद मानने के लिये कोई पुष्ट प्रमाण नहीं। उन को चौदहवीं शताब्दी में न मानने का कोई विशेष कारण नहीं जान पड़ता।

कबीर संप्रदाय की एक जनश्रुति के अनुसार कबीरसागर में उन का नामदेव से मिलना भी लिखा है। खेद है कि हम इस कथन को असंभव नहीं मानते हुए भी उस पर पूर्ण विश्वास नहीं कर सकते। कारण यह है कि कबीर सागर में कबीर जी का सतयुग में कलियुग तक अनेक रूप धारण करते, मोहम्मद, गोरखनाथ आदि से मिलने का भी उल्लेख है। किंतु यदि हर एक कथन को पृथक् पृथक् जाँचें तो संभवतः नामदेव का काल कबीर के समय से अत्यंत निकट ही होगा। कबीरसागर के चौथे खंड में बीरसिंह बोध है। बीरसिंह बोध में लिखा है कि बीरसिंह देव बघेल राजा ने कबीर को अपना गुरु बनाया। राजा ने उन को उस अवसर पर एक भोज दिया। जिस में नामदेव भी उपस्थित थे। भोजन के उपरांत नामदेव और कबीर में धर्मचर्चा छिड़ी। नामदेव ने पूछा——
कहहु कबीर मोंहि समुझाई,

कहँ तब गुरु शब्द कित पायी।
साहिब कौन सबन के पारा,

मोसे कहहू बचन बिचारा।
साहिब कौन जाहि तुम ध्याओ,

कहवाँ मुक्ति सुरति कित लाओ।
कौन भाँति यम से जिव बाँचे,

भिन्न भिन्न कहहू मोहि साँचे।
आप न समझो बोधो राजा,

राम बिना होय जीव अकाजा।
केतो पढ़ै गुन अरु गावै,

बिन हरिभक्ति पार नहिं पावै।
उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दिया है—-

नामदेव भूले तुम जैसे,
हमको मति जानहु तुम तैसे।

निर्गुण पुरुष आहि यक आना,
अस्तुति ताकर बेद मखाना।

शिव ब्रह्मा नहिं पावहिं पारा,
और जीव है कौन बिचारा।

छंद- नित्य निगम अस्तुति अराधै हारि थके विरंच महेश हो।
सबै ऋषि देव अस्तुति राधई तेहि गावत सुरपति शेष हो।।

जेहि गावत नारद शारदादि पार कोई ना लहे।
सोई भेद सतगुरु गावही कोई संत ज्ञानी चित गहे।।

सोरठा- भूजहिं हरि हर देव, जड़ मूरति पूजत बहे।
निशि दिन लावत सेव, जो रक्षक भक्षक अहै।।

नामदेव तब सुनत लजाने।
नहिं पाये भेद मनहिं पछताने।

सुनि लजाय के उठि सो गयऊ।
राजा तबहिं कहत अस भयऊ।।

इस जनश्रुति पर विश्वास न करने के अन्य कारणों में एक यह भी है कि इस से यह स्पष्ट नहीं कि इस के नामदेव वही महात्मा है जिन का महाराष्ट्र में ही नहीं किंतु उत्तर भारत में भी बहुत आदर हुआ था। यद्यपि यह असंभव भी नहीं कहा जा सकता।
सारांश यह है कि कबीर जी का पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में और सोहलवीं शताब्दी के आरंभ में होना हमारे मत से ग्राह्य नहीं हो सकता यदि रामानंद का जन्म 1299 में मान लिया जा तो उन का काल चौदहवीं शताब्दी मानने में कोई कठिनाई नहीं। कबीर जी का रामानंद जी से संबंध संभवतः तब हुआ होगा जब कि उन का महत्व बहुत बढ़ गया होगा। इस धारणा के अनुकूल कबीर जी रामानंद जी से चौदहवीं शताब्दी के मध्य भाग में या उस के बाद ही मिले होंगे जिस समय कबीर जी रामानंद जी से मिले होंगे उन की अवस्था कम रही होंगी क्योंकि जनश्रुति ऐसा ही कहती है। यदि यह अनुमान ठीक है तो कबीर जी का जन्म चौदहवीं शताब्दी के मध्यकाल में हुआ होगा।

चौदहवीं शताब्दी के मध्यकाल में कबीर का जन्म मानने से वे पीपा के समकालीन हो सकते हैं। यह हम लिख चुके हैं कि जनरल कनिंगहम ने पीपा जी का समय 1360 से 1385 तक माना है। अतएव यह स्पष्ट है कि पीपा भी चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और नामदेव भी यदि उन के समकालीन नहीं तो अत्यंत निकट ठहरेंगे, क्योंकि उन का समय भी चौदहवीं शताब्दी के मध्य काल में माना जाता है। इस के अलावा ख़्वाजा कड़क के शिष्य शेख़ तक़ी मानिकपुरी भी आईन-ए-अवध में दिए हुए सन् के अनुसार चौदहवीं शताब्दी में आते है। यह हम स्पष्ट कह देना उचित समझते है कि आईन-ए-अवध के उल्लेख पर अन्य प्रमाण न होने के कारण पूरा विश्वास करना कठिन है।
चौदहवीं शताब्दी के मध्यकाल से तुग़लक वंश का पतन आरंभ होता है। फिरोज़ तुग़लक जब बंगाल से निष्फल लौटा और बंगाल स्वतंत्र हो गया तब उस का प्रभाव पूर्व देश में ऐसा पड़ा कि वहाँ भी शासन अस्त-व्यस्त हो गया। हिंदू राजे प्रबल हो गए और साम्राज्य के विरोध में कटिबद्ध हो गए। इसी हिंदू क्रांति के अवसर पर रामानंद आदि धार्मिक क्रांति के नेता हुए थे।

इस संबंध में एक और बात विचारणीय है। फैज़ाबाद के एक सुशिक्षित सज्जन मुझ से आ कर मिले थे- खेद है कि मुझे उन का नाम स्मरण के आधार पर लिखे थे जिस में रामानंद जी का जीवनचरित्र है। मूलपुस्तक, वे कहते थे कि, अयोध्या के किसी रामानंदी महात्मा के पास है। मूलपुस्तक की भाषा भी कुछ ऐसी थी कि वह साधारणतया समझ में नहीं आती। उन्होने बड़े परिश्रम से उस का छायानुवाद किया था। मैंने उन के लेखों को सरसरी दृष्टि से पढ़ा। उस समय कबीर पर कुछ लिखने का विचार मेरे मन में न था इस लिये मैंने उस से नोट नहीं लिए। यदि यह लेख पढ़ने वालों में से उन सज्जन का पता कोई जानते हों या उन महात्मा जी का जिन के पास मूलपुस्तक है पता जानते हों तो कृपा कर मुझे सूचना भेज कर अनुगृहीत करें।
उस लेख में एक स्थान पर यह उल्लेख था कि रामानंद उस समय विद्यमान थे जब तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर का आक्रमण सन् 1398 में हुआ। उस समय रामानंद बहुत वृद्ध हो गए होंगे। मैं यह नहीं कह सकता की यह कथन कहाँ तक सत्या है। इस का निर्णय तो शायद मूलपुस्तक की परीक्षा करने पर ही हो सकेगा। किंतु रामानंद का तैमूर का समकालीन होना उपर्युक्त विवेचना के अनुकूल अवश्य प्रतीत होता है।

सारांश यह है कि कबीर का समय चौदहवीं शताब्दी का उत्तर काल और संभवतः पंद्रहवीं शताब्दी का पूर्वकाल मानना अधिक युक्तिसंगत जान पड़ता है। सिकंदर लोदी के समय में उन का होना सर्वथा संदिग्ध है। केवल जनश्रुतियों के आधार पर ही ऐतिहासिक तथ्य स्थिर नहीं हो सकता। मैं अभी इस विषय का अध्ययन कर रहा हूँ। अतएव मैं यह नहीं कह सकता। मैं अभी इस विषय का अध्ययन कर रहा हूँ अतएव मैं यह नहीं कह सकता कि मेरी सांप्रतिक धारण ठीक ही है। संभव है कि विद्वज्जन का ध्यान इस विषय की ओर आकर्षित हो और वे नया प्रकाश डालने का प्रयत्न करें। कबीर जी के समय का निर्णय होना भारतीय सभ्यता और इतिहास के सेवकों के लिये अत्यंत आवश्यक है।

 

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