संपादकीय: समान नागरिक संहिता विकास को होगी लंबी छलांग
A Good Ucc Can Push India On The Way Of Progress And Gender Just Legal Atmoshpere
अच्छी UCC का मौका नहीं चूके भारत, तुष्टीकरण पर तगड़े चोट से खुल सकता है प्रगति का बड़ा दरवाजा
केंद्र सरकार ने संसद में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पेश करने की संभावना टटोली है। भारत में फैमिली लॉ, वर्तमान में धार्मिक परंपराओं पर आधारित हैं और लैंगिक भेदभाव के कारक हैं। ऐसे में यूसीसी इनक कमियों को सुधारकर भारत को आगे बढ़ाने का बड़ा मौका हो सकता है।
अच्छी यूसीसी भारत के लिए शानदार अवसर है।
मुख्य बिंदु
संविधान निर्माण के वक्त से ही देश में समान नागरिक संहिता (UCC) पर बहस जारी है
मूल अधिकार वाले अध्याय की मसौदा समिति के तीन सदस्यों ने उठाया था UCC का मुद्दा
यूसीसी पर राजनीतिक एजेंडे के कारण सार्थक बहस नहीं हो पाती है जिससे नुकसान होता है
पिछले कुछ महीनों में जहां सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर लंबे समय तक गरमागरम बहस हुई, वहीं केंद्र सरकार ने संसद में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर विधेयक पेश करने की संभावना टटोली। फैमिली लॉ, जिला अदालतों से निकलकर देशव्यापी बहस का केंद्र बन गया। वरना संपत्ति के बंटवारे और तलाक जैसे पारिवारिक विवादों के मामले जिला अदालतों की चौखट पर ही पहुंचा करते हैं। भारत में लोगों पर उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर अलग-अलग कानून लागू होते हैं। इन्हीं व्यक्तिगत कानून में भारतीय परिवार कानूनों का बड़ा हिस्सा समायोजित है। हमारे व्यक्तिगत कानून मूलतः धर्मशास्त्रों में वर्णित नीतियों पर आधारित होने के कारण लैंगिक भेदभाव करते हैं और परिवार की पुरानी धारणाओं पर आधारित हैं। यूसीसी, टुकड़ों में बिखरे और पुराने पड़ चुके फैमिली लॉ को आधुनिक युग के लिहाज से प्रासंगिक बनाने का शानदार अवसर है।
संविधान निर्माता ने भी यूसीसी के प्रश्न पर किया था विचार
संविधान सभा के कई सदस्यों के अनुसार, समान नागरिक संहिता में सभी भारतीयों के लिए फैमिली लॉज की एक प्रगतिशील संहिता बनने का माद्दा है। यह विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत और भरण-पोषण जैसे मुद्दों पर पूरे देश को एक कानून से चला सकता है। हंसा मेहता, अमृत कौर और मीनू मसानी उस समिति के सदस्य थे जिसने हमारे संविधान में मूलाधिकार के अध्याय का मसौदा तैयार किया था। ये सभी लैंगिक न्याय पर आधारित आधुनिक फैमिली लॉ को सभी भारतीयों का मूल अधिकार बनाना चाहते थे। उनके विचारों को तब बहुत ज्यादा क्रांतिकारी माना गया। इसके बजाय, समिति ने इसे (यूसीसी को) नीति निर्देशक तत्व का अंग बनाने का फैसला किया। इसमें सरकार को निर्देश दिया गया कि वो समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करे।
जब इस मसौदा प्रावधान को विधानसभा के समक्ष रखा गया, तो रूढ़िवादी सदस्यों ने इसका कड़ा विरोध किया जिनमें हिंदू भी और मुसलमान, दोनों थे। यह वह समय था जब डॉक्टर भीम राव आंबेडकर और केएम मुंशी ने विधानसभा को यह समझाने की कोशिश की कि स्वतंत्रता के बाद धार्मिक अलगाववाद को लैंगिक न्याय और राष्ट्रीय एकीकरण का बाधक नहीं बनने दिया जा सकता है। उनके ही प्रयासों का असर रहा कि संविधान में अनुच्छेद 44 को शामिल किया गया जिसमें यूसीसी लाने की गारंटी दी गई। हालांकि, इसकी कोई रूपरेखा नहीं बताई गई।
अच्छी यूसीसी देश को बहुत आगे ले जा सकती है
वह 1948 था और अब 75 वर्ष वर्षों के बाद भी विवाद जस के तस कायम है। राजनीतिक प्रपंचों के कारण बार-बार यही बताने की कोशिश की जाती है कि यूसीसी दरअसल हिंदू कानूनों के देशभर में थोपे जाने का एक जरिया है, भले ही इसमें कोई सच्चाई नहीं हो और भले ही यूसीसी कितना भी प्रगतिशील क्यों नहीं हो। दूसरी ओर, हर धार्मिक समूह के पास अपना-अपना पर्सनल लॉ होने का अर्थ है कि सबकी धार्मिक आजादी पूरी तरह सुरक्षित है, चाहे वो पर्सनल लॉ कितने भी भेदभावकारी क्यों नहीं हों।
यूसीसी की बहस को सार्थक बनाने के लिए वक्त की मांग है कि एक समग्र, लैंगिक न्याय आधारित और समावेशी आदर्श कानून हो, जो चर्चाओं और परामर्श के लिए एक मौलिक मसौदे का काम करे। यूसीसी अच्छी हो, इसके लिए इसे एक वैध विवाह और लैंगिक भेदभाव से परे उत्तराधिकार की शर्तें तय करना आवश्यक है। यूसीसी में विवाह बंधन में बंधे जोड़ों के बीच संपत्ति के संयुक्त स्वामित्व का प्रावधान होना चाहिए और यह भी गोद लिए जाने में बच्चे की सर्वोत्तम हितों को प्राथमिकता दी जाए ना कि धार्मिक परंपराओं को। लैंगिक न्याय पर आधारित समान नागरिक संहिता तैयार करने में भारत के लिए धार्मिक रिवाजों को कानूनों से अलग करने का बड़ा अवसर है। इस प्रक्रिया में कानूनी सुधार के साथ-साथ औपनिवेशिक विरासत से भी मुक्ति पाने का रास्ता तैयार हो सकता है।