संस्कृत वाङ्गमय में गृह्यसूत्र, प्राचीन भारत की जानकारी

गृहसूत्र क्या है –

श्रौतसूत्रों के वर्ण्य विषय यज्ञों के विधि-विधान और धार्मिक प्रक्रियाओं से संबंधित हैं।
गृह्य और धर्मसूत्रों की रचना का उद्देश्य
सामाजिक,
पारिवारिक,
राजनीतिक और
विधि संबंधी
नियमों का निरूपण है।
तत्संबंधी प्राचीन भारतीय अवस्थाओं की जानकारी में उनका बहुत बड़ा ऐतिहासिक मूल्य है।
गृह्यसूत्रों में मुख्य हैं:
कात्यायन,
आपस्तंब,
बौधायन,
गोभिल,
खादिर और
शांखायन।

विभिन्न शाखाओं के गृह्यसूत्रों का प्रकाशन अनेक स्थानों से हुआ है।
“शांखायनगृह्यसूत्र” ऋग्वेद की शांखायन शाखा से संबद्ध है।
इस शाखा का प्रचार गुजरात में अधिक है।
कौशीतकि गृह्यसूत्र का भी ऋग्वेद से संबंध है।
शांखायनगृह्यसूत्र से इसका शब्दगत अर्थगत पूर्णत: साम्य है।
इसका प्रकाशन मद्रास युनिवर्सिटी संस्कृत ग्रंथमाला से 1944 ई. में हुआ है।
आश्वलायन गृह्यसूत्र ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा से संबंद्ध है।
यह गुजरात तथा महाराष्ट्र में प्रचलित है।

पारस्करगृह्यसूत्र शुक्ल यजुर्वेद का एकमात्र गृह्यसूत्र है। यह गुजराती मुद्रणालय (मुंबई) से प्रकाशित है।

यहाँ से लौगाक्षिगृह्यसूत्र तक
समस्त गृह्यसूत्र कृष्ण यजुर्वेद की विभिन्न शाखाओं से संबंद्ध हैं।
बौधायान गृह्यसूत्र के अंत में
गृह्यपरिभाषा, गृह्यशेषसूत्र और पितृमेध सूत्र हैं।
मानव गृह्यसूत्र पर अष्टावक्र का भाष्य है। भारद्वाजगृह्यसूत्र के विभाजक प्रश्न हैं।
वैखानसस्मार्त सूत्र के विभाजक प्रश्न की संख्या दस हैं। आपस्तंब गृह्यसूत्र के विभाजक आठ पटल हैं। हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र के विभाजक दो प्रश्न हैं। वाराहगृह्यसूत्र मैत्रायणी शाखा से संबंद्ध हैं।
इसमें एक खंड है।
काठकगृह्यसूत्र चरक शाखा से संबंद्ध है।
लौगक्षिगृह्यसूत्र पर देवपाल का भाष्य है।

गोभिलगृह्यसूत्र सामवेद की कौथुम शाखा से संबद्ध है। इसपर भट्टनारायण का भाष्य है।
इसमें चार प्रपाठक हैं।
प्रथम में नौ और शेष में दस दस कंडिकाएँ हैं।
कलकत्ता संस्कृत सिरीज़ से 1936 ई. में प्रकाशित हैं। द्राह्यायणगृह्यसूत्र,
जैमिनिगृह्यसूत्र और
कौथुम गृह्यसूत्र सामवेद से संबद्ध है।
खादिरगृह्यसूत्र भी सामवेद से संबद्ध गृह्यसूत्र है।

कोशिकागृह्यसूत्र का संबंध अथर्ववेद से है।
ये सब गृह्यसूत्र विभिन्न स्थलों से प्रकाशित हैं।
✍🏻डॉ अभिलाषा द्विवेदी

#सूक्त
‘सूक्त’ शब्द ‘सु’ उपसर्गपूर्वक ‘वच्‌’ धातुसे ‘क्त’ प्रत्यय करनेपर व्याकृत होता है। ‘सूक्त’ शब्दका अर्थ हुआ–‘ अच्छी रीतिसे कहा हुआ’। वैदिक मन्त्रोंके पूर्व निश्चित विशिष्ट मन्त्रसमूह ही सूक्त कहे जाते हैं, जो वेदमन्त्रसमूह एकदैवत्य और एकार्थ- प्रतिपादक हो, उसे सूक्त कहा जाता है। “बृहद्देवता’ ग्रन्थमें ‘ सूक्त’ शब्दका निवर्चन इस प्रकार किया गया हे–‘ सम्पूर्ण ऋषिवाक्यं तु सूक्तमित्यभिधीयते’ सम्पूर्ण ऋषिवचनोंको सूक्त कहते हैं।
“बृहद्देवता’ ( १। १६ )-में चार प्रकारके सूक्तोंका वर्णन प्राप्त होता है। जैसे–( १ ) देवता-सूक्त, (२) ऋषि-सूक्त, ( ३ ) अर्थ- सूक्त और (४) छन्दः-सूक्त–
देवताषार्थछन्दस्तो वैविध्यं च प्रजायते। ऋषिसूक्त तु यावन्ति सूक्तान्येकस्य चै स्तुतिः ॥
श्रूयन्ते तानि सर्वाणि ऋषेः सूक्तं हि तस्य तत्‌। यावदर्थसमाप्तिः स्यादर्थसूक्तं वदन्ति तत्‌॥ समानछन्दसो याः स्युस्तच्छन्दः सूक्तमुच्यते। वैविध्यमेवं सूक्तानामिह विद्याद्यथायथम्‌॥ अभिप्राय यह कि किसी एक ही देवताको स्तुतिमें जितने सूक्त पर्यवसित हों, उन्हें ‘देवता-सूक्त’ तथा एक ही ऋषिकी स्तुतिमें जितने सूक्त प्रवृत्त हों, उन्हें “ऋषि-सूक्त’ कहा जाता है। समस्त प्रयोजनोंकी पूर्ति जिस सूक्तसे होती हो, उसे ‘ अर्थ-सूक्त’ कहते हैं और एक ही प्रकारके छन्द जिन सूक्तोंमें प्रयुक्त हों, उन्हें ‘छन्दः- सूक्त’ कहा जाता है। सामान्यतः सूक्त दो प्रकारके माने जाते हैं–( १ ) क्षुद्रसूक्त और (२) महासूक्त। जिन सूक्तोंमें कम-से-कम तीन ऋचाएँ हों, उनको ‘ क्षुद्रसूक्त’ कहते हैं तथा जिन सूक्तोंमें तीनसे अधिक ऋचाएँ हों, उन्हें ‘महासूक्त’ कहते हैं। इन सूक्तोंके जप एवं पाठकी अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। इनके जप-पाठसे सभी प्रकारके आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक क्लेशोंसे मुक्ति मिलती है। व्यक्ति परम पवित्र हो जाता है और अन्तःकरणकी शुद्धि होकर पूर्वजन्म की स्मृतिको प्राप्त करता हुआ वह जो भी चाहता है, उसे वह मनोऽभिलषित अनायास ही प्राप्त हो जाता है-एतानि जप्तानि पुनन्ति जन्तूञ्जातिस्मरत्वं लभते यदीच्छेत्‌ ॥(अत्रि६।५)इन सूक्तों का जप करनेपर ये प्राणियोंको पवित्र कर देते हैं !सूक्त चार भागो में विभाजित है
१ पंंचदेव सूक्त २ अन्य देव सूक्त
३ लोककल्याणकारीसूक्त ४आध्यात्मिक सूक्त
देवपरक वैदिक सूक्तोंमें इन्द्रादि भावाभिव्यंजक स्तुतियाँ है
✍🏻साभार

 

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