भारत में सरकारी तंत्र: वेतन भारी,आकार छोटा और सेवा रद्दी
Radical Rethinking On Government Jobs Is Must As It Became Election Issue Now
मत: सबसे मोटी सैलरी और सुविधाएं खस्ताहाल, सरकारी नौकरियों की समीक्षा तो होनी ही चाहिए
Government Services In India: भारत में सरकारी सेवाओं में संरचनात्मक समस्याएं हैं। इसका कारण यह है कि सरकार छोटी लेकिन खर्चीली है। इससे नौकरी की उपलब्धता और सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। सरकारी नौकरी पाने की होड़ बढ़ रही है जबकि निजी क्षेत्र की नौकरियों में कमी है।
मुख्य बिंदु
देश में चुनावों का एक बड़ा मुद्दा सरकारी नौकरियों का होता है
देश में सरकारी सेवा पर नजर डालें तो स्थिति भयावह दिखती है
सरकारें खर्च तो बहुत करती हैं, लेकिन सेवाएं कम मिलती हैं
लोकसभा और हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में नौकरियों का मुद्दा छाया रहा। हरियाणा चुनावों से पहले दो घटनाओं ने इस पर बहस छेड़ दी। पहली, लेटरल एंट्री से बड़ी संख्या में अधिकारियों की नियुक्ति का प्रस्ताव। दूसरी, नई पेंशन योजना (एनपीएस) के विकल्प के रूप में निश्चित लाभ (डीबी) पेंशन योजना वाली एकीकृत पेंशन योजना यानी यूपीएस। यह 2004 में हुए भारत के सबसे बड़े आर्थिक सुधारों में से एक को आंशिक रूप से उलटने जैसा था, जब सरकारी कर्मचारियों को डीबी पेंशन योजना से हटाकर एनपीएस में डाल दिया गया था।
हालांकि, दोनों मुद्दों पर हो-हल्ला भारत की सरकारी सेवा वितरण की बड़ी, ढांचागत समस्याओं को छुपाता है। भारत सरकार के बारे में दो बातें अक्सर कही जाती हैं। पहली, यह बहुत बड़ी है। दूसरी, सरकारी खर्च बहुत कम है। सच्चाई इसके विपरीत है। भारत क्षमता के मामले में एक छोटी सरकार चलाता है, लेकिन यह बहुत महंगा संचालन है। आंकड़े इस हकीकत को बयां करते हैं।
सरकारी व्यय बड़ा है, खासकर विकास और आय के समान स्तर वाले देशों की तुलना में। भारत में जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सरकारी व्यय 28.6% है। चीन के लिए यह 33.4%, अमेरिका के लिए 36%, फिलीपींस के लिए 26% और इंडोनेशिया के लिए 17.5% है। मुद्दा कुल खर्च का नहीं है। भारत सार्वजनिक व्यय के रूप में एक समान राशि खर्च करता है। फिर भी, सार्वजनिक सेवाओं का वितरण हमेशा कम ही लगता है।
इसका कारण है क्षमता का अभाव। भारतीय राज्य छोटा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार, कुल कार्यबल के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की संख्या यानी भारत का सार्वजनिक क्षेत्र का आकार 3.8% के साथ दुनिया में सबसे कम है। अमेरिका के लिए, यह 13% से अधिक है जबकि यूके 22% पर है। अधिकांश यूरोपीय देशों में यह 20% से अधिक है। एशिया में भारत के पड़ोसियों में श्रीलंका का लगभग 15%, चीन का 28%, वियतनाम का 8%, मलेशिया का 15% है। राज्य क्षमता के मामले में भारत स्पष्ट रूप से परिधि पर स्थित है।
छोटा आकार, समान परिव्यय का प्रभावी अर्थ है कि भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को बहुत अधिक वेतन मिलता है। सार्वजनिक क्षेत्र के वेतन और रोजगार के विश्व बैंक के एक अध्ययन (1990 के दशक) में पाया गया कि भारत के लिए प्रति व्यक्ति आय के मुकाबले औसत सरकारी वेतन का अनुपात लगभग 7 (गुणा ) है। यह दुनिया में सबसे अधिक था। सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मलेशिया जैसे कहीं अधिक अमीर देश 2 और 4 के बीच हैं। संक्षेप में, भारत सरकारी कर्मियों की बहुत छोटी से फौज के लिए बहुत अधिक पैसा दे रहा है।
मोटी तनख्वाह वाली सरकारी नौकरियां युवाओं को लिए लॉटरी की तरह आकर्षित करती हैं। खासकर निचले पायदान की सरकारी नौकरियों में उसी स्तर की प्राइवेट क्षेत्र की नौकरियों या स्वतंत्र मजदूरी के मुकाबले बहुत ज्यादा पैसा है। सरकारी नौकरियों का जुनून एलएंडटी के अध्यक्ष एसएन सुब्रमण्यम के हालिया उस बयान के विपरीत है, जिसमें उन्होंने अपने व्यवसाय में 30 हजार मजदूरों की कमी के बारे में बताया था। तमिलनाडु के कपड़ा समूह भी उच्च श्रम लागत और कमी से जूझ रहे हैं, जो इसे न केवल बांग्लादेश बल्कि वियतनाम और थाईलैंड के मुकाबले भी प्रतिस्पर्धी नहीं बनने देता है।
राज्य की सीमित क्षमता के कारण बहुत कम शिक्षक, डॉक्टर, जज, नगर निगम के कर्मचारी, पुलिसकर्मी हैं। हमारे शहर गंदे और बदहाल हैं। कानून का पालन एक अधिकार के बजाय एक विशेषाधिकार बन जाता है। स्कूलों, अस्पतालों, सुरक्षा, यहां तक कि पीने योग्य पानी जैसी आवश्यक सेवाओं के निजी विकल्पों को अपनाने वाले मध्यम और उच्च वर्ग के कारण हानिकारक परिणाम सामने आए हैं। कुलीन और प्रतिभाशाली नागरिक समूहों की राजनीति के प्रति उदासीनता का मतलब है कि एक खराब सरकारी कभी नहीं सुधर पाता, एक घटिया सरकारी अस्पताल हमेशा वैसा ही रहता है। मध्य और उच्च वर्ग के टैक्स पेयर खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। भारतीय अमीरों का देश छोड़कर विदेश में जा बसने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण जीवन की बेहतर गुणवत्ता की तलाश है।
यूपीएस, ओपीएस से बेहतर है, लेकिन एनपीएस से एक कदम पीछे है। भारत की सरकारी व्यवस्था यह सुनिश्चित करने में बिल्कुल अक्षम है कि भारतीयों का जीवन स्तर भी विस्तरीय हो। इसके लिए आमूल-चूल पुनर्विचार के जरिए मजदूरी और भर्तियों पर राजनीतिक रूप से कठोर निर्णय लेने की आवश्यकता है। हरियाणा में कांग्रेस और भाजपा को बराबर वोट मिले हैं जिससे पता चलता है कि देश में इस क्रांतिकारी विचार का अभाव है।
लेखक सोमनाथ मुखर्जी एक वेल्थ मैनेजमेंट फर्म में सीआईओ हैं।