“सर तन से जुदा” देश की संप्रभुता-अखंडता को चुनौती,
‘सर तन से जुदा’ का नारा भारत की संप्रभुता-अखंडता को खुली चुनौती: बरेली हिंसा मामले में इलाहाबाद HC ने रिहान की जमानत याचिका की निरस्त, कोर्ट ने आदेश में जो-जो कहा
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बरेली हिंसा के आरोपित रिहान की जमानत याचिका निरस्त की (फोटो साभार : Prabhat Khabar)
प्रयागराज 19 दिसंबर 2025। बरेली हिंसा मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा’ नारे को भारत की संप्रभुता, अखंडता और भारतीय न्याय व्यवस्था के खिलाफ बताते हुए कठोर टिप्पणी की है। कोर्ट ने साफ कहा कि ऐसा नारा न केवल कानून के शासन को चुनौती देता है, बल्कि लोगों को सशस्त्र विद्रोह कको उकसाता है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत एक संवैधानिक देश है जहाँ सजा का निर्धारण कानून करता है, न कि कोई भीड़। इसी आधार पर कोर्ट ने बरेली हिंसा का आरोआरोपि हान की जमानत याचिका निरस्त कर दी।
कानून और देश के खिलाफ नारा
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा’ जैसा नारा, चाहे कोई अकेला व्यक्ति लगाए या कोई भीड़, यह सीधे तौर पर कानून की ताकत को चुनौती देता है। कोर्ट के अनुसार, ऐसे नारे लोगों को हिंसा और हथियार उठाने को उकसाते हैं, जिससे देश की एकता और सुरक्षा को खतरा होता है।
कोर्ट ने बताया कि इसी कारण ऐसा नारा लगाना भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 में अपराध है। जस्टिस ने स्पष्ट किया कि कोई भी नारा जो कानून की प्रक्रिया के बाहर मौत की सजा की वकालत करता है, वह सीधे तौर पर भारतीय कानूनी व्यवस्था के अधिकार को चुनौती देता है।
नारों का धार्मिक और आपराधिक अंतर
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में साफ शब्दों में समझाया कि अलग-अलग धर्मों में बोले जाने वाले नारों का उद्देश्य क्या होता है और कब वे गलत माने जाते हैं। कोर्ट ने कहा कि आमतौर पर ये नारे ईश्वर या गुरु के प्रति श्रद्धा और सम्मान प्रकट करने के लिए होते हैं।
कोर्ट के अनुसार, इस्लाम में ‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाहु अकबर’, सिख धर्म में ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ और हिंदू धर्म में ‘जय श्रीराम’ या ‘हर-हर महादेव’ जैसे नारे श्रद्धा और भक्ति के प्रतीक हैं। इन्हें खुशी, आस्था और धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिए बोला जाता है, इसलिए अपने आप में ये किसी भी तरह से अपराध नहीं हैं।
हालाँकि, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि इन्हीं नारों का इस्तेमाल किसी दूसरे धर्म के लोगों को डराने, धमकाने या हिंसा भड़काने के मकसद से किया जाए, तो वह अपराध की श्रेणी में आ जाता है। कोर्ट ने कहा कि नारे तभी तक स्वीकार्य हैं, जब तक उनका उपयोग गलत इरादे और कानून व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने के लिए न किया जाए।
कुरान में नहीं है ‘सर तन से जुदा’ का जिक्र
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने साफ कहा कि ‘सर तन से जुदा’ जैसा नारा कुरान या इस्लाम के किसी भी प्रामाणिक मजहबी ग्रंथ में कहीं नहीं मिलता। अदालत के अनुसार, इस नारे को इस्लाम से जोड़ना गलत है, क्योंकि इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है।
कुरान में नहीं है ‘सर तन से जुदा’ का जिक्र- कोर्ट
कोर्ट ने कहा कि पैगंबर मोहम्मद ने अपने जीवन में अपमान और तकलीफ सहने के बावजूद हमेशा दया, करुणा और क्षमा का रास्ता चुना। उन्होंने कभी भी किसी के खिलाफ हिंसा करने या सिर कलम करने की बात नहीं कही।
कोर्ट ने कड़े शब्दों में कहा कि पैगंबर के नाम पर हत्या या हिंसा की बात करना उनके आदर्शों के खिलाफ है। कोर्ट के मुताबिक, ऐसी सोच पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं का पालन नहीं, बल्कि उनका अपमान है।
‘सर तन से जुदा’ नारे की जड़ें कहाँ से जुड़ी हैं
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में इस नारे की पृष्ठभूमि पर भी विस्तार से बात की। कोर्ट ने बताया कि अविभाजित भारत में ईशनिंदा से जुड़ा कानून वर्ष 1927 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था, ताकि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले मामलों को रोका जा सके।
कोर्ट ने कहा कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद पाकिस्तान ने इसी कानून को बदल उसमें ईशनिंदा के मामलों में मौत की सजा जोड़ दी। कोर्ट के अनुसार, ‘सर तन से जुदा’ का नारा वहीं से पैदा हुआ और धीरे-धीरे पाकिस्तान से भारत समेत अन्य देशों में फैल गया।
कोर्ट ने यह भी कहा कि कुछ असामाजिक तत्व इस नारे का इस्तेमाल धार्मिक भावना के नाम पर राज्य की सत्ता को चुनौती और दूसरे समुदायों में डर फैलाने को कर रहे हैं, जो पूरी तरह गलत और कानून के खिलाफ है।
बरेली हिंसा और जमानत याचिका निरस्त
यह पूरा मामला सितंबर में बरेली में हुई हिंसा से जुड़ा है,जहाँ इत्तेफाक मिन्नत काउंसिल (INC) अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा के आह्वान पर भीड़ जमा हुई थी। आरोप है कि इस दौरान ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगे, पुलिस पर हमला हुआ और संपत्तियों को नुकसान पहुँचाया गया।
आरोपित रिहान ने जमानत माँगते हुए खुद को निर्दोष बताया था, लेकिन कोर्ट ने केस डायरी के सबूतों को देखते हुए कहा कि आरोपित रिहान उस अवैध भीड़ का हिस्सा था जिसने न केवल आपत्तिजनक नारे लगाए बल्कि सार्वजनिक शांति भी भंग की। साक्ष्यों की गंभीरता देखते हुए कोर्ट ने कहा कि जमानत देने का कोई आधार नहीं बनता और याचिका निरस्त कर दी।
