हमारी शिक्षा और व्यवस्था-कब तक भटकता रहेगा मैकाले का भूत

मैकाले का भूत कब तक भटकता रहेगा
[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख]
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यह लगभग दो वर्ष पूर्व की बात है। मैं केंद्रीय विद्यालय, नर्मदानगर (खण्डवा, मध्यप्रदेश) में अस्थायी अथवा संविदा पर नियुक्त होने वाले शिक्षकों का साक्षात्कार लेने के लिये आमंत्रित था। केंद्रीय संस्थान में अस्थाई शिक्षकों को अपनी सेवाओं के लिये, किसी निजी शिक्षा संस्थान की अपेक्षा अच्छी तनख्वाह मिलती है; बड़ी संख्या में रिक्त पदों के लिये आवेदन प्राप्त हुए थे। लगभग तीन दिन ये साक्षात्कार चले, बहुत से शिक्षकों अथवा शिक्षक बनने के इच्छुक आवेदकों से चर्चा करने एवं इस माध्यम से अध्यापन की वर्तमान समस्याओं को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे आश्चर्य हुआ कि बहुत आसानी से गणित और विज्ञान जैसे विषयों के अच्छे अध्यापक सुलभ हैं। इन श्रेणियों में स्पर्धा भी अधिक थी और गुणवत्ता भी अधिक। जैसे जैसे सामाजिक विज्ञान और भाषा के लिये शिक्षकों के साक्षात्कार आरम्भ हुए अत्यधिक निराशा हुई। जो आवेदक इतिहास पढाने का इच्छुक है उसे विषय की बारीक समझ नहीं, जो भाषा का ज्ञान छात्रों को प्रदान करने के लिये अनुबंधित होने की अपेक्षा रखता है वह साहित्य की बुनियादी समझ से दूर है।

यह परिस्थिति मेरे लिये बहुत समय तक चिन्तन बनी रही। जो इतिहास बोध नहीं रखते वे रटा हुआ पढाने के लिये बाध्य होते हैं, जो साहित्य का मर्म नहीं जानते वे सहायक पुस्तकों के रेडीमेड उत्तर घोल कर छात्रों को पिला सकते हैं, इससे उनकी इतिश्री हो जाती है। क्या हम गहरे यह समझ रहे हैं कि हमारे बच्चे किस अंधे कुँए की ओर जा रहे हैं? हमारी शिक्षा व्यवस्था की दशा-दिशा क्या है? विज्ञान और गणित में अच्छे अध्यापक इस लिये मिल जाते हैं चूंकि आज की पीढी में सभी को चिकित्सक बनना है, अभियंता बनना है। जब छात्र अपने कुछ बनने के लक्ष्य का पीछा नहीं कर पाते तो बीएड कर लेते हैं और शिक्षक बन जाते हैं। अब समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल और हिन्दी जैसे विषय नौकरी प्रदाता नहीं माने जाते अत: महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में इन विषयों को ले कर प्राय: दोयम दर्जे के छात्र (अनेक अपवाद भी हैं) पढ रहे हैं। आप इनसे क्या अपेक्षा रखते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि केवल अध्ययन ही नहीं हमारी अध्यापन व्यवस्था में भी बदलाव की आवश्यकता है? भारत में मैकाले का भूत कब तक भटकता रहेगा?

शिक्षा, समाजशास्त्र और इंसाफ की डगरj
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शिक्षा की समाजशात्रीय परिभाषा भी होनी चाहिये। विविधता से भरे इस देश में हम एकता का वृक्ष फलता फूलता देखना चाहते हैं लेकिन अमीर-गरीब की तरह बच्चों के बीच भी दृष्टिकोण की खाई खोद रहे हैं। किस स्कूल में पढ रहे हो यह सामाजिक स्तर से जुडा प्रश्न बनने लगा है। अपना ही उदाहरण देना चाहूंगा। मेरे पिता केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक थे, मैंने इसी संस्था में अध्ययन किया और बच्चों को भी नि:संकोच इसी संस्था से पढा रहा हूँ। हर दूसरा व्यक्ति राय दे जाता है कि मुझे बच्चों को किसी अच्छे निजी संसथान में पढाना चाहिये। बहरहाल केंद्रीय विद्यालय जो बहुत अच्छे संस्थान माने जाते थे, जहाँ आज भी प्रतियोगिता परीक्षा-साक्षात्कार आदि के पश्चात देश के श्रेष्ठतम अध्यापकों का चयन होता है वे पहाँ पिछ्ड गये हैं? परीक्षा परिणामों के आंकडे देखता हूँ तो निजी संस्थानों से आगे केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय प्रतीत होते हैं तो समाज बच्चों को शिक्षा के साथ साथ क्या और देना चाहता है?

मैं विचारधाओं की चाशनी चाटना नहीं चाहता। मेरी अपनी स्वतंत्र सोच है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और आंतरिक सुरक्षा जैसे विषय निजी हाथों में सौंप कर हम गहरी खाई खोद रहे हैं। विचारधाराओं के लिये समानता की अवधारणा टाटा को टेमरू के बराबर बना देने की हो सकती है लेकिन टेमरू को टाटा की आँखों में आखें डाल कर बराबरी से सपने देखने का हक तो आपकी अ-समान शिक्षाप्रणाली से ही हासिल हो सकता था। ऐसा क्यों हुआ कि आज भी ग्रामीण-कस्बाई और बहुत हद तक शहरी क्षेत्रों में भी अधिकतम विद्यार्थी सरकारी स्कूलों से ही अध्ययन कर रहे हैं लेकिन हमारे सामाजिक चश्में ने उन्हें दोयम दर्जे का सिद्ध कर दिया है? क्यों कोई अभिभावक यह बताते हुए झिझकने लगा है कि उसके बच्चे किसी पाँच सितारा भवन में नहीं सरकारी स्कूल में पढ रहे हैं? समस्या कब और कैसे उत्पन्न हुई यह चर्चा विस्तार से करना चाहूंगा लेकिन आशा की बहुध धुंधली किरण की तरह एक समाचार पिछले वर्ष बलरामपुर जिले (छत्तीसगढ) से आया था जब कलेक्टर अविनाश कुमार शरण ने अपनी पाँच वर्षीय पुत्री का प्रवेश स्थानीय शासकीय प्रज्ञा प्राथमिक विद्यालय में करवाया। यह सांकेतिक रूप से दिया गया बहुत बड़ा संदेश है, यदि कोई समझ सके।

समान शिक्षा की अवधारणा ही देश में समान सोच का बीजारोपण कर सकती है। आप प्रतिभा को आगे लाये जाने के पक्षधर हैं तो मंहगे जिल्द वाली कॉपियों के साथ चाँदी का चम्मच थमा देने से बात नहीं बनेगी। हमारे नीतिनिर्माता थोडा ठहर कर सोचें कि बेहतर विदेश नीति, बेहतर रक्षा नीति, बेहतर वाणिज्य-व्यापार नीति से बड़ी प्राथमिकता है बेहतर शिक्षा नीति। व्यापारियों के हाथों बच्चों की शिक्षा को थमा देना हमें निकट भविष्य में बहुत भारी पड़ने वाला है। सही समय है कि हम अल्पविराम ले कर सोचें कि पढाना केवल दायित्व नहीं है, केवल बच्चे का भविष्य बनाना ही एकमेव उद्देश्य नहीं हो सकता। देश का स्वरूप गढने की आशा बच्चों से लगायी जाती है, एक दौर का यह फिल्मी गीत है इसे पढें और ठहर कर सोचें, कुछ पंक्तियाँ उद्धरित कर रहा हूँ –
अपने हों या पराए, सब के लिए हो न्याय,
देखो कदम तुम्हारा, हरगिज़ ना डगमगाए,
रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना संभल-संभल के,
इन्साफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के।

नाश्पाती वाले बुद्ध और सौ बटा सौ
[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 3]
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चीन में नाशपाती के फलों पर एक प्रयोग हुआ। भगवान बुद्ध की आकृति का सांचा बनाया गया और नन्हें फलों को वास्तविक आकार लेने से पहले, उनपर वह कस दिया गया। फल जैसे जैसे आकार-प्रकार में बड़ा होता गया उसकी, बाध्यता थी कि वह अपना विस्तार सांचे की परिधि के भीतर ही करे। फल की अपनी कोई इच्छा नहीं थी, उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं, उसकी नियति तय थी कि बुद्ध की तरह दिखना है। सोचता हूँ कि क्या जैसा दिखता है वही वास्तविकता होती है? आज जिस शिक्षा-प्रणाली को हमने आत्मसात किया है, क्या वह ऐसा ही सांचा नहीं है? बच्चा क्या आकार लेना चाहता है इसकी किसे चिंता है? कल्पनायें, आकांक्षायें और नैसर्गिक प्रतिभा ने उसे किसलिये गढा है उसे यह सांचा समझने की क्षमता नहीं रखता, उसके लिये तो बच्चा नाश्पाती है और बुद्ध का आकार दिया जाना है।

क्या हमारी शिक्षा प्रणाली के पास कोई उद्देश्य था अथवा सांचा ही? पहले 10+3 का सांचा था बदल कर 10‌+2 हो गया, इससे व्यावहारिक बदलाव क्या आया? बच्चे छ:-सात वर्ष की आयु के पश्चात से बुनियादी शिक्षा की दुनियाँ में अपना पहला कदम रखते थे फिर तय हुआ कि पहली कक्षा अर्थात पाँच साल की आयु। इस आयु वर्ग की शिक्षा के लिये हमने कैसी दुनियाँ बनायी? क्या पढाना चाहते हैं? क्या जो पाठ्यपुस्तकें इस आयुवर्ग के लिये निर्धारित की गयी हैं वे उनकी सहज उडान में योगदान देती हैं अथवा रट्टू तोता ही बना रही हैं? अब यह लगने लगा कि स्कूल में प्रवेश से पहले बच्चे की बुनियाद सही होनी चाहिये अर्थात उसे सब कुछ पहले से आना चाहिये जिसके लिये वह किसी महान स्कूल की पहली कक्षा में प्रवेश लेगा। हमने केजी और नर्सरी के कॉन्सेप्ट को आयात किया और बच्चे की बुनियाद को तबीयत से खोदने लगे। अब यहाँ भी ग्रेड और नम्बर की स्पर्था हो गयी तो प्री-स्कूल या प्री-नर्सरी का विचार सामने आ गया। मुझे डर है आने वाले समय में “आफ्टर बर्थ स्कूल” और “इनसाईड-बूम्व स्कूल” की अवधारणायें सामने न आने लगें।

आज की शिक्षा अक्षरज्ञान का आधुनिक संस्करण है। वह चाहे साहित्य हो, विज्ञान हो अथवा गणित, सांचों ने सीधा देखना सिखाया है। घोडे की आँख केवल आगे ही देखने के लिये प्रशिक्षित की जाती हैं, उसे दायें-बायंह के परिदृश्य से अवरोधित किया जाता है जिससे वह अपनी लीक न छोडे। ऐसे ही हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली जटिल प्रशिक्षण है कि कैसे बने हुए कदमों के निशानों पर ही कदम रखे जाने हैं, रास्ते तय हैं और मंजिले निर्धारित। कितनी सुंदर पंक्तियाँ निदा फाजली ने लिखी हैं कि –
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे।

इस परिप्रेक्ष्य में सोचिये कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था सोने का पिंजरा नहीं है जिसमें हम सहर्ष अपने परिंदे जैसे बच्चों को कैद कर रहे हैं। उसे प्रशिक्षित कर रहे हैं कि वह उडान भूल जाये, आकाश का सपना न देखे, जमीन से परिचित न हो सके? वह जो रटाया जाये रटे, जो सिखाया जाये सीखे और जैसा समझाया जाये वैसा ही और उतना ही बरताव करना मैनर्स समझे। आश्चर्य होता है न कि पंचतंत्र भारत देश की कृति है? तीसरी सदी की रचना पंचतंत्र, आज के समय में हर्गिज नहीं लिखी जा सकती क्योंकि नाशपाती वाले बुद्ध कल्पना नहीं कर सकते वे ‘सौ बटा सौ’ लाते हैं।

✍🏻-राजीव रंजन प्रसाद

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