हमारी शिक्षा और व्यवस्था-2, नाशपाती वाले बुद्ध और सौ में से सौ अंक

नाशपाती वाले बुद्ध और सौ बटा सौ

[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 2]
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चीन में नाशपाती के फलों पर एक प्रयोग हुआ। भगवान बुद्ध की आकृति का सांचा बनाया गया और नन्हें फलों को वास्तविक आकार लेने से पहले, उनपर वह कस दिया गया। फल जैसे जैसे आकार-प्रकार में बड़ा होता गया उसकी, बाध्यता थी कि वह अपना विस्तार सांचे की परिधि के भीतर ही करे। फल की अपनी कोई इच्छा नहीं थी, उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं, उसकी नियति तय थी कि बुद्ध की तरह दिखना है। सोचता हूँ कि क्या जैसा दिखता है वही वास्तविकता होती है? आज जिस शिक्षा-प्रणाली को हमने आत्मसात किया है, क्या वह ऐसा ही सांचा नहीं है? बच्चा क्या आकार लेना चाहता है इसकी किसे चिंता है? कल्पनायें, आकांक्षायें और नैसर्गिक प्रतिभा ने उसे किसलिये गढा है उसे यह सांचा समझने की क्षमता नहीं रखता, उसके लिये तो बच्चा नाश्पाती है और बुद्ध का आकार दिया जाना है।

क्या हमारी शिक्षा प्रणाली के पास कोई उद्देश्य था अथवा सांचा ही? पहले 10+3 का सांचा था बदल कर 10‌+2 हो गया, इससे व्यावहारिक बदलाव क्या आया? बच्चे छ:-सात वर्ष की आयु के पश्चात से बुनियादी शिक्षा की दुनियाँ में अपना पहला कदम रखते थे फिर तय हुआ कि पहली कक्षा अर्थात पाँच साल की आयु। इस आयु वर्ग की शिक्षा के लिये हमने कैसी दुनियाँ बनायी? क्या पढाना चाहते हैं? क्या जो पाठ्यपुस्तकें इस आयुवर्ग के लिये निर्धारित की गयी हैं वे उनकी सहज उडान में योगदान देती हैं अथवा रट्टू तोता ही बना रही हैं? अब यह लगने लगा कि स्कूल में प्रवेश से पहले बच्चे की बुनियाद सही होनी चाहिये अर्थात उसे सब कुछ पहले से आना चाहिये जिसके लिये वह किसी महान स्कूल की पहली कक्षा में प्रवेश लेगा। हमने केजी और नर्सरी के कॉन्सेप्ट को आयात किया और बच्चे की बुनियाद को तबीयत से खोदने लगे। अब यहाँ भी ग्रेड और नम्बर की स्पर्था हो गयी तो प्री-स्कूल या प्री-नर्सरी का विचार सामने आ गया। मुझे डर है आने वाले समय में “आफ्टर बर्थ स्कूल” और “इनसाईड-बूम्व स्कूल” की अवधारणायें सामने न आने लगें।

आज की शिक्षा अक्षरज्ञान का आधुनिक संस्करण है। वह चाहे साहित्य हो, विज्ञान हो अथवा गणित, सांचों ने सीधा देखना सिखाया है। घोडे की आँख केवल आगे ही देखने के लिये प्रशिक्षित की जाती हैं, उसे दायें-बायंह के परिदृश्य से अवरोधित किया जाता है जिससे वह अपनी लीक न छोडे। ऐसे ही हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली जटिल प्रशिक्षण है कि कैसे बने हुए कदमों के निशानों पर ही कदम रखे जाने हैं, रास्ते तय हैं और मंजिले निर्धारित। कितनी सुंदर पंक्तियाँ निदा फाजली ने लिखी हैं कि –
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़ कर वो भी हम जैसे हो जायेंगे।

इस परिप्रेक्ष्य में सोचिये कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था सोने का पिंजरा नहीं है जिसमें हम सहर्ष अपने परिंदे जैसे बच्चों को कैद कर रहे हैं। उसे प्रशिक्षित कर रहे हैं कि वह उडान भूल जाये, आकाश का सपना न देखे, जमीन से परिचित न हो सके? वह जो रटाया जाये रटे, जो सिखाया जाये सीखे और जैसा समझाया जाये वैसा ही और उतना ही बरताव करना मैनर्स समझे। आश्चर्य होता है न कि पंचतंत्र भारत देश की कृति है? तीसरी सदी की रचना पंचतंत्र, आज के समय में हर्गिज नहीं लिखी जा सकती क्योंकि नाशपाती वाले बुद्ध कल्पना नहीं कर सकते वे ‘सौ बटा सौ’ लाते हैं।

राजा कुमार और रंक कुमार की शिक्षा
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सांदीपन ऋषि के गुरुकुल से रोचक कहानी बाहर आती है जब कृष्ण और सुदामा एक साथ जंगल से लकडी काट कर लाने को भेजे गये हैं। कुल्हाडी कृष्ण के हाथ में है जो राजा का बेटा हैं और चने सुदामा के पास हैं जो निर्धन का पुत्र। बरसात हो रही है, दोनो समान रूप से श्रम करते हैं लेकिन भूख लगने पर सुदामा सारे चने खा जाता है। इस कहानी को राजा और रंक के दृष्टिकोण से देखने के बाद अब इन दो विद्यार्थियों की तत्कालीन विद्यालय में सम-स्थिति को मूल्यांकित कीजिये। जब इतिहास भेद नहीं करता तो वर्तमान को राजा और रंक के लिये अलग-अलग विद्यालय बनाने का अधिकार किसने दिया? एक और कहानी अतीत से ही। द्रोणाचार्य ने पहली बार ट्यूशन लेना आरम्भ किया था अर्थात धन की आकांक्षा में केवल राजकुमारों के लिये शिक्षा। इसके परिणाम विवेचना योग्य हैं, द्रोणाचार्य न केवल कर्ण और उस जैसे अनेक मेधावी छात्रों से वंचित हुए बल्कि एकलव्य का अंगूठा मांगने जैसी धृष्टता लोभी अध्यापक ही कर सकता था। महाभारत महाकाव्य में ही ऐसे शिक्षकों और राजकुमारों का विरोध किया गया है, एक श्लोक कहता है कि घर में सुविधा के बीच किये गये अध्ययन से आपको ज्ञानी होने का सम्भ्रम हो सकता है तथापि समाज आपको मूर्ख ही मानता रहेगा – आपिचशान सम्पन: सर्वान वेदान पितुगृहे, श्लाघमान इवाधीयाद गाम्य इत्येव तं विदु:।

ध्यान से देखें तो आज द्रोणाचार्य ही द्रोणाचार्य हैं जो अपने अपने अर्जुनों के लिये जाने कितने एकलव्यों का अंगूठा ही नहीं मांग रहे, कतिपय तो सिर की ही मांग करने लगे हैं। द्रौपदी अथवा दुर्योधन को नाहक महाभारत का दोषी माना जाता है जबकि उस युग के भयावह युद्ध का ठीकरा शिक्षक अर्थात द्रोणाचार्य के सर पर ही फोडा जाना चाहिये था। आज क्या यही स्थितियाँ अधिक विकराल रूप से सामने नहीं आ गयी हैं? कोई विद्यालय ऐसा नहीं जहाँ कृष्ण और सुदामा एक साथ पढाये जा रहे हों। दो तरह के विद्यार्थी हैं एक वे जो लग्करी बसों में स्कूल ले जाये जाते हैं और एयरकंडीशन कमरों में आलीशान सुविधाओं को प्राप्त करते हुए अध्ययन करते हैं। दूसरे वे हैं जो मध्यांतर में सडी हुई सब्जियों और मक्खी भिनभिनाती खिचडी को खा कर टूटी-फूटी मेज-कुर्सी या जमीन पर बैठ कर ही जोर-जोर से पहाडा रट रहे हैं। आज जब किसी सुदामा का पिता धृतराष्ट के सामने जा कर अपना नैसर्गिक हक मांगता है तो दुर्योधन से पहले द्रोणाचार्य ही कह देता है कि स्कूल भवन सरकारी अनुदान से बना है तो क्या हुआ,इसे चलाने में खर्चा लगता है। दुनिया भर की प्राचीन और नवीन पुस्तकें व्यवस्था परिवर्तन की अवधारणा के लिये विद्यार्थियों की ओर आशा से देखती हैं लेकिन ऐसी असमानतायें आपसी संघर्ष और गृहयुद्ध जैसे हालात तो पनपा सकती हैं, सकारात्मक बदलाव सम्भव ही नहीं।
[अगली कड़ी में जारी……..]
✍🏻- राजीव रंजन प्रसाद

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