हिंदू समाज को तोड़ने का षड्यंत्र है जातिवाद
हिंदू समाज को तोड़ने का षड्यंत्र
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने कहा कि ‘हिंदू समाज में जाति एक सच्चाई है।
Mon, 18 Dec 2017
जीतेंद्रानंद सरस्वती
पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने कहा कि ‘हिंदू समाज में जाति एक सच्चाई है। जब तक इनको समानता का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक आरक्षण व्यवस्था जारी रहनी चाहिए।’ इसके अलावा उत्तर प्रदेश में एक जनसभा में एक राजनेता द्वारा कहा गया कि ‘हिंदू समाज में अगर जातिगत व्यवस्था नहीं बदली गई तो हम बौद्ध धर्म अपना लेंगे।’ इन दोनों वक्तव्यों ने धर्मांतरण और घर वापसी जैसे शब्दों को फिर से चर्चा में ला दिया है। इस बात की पुन: व्यापक चर्चा प्रारंभ हो गई है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर से लेकर आज तक यह व्यवस्था क्या उसी रूप में है? दरअसल इनके मूल में इस देश को संकट में डालना और राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा खड़ा करना धर्मांतरण जैसे विषय का खुला खेल है। स्वामी विवेकानंद कहते थे, ‘इस देश का एक भी हिंदू अगर धर्मांतरण करता है तो वह एक प्रकार से राष्ट्रांतरण करता है।’ यह राष्ट्रांतरण आगे जाकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बड़ा खतरा बन जाता है। देश के उन्हीं भागों में से अलग राष्ट्र बनाने की बात होती है जिस हिस्से में हिंदू कम होते हैं। संघ के तृतीय सरसंघचालक बाला साहेब देवरस कहते थे, ‘हिंदू घटा तो देश बंटा।’ हम इस बात को कैसे भूल सकते हैं कि जिस देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ हो, उस देश में धर्मांतरण जैसी बात नि:संदेह देश के विभाजन के लिए विदेशी शक्तियों के साथ मिलकर षड्यंत्र करने जैसी है।
आंध्र प्रदेश के चार जिले ईसाई बाहुल्य हैं। इन दिनों ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ के अंदर धर्मांतरण बहुत तेजी से फलफूल रहा है। इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि हिंदू समाज की जातिगत व्यवस्था ने हमें मजबूर कर दिया है, जबकि सच्चाई यह है कि 73 फिरकों वाला इस्लाम जहां देवबंदी बरेलवी की मस्जिद में नहीं जा सकता और 146 हिस्सों में बंटे हुए ईसाई हमें समानता का पाठ पढ़ाते हैं। वस्तुत: यह संघर्ष ऊंच-नीच, जाति व्यवस्था के विरुद्ध नहीं है। यह हिंदू समाज को तोड़ने के लिए गंभीर साजिश का परिणाम है।
जहां तक हिंदू समाज के अंदर दलित अथवा संत की जाति आधारित सम्मान की बात है तो हमने कभी जातिगत आधार पर किसी के सम्मान का आकलन ही नहीं किया। हिंदू समाज ने सदैव योग्यता का सम्मान किया। इसी कारण कबीर ने कहा कि ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।’ शासक वर्ग में छत्रपति शिवाजी से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य तक कोई उच्चवर्गीय व्यक्ति नहीं था, परंतु हिंदू समाज ने उनकी योग्यता के कारण राजा के रूप में स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि अत्यधिक सम्मान भी प्रदान किया। जहां तक धर्मक्षेत्र का प्रश्न है कबीर, रैदास, नाभादास, चरणदास, सहजोबाई, मलूकदास, संत गाडगे इसमें से कौन ऐसा संत है जो उच्चवर्ग से आता है, परंतु ये अपनी योग्यता और क्षमता के कारण हिंदू समाज के पूज्य बने। एक मछुवी के गर्भ से पैदा हुए वेदव्यास वेदों के रचयिता बने। जाहिर है सनातन धर्म में हमेशा योग्यता को ही महत्व दिया है। वस्तुत: विदेशी ताकतों के षड्यंत्रों के फलस्वरूप बौद्धिक दृष्टि से तैयार हुए राष्ट्रविरोधी तत्व नित नए तर्कों के साथ समाज के बीच खड़े हो जाते हैं। अगर हम यह पूछें कि आप सनातन धर्म छोड़कर ईसाई बन जाएंगे तो दूसरा प्रश्न होगा कि कौन सा-कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट। सनातन धर्म की कुछ कुरीतियों के कारण संभव है कि कहीं दलितों का मंदिर प्रवेश न हुआ हो, लेकिन शास्त्रों के द्वारा उन्हें रोके जाने का कोई उदाहरण आपको नहीं प्राप्त होगा। बल्कि गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘चतुर्वर्ण मया सृष्टि:।’ तो अगर परमात्मा की सृष्टि में वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था ही है तो जाति आई कहां से? चतुर्वर्ण की चर्चा गोस्वामी जी ने भी की है, लेकिन अंग्र्रेजों के भारत आगमन के साथ विभाजन और शासन के सिद्धांत के कारण वर्ण को जातिगत रूप देते चले गए। उदाहरण के लिए क्षत्रिय वर्ण के दो वंश सूर्यवंश और चंद्रवंश। सूर्यवंश कालांतर में इक्ष्वाकु और रघुवंश के नाम से जाना गया। चंद्रवंश कालांतर में कुरु-यदु वंश के नाम से जाना गया। यह यदुवंश कब पिछड़ी जाति का यादव बन गया पता ही नहीं चला। अंग्रेजों के षड्यंत्र में भारतीय राजनेताओं की घुटनाटेक और सत्तालोलुपता ने हिंदू समाज को जातीयता के मोहपाश में जकड़कर तोड़ने में जो भूमिका निभाई वह इतिहास के दुर्लभतम उदाहरणों में से एक है। जातिगत व्यवस्था को डॉक्टर अंबेडकर से लेकर डॉ. राममनोहर लोहिया तक सबने नकारा है फिर भी यह जाति व्यवस्था उन्हीं दलों के अंदर व्यापक रूप से क्यों फलफूल रही है, जो खुद को उनका अनुयायी कहते नहीं अघाते।
धर्मांतरण सिर्फ किसी समाज के अंदर जातिगत भेदभाव से जुड़ा प्रश्न नहीं है, यह उसके राष्ट्रीय चरित्र का भी प्रश्न है। उदाहरण के लिए दक्षिण अफ्रीकी देशों में यह कहा जाता है कि ‘जब अंग्र्रेज आए तो उनके हाथ में बाइबिल थी और हमारे पास जमीनें। उन्होंने पहले हमारी आंखें बंद कराईं और जब हमने अपनी आंखें खोलीं तो हमारे हाथ में बाइबिल और उनके पास हमारी सारी जमीनें थीं।’ इस प्रकार धर्मांतरण एक प्रकार से सत्ता हासिल करने का सबसे बड़ा हथियार बनता चला गया।
पिछले तीन वर्षों में राजग सरकार ने भारत में विदेशी मुद्रा लेने वाली लगभग 22 हजार गैर सरकारी संगठनों के लाइसेंस रद कर दिए, परंतु इसमें से किसी भी एक संगठन ने हाई कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट में यह चुनौती नहीं दी कि सोसायटी एक्ट 1980 की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत पंजीकृत स्वयं निर्मित संविधान के अनुसार हम ठीक प्रकार से काम कर रहे थे तो हमारा लाइसेंस निरस्त क्यों हुआ? इसका अर्थ यह हुआ कि ये सभी विदेशी धन के आधार पर भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मूल तत्वों को अपने-अपने तरीके से नष्ट करने में लगे हुए थे! दूसरी तरफ ऐसे राजनीतिक दल जो हिंदू समाज को जातीयता के आधार पर तोड़कर शासन का मंसूबा पाले बैठे थे। उनके भी दुकानों के शटर धीरे-धीरे गिरने लगे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हिंदू समाज के व्यापक हितों जिनसे इस राष्ट्र का भविष्य जुड़ा हुआ है, को ध्यान में रखते हुए सभी धर्माचार्यों को आगे आकर धर्मांतरण के विरुद्ध एक मुहिम चलानी चाहिए, क्योंकि धर्मांतरण का सबसे बड़ा खतरा धर्मांतरित हुए व्यक्तियों द्वारा अपनी राष्ट्रनिष्ठा को बदलने से होता है। ऐसे में आज हिंदू समाज के बुद्धिजीवियों को आगे बढ़कर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए धर्मांतरण रूपी हथियार को निस्तेज करना ही होगा।
[ लेखक अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री हैं ]