देसी घी के नाम पर चर्बी तो नहीं खा रहे आप? आश्चर्य कैसा?
जब बछड़े बिकेंगे नहीँ तो किसान गाय पालेंगे क्यों
*भादवे का घी*
भारतीय देसी गाय का घी..
भाद्रपद मास आते आते घास पक जाती है।
जिसे हम घास कहते हैं, वह वास्तव में अत्यंत दुर्लभ औषधियाँ हैं।
इनमें धामन जो कि गायों को अति प्रिय होता है, खेतों और मार्गों के किनारे उगा हुआ साफ सुथरा, ताकतवर चारा होता है।
सेवण एक और घास है जो गुच्छों के रूप में होता है। इसी प्रकार गंठिया भी एक ठोस खड़ है। मुरट, भूरट,बेकर, कण्टी, ग्रामणा, मखणी, कूरी, झेर्णीया,सनावड़ी, चिड़की का खेत, हाडे का खेत, लम्प, आदि वनस्पतियां इन दिनों पक कर लहलहाने लगती हैं।
यदि समय पर वर्षा हुई है तो पड़त भूमि पर रोहिणी नक्षत्र की तप्त से संतृप्त उर्वरकों से ये घास ऐसे बढ़ती है मानो कोई विस्फोट हो रहा है।
इनमें विचरण करती गायें, पूंछ हिलाकर चरती रहती हैं। उनके सहारे सहारे सफेद बगुले भी इतराते हुए चलते हैं। यह बड़ा ही स्वर्गिक दृश्य होता है।
इन जड़ी बूटियों पर जब दो शुक्ल पक्ष गुजर जाते हैं तो चंद्रमा का अमृत इनमें समा जाता है। आश्चर्यजनक रूप से इनकी गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है।
कम से कम 2 कोस चलकर, घूमते हुए गायें इन्हें चरकर, शाम को आकर बैठ जाती है।
रात भर जुगाली करती हैं।
अमृत रस को अपने दुग्ध में परिवर्तित करती हैं।
यह दूध भी अत्यंत गुणकारी होता है।
इससे बने दही को जब मथा जाता है तो पीलापन लिए नवनीत निकलता है।
5से 7 दिनों में एकत्र मक्खन को गर्म करके, घी बनाया जाता है।
इसे ही #भादवे_का_घी कहते हैं।
इसमें अतिशय पीलापन होता है। ढक्कन खोलते ही 100 मीटर दूर तक इसकी मादक सुगन्ध हवा में तैरने लगती है।
बस,,,, मरे हुए को जिंदा करने के अतिरिक्त, यह सब कुछ कर सकता है।
ज्यादा है तो खा लो, कम है तो नाक में चुपड़ लो। हाथों में लगा है तो चेहरे पर मल दो। बालों में लगा लो।
दूध में डालकर पी जाओ।
सब्जी या चूरमे के साथ जीम लो।
बुजुर्ग है तो घुटनों और तलुओं पर मालिश कर लो। गर्भवतियों के खाने का मुख्य अवयव यही था।
इसमें अलग से कुछ भी नहीं मिलाना। सारी औषधियों का सर्वोत्तम सत्व तो आ गया!!
इस घी से हवन, देवपूजन और श्राद्ध करने से अखिल पर्यावरण, देवता और पितर तृप्त हो जाते हैं।
कभी सारे मारवाड़ में इस घी की धाक थी।
कहते है कि इसका सेवन करने वाली विश्नोई महिला 5 वर्ष के उग्र सांड की पिछली टांग पकड़ लेती और वह चूं भी नहीं कर पाता था।
एक और घटना में एक व्यक्ति ने एक रुपये के सिक्के को मात्र उँगुली और अंगूठे से मोड़कर दोहरा कर दिया था!!
आधुनिक विज्ञान तो घी को वसा के रूप में परिभाषित करता है। उसे भैंस का घी भी वैसा ही नजर आता है। वनस्पति घी, डालडा और चर्बी में भी अंतर नहीं पता उसे।
लेकिन पारखी लोग तो यह तक पता कर देते थे कि यह फलां गाय का घी है!!
यही वह घी था जिसके कारण युवा जोड़े दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद भी बिलकुल नहीं थकते थे…….
इसमें इतनी ताकत रहती थी, जिससे सर कटने पर भी धड़ लड़ते रहते थे!!
इसे घड़ों में या घोड़े के चर्म से बने विशाल मर्तबानों में इकट्ठा किया जाता था जिन्हें “दबी” कहते थे।
घी की गुणवत्ता तब और बढ़ जाती, यदि गाय पैदल चलते हुए स्वयं गौचर में चरती थी, तालाब का पानी पीती, जिसमें प्रचुर विटामिन डी होता है और मिट्टी के बर्तनों में बिलौना किया जाता हो।
वही गायें, वही भादवा और वही घास,,,, आज भी है। इस महान रहस्य को जानते हुए भी यदि यह व्यवस्था भंग हो गई तो किसे दोष दें?
जब गाय नहीं होगी,,,
तब घी कहां होगा,,,,
सब्जियों में जिहादियों का थूक,मल,मूत्र,होटल के भोजन में थूक,मल, मूत्र, पानी बताशे में थूक,मर, मूत्र, एसिड़, नकली पनीर तो नई बातें हैं, लेकिन एक पुराना धंधा जो सैकुलर आधार पर चल रहा है अंतहीन, अनैतिक लोभ के आधार पर वो है —-
₹ 23/- प्रति किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!
चमड़ा सिटी के नाम से प्रसिद्ध कानपुर में जाजमऊ से गंगा जी के किनारे किनारे 10 -12 किलो.मीटर के दायरे में आप घूमने जाओ तो आपको नाक बंद करनी पड़ेगी! यहाँ सैंकड़ों की तादात में गंगा किनारे भट्टियां धधक रही होती हैं! इन भट्टियों में जानवरों को काटने के बाद निकली चर्बी को गलाया जाता हैं!
इस चर्बी से मुख्यतः 3 ही वस्तुएं बनती हैं!
(1) एनामिल पेंट (जिसे अपने घरों की दीवारों पर लगाते हैं!)
(2) ग्लू (फेविकोल) इत्यादि, जिन्हें हम कागज, लकड़ी जोड़ने के काम में लेते हैं!)
(3) सबसे महत्वपूर्ण जो चीज बनती हैं वह है “देशी घी”
जी हाँ तथाकथित “शुध्द देशी घी”
यही देशी घी यहाँ थोक मण्डियों में 120 से 150 रूपए किलो तक खुलेआम बिकता हैं! इसे बोलचाल की भाषा में “पूजा वाला घी” बोला जाता हैं!
इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग भण्डारे कराने वाले भक्तजन ही करते हैं! लोग 15 किलो वाला टीन खरीद कर मंदिरों में दान करके अद्भूत पुण्य कमा रहे हैं!
इस “शुध्द देशी घी” को आप बिलकुल नहीं पहचान सकते!
बढ़िया रवे दार दिखने वाला यह ज़हर सुगंध में भी एसेंस की मदद से बेजोड़ होता हैं!
औद्योगिक क्षेत्र में कोने – कोने में फैली वनस्पति घी बनाने वाली फैक्टरियां भी इस ज़हर को बहुतायत में खरीदती हैं, गांव- देहात में लोग इसी वनस्पति घी से बने लड्डू विवाह शादियों में मजे से खाते हैं! शादियों – पार्टियों में इसी से सब्जी का तड़का लगता हैं! कुछ लोग जाने अनजाने खुद को शाकाहारी समझते हैं! जीवन भर मांस अंडा छूते भी नहीं, क्या जाने वो जिस शादी में चटपटी सब्जी का लुत्फ उठा रहे हैं उसमें आपके किसी पड़ोसी पशुपालक के कटड़े (भैंस का नर बच्चा) की ही चर्बी वाया कानपुर आपकी सब्जी तक आ पहुंची हो! शाकाहारी व व्रत करने वाले जीवन में कितना संभल पाते होंगे अनुमान सहज ही लगाया जा सकता हैं!
अब आप स्वयं सोच लो आप जो वनस्पति घी आदि खाते हो उसमें क्या मिलता होगा!
कोई बड़ी बात नहीं कि देशी घी बेचने का दावा करने वाली बड़ी बड़ी कम्पनियाँ भी इसे प्रयोग करके अपनी जेब भर रही हैं!
इसलिए ये बहस बेमानी हैं कि कौन घी को कितने में बेच रहा हैं,
अगर शुध्द घी ही खाना है तो अपने घर में गाय पाल कर ही शुध्द खा सकते हो, या किसी गाय भैंस वाले के घर का घी लेकर खाएँ, यही बेहतर होगा!
आगे आपकी इच्छा….. विषमुक्त भारत🙏
साभार फेसबुक पर Prakash Sain की वाल से
बाजार में बिकने वाले घी का सच जानकर रह जाएंगे दंग, ग्लू भट्ठियों की चर्बी का हो रहा इस्तेमाल
ग्लू भट्ठियों की चर्बी के इस्तेमाल से बनने वाला घी यूपी बिहार और दिल्ली तक सप्लाई किया जा रहा है। इसके अलावा शहर की बेकरियों में भी इस घी का इस्तेमाल करके केक समेत अन्य खाद्य पदार्थ बनाए जा रहे हैं।
Sun, 03 Jan 2021 11:55 AM (IST)
कमाई के लालच में सेहत से खिलवाड़ हो रहा है।
कानपुर (अभिषेक अग्निहोत्री)। महाराजपुर और जाजमऊ में अवैध ग्लू भट्ठियों से निकलने वाली चर्बी से नकली देशी घी बनाने का गोरखधंधा चल रहा है। जिसके तार यूपी समेत आस-पास के राज्यों तक जुड़े है। ये धंधेबाज अधिक कमाई के लालच में लोगों को जान से खिलवाड़ कर रहे है। पुलिस, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और खाद्य विभाग के अधिकारियों से सांठगांठ के कारण भट्टी संचालकों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है।
महाराजपुर और जाजमऊ में चलने वाली ग्लू भट्टियों में चमड़ा गलाया जाता है, इससे काफी मात्रा में चर्बी निकलती है। इस चर्बी का प्रयोग नकली देसी घी बनाने में किया जा रहा है। एक किलो नकली देस घी तैयार करने लिए 500 ग्राम चर्बी, 300 ग्राम रिफाइंड, 200 ग्राम असली देशी घी और 100 ग्राम एसेंस (देसी घी की सुंगध वाला केमिकल) मिलाया जाता है। इसके बाद नकली मिलावटी घी को ब्रांडेड कंपनियों वाले डिब्बे में भरकर बाजार में बेचने का गोरखधंधा चल रहा है। इसकी सप्लाई यूपी समेत बिहार, गुजरात और दिल्ली तक हो रही है। अत्यधिक मुनाफे के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के दुकानदार ऐसे नुकसानदायक घी को सबसे ज्यादा बेचते है। इतना ही नहीं शहर की ज्यादातर बेकरियों में इसी घी का प्रयोग किया जा रहा है।
ढाई सौ रुपये में तैयार होता एक किलो
चर्बी से एक किलो नकली देशी बनाने में लगभग 30 रुपये की चर्बी, 120 रुपये असली देशी घी, 30 रुपये का रिफांइड मिलाया जाता है। जिसके बाद एसेंस, पैकिंग, मजदूरी, भाड़ा आदि खर्चें मिलाकर इसकी कीमत लगभग 250 रुपये प्रतिकिलो तक होती है। (दैनिक जागरण)
Kanpur: GHee Was Being Manufactured From Animals Fat
कानपुर में मवेशियों की चर्बी से बन रहा था घी?
कानपुर के चकेरी की केडीए कॉलोनी में एक प्लॉट में मवेशियों के ढेरों अवशेष, चर्बी से भरी कढ़ाई और बुलडोजर बरामद होने के बाद बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हंगामा किया। उनका आरोप था…
मौके पर जमा पुलिस और भीड़
कानपुर के चकेरी की केडीए कॉलोनी में एक प्लॉट में मवेशियों के ढेरों अवशेष, चर्बी से भरी कढ़ाई और बुलडोजर बरामद होने के बाद बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हंगामा किया। उनका आरोप था कि जाजमऊ चौकी इंचार्ज की सरपरस्ती में गायों की चर्बी गलाकर अवैध रूप से घी बनाने का काम किया जा रहा है। घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची। कैंट के सीओ के अनुसार, प्लॉट मालिक के खिलाफ रिपोर्ट लिखी जा रही है।
बताया जा रहा है कि केडीए कॉलोनी के एक प्लॉट पर लंबे समय से मवेशियों की खाल उतारकर चर्बी गलाने का काम चल चल रहा है। इलाके के लोग इस जगह को गल्ला गोदाम के नाम से बुलाते हैं। सोमवार दोपहर बजरंग दल के कुछ कार्यकर्ता 100 नंबर पर सूचना देने के बाद प्लॉट पर आकर हंगामा करने लगे। मौके से काफी दुर्गंध आ रही थी। पुलिस जब वहां पहुंची, तो अंदर का नजारा देखकर हैरान रह गई। वहां सैकड़ों मवेशियों के अवशेष पड़े हुए थे। बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में चर्बी उबाली जा रही थी। कई मवेशी वहां अचेत मिले।
मौके पर बदबू इतनी ज्यादा थी कि प्लॉट पर कोई रुक नहीं पा रहा था। बजरंग दल के कार्यकर्ताओं का आरोप था कि जाजमऊ चौकी इंचार्ज की सरपरस्ती में यह काम हो रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि गोवंश को काटकर मांस से चर्बी का अवैध व्यापार हो रहा है। पुलिस से की गई शिकायत में कहा गया है कि मौके से नगर निगम का एक बुलडोजर भी बरामद हुआ है। उन्होंने थाना इंचार्ज और नगर निगम कर्मचारियों को सस्पेंड करने की मांग की। वहीं, सीओ का दावा है कि पूरे शहर के मरे हुए जानवर इस प्लॉट में फेंके जाते हैं। आसपास के लोग भी यही दावा कर रहे थे।
शहर में इस्तेमाल हो रहा घी
जानकार ऐसा दावा कर रहे हैं कि मवेशियों की चर्बी का देसी घी और वनस्पति घी बनाने में जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। साबुन बनाने में भी इस चर्बी का इस्तेमाल होता है। शहर में पराठे बेचने वाले कई पॉइंट्स के अलावा बेकरियों में भी यह घी खूब प्रयोग हो रहा है।
(लेखक Praveen Mohta नवभारत टाइम्स में)
गंगा किनारे की अवैध ग्लू भट्ठियों में निकलने वाली चर्बी से नकली देशी घी बनाने का धंधा चल रहा है। यहां के धंधेबाजों के तार आगरा और गुजरात तक जुड़े हैं। पुलिस, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और खाद्य विभाग के कई अफसरों पर भी इस चर्बी की पर्त चढ़ी है, इसलिए इन भट्ठियों पर कार्रवाई नहीं होती।
चर्बी से बनने वाला नकली देशी घी आस-पास के जिलों ही नहीं, बल्कि बुंदेलखंड, पूर्वांचल से लेकर बिहार तक सप्लाई किया जाता है। ज्यादा मुनाफे के चलते ग्रामीण क्षेत्रों के दुकानदार भी ऐसे नुकसानदायक घी को खूब बेचते हैं।
सूत्रों ने बताया कि वाजिदपुर और प्योंदी में गंगा किनारे अवैध रूप से चल रहीं ग्लू भट्ठियों में बनने वाली ‘तेजाबी चर्बी’ शहर में 10 से ज्यादा नकली देशी घी बनाने वालों, 100 से ज्यादा बेकरी वालों को बेची जाती है। इस धंधे से जुड़े सूत्रों के अनुसार धंधेबाज इस चर्बी को पुन: खौलाकर ठंडा होने के बाद इसमें रिफाइंड, शुद्ध देशी घी और एसेंस मिलाते हैं। थोक वालों को चर्बी 20 रुपये किलो और फुटकर वालों को 40 रुपये किलो बेची जाती है।
जाजमऊ में तोड़ी ग्लू की 14 भट्ठियां : एसीएम
जाजमऊ में रविवार को एसीएम भानू प्रताप शुक्ला की अगुवाई में अवैध भट्ठियां तोड़ने का अभियान चला। उन्होंने बताया कि गंगा किनारे अवैध रूप से चल रही 14 ग्लो भट्ठियां तोड़ी गई हैं। कहा कि जैविक खाद की भट्ठियांे में कुछ ने स्वीकृति होने की बात कही है। सोमवार को क्षेत्रीय प्रदूषण अधिकारी को उनकी सत्यता की जांच करने को भेजूंगा। इसके बाद अवैध भट्ठियां हटवाई जाएगी।
ऐसे कराएं खाद्य पदार्थों की जांच
कोई भी उपभोक्ता कलक्ट्रेट स्थित खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग के दफ्तर में जाकर किसी भी खाद्य पदार्थ की जांच करा सकता है। अभिहित अधिकारी एसएच आबिदी के अनुसार उपभोक्ता सील पैक या खुला हुआ खाद्य पदार्थ ला सकता है। इसकी जांच के लिए उन्हें ट्रेजरी में एक हजार रुपये जमा कर उसकी रसीद लाने के साथ ही एक प्रार्थनापत्र भी देना होगा। विभाग उसकी जांच लैब से कराएगा। जांच रिपोर्ट 15 से 20 दिन में आ जाएगी, तब उपभोक्ता दफ्तर आकर इसे प्राप्त कर सकता है।
ऐसे तैयार करते हैं नकली देशी घी
एक किलो नकली देशी घी तैयार करने में लगभग आधा किलो चर्बी, 300 ग्राम रिफाइंड, 200 ग्राम असली देशी घी और एसेंस (देशी घी की सुगंध वाला केमिकल) मिलाया जाता है। इस प्रकार तैयार नकली देशी घी को ब्रांडेड कंपनियों के डिब्बों में पैककर बाजार में बेचा जाता है।
डेढ़ सौ रुपये में नकली देशी घी
चर्बी से एक किलो नकली देशी घी बनाने में लगभग 10 रुपये की चर्बी, 70 रुपये का देशी घी, 15 रुपये का रिफाइंड खर्च होता है। एसेंस, पैकिंग, मजदूरी, भाड़ा आदि मिलाकर लगभग 135 से 150 रुपये प्रति किलो लागत आती है। नकली देशी घी का धंधा करने वाले लगभग 100 रुपये प्रति किलो मुनाफे पर इसे चुनिंदा थोक दुकानदारों के माध्यम से फुटकर विक्रेताओं तक पहुंचाते हैं।
यहां बेकरियों में चर्बी का इस्तेमाल
जाममऊ, बेकनगंज, परेड, कर्नलगंज, मछरिया, रावतपुर गांव, बाबूपुरवा, बेगमपुरवा, मुंशीपुरवा, रत्तूपुरवा, गांधी नगर, चमनगंज की कई बेकरियों में भी चर्बी का इस्तेमाल होता है। तमाम लोग घरों में ही चर्बी से पेटीज, क्रीमरोल, जीरा आदि तैयार कर बेकरियों में थोक में बेचते हैं।
पेटीज, क्रीमरोल बनाने में इस्तेमाल
ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में घनी आबादी वाले मोहल्लों से लेकर नवविकसित क्षेत्रों के तमाम बेकरी संचालक धड़ल्ले से चर्बी का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस धंधे से जुड़े लोगों की मानें तो पेटीज, जीरा, क्रीमरोल आदि बनाने में रिफाइंड या वनस्पति की जगह चर्बी का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे चमक ज्यादा आती है। कुछ धंधेबाज टोस्ट, बिस्किट, पाव आदि बनाने में भी चर्बी खपाते हैं।
तेजाबी चर्बी से कैंसर तक की आशंका
तेजाबी चर्बी से बनने वाले देशी घी से उल्टी, दस्त, एनीमिया, चर्मरोग हो सकते हैं। चर्बी में केमिकल रिएक्शन से फीनॉल एवं एपॉक्सी बन जाता है। इसमें स्वास्थ्य के लिए बहुत नुकसानदायक ट्रांसफैट, एल्केनॉल भी होते हैं। ऐसी चर्बी आंतों में जाने से आंतों में घाव, अल्सर से लेकर कैंसर तक हो सकता है। तब इसका सेवन रोकने के बावजूद मरीज को ठीक होने में बहुत समय लग जाता है। -डॉ. आरती लालचंदानी, अध्यक्ष, इंडियन मेडिकल एसोसिएसन