पहली मुस्लिम शिक्षिका फातिमा शेख: झूठ की ईंट पर यूं खड़ा होता है नैरेटिव
*झूठ की ईंट पर आख्यान खड़ा करने की कला*
–बलबीर पुंज
जिस ‘फातिमा शेख’ को भारत की ‘पहली मुस्लिम अध्यापिका’ कहा जाता रहा है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। सार्वजनिक संवाद में इस तरह के धोखे अपवाद नहीं है। यह विश्वव्यापी ‘टूलकिट’ का हिस्सा है, जो काल्पनिक तथ्यों के आधार पर एक सुनिश्चित ‘नैरेटिव का मायाजाल’ की रचना करते है। पिछली दो शताब्दियों में अर्धसत्य, सफेद झूठ और विकृत तथ्यों पर नैरेटिव गढ़ने की एक विशेष विधा विकसित हुई है, जिसका भारत भी शिकार है। गत दिनों सूचना-प्रसारण मंत्रालय में मीडिया सलाहकार और दलित-चिंतक प्रोफेसर दिलीप मंडल ने सोशल मीडिया में दावा किया कि उन्होंने बिना किसी ऐतिहासिक या पाठ्य-साक्ष्य के ‘फातिमा शेख’ नामक काल्पनिक चरित्र को गढ़ा था।
मंडल का कहना है कि समाज-सुधारक ज्योतिराव गोविंदराव फुले (1827-90) और भारत की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले (1831-1901) की रचनाओं में कहीं भी ‘फातिमा शेख’ का नाम नहीं है, जो शिक्षिका हो। बकौल मंडल, संविधान निर्माता डॉ.भीमराव रामजी अंबेडकर ने भी फातिमा का उल्लेख नहीं किया था। अब मंडल ने ऐसा क्यों किया, यह उन्होंने नहीं बताया। परंतु यह छल संभवत: उस ‘दलित-मुस्लिम एकता’ नामक नैरेटिव को मजबूती देने का प्रयास था, जो स्वयं ही मजहबी कारणों से अस्वाभाविक है।
‘फातिमा शेख’ फर्जीवाड़े पर मुझे ऐसे कई मामले याद आते है, जिन्हें भारत-हिंदू विरोधी टूलकिट और निहित-स्वार्थ की पूर्ति हेतु गढ़ा गया था। हैदराबाद विश्वविद्यालय के 26 वर्षीय पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने 17 जनवरी 2016 को छात्रावास के अपने कमरे में आत्महत्या कर ली थी। तब इस मामले को ‘दलित हत्या’ का विषय बनाकर भाजपा, आरएसएस और एबीवीपी को कटघरे में खड़ा कर दिया गया। यह स्थिति तब थी, जब रोहित अनुसूचित-जाति वर्ग (दलित) से नहीं था। अपनी मौत की सच्चाई को रोहित ने जिस सुसाइड नोट में लिखा था, उसे दबाने का भरसक प्रयास हुआ था। उस चिट्ठी में एक अनुच्छेद लिखकर काटा गया था, जिसमें रोहित ने अपने वामपंथी संगठन से मोहभंग होने की बात कही थी।
इसी तरह 23 सितंबर 1998 को मध्यप्रदेश के झाबुआ में चार ननों से सामूहिक बलात्कार को ‘सांप्रदायिक’ बना दिया गया था, जबकि यह दो समूहों के बीच आपसी विवाद से जुड़ा मामला था। तब प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बिना किसी साक्ष्य के इसका आरोप हिंदूवादी संगठनों पर मढ़ दिया। जांच पश्चात इस अपराध में अदालत द्वारा दोषी वे स्थानीय आदिवासी पाए गए, जिन्हें इंजीलवादी-वामपंथी समूह अपनी भारत-विरोधी मानसिकता के कारण हिंदू तक नहीं मानते।
गुजरात में गोधरा रेलवे स्टेशन के निकट 27 फरवरी 2002 को जिहादियों ने ट्रेन के एक डिब्बे में 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया था। इस नृशंस घटना की प्रतिक्रिया में गुजरात में दंगे भड़क उठे थे। तब कारसेवरों का ‘अपराध’ केवल यह था कि वे अयोध्या की तीर्थयात्रा से लौटते समय ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे। वर्ष 2004-05 में रेलमंत्री रहते हुए राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने एक जांच-समिति का गठन करके यह स्थापित करने का प्रयास किया कि गोधरा कांड मजहबी घृणा से प्रेरित न होकर केवल हादसा मात्र था। समिति की इस रिपोर्ट को गुजरात उच्च-न्यायालय ने निरस्त कर दिया, तो कालांतर में अदालत ने मामले में हाजी बिल्ला, रज्जाक कुरकुर सहित 31 को दोषी ठहरा दिया। इस पूरे प्रकरण पर मुझे वामपंथी ‘लेखिका’ अरुंधति रॉय का दो दशक पुराना वह आलेख स्मरण होता है, जिसे उन्होंने एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका को लिखते हुए झूठा दावा किया कि दंगे में तत्कालीन कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की बेटी को निर्वस्त्र कर जिंदा जला दिया था। इसपर जाफरी के बेटे तनवीर ने खुलासा किया कि तब उनकी बहन अमेरिका में थी। इस झूठ के लिए अरुंधति को माफी मांगनी पड़ी थी।
फर्जी ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत भी झूठ आधारित टूलकिट का ही एक सह-उत्पाद था। इस मिथक को कांग्रेस नीत संप्रगकाल (2004-14) में उछाला गया, जिसकी जड़े 1993 के मुंबई श्रृंखलाबद्ध (12) बम धमाके में मिलती है, जिसमें 257 मासूम मारे गए थे। तब महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार ने आतंकियों की मजहबी पहचान और उद्देश्य से ध्यान भटकाने हेतु झूठ गढ़ दिया कि एक ‘13वां’ धमाका मस्जिद के पास हुआ था। अपने इस सफेद झूठ पर पवार कई बार गौरवान्वित हो चुके है। यह सब प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास था, जिसे संप्रगकाल में राहुल गांधी, पी.चिंदबरम और सुशील कुमार शिंदे सहित शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व ने आगे बढ़ाया।
इस कड़ी में कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने सभी सीमाओं को पार कर दिया। वर्ष 2008 में मुंबई पर भयावह 26/11 आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें 29 विदेशी नागरिक सहित 166 निरपराध मारे गए थे। आतंकवादी कसाब और डेविड हेडली (दाऊद सैयद गिलानी) के जीवित पकड़े जाने के बाद स्पष्ट हो गया था कि इस आतंकी हमले को पाकिस्तान में जिहादी संगठन ‘लश्कर-ए-तैयबा’, पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई ने मिलकर रचा था। परंतु दिसंबर 2010 में दिग्विजय सिंह ने ‘26/11- आर.एस.एस. की साजिश’ नामक मनगढ़ंत पुस्तक का लोकार्पण करके आरएसएस को कटघरे में खड़ा कर दिया। दिग्विजय सिंह ने ऐसा क्यों किया, उसका उत्तर वे ही दे सकते है। यदि इसके कारणों को तलाशा जाए, तो संघ पर आधारहीन आरोप केवल मुस्लिम वोटबैंक को रिझाने या पाकिस्तान को क्लीनचिट देने के प्रयास तक सीमित नहीं था। वास्तव में, इसका उद्देश्य इस्लामी कट्टरता-आतंकवाद को ‘न्यायोचित’ ठहराने हेतु विश्व में फर्जी ‘हिंदू आतंकवाद’ सिद्धांत को शेष विश्व में स्थापित करना था।
इस प्रकार के ढेरों उदाहरण है, जिन्हें उनके निहित एजेंडे के साथ शब्दसीमा युक्त एक लेख में समाहित करना कठिन है। सच तो यह है कि वर्तमान दौर में विषाक्त टूलकिट, युद्ध में उपयोग होने वाले किसी घातक हथियार की तरह है। तकनीक (ए.आई. सहित) के युग में यह और भी खतरनाक हो चुका है, जो केवल समाज को भ्रमित ही नहीं करता है, अपितु निरपराधों के खिलाफ हिंसा या वैमनस्य को भी बढ़ावा देता है। ‘फातिमा शेख’ पर हालिया खुलासे ने उसी विषैले नैरेटिव की मारक क्षमता को पुन: रेखांकित किया है।
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