ज्ञान: भारत सनातन राष्ट्र है सनातन से

समय बीतता गया और श्रुति की परंपरा का लोप होते होते लोग महाभारत जैसे ग्रंथों की पुरानी परिभाषाएं भूलने भी लगे | राष्ट्रवाद की जो आधुनिक परिभाषाएं हैं उनमें से एक अर्नेस्ट रेनन के 1882 के सोरेबोन्न यूनिवर्सिटी में दिए गए लेक्चर से आती है | उन्होंने कहा था, राष्ट्र लम्बे समय के संघर्ष, बलिदानों और भक्ति भाव की परिणिति है |

गर्व से भर देने वाली कथाओं, शौर्य की गाथाओं, और महानायकों का इतिहास ही वो सामाजिक पूँजी है जिस पर एक राष्ट्र की भावना का आधार रखा जाता है | एक राष्ट्र की भावना को समाज में समाहित करने को गौरवशाली इतिहास की जरुरत होती है, अपने महानायक चाहिए | साझा सांस्कृतिक विरासत और भविष्य में, साथ मिलकर, ऐसे ही गौरवशाली कार्यों को अंजाम देने की मंशा ही राष्ट्र को जन्म देती है |

एक राष्ट्र के नागरिक होने को ये जरूरी कारण हैं | राष्ट्र के नागरिक इसी एकीकरण की भावना से जुड़े होते हैं | इसलिए किसी राष्ट्र के बारे में जानना है और राष्ट्र की भावना के बारे में जानना है तो उसका एकमात्र तरीका है, जनमत संग्रह | राष्ट्र उसके नागरिक होते हैं, नागरिकों के अलावा कोई भी राष्ट्र का निर्धारण नहीं कर सकता |

लगभग सर्वमान्य इस परिभाषा के हिसाब से तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, भारत की राष्ट्रीय भावना को आहत करने का दोषी है | अपने शब्दों के जाल में भोली भाली जनता को फंसाने की कोशिश के बदले उन्हें बिना शर्त देश से माफ़ी मांगनी चाहिए |

अपनी बात शुरू करने से पहले हम आपको एक प्रसिद्ध कविता की लाइन याद दिला दें, जो रुडयार्ड किपलिंग ने लिखी थी : “East is East and West is West, and never the twain shall meet.” राष्ट्रवाद पर चर्चा शुरू करने से पहले ही ये याद दिला देना जरूरी हो जाता है | भारत को कोई धर्म भारत नहीं बनाता, कोई भाषा भी हमें एक नहीं करती, संस्कृति भी यहाँ अलग-अलग है | यही कारण है कि जब हम किसी विदेशी चश्में से भारत में राष्ट्रवाद को समझने की कोशिश करते हैं तो कामयाबी मिलने की संभावना कम, बहुत कम हो जाती है | भारत के लिए राष्ट्र की परिभाषा कम से कम महाभारत के काल से तो जरूर है | युधिष्ठिर जब शर शैय्या पर पड़े भीष्म से कुछ सीखने गए थे तो कई अन्य चीज़ों के साथ, भीष्म ने राष्ट्र के बारे में भी बताया था |
✍🏻आनन्द कुमार

कुछ महान क्रांतिकारी राष्ट्रवाद को कपोल कल्पित अवधारण साबित करने में लगे हैं उनके हिसाब से १८५७ से पहले राष्ट्र या राष्ट्रवाद की कोई अवधारणा भारत में नहीं थी।

आप में से अधिकतर ने यह पढ़ा भी होगा और शायद मान भी लिया हो जो कि पूर्णरूपेन ग़लत है। ग़लत ही नहीं, क़ायदे से कहा जाए तो प्रपंच है।

इसीलिए मैं इन वामियों को बुद्धि प्रपंची बुलाता हूँ हालाँकि यह सुनने से इनको तकलीफ़ बहुत है लेकिन अब इससे अच्छा और सौम्य सम्बोधन का अभाव है मेरे पास।

ख़ैर मुख्य विषय पर आते हैं । असल हिंदुत्व की भावना ही राष्ट्रवाद है इसमें कोई संदेह नहीं और राष्ट्र की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना की सनातन , बल्कि यह कहना उचित होगा की राष्ट्रवाद सनातनी है।

हमारे सबसे पहले ग्रंथ ऋग्वेद में राष्ट्र शब्द मेरे हिसाब से लगभग ८ बार आया है।

ऋग्वेद में ही कहा गया है कि

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदो ऽमध्यमासो महसा वि वाव्र्धुः सुजातासो जनुषा पर्श्निमातरो दिवो मर्या आ नो अछा जिगातन ।।

अर्थात राष्ट्र भक्तों में किसी प्रकार की ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता की भावना नहीं होनी चाहिए। सभी को अपने स्वप्रयत्नों से राष्ट्र की उन्नति को प्रयत्नशील होना चाहिए । सामूहिक हित की भावना से ही सबकी उन्नति संभव है और सभी की उन्नति से ही राष्ट्र की दृढ़ता बढ़ती है | उसकी एकता और अखंडता और मजबूत होती है|

उन्ही वेदों से यह प्रपंच करने वाला बुद्धि पिशाचों का समूह #वसुधेव_कुटुम्बकम और #सर्वे_भवंतु_सुखिन: का तो ज़िक्र अपने फ़ायदे को करता है लेकिन राष्ट्र की अवधारणा छुपा लेता है।

और देवी सूक्त को यदि वेदों की भाषा में समझा जाए तो सम्पूर्ण राष्ट्र की अवधारणा है।

देवी सूक्त ऋग्वेद दसम मंडल के १२५ वें सूक्त को कहा गया है। वही से कुछ ऋचा उद्धृत कर स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ

देवी सूक्त
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्र्चराम्यहमादित्यैरुत विश्र्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा ॥ १ ॥

भावार्थ ;ब्रह्मस्वरुपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्र्वदेवता के रुप में विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन सभी रुपों में भासमान हो रही हूँ । मैं ही ब्रह्मरुप से मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूँ । मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूँ । मैं ही दोनों अश्विनी कुमारों का धारण-पोषण करती हूँ ।

अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥ २ ॥

मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाल्हाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिव का भरण पोषण करती हूँ । मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को भी धारण करती हूँ । जो यजमान यज्ञ में सोमाभिषव द्वारा देवताओं को तृप्त करने के लिये हाथ में हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोक में सुखकारी फल देने वाली मैं ही हूँ ।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥ ३ ॥

मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत् की ईश्र्वरी हूँ । मैं उपासकों को उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ ।
जिज्ञासुओं के साक्षात् कर्तव्य परब्रह्म को अपनी आत्मा के रुप में मैंने अनुभव कर लिया है । जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ । सम्पूर्ण प्रपञ्च के रुप में मैं ही अनेक-सी होकर विराजमान हूँ । सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीवनरुप में मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ । भिन्न-भिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझमें मेरे लिये ही किया जा रहा है । सम्पूर्ण विश्व के रुप में अवस्थित होने के कारण जो कोई जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हूँ ।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितियईं श्रृणोत्युक्तम्
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥ ४ ॥

जो कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्री की शक्ति से ही भोगता है । जो देखता है, जो श्र्वासोच्छ्वास रुप व्यापार करता है और जो कही हुई सुनता है, वह भी मुझसे ही है । जो इस प्रकार अन्तर्यामिरुप से स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण हो जाते हैं । मेरे प्यारे सखा ! मेरी बात सुनो– मैं तुम्हारे लिये उस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ, जो श्रद्धा-साधन से उपलब्ध होती है ।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥ ५ ॥

मैं स्वयं ही ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूँ । देवताओं और मनुष्यों ने भी इसी का सेवन किया है । मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ । मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूँ, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, मैं चाहूँ तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूँ और उसे बृहस्पति के समान सुमेधा बना दूँ । मैं स्वयं अपने स्वरुप ब्रह्मभिन्न आत्मा का गान कर रही हूँ ।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥ ६ ॥

मैं ही ब्रह्मज्ञानियों के द्वेषी हिंसारत त्रिपुरवासी त्रिगुणाभिमानी अहंकारी असुर का वध करने के लिये संहारकारी रुद्र के धनुष पर ज्या (प्रत्यञ्चा) चढाती हूँ । मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओं के विरोधी शत्रुओं के साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूँ । मैं ही द्युलोक और पृथिवी में अन्तर्यामिरुप से प्रविष्ट हूँ ।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥ ७ ॥
इस विश्व के शिरोभाग पर विराजमान द्युलोक अथवा आदित्य रुप पिता का प्रसव मैं ही करती रहती हूँ । उस कारण में ही तन्तुओं में पटके समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दिख रहा है । दिव्य कारण-वारिरुप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थोंका उदय-विलय होता रहता है, वह ब्रह्मचैतन्य ही मेरा निवास स्थान है । यही कारण है कि मैं सम्पूर्ण भूतों में अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारणभूत मायात्मक स्वशरीर से सम्पूर्ण दृश्य कार्य का स्पर्श करती हूँ ।

अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्र्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥ ८ ॥

जैसे वायु किसी दूसरे से प्रेरित न होने पर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरे द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होने पर भी स्वयं ही कारण रुप से सम्पूर्ण भूतरुप कार्यों का आरम्भ करती हूँ । मैं आकाश से भी परे हूँ और इस पृथ्वी से भी । अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारों से परे, असङ्ग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्मचैतन्य हूँ । अपनी महिमा से सम्पूर्ण जगत् के रुप में मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ ।

॥ इति देवी सूक्त ॥

यहाँ राष्ट्री का उल्लेख राष्ट्र माता के संदर्भ में हैं । सम्पूर्ण भरण पोषण की यह व्याख्या यदि राष्ट्र वाद नहीं तो हम उस प्रपंच को राष्ट्र कैसे मान लें जहाँ सिर्फ़ एक भूखंड उसके लोग सेना और दण्डविधान को राष्ट्र कहा जाता है

अब कुछ मूर्ख यहाँ भी ज्ञान देने आ जाएँगे कि यहाँ राष्ट्र जैसा कुछ कहा ही नहीं गया । सच है जिसे तुम राष्ट्र समझते हो मूर्खों वह मात्र एक इकाई है। तुमको तुम्हारा राष्ट्रवाद मुबारक।
✍🏻
शैलेंद्र सिंह

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।
अर्थात् हे देव, हमें देवों के सखा कुबेर, और उनके
मित्र मणिभद्र तथा दक्ष
प्रजापति की कन्या कीर्ति (यश)
उपलब्ध करायें, जिससे हमें और राष्ट्र
को कीर्ति-समृद्धि प्राप्त हो।
ऋग्वेद के परिशिष्ट में प्राप्त श्रीसूक्त का यह सातवाँ मन्त्र है ।
उपैतु मां देवसख : कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥
७॥
हे महादेव सखा कुबेर ! मुझे मणि के साथ
कीर्ति भी प्राप्त हो । मैं इस राष्ट्र में
जन्मा हूँ । इसलिए यह मुझे कीर्ति और धन दें ।

प्रस्थला मद्रगान्धारा आरट्टा नामतः खशाः ।
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायोऽतिकुत्सिताः॥
–कर्णपर्व ४४
. आरट्टा नाम ते देशा बाह्लीका नाम ते जनाः |
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायो विकुत्सिताः ||(पाठान्तर)

धर्म हमारे राष्ट्र के कण-कण में संव्याप्त है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के रूप में जाना जाता रहा है। यही कारण रहा है कि हमारे ऋषियों ने भारत भूमि को माता कहा है। “माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्याः” वाला यह राष्ट्र ही है जहाँ ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान पाया व ब्रह्मसाक्षात्कार किया। विश्व को परिवार मानने की सुंदर कल्पना भी इसी भूमि से उपजी है।
राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है-रातियों का संगम स्थल। राति शब्द देने का पर्यायवाची है। राष्ट्रभूमि और राष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र इसीलिए कही जाती है कि यहाँ राष्ट्रजन अपनी-अपनी देन राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित करते है।
स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र को व्यष्टि का समष्टि में समर्पण कहते हुए इसकी व्याख्या की है। आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के उद्घोषक श्री अरविंद ने कहा है-राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है। मनुस्मृति हमारे देश की साँस्कृतिक यात्रा की ओर संकेत करती है। भगवान मनु कहते हैं कि भारतवर्ष रूपी यह पावन अभियान सरस्वती और दृषद्वती नामक दो देवनदियों के मध्य देव विनिर्मित देश ब्रह्मावर्त से आरंभ हुआ।

सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ।।
तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागत: ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: ।
स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा: ।।
मनुस्मृति १/१३६,१३७,१३९

इस प्रकार मनु महाराज द्वारा सदाचार, नैतिकता देवत्व के सम्वर्द्धन प्रचार प्रसार में विश्वास रखने वाली भारतीय संस्कृति को बताया गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में भारत की यशोगाथा का वर्णन कुछ इस तरह हुआ है-
अत्रतेकीर्तयिष्यामिवर्षभारतभारतम्।
प्रिययमिंद्रस्यदेवस्यमनोवैंवस्वतस्यच॥
अर्थात् “हे भारत! अब मैं तुम्हें उस भारतवर्ष की कीर्ति सुनाता हूँ, जो देवराज इन्द्र को प्यारा था, जिस भारत को वैवस्वत मनु ने अपना प्रियपात्र बनाया था, भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या करते हुए विष्णुपुराण में लिखा है-
उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संतति:’ (२,३,१)।
इस प्रकार हमारे देश का प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त और भारतवर्ष है ।

*शिवमहापुराण में भारत महिमा का गान*

*उमा संहिता*:
सनत्कुमार उवाच
वक्ष्येsहं भारतं वर्षं हिमाद्रेश्चैव दक्षिणे।
उत्तरे तु समुद्रस्य भारती यत्र संसृति:||१||

सनत्कुमारजी बोले- अब मैं हिमालय के दक्षिण में स्थित भारतवर्ष का वर्णन करता हूँ, जहाँ समुद्र के उत्तर में भारती सृष्टि है।

———————

नवयोजनसाहस्रो विस्तारोsस्य महामुने। स्वर्गापवर्गयो: कर्मभूमिरेषा स्मृता बुधै:||२||

नौ सहस्र योजन विस्तार वाली इस भूमि को ज्ञानियों ने कर्मभूमि कहा है क्योंकि यहीं मनुष्य को अच्छे बुरे कर्म का फल और उससे मोक्ष प्राप्त होता है।

—————————-

कदाचिल्लभते मर्त्य: सहस्रैर्मुनिसत्तम।अत्र जन्मसहस्राणां मानुष्यं पुण्यसंचयै:||१८||

हे मुनिवर! हजारों जन्मों के पुण्य संचय होने पर जीव यहाँ मनुष्य जन्म पाता है।

—————————-

स्वर्गादपवर्गास्पदमार्गभूते धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। गायन्ति देवा: किल गीतकानि भवन्ति भूयः पुरुषा: सुरास्ते||१९||

हे भारतभूमि(माँ) आप धन्यभागी हैं। आप स्वर्ग और अपवर्ग(मोक्ष) का मार्गरूपा हैं।
देवता आपकी स्तुति किया करते हैं ,इससे वे यहाँ मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं।

———————————

अवाप्य मानुष्यमयं कदाचिद्विहृत्य शम्भो: परमात्मरूपे। फलानि सर्वाणि तु कर्मजानि यास्याम्यहं तत्तनुतां हि तस्य||२०||

(वे देवता यहाँ) कभी मानव देह पाकर तथा कभी शिव के परमात्मरूप में विहार करके समस्त कर्मों के फल को प्राप्त करते हैं और ऐसी भावना रखते हैं कि “मैं शिव के चैतन्य देहत्व को प्राप्त होकर मुक्त हो जाउँ।”

——————————

आपस्यन्ति धन्या: खलु ते मनुष्या: सुखैर्युता: कर्मणि सन्निविष्टा:। जनुर्हि येषां खलु भारतेsस्ति ते स्वर्गमोक्षोभयलाभवन्त:||२१||

सुखों से युक्त वे शुभ कर्मों में लगे हुए मनुष्य धन्य हैं जिनका जन्म भारतवर्ष में होता है।क्योंकि वे स्वर्ग(सुख) और अपवर्ग(मोक्ष) के भी भागी होते हैं।

वेदों में राष्ट्रभक्ति-
———————
लेख का प्रारम्भ अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी  की श्रीसूक्त के पद की व्याख्या से करते हैं, फिर आगे बात करेंगे –

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।
अर्थात् हे देव, हमें देवों के सखा कुबेर, और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति (यश) उपलब्ध करायें, जिससे हमें और राष्ट्र को कीर्ति-समृद्धि प्राप्त हो।
ऋग्वेद के परिशिष्ट में प्राप्त श्रीसूक्त का यह सातवाँ मन्त्र है ।
उपैतु मां देवसख : कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥
हे महादेव सखा कुबेर ! मुझे मणि के साथ कीर्ति भी प्राप्त हो । मैं इस राष्ट्र में जन्मा हूँ । इसलिए यह मुझे कीर्ति और धन दें ।

प्रस्थला मद्रगान्धारा आरट्टा नामतः खशाः ।
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायोऽतिकुत्सिताः॥
–कर्णपर्व ४४
. आरट्टा नाम ते देशा बाह्लीका नाम ते जनाः |
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायो विकुत्सिताः ||(पाठान्तर)

धर्म हमारे राष्ट्र के कण-कण में संव्याप्त है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के
रूप में जाना जाता रहा है। यही कारण रहा है कि हमारे ऋषियों ने भारत भूमि को माता कहा है। “माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्याः” वाला यह राष्ट्र ही है जहाँ ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान पाया व ब्रह्मसाक्षात्कार किया। विश्व को परिवार माननेकी सुंदर कल्पना भी इसी भूमि से उपजी है।
राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है-रातियों का संगम स्थल। राति शब्द देने का पर्यायवाची है। राष्ट्रभूमि और राष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र ईसीलिए कही जाती है कि यहाँ राष्ट्रजन अपनी-अपनी देन राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित करते है।
स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र को व्यष्टि का समष्टि में समर्पण कहते हुए इसकी व्याख्या की है। आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के उद्घोषक श्री अरविंद ने कहा है-राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है।
मनुस्मृति हमारे देश की साँस्कृतिक यात्रा की ओर संकेत करती है। भगवान मनु कहते हैं कि भारतवर्ष रूपी यह पावन अभियान सरस्वती और दृषद्वती नामक दो देवनदियों के मध्य देव विनिर्मित देश ब्रह्मावर्त से आरंभ हुआ।

सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ।।
तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागत: ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।।
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: ।
स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा: ।।
मनुस्मृति १/१३६,१३७,१३९

इस प्रकार मनु महाराज द्वारा सदाचार, नैतिकता देवत्व के सम्वर्द्धन प्रचार प्रसार में विश्वास रखने वाली भारतीय संस्कृति को बताया गया है।
महाभारत के भीष्म पर्व में भारत
की यशोगाथा का वर्णन कुछ इस तरह हुआ है-
अत्रतेकीर्तयिष्यामिवर्षभारतभारतम्।
प्रिययमिंद्रस्यदेवस्यमनोवैंवस्वतस्यच॥
अर्थात् “हे भारत! अब मैं तुम्हें उस भारतवर्ष की कीर्ति सुनाता हूँ, जो देवराज इन्द्र को प्यारा था, जिस भारत को वैवस्वत मनु ने अपना प्रियपात्र बनाया था, भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या करते हुए विष्णुपुराण में लिखा है-
उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद्
भारतम् नाम भारती यत्र संतति:’ (२,३,१)।
इस प्रकार हमारे देश का प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त और भारतवर्ष है ।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

अर्थववेद में ऋषियों ने कहा- भद्रं इच्छन्तः ऋषयः स्वर्विदः / तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे/ ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम्/ तदस्मै देवाः उपसं नमन्तु यानि आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के आरंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया था, उससे राष्ट्र-निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिये सब विबुध होकर इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताःयजुर्वेद
राष्ट्र संरक्षण का दायित्व सच्चे ब्राह्मणों पर ही हैं । राष्ट्र को जागृत और जीवंत बनाने का भार इन पर ही है ।

उग्रा हि पृश्निमातर:(ऋग्वेद 1/23/10)
देशभक्त (हि) सचमुच (उग्रा:) तेजस्वी होते है।

अधि श्रियो दधिरे पृश्निमातर: ( ऋग्वेद 1/85/2)
पृथ्वी को माता मानने वाले देशभक्त सम्मान को अपने अधिकार में रखतेहै।

वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम(अथर्ववेद 12/1/62)
हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों।

*यतेमहि स्वराज्ये(ऋग्वेद 5/66/6)
हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें

यस्मान्नानयत् परमस्ति भुतम् (अथर्ववेद 10/7/31)
स्वराज्य से बढ़कर और कुछ उत्तम नहीं है।

प्राचीन राष्ट्र है भारत

भारत और राष्ट्र, ये दोनों शब्द सदियों पहले से इस देश के भूभाग के लिये प्रयुक्त होते रहे है। विश्व का प्राचीनतम लिखित प्रमाण और भारतीय अस्मिता की आत्मा ऋग्वेद में राष्ट्र शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। दसवें मंडल में राष्ट्र, राजा और प्रजा (समाज) को लेकर ऋचायें कही गयी है। ऋषि कहते हैं— हे राजन! हमारे राष्ट्र का तुम्हें स्वामी बनाया गया है। तुम हमारे राजा हो। तुम नित्य अचल और स्थिर होकर रहो। सारी प्रजा तुम्हें चाहे। तुमसे राष्ट्र नष्ट न होने पावे। (10.173.1)
दूसरी ऋचाओं में कहा गया — तुम ध्रुव बनकर इस राष्ट्र को धारण करो (10.173.2) और राष्ट्र को तेजस्वी वरुण स्थिर करें, देव बृहस्पति, इन्द्र और अग्नि राष्ट्र को अचल बनावें। (10.173.5)
दसवें मंडल में ही संवनन ऋषि ने राष्ट्र चेतना को जाग्रत करने के लिये एक ऋचा में कहा है — हम सबके मंत्र समान हों, हमारी समिति समान हो। चित्त सहित मन समान हो। मैं तुम्हें एक ही मंत्र से अभिमंत्रित करता हूँ, एक सी हवि से तुम्हारे लिये हवन करता हूँ। (10.191.3) एक और ऋचा में कहा गया है — तुम्हारी संकल्प शक्ति समान हो। तुम्हारे हृदय समान हों। तुम्हारे मन समान हों। तुम सबका पूर्ण रूप से संघटन हो। (10.191.4)
ऋग्वेद में भारत नाम भी अनेक बार प्रयोग में आया है। जिन पांच मुख्य आर्यजन के नाम ऋग्वेद (1.108.8) में आते हैं, वे हैं — पुरु, यदु, तुर्वश, दुहयु और अनु। इनसे पुरुओं में तीन शाखायें हुई — भरत तृत्सु और कुशिक। बाद में भरत और तृत्सु एक हो गये। इन्हीं भरत राजाओं के कारण भारत नाम था। इनमें दिवोदास और उसका पुत्र सुदास ऋग्वैदिक काल के प्रसिद्ध राजा हुये, जिन्होंने जनपदों के छोटे—छोटे राजाओं (राजकों) को संगठित करने का काम किया था। इन्हीं भारतों के ऊपर देश का नाम भारत पड़ा।
विश्वामित्र ऋग्वेद के प्राचीन ऋषियों में से है। वे तीसरे मंडल के सूक्तों के रचयिता हैं। वे दाशराज्ञ युद्ध के बाद सुदास राजा के पुरोहित भी रहे। उन्होंने एक ऋचा में राष्ट्र के सन्दर्भ में भारत का नाम लिया है। राष्ट्र के निवासियों के लिये भारतजन कहा है। उनकी एक ऋचा इस तरह है — य इमे रोदसी अमे अहमिन्द्रम तुष्टनम्। विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्नेदं भारतं जनं।। (3.53.12)
हे कुशिकपुत्रों, जो यह दोनों आकाश और पृथिवी है, उनके धारक इन्द्र की मैंने स्तुति की है। स्तोता विश्वामित्र का यह स्तोत्र भारतजन की रक्षा करता है। वशिष्ठ भी ऋग्वेद के प्राचीन ऋषियों में है। दाशराज्ञ युद्ध में वे सुदास के पुरोहित थे। तृत्सु राजाओं को उन्होंने भारतवंशी कहा है। एक ऋचा में उन्होंने यह कहा है कि तृत्सुओं के पुरोहित बनने के बाद भारतवंशी राजाओं की प्रजा में वृद्धि हुई।(7.33.6)
भारतीय भूभाग को ऋग्वेद में सप्तसिन्धु कहा गया है। ऋग्वेद में यह नाम कई बार आया है। यह भूभाग गंगा की उपत्यका से लेकर सिन्धु नदी के पश्चिम तक था। ऋग्वेद की एक ऋचा में गंगा से लेकर मेहलू तक की नदियों का पूर्व से पश्चिम की ओर के क्रम में विवरण मिलता है।
सिन्धुक्षित की दो ऋचाओं (10.75.5.6) में उन सभी नदियों का उल्लेख किया गया है, जो उस पूरे क्षेत्र में प्रवाहित होती है। इसमें गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलुज से लेकर कुभा (काबुल) और मेहलू नदियों तक के नाम हैं। हिरण्यस्तूप आंगिरस सविता की स्तुति करते हुये एक ऋचा में कहते हैं — पृथिवी की आठों दिशायें, परस्पर संयुक्त हुये तीनों लोक और सप्तसिन्धु को सविता देव ने प्रकाशित किया है। स्वर्णिम आंखों वाले सविता देव (हिरण्याक्ष: सविता देव:) हव्यदाता राजमान को वरणीय दान देकर यहां आवें। (1.35.8) सप्तसिन्धु कई जनपदों का सम्मिलित नाम था।
भारतीय परम्परा आकाश को पिता और धरती को माता मानने की रही है। आदि काल से इस परम्परा का निर्वाह होता रहा है। ऋग्वेद के ऋषि दीर्घतमा औचथ्य ने छावापृथिवी को पिता और माता के रूप में आह्वान किया है – मैंने आह्वान मंत्र द्वारा पुत्र के प्रति द्रोहहीन और पितृस्थानीय द्युलोक के उदार और सदय मन को जाना है। मातृस्थानीय पृथिवी के मन को भी जाना है। पिता—माता (द्यावापृथिवी) अपनी शक्ति से यजमानों की रक्षा करते हुये पर्याप्त अमृत देते हैं। (1.159.2)
आकाश को पिता और पृथिवी को माता की परम्परा हिन्दू धार्मिक मान्यता का अपरिहार्य अंग है। भारतीयों में हर दिन प्रात: काल सोकर उठने के बाद धरती पर पैर रखने के पहले धरती से क्षमा मांगने की प्रथा थी — समुद्रवसने देवि, पर्वत स्तन मंडले। विष्णु पत्रि नमस्तुभ्यं पाद स्पर्श क्षमस्व मे।
भारत देश के अर्थ में सिन्धु शब्द का प्रयोग पाणिनी (5वीं सदी ई. पू.) की अष्टाध्यायी (4.3.93) में हुआ है। सिन्धु देश के लोगों को सैन्धव कहा गया है। खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख (पहली शताब्दी ई. पू. के आसपास) में भारतवर्ष शब्द आया है। विष्णुपराण में भारत की सीमा का उल्लेख किया गया है। उसमें कहा गया है
उत्तरं यत्समुदस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षंतद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:।।
भारत नाम हिमालय से समुद्र तक के उत्तर दक्षिण भूभाग का है। भारत में भारती प्रजा का निवास है। मनुस्मृति में देश शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है। उसमें देश का आशय विशेष भूमिभाग से लिया गया है, जैसे ब्रहमावर्त देश का क्षेत्र निर्धारण करते हुये बाताया गया है कि सरस्वती तथा दृषद्वती इन दो देवनदियों के मध्य का जो देश है, उसे देव निर्मित (देवनदी निर्मित) ब्रहमावर्त कहा गया है। (2.17)
यहां सरस्वती और दृषद्वती नदियों को देव नदी के रूप में माना गया है। इसमें दो बातें ध्यान देने योग्य है, एक यह कि सरस्वती (हषदृवती सरस्वती की सहायक नदी थी) को मनुस्मृति में भी नदियों में पवित्रतम देवनदी के रूप में बताया गया, जो ऋग्वैदिक परम्परा के अनुकूल है। ऋग्वेद में सरस्वती को लेकर बहुत सी ऋचायें कही गयी है और उसे नदियों में सर्वोत्तम के साथ ही माताओं में सर्वोत्तम तथा देवियों में सर्वोत्तम कहा है। (2.41.6)
दूसरी बात यह कि मनुस्मृति काल में सरस्वती अभी सूखी नहीं थी, ऐसा संकेत मिलता है। इससे इस सम्भावना को बल मिलता है कि मनुस्मृति का रचना काल दूसरी सदी ई. पू. जैसा कि अधिकतर लोक मानते हैं, से पहले का होना चाहिये, क्योंकि दूसरी सदी ई. पू. की रचना पंचविंश ब्राहमण (15.10.16) में सरस्वती के सूखने का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति में ब्रह्मर्षि देश का उल्लेख है। उसमें कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल, पंजाब और कन्नौज का समीपवर्ती देश और शूरसेन देश, यह ब्रहमर्षि देश ब्रहमावर्त से कुछ कम उसके बाद में है। (2.19)
मध्य देश का वर्णन करते हुये कहा गया है कि हिमालय और विन्ध्याचल के बीच विनशन (कुरुक्षेत्र) के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम का देश मध्यदेश कहा गया है। (2.21)
आर्यावर्त देश के बारे में कहा गया कि पूर्व समुद्र तथा पश्चिम समुद्र और इन्हीं दोनों पर्वतों के मध्य स्थित देश को पंडित आर्यावर्त देश कहते हैं। (2.22)
इनके अतिरिक्त मनुस्मृति में यज्ञिय और म्लेच्छ देश का भी उल्लेख है। कहा गया कि जहां पर काला मृग स्वभाव से ही विवरण करता है, यह यज्ञिय (यज्ञ के योग्य) देश हैं, इसके अतिरिक्त म्लेच्छ देश है। (2.23)
यहां म्लेच्छ देश की परिभाषा नहीं की गयी है। लगता यह है कि यज्ञिय देश, जहां आर्यो का निवास था, और म्लेच्छ देश (क्षेत्र) वह जहां दस्यु रहा करते थे। ऋग्वेद में भी दस्युओं को राक्षस (1.51.57.8), असुर (10.73.1) दस्यु (6.31.4) दास (5.3.8) आदि कहा गया है। यह हो सकता है कि मनुस्मृति के इस श्लोक में यज्ञिय और म्लेच्छ देश ऋग्वेद के आधार पर कहा गया हो।
ऋग्वेद में यह भी है कि दस्यु और आर्यों की बस्तियां एक दूसरे से पर्याप्त दूरी में रही थी। तभी तो इन्द्र की दूती सरमा पणियों के यहां गौवों का पता लगाने गयी थी। उन ऋचाओं में उसे दूर देश से आने वाली बताया गया है। उसके आने पर बृबु पाठी उससे आने का कारण जानने के लिए पूछता है, सरमा तुम किस इच्छा से इतनी दूर आयी हो, मार्ग बहुत लम्बा है और कठिन भी। तुम्हें तो कितनी ही रातें राह में बितानी पड़ी होंगी। तुमने रास्ते की नदियों को किस तरह पार किया होगा। (10.108.1)
भारत की तरह भारतजन के लिये हिन्दू नाम भी बहुत प्राचीन काल से प्रयुक्त होता रहा था। इसका संकेत हमें जेंदावेस्ता में आये हन्द शब्द से मिलता है। पं. धर्मानन्द महाभारती के बंगला भाषा में प्रकाशित लेख का महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उल्लेख किया है। उस लेख में कहा गया है कि हिन्दू शब्द का इतिहास बहुत पुराना है। पारसी जो अग्निपूजक थे, के धर्मग्रंथ जेंदा वेस्ता में हन्द् शब्द का प्रयोग किया गया है। यहूदियों की धर्मपुस्तक ओल्ड टेस्टामेंट (जो बाइबल का पुराना भाग है) में भी हन्द शब्द आया है। ओल्ड टेस्टामेंट हिब्रू भाषा में है और पारसियों का जेंदा वेस्ता जेंद भाषा में है। हिब्रू की अपेक्षा जेंद भाषा अधिक पुरानी मानी जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दू शब्द का प्राचीनतम प्रयोग हन्द के रूप में जेंद भाषा में प्रयुक्त हुआ है।
✍🏻डॉ. कृपा शंकर सिंह
लेखक प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी हैं।
आलेख साभार भारतीय धरोहर

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