मत:प्रेम, पाखण्ड और समस्या…निराश्रित पशुओं से कैसे मिले समाधान?
निराश्रित कुत्तों और सड़कों पर घूमती गायों से कैसे मिलेगा समाधान?
भारत की पशु नीति ऐसा सर्कस है जहां लोगों का आक्रोश ही चर्चा बन जाता है और जवाबदेही कभी नहीं दिखती. राजनेता गौभक्ति वोटों में बदल देते हैं, शहरी अमीर कुत्तों के बचाव को इंस्टाग्राम कंटेंट में बदल देते हैं और समस्या जस की तस बनी रहती है. भारत में निराश्रित पशुओं की संख्या बढ़ रही है।
नई दिल्ली,20 अगस्त 2025,भारत के लोगों का आवारा जानवरों से प्यार भावुक कथा विषय है और पूरा देश इस प्यार का रंगमंच है. कल्पना कीजिए- मक्खियों से घिरी, कीचड़ सनी एक गाय ट्रैफिक जाम में शांति से प्लास्टिक थैली चबा रही है. सड़क से जाते गाड़ी वाले ‘गौ माता की जय’ नारा लगा निकल जाते हैं. उसी सड़क पर, दर्जनभर कुत्ते-कचरा नोच रहे हैं. किसी दयालु इंसान की फेंकी हड्डियों को लड़ रहे हैं जो बाद में इन कुत्तों की रील पोस्ट करते हुए #BeKind ट्वीट करेगा.
फिर भी इस भावनापूर्ण नाटक में, उदासीनता प्रमुख भूमिका निभाती है. उदासीनता निराश्रित जानवरों को जहां हैं, वहीं छोड़ देती है,उनकी संख्या बढ़ने और मरने को. इन जानवरों को लोगों में करुणा हमेशा सोशल मीडिया पर फूट पड़ने को तैयार रहती है.
पाखंड का रंगमंच
गाय माता को लीजिए. 2019 की पशुगणनानुसार, भारत में 50 लाख निराश्रित गायें हैं. सीमापार से आए शरणार्थी नहीं- 95 प्रतिशत गायें उन डेयरियों किसानों की हैं जो इन्हें हांक देते हैं ताकि चारा खर्च कम हो। ये गायें शहरी कूड़ा-करकट खाती हैं.फिर लाभ को डेयरी किसान इनका दूध निकालते हैं. खर्चा कुछ नहीं और लाभ पर लाभ.
नतीजा ये है कि गायों के पेट प्लास्टिक से भरते हैं,आंतें खराब होती हैं, सड़कें गोबर से पट जाती हैं. समाधान? सब कंधे उचकाते हैं, गाय हर भारतीय की मां है, हमीं क्यों, कोई और ‘बच्चा’ इसकी देखरेख कर लेगा.
अब कुत्तों की. दुनिया में सबसे ज्यादा, साठ करोड़ निराश्रित कुत्ते भारत में है. यह मध्यम आकार के यूरोपीय देश बराबर है जो चार पैरों पर घूमता है. गणित बहुत साफ है- भारत की 1.4 अरब आबादी में हर आदमी पर 0.042 कुत्ता.भारत में हर 23वें इंसान पर एक कुत्ता.
संख्याएं भौंकती नहीं, काटती हैं- हर साल भारत में 37 लाख कुत्ते काटते हैं, दुनिया में रेबीज से 36% मौतें भारत में होती हैं; हर चार घंटे में एक बच्चा मरता है. दिल्ली में, 2025 मध्य तक, 35,198 कुत्ता काटने की घटनाएं और 49 मौतें हुई. यहां का प्यार जानलेवा है- जितना हम खिलाते हैं, उतना ही उनकी आबादी बढ़ती है.
गुस्सा दिखाने वाले लोग जिम्मेदारी क्यों नहीं लेते
भारत की पशु नीति ऐसा सर्कस है जहां आक्रोश ही चर्चा बन जाता है और जवाबदेही कभी दिखती नहीं . राजनेता गौभक्ति वोटों में बदल देते हैं, शहरी अमीर कुत्तों के बचाव कार्यों को इंस्टाग्राम कंटेंट में बदल देते हैं,नगरपालिकाएं पशु नियंत्रण गड्ढों की मरम्मत जैसा मानती हैं—जो पिछले साल की फाइल में भर दिया गया.
नतीजा? गाय और कुत्ते दोनों को ही कष्ट उठाते है, इंसान कीमत चुकाते हैं, और निराश्रित को भारतीय प्रेम की ‘भावुक कहानी’ दुखद हास्य बनकर रह जाती है.
दिल्ली के दस लाख कुत्ते दूसरी जगह ले जाने की सुप्रीम कोर्ट की 2025 की योजना से पूरे भारत में आक्रोश फैला और लोग इसे ‘नरसंहार’ कह गये. कुत्तों के प्रति चिंता उचित है- कुत्तों को ऐसे आश्रयों में नहीं रख सकते जो मौत और सड़न शिविरों में बदल सकते हैं. उन्हें सहानुभूति, देखभाल और जीवन अधिकार मिलना चाहिए. लेकिन जिम्मेदारी बिना क्रोध दिखाना उस गली के कुत्ते की तरह ही है अपनी ही पूंछ का पीछा करता है, या उस गाय माता के समान जो सड़क किनारे प्लास्टिक खा रही है- यानी समस्या पर खाली शोर मचाना, समाधान न करना.
कुत्तों की आबादी का बढ़ना
असंक्रमित कुतिया, छह सालों तक प्रति वर्ष दो बच्चे पैदा करती है, उसके कुल से लगभग 33,510 संतानें संभव हैं, यदि प्रति बच्चा 6 पिल्ले हों, उनके जीवित रहने की दर 80% हो और पीढ़ियां 1 साल की आयु से उसी दर से बच्चे पैदा करें.
ऐसा होना जरूरी नहीं . पोलियो उन्मूलन कभी असंभव था. लेकिन टीकों, पोलियो उन्मूलन अभियानों और जवाबदेही की समय-सीमाओं ने इसे संभव बनाया. निराश्रित पशु प्रबंधन को भी यही निश्चय चाहिए:
धर्मनिष्ठा नहीं बल्कि नीतियों की जरूरत
निराश्रित कुत्तों और गायों का कोई समाधान चाहते हैं? सुझाव हैं-
गायों के लिए– सभी मवेशियों का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन; छोडा गया तो जुर्माना और जब्ती. अनुदानित गौशालाओं को झुंड के आकार की डिजिटल ट्रैकिंग से जोड़ें. उन्हें गौ-चुंगी से धन दें जो वास्तव में गौशालाओं में जाता है, न कि राजनेताओं के वोटों के खलिहानों में.
कुत्तों के लिए- सामूहिक नसबंदी और टीकाकरण अभियान, जीपीएस टैगिंग, सामुदायिक स्वयंसेवकों और कठोर लक्ष्य प्राप्ति के साथ. एक जिला कुत्ता बोर्ड बनाए जिसका वार्षिक ऑडिट हो और डेटा में हेराफेरी पर अधिकारियों पर जुर्माना . ट्रैकिंग न हो तो फंडिंग न दी जाए.
दोनों के लिए: एक ‘भारतीय निराश्रित पशु प्राधिकरण’ बनें जिसके पास जांच शक्तियां हों, निश्चित राष्ट्रीय रोडमैप हो जो हर छह महीने में रिपोर्ट दे. स्वच्छ भारत जैसी, काम देखकर फंडिंग दी जाए. निराश्रित पशुओं कआ खतरा पोलियो के खतरे की तरह समझें जिसे हमने जड़ से मिटाया है. इस अभियान में पशु चिकित्सकों, गैर सरकारी संगठनों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को शामिल करें. जागरूकता अभियान चलाएं.
निराश्रित पशुओं को पैसा कहां से आएगा?
पैसा कहां है? वोट लेने की बात होती है तब पैसा कहां से आता है ? भारत मूर्तियों, रैलियों और आध्यात्मिक उत्सवों पर करोड़ों खर्च करता है. प्रति परिवार एक छोटा सा कुत्ता टैक्स, सांसद-विधायक निधि, पंचायत निधि, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) और राज्य के पशु चिकित्सा दल का इस्तेमाल करके देशभर में निराश्रित कुत्तों की नसबंदी और आश्रय स्थलों की फंडिंग हो सकती है.
याद रखें कि एक बिना नसबंदी मादा कुत्ते के छह साल में 60,000 से ज्यादा वंशज हो जाते हैं. खर्च किया पैसा 60,000 निराश्रित कुत्तों की बचत बराबर है. इसमें जितनी देरी होगी, नुकसान उसी हिसाब से बढ़ेगा.
जयपुर मॉडल है उदाहरण
जयपुर मॉडल गैर-सरकारी संगठन है जिसे जयपुर नगर निगम ने 1994 में शुरू किया था. एनजीओ निराश्रित कुत्तों पर मानवीय नियंत्रण को भारत का स्वर्णिम मानक है. इसकी टीमें प्रतिदिन कुत्ते पकड़ उनका ऑपरेशन करती हैं, उनका टीकाकरण करती हैं और उन्हें छोड़ती हैं.
इस पर प्रति कुत्ते 800 से 2,200 रुपये तक खर्च आता है और इसकी फंडिंग जयपुर नगर निगम और लोगों के दान से होती है. पैसे की कमी और लोगों की रुकावट से प्रोग्राम चलाने में दिक्कतें आती हैं, फिर भी यह चल रहा है जिससे निराश्रित कुत्तों की संख्या और रेबीज मामलों में कमी आई है.
इस मॉडल का विस्तार हो, इसे राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाए, इसे डिजिटल डैशबोर्ड से जोडें. महापौरों और जिला कलेक्टरों के लिए निराश्रित पशु नियंत्रण को एक प्रदर्शन मानदंड बनाएं.
उत्तर प्रदेश मॉडल 

भारत चांद पर रॉकेट भेज सकता है, लेकिन छत वाले कुत्तों के रहने की जगह नहीं बना सकता. हम गायों की पवित्रता का कानून बना देते हैं लेकिन उन्हें प्लास्टिक की धीमी मौत से नहीं बचा पाते. हम डॉग लव का हैशटैग लगाते हैं और फिर कुत्ता काटने से बच्चे की मौत पर चुप हो जाते हैं. यह करुणा नहीं है- यह आपराधिक लापरवाही है, जिसे फूलों, मोमबत्ती जुलूसों और सोशल मीडिया ट्रेंड्स से सजाया गया है.
सच्ची सहानुभूति सड़क पर बिखरे ब्रेड के टुकड़े (या प्लास्टिक) नहीं हैं; यह तो दांतों वाली नीति है. अगर ऐसा ही रहा तो निराश्रित जानवरों के साथ भारत का प्रेम वैसा ही रहेगा जैसा हमेशा से रहा है: खून, गोबर और पाखंडी प्रेम कहानी.

