विश्लेषण:भाजपा की बी टीम कहे जाने की मायावती को क्यों परवाह नही है?

मायावती को भाजपा की B-टीम कहलाने की परवाह क्यों नहीं? योगी की प्रशंसा का अर्थ समझिए
लखनऊ में बसपा की महारैली में पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा कर उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी है. आखिर मायावती को यह कदम क्यों उठाना पड़ा?

“बसपा की लखनऊ रैली में मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं में तो प्राण फूंके ही, अपने राजनीतिक विरोधियों में हलचल भी मचा दी.

नई दिल्ली,09 अक्टूबर 2025,लखनऊ के कांशीराम स्मारक स्थल पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की महारैली में कुछ ऐसा हुआ जो कोई सोच नहीं सकता था.आज तक ऐसी रैलियों में विपक्ष का मूल निशाना वर्तमान सरकार पर होता आया है पर यहां इसका उलटा ही दिखा.बसपा प्रमुख मायावती ने कांशीराम की 19वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि देते हुए इस रैली में योगी आदित्यनाथ सरकार को सराहा.साथ ही प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव पर जमकर निशाना साधा.उन्होंने कहा,हम मौजूदा सरकार (योगी सरकार) के आभारी हैं,क्योंकि उन्होंने हमारे बनवाए स्मारक स्थलों के रखरखाव को टिकट से मिली राशि का सही उपयोग किया.मायावती का कहना था कि भाजपा सरकार ने पैसा दबाया नहीं,सपा जैसी नहीं है यह पार्टी.साथ ही, सपा पर आरोप लगाया कि वे सत्ता में रहते PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) भूल जाते हैं, लेकिन विपक्ष में आते ही याद आ जाता है.
मायावती ने योगी सरकार की प्रशंसा कर विपक्ष को बोलने का मौका दे दिया.जाहिर है कि उन पर भाजपा की बी टीम बनने का आरोप लगेगा.पर मायावती भी राजनीति की मझी हुईं खिलाड़ी हैं.राजनीतिक शतरंज की गोटियों को कब,कहां कैसे इस्तेमाल करना है वो भली भांति जानती हैं.आखिर यूं ही थोड़ी न उन्हें तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है.योगी की यह प्रशंसा यूं ही नहीं थी,बल्कि एक सोची-समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा लगती है.आइए इसके अर्थ समझते हैं.

वो कह रही हैं कि दलित अपने दोस्‍त और दुश्‍मन पहचान लें
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महारैली में मायावती ने दलित समुदाय को एक स्पष्ट संदेश दिया कि अपने दोस्त और दुश्मन को पहचान कर लो. यह बयान केवल भावनात्मक अपील नहीं, बल्कि एक रणनीतिक चाल है, जिसका उद्देश्य दलित वोटबैंक एकजुट करना और समाजवादी पार्टी (सपा) का बढ़ता प्रभाव रोकना है.

मायावती ने कहा कि सपा ने सत्ता में रहते स्मारकों की उपेक्षा की और कासगंज जिले का नाम कांशीराम नगर से बदल दिया. यह बयान दलितों को यह समझाने की कोशिश थी कि सपा उनकी अस्मिता का सम्मान नहीं करती, जबकि भाजपा (योगी सरकार) ने कम से कम प्रतीकों का ध्यान रखा. मायावती का यह कथन, सपा सत्ता में PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) भूल जाती है, लेकिन विपक्ष में याद आता है,. सपा को उन्होंने दलित विरोधी और दोगला तक कहा.

मायावती का यह संदेश 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले दलित वोटबैंक को सपा के PDA फॉर्मूले से बचाने की रणनीति है. 2022 में बसपा का वोट शेयर 12.9% और 2024 लोकसभा में 6% तक गिर गया. सपा का दलित-मुस्लिम गठजोड़ बसपा को खतरा बना है. मायावती ने दलितों को दुश्मन (सपा) और दोस्त (बसपा या भाजपा) का अंतर समझाने की कोशिश की. योगी की प्रशंसा से वह भाजपा को दलितों के लिए स्वीकार्य दिखा रही हैं, जिससे सपा का विपक्षी कद कमजोर हो. मायावती ने CBI केस को षडयंत्र बताकर और राष्ट्रीय मुद्दों पर बोलकर दलित अस्मिता मजबूत की. उनका  उद्देश्य दलितों को यह विश्वास दिलाना है कि बसपा ही उनकी सच्ची हितैषी है.

वो जानती हैं कि उनके वोटबैंक पर हमला किसने किया है

मायावती ने समाजवादी पार्टी और उसके PDA फॉर्मूले को निशाना बनाया. मायावती अच्छी तरह जानती हैं कि उनके दलित वोटबैंक पर सबसे बड़ा हमला सपा से हो रहा है, खासकर उसकी PDA रणनीति और जातिगत जनगणना की मांग से. यह रैली बसपा का खिसकता जनाधार बचाने और 2027 उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले सपा का प्रभाव तोड़ने की कोशिश थी.

सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 2024 लोकसभा चुनाव में PDA को अपनी मुख्य रणनीति बनाया, जिसका असर उत्तर प्रदेश में सपा की 37 सीटों की जीत में दिखा. इस फॉर्मूले ने दलित-मुस्लिम-OBC गठजोड़ मजबूत किया, जो पहले बसपा का कोर वोटबैंक था. मायावती ने रैली में सपा को दोगला बताते हुए कहा कि वह सत्ता में रहते PDA भूल जाती है, लेकिन विपक्ष में इसका ढोंग करती है.

सपा और कांग्रेस की जातिगत जनगणना की मांग को मायावती ने राजनीतिक स्वार्थ करार दिया. मायावती जानती हैं कि जातिगत जनगणना से सपा को OBC और गैर-जाटव दलित वोटरों का समर्थन मिल सकता है, जो बसपा का जाटव-दलित आधार कमजोर करेगा. रैली में उन्होंने कांग्रेस पर भी निशाना साधा कि उसने बाबा साहब अंबेडकर को भारत रत्न नहीं दिया, जिससे दलितों में कांग्रेस के प्रति नाराजगी बनी रहे.

वो समझ गई हैं कि भाजपा से उन्‍हें सीधा कोई खतरा नहीं है

मायावती समझ चुकी हैं कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) उनके दलित वोटबैंक के लिए सीधा खतरा नहीं है, बल्कि सपा का PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूला उनकी राजनीतिक जमीन खिसका रहा है. भाजपा की ओर से मायावती के खिलाफ कभी प्रत्यक्ष हमलावर रुख न अपनाने ने भी उनकी यह समझ मजबूत की है. भाजपा ने मायावती या बसपा के खिलाफ कभी तीखी बयानबाजी नहीं की, जैसा कि वह सपा या कांग्रेस के खिलाफ करती है.

मायावती और भाजपा में 1995,1997 और 2002-03 में गठबंधन का इतिहास भी इस नरम रुख को बल देता है. गेस्ट हाउस कांड के समय मायावती को बचाने आगे आए भाजपा नेता ब्रह्मदत्त द्विवेद्वी रहे हों या मुख्यमंत्रख कार्यालय के आदेश के खिलाफ राज्यपाल से मिलकर मायावती की सुरक्षा को पुलिस प्रबंध की बात रही हो, हर जगह भाजपा आगे रही.

मायावती जानती हैं कि उनका कोर दलित वोटबैंक, खासकर जाटव और गैर-जाटव दलित, सपा के PDA फॉर्मूले की ओर खिसक रहा है.भाजपा और बसपा का कोर वोटर भी एक नहीं हैं. जबकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी लगतार बसपा के कोर वोटर्स को तोड़ने में जुटे हैं.

वो जता रही हैं कि दलित राजनीति में आज भी वो एक शक्ति हैं

लखनऊ के कांशीराम स्मारक स्थल पर आयोजित बहुजन समाज पार्टी की महारैली में मायावती ने दुनिया को दिखा दिया कि वह दलित राजनीति में आज भी महत्वपूर्ण शक्ति हैं. इस रैली में 5 लाख से अधिक कार्यकर्ताओं की भीड़, मायावती का 3 घंटे तक मंच पर डटे रहना और योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा के साथ समाजवादी पार्टी (सपा) पर तीखा हमला, उनकी प्रासंगिकता और रणनीतिक चातुर्य दर्शाता है. यह रैली 2027  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले दलित वोटबैंक एकजुट करने और बसपा को दलित राजनीति का केंद्र बनाए रखने की कोशिश है.
मायावती ने कांशीराम और बाबा साहब अंबेडकर के प्रतीकों को रैली का आधार बनाया. उन्होंने सपा पर कासगंज का नाम कांशीराम नगर से बदलने और स्मारकों की उपेक्षा का आरोप लगाकर दलित भावनाओं को भड़काया. साथ ही, CBI केस को षडयंत्र बताकर खुद को दलित उत्पीड़न का शिकार जताया. यह सब दलितों में यह विश्वास जगाने को था कि मायावती ही उनकी सच्ची नेता हैं.

रैली में मायावती के भाई आनंद, भतीजे आकाश और सतीश चंद्रा मिश्रा की मौजूदगी ने संगठनात्मक एकता दिखाई. राष्ट्रीय विषयों (जैसे ट्रंप के टैरिफ) पर बोलकर उन्होंने अपनी राष्ट्रीय छवि भी मजबूत की. यह सब दर्शाता है कि मायावती दलित राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने को आक्रामक रणनीति से काम कर रही हैं. वह दलितों को संदेश दे रही हैं कि बसपा ही उनकी अस्मिता और हितों की रक्षक है।
राजनीतिक अस्तित्व की जंग

बसपा का वोट शेयर 2022 विधानसभा में 12.9% और 2024 लोकसभा में 6% तक सिमट गया. सिर्फ 1 सीट (2022) और कोई लोकसभा सीट न जीतना पार्टी कौ खतरे की घंटी है. मायावती की प्राथमिकता अपनी पार्टी को 2027 उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रासंगिक बनाए रखना है.

यही कारण है कि इस समय मायावती का फोकस दलित वोटबैंक एकजुट करना और सपा का PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूला तोड़ना है. इसके लिए अगर कोई भाजपा की B-टीम कहता है तो कहता रहे,उन्हे अंतर नहीं पड़ता. क्योंकि उनका मुख्य मुकाबला सपा और कांग्रेस से है, जो दलित वोट छीन रही हैं. B-टीम का टैग इस संदर्भ में मायावती के लिए नुकसानदायक नहीं, क्योंकि गठबंधन की स्थिति में वह इसे अपने फायदे में बदल सकती हैं.

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